Tuesday, August 4, 2009

ब्लॉग से कमाइए लाखो, करोड़ों रुपये

ब्लॉग कमाई का जरिया हो गए हैं। .आई.टी. के छात्र रहे अमित अग्रवाल आई.बी.एम. में अपनी नौकरी छोड कर पूरी तरह ब्लॉग पर निर्भर हो गए है। कमाई नौकरी वाली तनख्वाह से ज्यादा है। दुनिया में ब्लॉग से सबसे ज्यादा कमाई करने वालों में केविन रोस है जिन्होंने डेढ साल की अवधि में अपने ब्लॉग से लगभग २४ करोड रुपये कमा लिए। भड़ास के एग्रीगेटर्स यशवंत सिंह ब्लॉग से ही काम शुरू कर न्यूज पोर्टल चलाने लगे। अब वह लाखो रुपये कमा रहे हैं। जैसे-जैसे ब्लॉग्ज की संख्या बढती जा रही है, उनमें दिलचस्पी रखने वालों के लिए उनकी खोज-खबर रख पाना कठिन होता जा रहा है। इस मुश्किल को आसान किया है एग्रीगेटर्स ने। एग्रीगेटर्स यानी संकलक। चिट्ठा जगत्, ब्लॉगवाणी, नारद, हिन्दी ब्लॉग्ज ऐसी ही कुछ लोकप्रिय एग्रीगेटर्स हैं जहाँ आपको एक साथ तमाम ब्लॉग्ज की सूचना मिल जाती है।


यह ब्लॉग की क्षमता नहीं तो और क्या है कि ऐसे अनेक लोग भी इससे तेजी से अपनाते जा रहे हैं, जिनकी बात को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए पारम्परिक सूचना तंत्र लालायित रहता है। मेरा इशारा लोकप्रिय फिल्मी सितारों और बडे राजनेताओं की तरफ है। निश्चय ही यह इस नए माध्यम ब्लॉग की कुछ विशेषताओं और इसकी बढती लोकप्रियता का प्रमाण है। हम इन बातों पर विचार करें, उससे पहले ब्लॉग क्या है, इसका थोडा परिचय पा लेना उचित होगा।


ब्लॉग अंग्रेजी के दो शब्दों वेब(ॅमइ) और लॉग(स्वह) से मिलकर बना एक शब्द है। यानी एक ऐसी डायरी जिसे वेब पर लिखा गया है। विकीपीडिया में ब्लॉग को कुछ इस तरह परिभाषित किया गया है ः ब्लॉग (वेब लॉग का संक्षिप्त रूप) एक ऐसी बेव साइट का नाम है जिसे आम तौर पर व्यक्तिगत रूप से संचालित किया जाता है। इसमें नियमित रूप से प्रविष्टियों के रूप में टिप्पणियाँ, घटनाओं के वृत्तांत या अन्य सामग्री जैसे चित्र या वीडियो प्रस्तुत किए जाते हैं।
यहीं यह बात भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जहाँ डायरी सामान्यतः व्यक्तिगत लेखन होता है (साहित्यिक विधा डायरी की बात अलग है) वहीं ब्लॉग व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक लेखन की एक शैली और तकनीक है। जो कुछ वेब या नेट पर डाला जाता है, स्वाभाविक है कि वह निजी नहीं होता, सार्वजनिक ही होता है। विचार अलबत्ता निजी होते हैं लेकिन उनका प्रकटीकरण सार्वजनिक उपभोग के लिए होता है। इस तरह ब्लॉग एक खास किस्म का लेखन और प्रकाशन है।

