Friday, April 9, 2010
सूचना के अधिकार पर फिर सोनिया और मनमोहन में मतभेद!
(sansadji.com)
कांग्रेस अध्यक्ष एवं रायबरेली से सांसद सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच सूचना के अधिकार अधिनियम में बदलाव को लेकर एक बार फिर अलग-अलग रुख सामने आने से इसका पूरे देश में गलत संदेश जा रहा है। पिछले महीने के पहले सप्ताह भी ये मामला मीडिया की सुर्खियां बना था, एक बार फिर वही सुगबुगाहट चर्चाओं में है।
प्रधानमंत्री का कहना है कि कानून में संशोधन किये बिना कुछ मुद्दों को नहीं सुलझाया जा सकता है, जबकि सोनिया गांधी इसमें बदलाव के पक्ष में नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 10 नवंबर 2009 को लिखे पत्र में सोनिया गांधी ने कहा है कि मेरे विचार से इसमें किसी संशोधन की जरूरत नहीं है। इसमें केवल एक अपवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में हो सकता है, जिस पर कानून में ध्यान रखा गया है। कानून केवल चार वर्ष पुराना है और सरकारी ढांचे में वृहद पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने में गति पकड़ने में अभी समय लगेगा, लेकिन प्रक्रिया शुरू हो गई है और इसे मजबूत बनाये जाने की जरूरत है। दोनों शीर्ष राजनेताओं के बीत इसी तरह की मतभेद पिछले महीने भी उभर कर चर्चाओं में आए थे, जब प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी की बात ठुकरा दी थी। उस समय जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को यह साफ-साफ जतला दिया था कि वे इस अधिनियम में कोई संशोधन नहीं चाहतीं। इसके बाद प्रधानमंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष को पत्र लिखकर कहा था कि सूचना अधिकार अधिनियम में संशोधन करने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तावित सुधार के अंतर्गत इस अधिनियम के दायरे में भारत के मुख्य न्यायाधीश नहीं आएंगे। साथ ही नीति संबंधी फैसलों पर बहस को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
आइए एक नजर डालते हैं पिछले दो दशक के अतीत पर, जब इस विधेयक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बनी और यह अमल में आया था, साथ ही बार-बार इसे राज्य की आंतरिक ऊहापोह से भी गुजरते रहना पड़ा था। सर्वप्रथम 1993 में उपभोक्ता शिक्षा और अनुसंधान परिषद, अहमदाबाद ने सूचना का अधिकार कानून का एक प्रारूप प्रस्तावित किया। 1996 में जस्टिस पी बी सावंत की अगुवाई में भारतीय प्रेस परिषद ने सूचना का अधिकार कानून का एक प्रारूप तैयार कर भारत सरकार को दिया. सी प्रारूप को बाद में संर्वधित कर एक नया नाम पीसीआई-एनआईआरडी सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 1997 नाम दिया गया। दुर्भाग्यवश सरकार ने इस कानून के किसी भी प्रारूप पर ध्यान नहीं दिया। इस बीच, मजदूर किसान शक्ति संगठन की पहल पर सूचना के जनाधिकार के राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) का उदय हुआ, जिसका गठन राष्ट्रीय स्तर पर सूचना का अधिकार की मांग को बल देने के लिए किया गया था। दिल्ली में 1996 में शुरू हुए इस अभियान का उद्देश्य था, सूचना के अधिकार के लिए जमीनी स्तर पर चल रहे अभियानों को समर्थन देना साथ ही ऐसा दबाव समूह तैयार करना जो सूचना कानून को प्रभावी ढ़ंग से लागू करवाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकें। 1997 में राज्य और केंद्र दोनो स्तर पर सूचना का अधिकार कानून बनाने के प्रयासों में तेजी आई। केंद्र सरकार ने एच.डी. शौरी (शौरी कमेटी ) की अध्यक्षता में एक कार्यकारी समूह की स्थापना की। इस समिति को सूचना के स्वतंत्रता पर कानून का प्रारूप तैयार करने का काम सौंपा गया। शौरी समिति की रिपोर्ट और कानून का प्रारूप 1997 में प्रकाशित किया गया। उल्लेखनीय है कि इसमें सूचना प्रदान करने को लेकर समुचित की कमी के चलते इस प्रारूप की काफी आलोचना भी हुई थी। शौरी कमेटी की यह रिपोर्ट लगातार दो सरकारों के समक्ष आई लेकिन किसी ने भी इसे संसद में पेश नहीं किया। इसी बीच 1997 में तत्कालीन शहरी विकास मंत्री राम जेठमलानी ने एक प्रशासनिक आदेश जारी लोगों को अपने मंत्रालय की फाईलों के निरीक्षण तथा छायाप्रति प्राप्त करने का अधिकार देने की पहल की लेकिन कैबिनेट सचिव ने इस आदेश को प्रभावी नहीं होने दिया।