अभी हमने ब्लॉग का जो परिचय दिया वह सैद्धांतिक परिचय है। जबकि आज का ब्लॉग इससे बहुत आगे निकल चुका है। जैसा कि हर विधा के साथ होता है, उसके प्रयोक्ता उसके रूपाकार में अपनी सुविधानुसार परिवर्तन करते रहते हैं। ब्लॉग के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। हमने इसे निजी अभिव्यक्ति का माध्यम बताया, लेकिन लोगों ने ब्लॉग का उपयोग इससे हटकर भी किया है। बहुतों ने ब्लॉग पर अपनी मनपसन्द रचनाएँ या कृतियाँ डाल दी हैं। किसी को महादेवी वर्मा का एक गीत पसन्द आया, उसने उसी को अपने ब्लॉग पर डाल दिया। किसी ने तो पूरी की पूरी किताब, जैसे रामचरित मानस ही (अपनी या किसी और की) ब्लॉग पर डाल दी। बात लिखित शब्द तक ही सीमित नहीं रही। चित्र चलचित्र और संगीत भी ब्लॉग की परिधि में सिमट आए हैं। अपनी पसन्द की, या अपने परिवार की तस्वीरें अपने या किसी और के गाए-बाजाए गाने, कोई वीडियो क्लिप या किसी फिल्म का कोई दृश्य-ये सब अब ब्लॉग में सिमटते जा रहे हैं।
एक संस्था ने भारत में ब्लॉग के मंच से नागरिक पत्रकारिता की भी शुरुआत की है। आगे-आगे देखिए होता है क्या!

ब्लॉग की विधिवत् शुरुआत से पहले भी लोग अनेक प्रकार से इण्टरनेट पर खुद को अभिव्यक्त करने के प्रयास करते रहे हैं। अभिव्यक्ति के अनेक निःशुल्क मंच पहले भी उपलब्ध रहे हैं। नब्बे के दशक के प्रारम्भ में जियोसिटीज डॉट कॉम, ट्राइपोड डॉट कॉम, ८के डॉट कॉम, होमपेज डॉट कॉम, एंजेलफायर डॉट कॉम, गो डॉट कॉम आदि लोगों की निजी होमपेज बनाने की सुविधा दे देने लगे थे, और इनमें से अनेक आज भी सक्रिय हैं। लेकिन इन पर होम पेज बनाने में एक बडी बाधा यह थी कि उसके लिए थोडा-बहुत तकनीकी ज्ञान जरूरी था, इसीलिए ये प्रयास सफल तो हुए लेकिन अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए। आज जो ब्लॉग लोकिप्रय हुआ है उसके मूल में इसकी सरलता है। आज ब्लॉग बनाना लगभग उतना ही आसान है जितना ई मेल खाता खोलना है।
ऐसा माना जाता है कि आधुनिक ब्लॉग का उद्गम ऑनलाइन डायरी से हुआ है। ऑनलाइन डायरी में लोग अपनी जन्दगी के बारे में लिखा करते थे और वे खुद को डायरीकार या पत्रकार कहते थे। अब यह माना जाता है कि स्वार्थमोर कॉलेज का एक विद्यार्थी दुनिया का पहला ब्लॉगर था। पत्रकार जस्टिन हॉल, जिन्होंने १९९४ में पर्सनल ब्लॉगिंग की शुरुआत की, जेरी पुर्मले और डेव वाइनर्स को भी दुनिया के आरम्भिक ब्लॉगर्स में गिना जाता है। डेव वाइनर्स के स्क्रिप्टिंग न्यूज को दुनिया के प्राचीनतम और सबसे लम्बे चलने वाले ब्लॉग में से एक माना जाता है। असल में तो ये डेरी वाइनर्स ही हैं जिन्होंने ब्लॉगिंग की अवधारणा को स्पष्ट किया और लोगों को अपने विचार इण्टरनेट पर व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। दिसम्बर १९९७ में जोर्न बार्गर ने रोबोट विजडम डॉट कॉम की शुरुआत की और वहीं पहली बार वेब लॉग शब्द प्रयुक्त हुआ। यह भी कहा जाता है कि डॉ ग्लेन बेरी ने फॉरेस्ट प्रोटेक्शन ब्लॉग नाम से दुनिया का पहला राजनीतिक ब्लॉग १९९३ में ही शुरू कर दिया था। इस ब्लॉग की १९९५ से नियमितता ने इसे दुनिया के सबसे पुराने और अब तक चल रहे ब्लॉग के रूप में मान्यता दिलाई है। जैसे-जैसे तकनीक का विकास होता गया, नए उपकरण आते गए और ब्लॉग्ज की लोकप्रियता में वृद्धि होती गई। पिछली शताब्दी के अंतिम वर्षों में यह लोकप्रियता आशातीत रूप से बढी। एक ब्लॉग कम्पनी टैक्नोरैटी के अनुसार जुलाई २००७ तक दुनिया में ९.३८ करोड ब्लॉग थे।
जहाँ तक हिन्दी में ब्लॉगिंग का प्रश्न है, बता दूँ कि हिन्दी में इसकी शुरुआत दो मार्च २००३ से मानी जाती है। इस तरह शुरुआत के लिहाज से हिन्दी ब्लॉग अंग्रेजी ब्लॉग से पीछे है। संख्या की दृष्टि से तो और भी अधिक पीछे। अंग्रेजी में अगर ब्लॉग की संख्या दस करोड पार कर चुकी है तो हिन्दी में इस समय (२००८ के मध्य में) ५००० के आसपास ब्लॉग हैं, लेकिन यह संख्या तेजी से बढती जा रही है। वैसे, ब्लॉग की दुनिया में एशिया ने अपना दबदबा कायम किया है। ऊपर हमने जिस टैक्नोरैटी संस्था का जक्र किया, उसके अनुसार विश्व के कुल ब्लॉगों में से ३७ प्रतिशत जापानी भाषा में हैं, और ३६ प्रतिशत अंग्रेजी में। कोई आठ प्रतिशत ब्लॉगों के साथ चीनी तीसरे नम्बर पर है। हिन्दी से अधिक ब्लॉग तो तमिल में लिखे जा रहे हैं। हिन्दी ब्लॉग की संख्या कुछ को आश्वस्त करती है, तो कुछ को निराश। हिन्दी तकनीकी दुनिया के चमकते सितारे रवि रतलामी का कहना है, जब तक हिन्दी ब्लॉग लेखकों की संख्या एक लाख से ऊपर न पहुँच जाए और किसी लोकप्रिय चिट्ठे को नित्य दस हजार लोग नहीं पढ लें तब तक संतुष्टि नहीं आएगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की गति अत्यंत धीमी है।
रवि रतलामी की चिंता अपनी जगह सही है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की स्थितियाँ, विशेष रूप से शिक्षा और तकनीक की सुलभता की स्थितियाँ विकट हैं। इसी के साथ यह बात भी जोड कर देखना जरूरी है कि अभी भी लोगों के मन में यह धारणा है कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में काम या तो नहीं किया जा सकता या बहुत मुश्किल है। जबकि सच्चाई इससे भिन्न है। अब कम्प्यूटर पर हिन्दी में सब कुछ किया जा सकता है और वह भी बिना किसी अतिरिक्त परेशानी के। लेकिन जो धारणा एक बार प्रचलित हो जाती है, उसके उन्मूलन में वक्त तो लगता ही है।
यह धारणा अपनी जगह और ब्लॉग अपनी जगह। आज हिन्दी में ब्लॉग लिखने वालों में अकिंचन्, मामूली, अनजान लोगों से लगाकर सेलिब्रिटीज तक सब शामिल हैं। ऐसे लोग भी ब्लॉग लिखते हैं जो शुद्ध भाषा भी नहीं लिख सकते, और वे लोग भी जो बहुत नामचीन विद्वान् हैं। यह परिदृश्य आश्वस्त तो करता ही है।