आखिरकार शौरी समिति द्वारा तैयार प्रारूप को ही संशोधित कर सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2002 बनाया गया लेकिन इस विधेयक के प्रावधान शौरी समिति के प्रावधानों से भी कमज़ोर थे। इस विधेयक को गृह मामलों की स्थायी संसदीय समिति के पास भेजा गया जिसने 2001 में अपनी रिपोर्ट सौंपने से पहले सामाजिक संगठनों के साथ इस पर सलाह-मशविरा किया। संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में सरकार से विधेयक के प्रारूप सामाजिक संगठन द्वारा उठाए गए मुद्दों का समाधान करने को कहा, लेकिन दुर्भाग्यवश सरकार ने इस विधेयक को अंतिम रूप देते वक्त इन सुझावों पर अमल नहीं किया।
राष्ट्रीय स्तर पर सूचना का अधिकार कानून लागू करने के लिए सूचना की स्वंतत्रता विधेयक 2002 नाम से एक विधेयक संसद वर्ष 2002 में पेश किया गया। दिसंम्बर, 2002 में संसद में पास होने के बाद जनवरी 2003 में इसे राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिली और यह सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2002 कघ् नाम से जाना गया, लेकिन दुर्भाग्यवश इस अधिनियम को अधिसूचित करने की तारीख कभी घोषित नहीं हुई जिसके चलते यह कभी प्रभावी ही नहीं हो सका। मई, 2004 में केंद्र में नए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। सरकार बनते वक्त सूचना के अधिकार के जन अभियान को उस वक्त और बल मिला जब नई सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में वादा किया सूचना का अधिकार कानून को और प्रगतिशील, सहभागी और अर्थपूर्ण बनाया जाएगा। सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के क्रियान्वयन की निगरानी करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की स्थापना की गई। शुरूआत से ही परिषद ने सूचना के अधिकार में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी थी। 17 जुलाई 2004 को पहली ही बैठक के दौरान सदस्यों ने परिषद के समक्ष सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान की ओर से एक बयान पेश किया जिसमें परिषद से सूचना के अधिकार पर सक्रियता की मांग रखी गई थी। इस विचार विर्मश को आगे बढ़ाते हुए सीएचआरआई ने परिषद और सभी मंत्रिमंडल सदस्यों के समक्ष अपने सुझाव और सूचना का स्वतंत्रता अधिनियम का विश्लेषण प्रस्तुत किया।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की पहली बैठक के बाद अरूणा राय सरकार के प्रमुख घटकों से मिलीं, जिन्होंने सुझाव दिया कि सामाजिक संगठन सूचना के स्वतंत्रता अधिनियम में संशोधनों पर एक पत्र तैयार कर सरकार को प्रस्तुत करे। सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 में कुछ सुधारों और पुन:संशोधनों के एनसीपीआरआई के प्रस्ताव को 31 जुलाई, 2004 को परिषद की दूसरी बैठक में प्रस्तुत किया गया। परिषद ने इस संशोधनों और सुझावों को पारित कर दिया। राष्ट्रीय सलाहकार की परिषद की सदस्य अरूणा राय और ज्यां द्रेज ने पहले दो बैठकों में परिषद को इस मुद्दे पर अद्यतन जानकारी मुहैया कराते रहे।