ब्लॉग एक अर्थ में तो लेखन के जनतंत्र का अनुपम उदाहरण है। जैसे जनतंत्र में हरेक को अपनी बात कहने का हक है, उसी तरह ब्लॉग की दुनिया के दरवाजे छोटे-बडे सबके लिए खुले हैं। सभी को समान अधिकार यहाँ प्राप्त हैं। आपकी अभिव्यक्ति पर किसी का पहरा या नियंत्रण नहीं है। कोई वैधानिक, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक वगैरह नियंत्रण यहाँ नहीं है। केवल आप ही अपनी बात कहने को आजाद नहीं हैं, आपकी बात पढकर पाठक उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने को भी उसी तरह आजाद है। वह प्रतिक्रिया भी किसी सम्पादन की राह से नहीं गुजरती। ब्लॉग पर कोई सम्पादकीय, कानूनी या संस्थागत नियंत्रण न होना इसकी सबसे बडी ताकत है तो कमजोरी भी है। पिछले दिनों हिन्दी ब्लॉग जगत् में भी इस कमजोरी की परिणतियाँ देखने को मिलीं। आप चाहे अश्लील सामग्री परोसें या गाली-ग्लौज करें, ब्लॉग आप पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाता। लेकिन ब्लॉग के पाठक अपनी प्रतिक्रियाएँ देकर इस जनतंत्र को मजबूत बनाते हैं, और यह विश्वास मजबूत करते हैं कि जनता की समझ सर्वोपरि होती है।
ब्लॉग भौगोलिक सीमाओं से भी पूरी तरह आजाद है। किसी छोटे-से, दूरस्थ गाँव में लिखा गया ब्लॉग भी पूरी दुनिया में देखा-पढा जा सकता है। इसमें यह बात और जोड दीजिए कि तत्काल पढा जा सकता है। जिस क्षण आप ब्लॉग लिख कर प्रकाशित करते हैं, लगभग उसी क्षण वह पूरी दुनिया के लिए सुलभ होता है। यह कोई मामूली बात नहीं है।
एक और बात यह है कि अभिव्यक्ति का यह माध्यम अधिक खर्चीला भी नहीं है। इण्टरनेट चलने का जो खर्च है कुल जमा वही तो खर्च करना पडता है आपको। भारत जैसे देश में भी, जहाँ यह नई तकनीक अपेक्षाकृत विलम्ब से आई, अब इण्टरनेट बहुत सस्ता हो गया है। बडे शहरों में तो साइबर कैफे में जाकर दस रुपये में एक घण्टे इण्टरनेट इस्तेमाल किया जा सकता है, और कहना अनावश्यक है कि ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखने के लिए एक घण्टा बहुत अधिक होता है।
फिर, यह माध्यम तुरंत प्रतिक्रिया करने का अवसर भी देता है। आपने कोई ब्लॉग देखा-पढा और चाहा तो उसी पर अपनी प्रतिक्रिया कर दी। वह प्रतिक्रिया भी तुरन्त ब्लॉग लेखक तक और शेष सारे पाठकों तक पहुँच जाती है। किसी भी अन्य माध्यम में प्रतिक्रिया की यह त्वरितता कहाँ है?

ब्लॉग की बढती लोकप्रियता के मूल में है सरलता। यह सरलता क्रमशः आई है। ब्लॉग का पूर्व रूप जिस जिओसिटीज को माना जाता है, उसमें यह सरलता नहीं थी। जब हम जिओसिटीज की बात करते हैं तो यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि इण्टरनेट की दुनिया भी काफी हद तक मुदि्रत शब्द वाली दुनिया जैसी ही है। आप अगर कोई किताब छपवाना चाहते हैं, पत्रिका निकालना चाहते हैं, किसी पत्रिका में कोई रचना छपवाना चाहते हैं तो आपको अनेक दरवाजों से गुजरना होता है। किताब छपवाने के लिए एक प्रकाशक की तलाश करनी पडती है, उसे अपनी किताब छापने के लिए राजी करना पडता है, प्रकाशक भी आपकी रचना की परख करता या करवाता है, फिर वह कागज, टाइपिस्ट, प्रेस वगैरह जुटाता है और जब किताब छपकर तैयार हो जाती है तो विक्रेता की जरूरत पडती है। इसी तरह जब आप कोई लेख कविता कहानी लिखते हैं और चाहते हैं कि वह कहीं छपे तो आप उसे किसी पत्रिका के सम्पादक के नाम भेजते हैं, सम्पादक उस पर विचार करता है और अगर उस रचना को उपयुक्त पाता है तो लगभग उन्हीं सारी प्रक्रियाओं से गुजरकर, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया, वह रचना पत्रिका में प्रकाशित होकर पाठक तक पहुँचती है।
अब अगर यही काम आप इण्टरनेट यानी अंतर्जाल पर करना चाहें तो? आफ पास इण्टरनेट कनेक्शन युक्त कम्प्यूटर होना चाहिए। साइबर स्पेस में कुछ जगह आफ पास होनी चाहिए (जिसे आप किराये पर लेते हैं), आफ प्रकाशन का अपना नाम होना चाहिए (यह भी आपको खरीदना पडता है), तब कहीं आप इण्टरनेट पर कुछ प्रकाशित कर पाते हैं। अगर किसी वेब पत्रिका को आप कुछ प्रकाशनार्थ भेजते हैं तो जाहिर है, आपकी रचना सम्पादक को पसन्द आनी चाहिए। इण्टरनेट पर बहुत सारी साइट्स हैं। बहुत सारी पत्रिकाएँ हैं, जहाँ यह सब होता है। लेकिन जिस तरह कम्प्यूटर ने बहुत सारे कामों को सरल कर दिया है, इस प्रकाशन के मामले में भी उसने क्रांतिकारी बदलाव कर डाले हैं।
अभी मैं आपसे प्रकाशन की कई सीढयों की चर्चा कर रहा था। ब्लॉग ने आकर जैसे एक झटके में इन सब का खात्मा कर डाला। ब्लॉग में आप खुद लेखक हैं, आप ही सम्पादक हैं। और आप ही प्रकाशक भी हैं। यानी आपकी रचनाशीलता को अब पाठक तक पहुँचने के लिए कई छलनियों से गुजरने की जरूरत नहीं रह गई है। अगर आपकी पहुँच एक इण्टरनेट कनेक्शन युक्त कम्प्यूटर तक है तो आप अपनी रचना या अपने विचार पूरी दुनिया तक पहुँचा सकते हैं। किसी प्रकाशक को ढूँढने की जरूरत नहीं, किसी सम्पादक की पसन्द-नापसन्द की चिंता नहीं। और, कहना अनावश्यक है कि भारत में भी कम्प्यूटर की और इण्टरनेट की सुलभता में तेजी से वृद्धि होती जा रही है। अगर आफ पास अपना कम्प्यूटर न भी हो तो पडौस के साइबर कैफे में जाकर आप यह काम कर सकते हैं। इस सरलता ने पूरी दुनिया में, और भारत में भी ब्लॉग्ज का बहुत तेजी से विकास किया है। इतनी तेजी से कि आज ब्लॉग को दुनिया का सबसे बडा संचार तंत्र माना जाता है।