इसी बीच एनसीपीआरआई और सेंटर फॉर पब्लिक इंट्रेस्ट लेटिगेशन की ओर से अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाल रखी थी जो 2002 में दाखिल हुई थी। इस याचिका से भी केंद्र सरकार पर सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 को प्रभावी रूप से लागू कराने की दिशा में दवाब बन रहा था। 20 जुलाई 2004 को इस मामले की सुनवाई में अदालत ने सरकार से कहा कि वह 15 सितंबर 2004 तक यह स्पष्ट करे कि सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम की अधीसूचना कब जारी की जाएगी अधवा इसके लिए अंतरिम प्रशासनिक आदेश कब जारी किए जाएंगे।
12 अगस्त 2004 को भारत सरकार के लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के प्रशासनिक सुधार विभाग की ओर से सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 के बारे में नियमावली का मसौदा जारी किया गया। सीएचआरआर ने 14 अगस्त को इस नियमावली की समीक्षा करते हुए एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की। इस बीच 14 अगस्त, 2005 को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की तीसरी बैठक हुई। इसमें सी एच आर आई ने परिषद के समक्ष इस अधिनियम के मसौदे के संबंध में अपने सुझाव रखे। परिषद ने इन सुझावों को अपने अंतिम सुझावो में सम्मिलित किया। परिषद से मंज़ूरी मिलने के बाद परिषद की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज दिया। 18 सितंबर, 2004 को जारी एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सुझावों के आधार पर सूचना के अधिकार अधिनियम में संशोधन करने के लिए एक विधेयक लाएगी।
इसके बाद शीतकालीन सत्र में सरकार सूचना का अधिकार विधेयक 2004 लेकर आई जिसे लोकसभा में 23 दिसंबर पेश किया गया। सूचना का अधिकार विधेयक 2004 मुख्यत: राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा सरकार को दिए गए सुझावों पर आधरित था। (जो प्रमुखत: एनसीपीआरआई के मूल ड्राफ्ट विधेयक पर आधारित थे, एनसीपीआरआई ने सूचना का अधिकार विधेयक 2004 तथा और सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 तथा एनसीपीआरआई के मूल सुझावों का एक तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया था, सीएचआरआई द्वारा तैयार विधेयक की समीक्षा भी प्रस्तुत की गई थी) सूचना का अधिकार विधेयक 2004 को संसद में कार्मिक एवं जनशिकायत और कानून तथा न्याय विभाग की स्थायी समिति को विचारार्थ भेज दिया। सीएचआरआई ने भी 14 व 15 फरवरी 2005 कघ् संसद की स्थाई समिति के समक्ष अपना पक्ष रखने से पहले अपने सुझाव स्थायी समिति को भेज दिए। विभिन्न नागरिकों तथा समाजिक संगठनों ने अपने साक्ष्य और सुझाव समिति को प्रस्तुत किए। सीएचआरआई ने 21 फरवरी को पुन: समिति को इस विधेयक पर अपने पूरक अनुरोध से अगवत कराया।
21 मार्च, 2005 को समिति की रिपोर्ट (सूचना का अधिकार विधेयक में प्रस्तावित संसोधन संस्करण सहित) लोकसभा में रखी गई। समिति द्वारा सूचना का अधिकार 2004 विधेयक में प्रस्तावित परिवर्तन सीएचआरआई द्वारा रिपोर्ट की सारणीबद्व और विषयों के गहन विवरण में रेखांकित किए गए। सीएचआरआई ने समिति की रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए अपने सुझाव केंद्रीय मंत्रिमंडल के समक्ष भी प्रस्तुत किए। 10 मई, 2005 को सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2005 लोकसभा में प्रस्तुत किया गया (इसमें संसद की स्थाई समिति के बहुत सारे सुझावो को शामिल किया गया था)। शीघ्र ही विधेयक पास हो गया, इसे 11 मई, 2005 को लोकसभा तथा 12 मई को राज्यसभा से मंज़ूरी मिली तथा 15 जुन, 2005 को राष्ट्रपति कलाम ने सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 पर अपनी सहमति दे दी। राष्ट्रपति की सहमति के बाद केंद्र और राज्य सरकारों को इस विधेयक के प्रावधानों का अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर 120 दिनो के अंदर क्रियान्वित करना था। अधिनियम औपचारिक तौर पर 12 अक्टूबर, 2005 को प्रभाव में आ सका।
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