एक चीनी अभिनेत्री जू जिंगले का ब्लॉग सम्भवतः दुनिया का सबसे अधिक लोकप्रिय ब्लॉग है जिसे पाँच करोड से भी ज्यादा बार पढा जा चुका है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन को महाभियोग की हद तक ले जाने वाले मोनिका लेविंस्की प्रकरण को एक ब्लॉगर मैट ड्रज ने अपने ब्लॉग पर उजागर किया था। हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एण्डरसन, गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स, अभिनेता केविन स्मिथ, टेनिस सुन्दरी अन्ना कोर्निकोवा जाने माने ब्लॉगरों की लम्बी सूची के कुछ नाम हैं। भारत में ब्लॉग का चस्का लोगों को अब लगने लगा है। लेकिन बहुत कम समय में ही फिल्म अभिनेता आमिर खान, अमिताभ बच्चन, जॉन अब्राहम, बिपाशा बसु, राहुल बोस, राहुल खन्ना, शेखर कपूर, अनुपम खेर आदि के ब्लॉग चर्चा में आये हैं। कवि अशोक चक्रधर काफी समय से इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। अब पत्रकार राज किशोर, लेखक उदयप्रकाश, विष्णु नागर, रमेश उपाध्याय, गीत चतुर्वेदी, बोधिसत्व वगैरह भी लगभग नियमितता से ब्लॉग लिखते हैं। अविनाश वाचस्पती, घुघुती बासुती, यूनुस खान, लावण्यम्, मसिजीवी, पंकज बैंगानी, समीर लाल उर्फ उडन तश्तरी, मसिजीवी, अविनाश, अनुनाद सिंह, उदयप्रकाश मानस, रवि रतलामी, देवाशीष, कविता वाचक्नवी, सुनील दीपक, शास्त्री जे सी फिलिप, यशवंत सिंह, अशोक पांडेय, अनूप शुक्ल, इरफान, दिनेश राय द्विवेदी, अजित वडनेरकर, जयप्रकाश त्रिपाठी, आलोक पुराणिक, रवीश कुमार, सुरेश चिपलूनकर, मिहिर, हरिराम, माधव हाडा, दुष्यंत, राम कुमार सिंह, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जैसे अनेक लोग ब्लॉग की दुनिया में बेहद सक्रिय हैं। कहना अनावश्यक है, यह बिरादरी निरंतर विस्तृत होती जा रही है। इनके ब्लॉगों में साहित्य, समकालीन जीवन, मनोरंजन, तकनीक सब कुछ है। भडास, टूटी हुई बिखरी हुई, मुझे कुछ कहना है, मोहल्ला, ई पण्डित, हिन्दी युग्म, समय सृजन, प्रथम, कर्मनाशा, रचनाकार, अपनी बात, जोग लिखी, दाल रोटी चावल, वाङ्मय, हिन्दी साहित्यिक पत्रिका, प्रत्यक्षा, आगाज आदि ब्लॉग्ज खूब पढे जा रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह कि अब तो कई पुलिस थाने भी ब्लॉग्ज का प्रयोग करने लगे हैं। राजस्थान में ही सीकर और बाडमेर के पुलिस थाने रोज ब्लॉग पर अपनी दैनिक रिपोर्ट डालते हैं।
जैसे-जैसे ब्लॉग लोकिप्रिय होते जा रहे हैं, उसकी कई नई-नई किस्में भी उभरने लगी हैं। वैयक्तिक ब्लॉग, जो सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, के अतिरिक्त अब कॉलेबोरेटिव (सामूहिक), प्रोजेक्ट और कॉर्पोरेट ब्लॉग भी आने लगे हैं। कहना गैर जरूरी है कि इस विविधता का और विकास होगा।

गूगल के एड सेंस कार्यक्रम और कई अन्य कम्पनियों की विज्ञापन योजनाएँ ब्लॉग को कमाई का जरिया बनाने की सुविधा देती हैं। हिन्दी ब्लॉग जगत् की तस्वीर इस लिहाज से हालाँकि अभी इतनी खूबसूरत नहीं है, लेकिन सम्भावनाएँ अनंत हैं। रवि रतलामी ने स्वीकार किया है कि उन्हें अपने ब्लॉग से कुछ हजार की आय होने लगी है।

ब्लॉग्ज की सजावट
ब्लॉग्ज के लिए अनेक एक से बढकर एक टेम्पलेट निःशुल्क उपलब्ध हैं। आप एक बार ब्लॉग बना लें तो उसे आकर्षक बनाने के लिए भी अनेक चीजें उपलब्ध हैं और वे भी निःशुल्क। आप चाहें तो अपने ब्लॉग पर घडी लगा सकते हैं, कोई गीत बजा सकते हैं, कोई वीडियो लगा सकते हैं, दुनिया का नक्शा लगाकर यह प्रदर्शित कर सकते हैं कि आफ ब्लॉग को कहाँ-कहाँ पढा गया है, आदि। यह सूची बहुत बडी है और इसमें निरंतर वृद्धि होती जा रही है।

तो, यह था ब्लॉग्ज का संक्षिप्त परिचय। ब्लॉग्ज की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। बहुत कुछ नया हो रहा है, नया और उत्तेजक। स्वाभाविक है कि जब यह आलेख लिखा गया है और जब आप इसे पढ रहे होंगे-उस बीच भी बहुत कुछ बदल चुका होगा। इसलिए ब्लॉग की दुनिया की नवीनतम जानकारी के लिए तो यही उपयुक्त होगा कि आप खुद इस दुनिया में प्रवेश करें।

Sunday, August 2, 2009

हिंदी में युवा रचनाशीलता का ‘लौंडा’

♦ अभिषेक श्रीवास्‍तव

premchand-jayanti2009 frontमैं मानता हूं कि लिखने में भाषा की शुचिता कायम रहे तो बेहतर है। इसीलिए पहले डिसक्‍लेमर दिये दे रहा हूं कि मेरी भाषा को मेरी मौलिक भाषा नहीं, नामवर जी से उधार ली हुई भाषा माना जाए।

तो हुआ यह कि नामवर जी ने हंस की 24वीं संगोष्‍ठी युवा रचनाशीलता और नैतिक मूल्‍य में 31 जुलाई 2009 को अपनी आदत के मुताबिक अपने वक्‍तव्‍य में लीप-पोत कर सब बराबर कर डाला। लेकिन उन्‍होंने जिस नोट पर अपना वक्‍तव्‍य समाप्‍त किया, वह ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है और मैं बात वहां से शुरू करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। उन्‍होंने अजय नावरिया को राजेंद्र यादव का राहुल गांधी करार देते हुए उन्‍हें हिदायत दी कि यदि उन्‍होंने ऐसे लौंडों से बचने की कोशिश नहीं की, तो वे उनका हाथ काट ले जाएंगे यानी उनका उपयोग कर लेंगे।

जाहिर है, नामवर जी ऐसे लौंडों के कारनामों से ज़रूर परिचित होंगे। हर पहलवान अपनी उम्र की ढलान पर लौंडे पालता है। उन्‍हें खिलाता-पिलाता भी है। बदले में लौंडा भी उस्‍ताद की सुख-सुविधाओं का ख्‍याल रखता है। हिंदी साहित्‍य में यह चलन नया नहीं है, हां ऐसे लौंडे को युवा रचनाशीलता के प्रतिनिधि के रूप में राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह और अरुंधति राय सरीखे लोगों के साथ मंच साझा करने का अधिकार इस देश के युवा रचनाकारों ने शायद अब तक नहीं दिया है। इसीलिए नामवर जी द्वारा अजय नावरिया पर टिप्‍पणियों ने जितनी तालियां ऐवान-ए-ग़ालिब के सभागार में बटोरी, उतनी किसी और की टिप्‍पणियों ने नहीं। अजय नावरिया और राजेंद्र यादव को छोड़ कर बाकी हर किसी के चेहरे पर संतोष का भाव दिख रहा था, जैसे कि काफी देर से निवृत्त होने की इच्‍छा सब पाले बैठे हों और नामवर जी ने सुलभ शौचालय का दरवाजा खोल दिया हो।

बाहर मिले युवा रचनाशीलता के एक और पंछी पुष्‍पराज। आप देखिए कि कैसे दिल मिलने की कहावत चरितार्थ होती है। पुष्‍पराज ने कहा – भाई, अजय नावरिया तो यूथ आइकॉन हैं। कितना अच्‍छा तो बोल रहे हैं। मैंने कहा – वे बोल कहां रहे थे। वे तो पढ़ रहे थे। उन्‍होंने खुद ही बताया था कि उन्‍हें बोलने की तैयारी करने का वक्‍त नहीं मिला, सो लिख कर ले आए। लिखने में ज्‍यादा वक्‍त लगता है या बोलने की तैयारी करने में, यह तय करने का अधिकार सिर्फ अजय नावरिया को ही दिया जाना चाहिए। पुष्‍पराज जितना तेज फड़फड़ाये थे, उतनी ही तीव्र गति से सिमट भी गये। मैं समझ गया कि उन्‍होंने फिल्‍म गॉडफादर नहीं देखी है।

खैर… धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पारिभाषिक शब्‍दावली से लेकर कांग्रेस के महिमामंडन तक अजय नावरिया ने इस गोष्‍ठी में सब कुछ किया। 40 मिनट तक लोग उन्‍हें इसलिए सुनते रहे क्‍योंकि अब तक ऐसी टाइम मशीन नहीं बन सकी है, जिसमें भविष्‍य में गोता लगा कर अरुंधति या नामवर जी को सुना जा सकता था। ऐसा लग रहा था जैसे वह एमए की किसी पुस्‍तक की कुंजी पढ़ रहे हों। उन्‍होंने सवाल उठाया – धर्म की जगह काम को पहले क्‍यों नहीं होना चाहिए…? जामिया के परिसर में टहलने वाले जानते हैं कि अजय नावरिया ने हिंदू धर्मशास्‍त्र के इस अनुक्रम को तोड़ने का काम बखूबी किया है। आखिर प्राध्‍यापकी तक पहुंचने के लिए सिर्फ शास्‍त्रों को जानना ही जरूरी थोड़े होता है… उसे तोड़ना भी पड़ता है। प्रोफेसरी का मामला तो जेएनयू के एक सज्‍जन ने फंसा दिया, वरना उस्‍ताद ने कई अजगरों को इस मामले में तैनात कर रखा था। क्‍या जाने, कल को वे प्रोफेसर बन ही जाएं।

यह तो अवांतर प्रसंग हुआ, नामवर जी की बात छूट गयी।

…तो नामवर जी ऐसे लौंडों से बचने की सलाह राजेंद्र जी को दे रहे थे। इस बात का पुरज़ोर समर्थन युवा रचनाशीलता की एक और बेचैन प्रातिनिधिक आत्‍मा ने शौचालय में अपनी नाटकीय समक्षता के दौरान किया। कुछ दिनों पहले वे भी लौंडों की जमात में शामिल थे, लेकिन उन्‍हें क्‍या पता था कि उनका उस्‍ताद ही लौंडई में फंस जाएगा। संयोग देखिए कि उस उस्‍ताद का नाम भी अजय ही है… जी हां, अजय तिवारी। आजकल वह विश्‍वविद्यालय से यौन उत्‍पीड़न के मामले में बर्खास्‍त चल रहे हैं। वरना तो अब तक लौंडे की नौकरी लग चुकी होती, पीएचडी बेकार न जाती।

दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से लेकर जामिया के हिंदी विभाग तक ऐसे लौंडे आज अपने उस्‍तादों के कान काट रहे हैं। जामिया में ही ख़बर फैली हुई है कि अजय नावरिया अपनी नामराशि वाले अजय तिवारी के उत्तराधिकारी बन सकते हैं क्‍योंकि वे काम को धर्म की जगह पर प्रतिष्ठित करवाना चाहते हैं। अजय तिवारी कर्म में विश्‍वास रखते थे, नावरिया जो करते हैं वह कह भी देते हैं। फर्क सिर्फ इतना है।

वैसे कहने के मामले में अजय नावरिया बेहद बिंदास हैं। आज तक मैंने किसी भी लेखक को फोन कर के समीक्षक से यह कहते नहीं सुना कि भाई, मेरी पुस्‍तक की अच्‍छी समीक्षा कर दीजिएगा। अजय नावरिया शर्माते नहीं हैं। बहुत डेमोक्रेटिक हैं। वह एक नहीं दो-दो बार फोन कर के कहते हैं कि मेरी समीक्षा का क्‍या हुआ… कर दीजिए, नया साल आने वाला है। इसको कहते हैं डेमोक्रेटिक होना… शायद इसीलिए कांग्रेसी डेमोक्रेसी बहुत से लोगों को खूब भाती है।

तो हिंदी में युवा रचनाशीलता का प्रतिनिधि आज इतना डेमोक्रेटिक हो चला है कि मंच से अपने गुरुवर के मुंह से अपनी आलोचना सुन कर खुल कर हंसता है। शायद वह कुछ नहीं समझता, शायद वह कुछ ज्‍यादा ही समझता है। वह इतना विवेकवान हो चला है कि अपने पॉलिटिकली इनकरेक्‍ट लिखित वक्‍तव्‍य में सवाल उठाता है कि क्‍या भारतीय नैतिकता को हिंदू नैतिकता कहना पॉलिटिकली करेक्‍ट होगा। वह मौके-बेमौके कदम-कदम पर रेटॉरिक रचता है। बीच-बीच में संस्‍कृत का श्‍लोक भी हिब्रू जैसे बोलता है। और उसे कांग्रेस की जीत विकास की जीत दिखाई देती है। [ इस पर तो अरुंधति ने जितना कहना था, कह दिया। पता नहीं 'लौंडे' को समझ भी आया कि नहीं ]

अब आप ही बताएं कि युवा रचनाशीलता के ऐसे प्रतिनिधि को आचार्य ने यदि लौंडा कह ही दिया, तो क्‍या ग़लत किया। इसमें किसी नैतिक मूल्‍य का ह्रास होता है क्‍या? जबकि आचार्य खुद मानते हैं कि जवानी अपने आप में एक मूल्‍य है। अब यह मूल्‍य लौंडे में है कि नहीं, यह तो तभी पता चल पाएगा, जब वह अपनी नामराशि की गति को प्राप्‍त होगा। पता नहीं ऐसा हो भी पाएगा कि नहीं, हालांकि कवायद अंदरखाने चालू है। फिलहाल तो उस्‍ताद का हाथ सिर पर है ही और लौंडे के हाथ में है रचनाशीलता का उस्‍तरा। मूंडने और मुंडवाने भर की डेमोक्रेसी हमेशा रही है और रहेगी, आचार्य कुछ भी बकते रहें।

( टिप्‍पणीकार वरिष्‍ठ मीडिया फ्रीलांसर और साहित्‍य के रसिया हैं )