Thursday, May 28, 2009

हे राहुल के लटकन जी!


रोगी थे, धनवंत्री होगै
लोकतंत्र के तंत्री होगै
नेता, सांसद मंत्री होगै
हे राहुल के लटकन जी!
सटकनरायन सटकन जी!!

कांगरेस की रेस महान,
अहा मीडिया-गर्दभ-गान,
झूठ-मूठ में तोड़े तान
सरकारों के लटकन जी!
पुआ-पपीता गटकन जी!!

तरह-तरह के बाइस्कोप
का भारत में बढ़ा प्रकोप,
बिना ठंड पहने कनटोप
मनमोहन के लटकन जी!
झपक-झांडू झटकन जी!!

लुटे-पिटे वोटर कंगाल,
धनवानों के धन्य-दलाल,
अब, सब होंगे मालामाल
रानी-मां के लटकन जी!
चोर-चकेरे चटकन जी!!

Wednesday, May 27, 2009

आगे इरादा क्या है?


कुछ सवाल.....
बिकाऊ पत्रकारों से,
खाऊ साहित्यकारों से,
नाऊ चित्रकारों से,
जुटाऊ चिट्ठाकारों से,
बटाऊ सरकारों से,
खड़ाऊ फनकारों से...
वो हरामजादा क्या है?

कुछ सवाल...
नेता दुरंगियों से,
कोलकाता के चौरंगियों से
दिल्ली के फिरंगियों से
मुंबई के बहुरंगियों से....
महंगाई से ज्यादा है?

कुछ सवाल.....
पंजाबी दंगों से,
पागलों से,
भिखमंगों से,
हर मुल्क के
भूखे-नंगों से.....
आगे इरादा क्या है?

Tuesday, May 26, 2009

भेड़िए के डर से कांपना छोड़/वेणु गोपाल

देखो
कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है। अपने
आशावान हरेपन के साथ
बरसात में झूमता हुआ। उस
काले भेड़िए के बावजूद
जो
शिकार की टोह में
झाड़ियों से निकल कर खुले में आ गया है।

ख़रगोशों और चिड़ियों और पौधों की दूधिया
वत्सल निगाहों से


जंगल को देख भर लेना
दरअसल
उस काले भेड़िए के ख़िलाफ़ खड़े हो जाना है जो
सिर्फ़
अपने भेड़िए होने की वज़ह से
जंगल की ख़ूबसूरती का दावेदार है

भेड़िए
हमेशा हमें उस कहानी तक पहुँचाते हैं
जिसे
वसंत से पहले
कभी न कभी तो शुरू होना ही होता है और
यह भी बहुत मुमकिन है
कि ऎसी और भी कई कहानियाँ
कथावाचक के कंठ में

अभी भी

सुरक्षित हों। जानना इतना भर ज़रूरी है
कि हर कहानी का एक अंत होता है। और
यह जानते ही
भविष्य तुम्हारी ओर मुस्करा कर देखेगा। तब
इतना भर करना
कि पास खड़े आदमी को इशारा कर देना

ताकि वह भी
भेड़िए के डर से काँपना छोड़
जंगल की सनातन ख़ूबसूरती को

देखने लग जाए।

अन्न पचीसी के दोहे/नागार्जुन

सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बडे ही गूढ

अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ


कबिरा खडा बाज़ार में, लिया लुकाठी हाथ

बन्दा क्या घबरायेगा, जनता देगी साथ


छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट

मिल सकती कैसे भला, अन्नचोर को छूट


आज गहन है भूख का, धुंधला है आकाश

कल अपनी सरकार का होगा पर्दाफ़ाश


नागार्जुन-मुख से कढे साखी के ये बोल

साथी को समझाइये रचना है अनमोल


अन्न-पचीसी मुख्तसर, लग करोड-करोड

सचमुच ही लग जाएगी आंख कान में होड


अन्न्ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रहम पिशाच

औघड मैथिल नागजी अर्जुन यही उवाच


रीछ का बच्चा/नजीर अकबराबादी

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा।

ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा ।

सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा ।

जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा ।

जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा ।1।

था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा।

लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा ।

कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला ।

बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा ।

आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा ।2।

था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर।

हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर।

कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर।

वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र।

जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा ।3।

झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल।

मुक़्क़ैश५ की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल।

और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल।

यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल ।

गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा।4।

एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें ।

एक तरफ़ को थीं, पीरो६ जवानों की कतारें।

कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें ।

गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें ।

जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा ।।5।।

कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर ।

वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर ।

हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है ‘क़लन्दर’।

हाँ छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगल के अन्दर।

जिस दिन से ख़ुदा ने यह दिया, रीछ का बच्चा"।6।

मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया ।

लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया ।

यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया ।

इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया ।

जो सबकी निगाहों में खपा "रीछ का बच्चा"।7।

फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह ।

फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"।

हर चार तरफ़ सेती९ कहीं पीरो जवां "वाह"।

सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"।

क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा।8।

इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद ।

करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद ।

हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद ।

और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’ ।

"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"।9।

जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया।

ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया।

लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया।

वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया।

इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा।10।

जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा।

ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा।

गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा।

एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा।

गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा।11।

यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर।

यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर।

सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर।

जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर।

"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"।12।

कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा।

इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"।

यह सहर१२ किया तुमने तो नागाह "अहा हा"।

क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"।

ऐसा तो न देखा, न सुना रीछा का बच्चा।13।

जिस दिन से "नज़ीर" अपने तो दिलशाद यही हैं ।

जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं ।

सब कहते हैं वह साहिबे ईजाद यही हैं ।

क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं ।

कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा ।14।

निराला की गर्म पकौड़ी

गर्म पकौड़ी-
ऐ गर्म पकौड़ी,
तेल की भुनी
नमक मिर्च की मिली,
ऐ गर्म पकौड़ी !
मेरी जीभ जल गयी
सिसकियां निकल रहीं,
लार की बूंदें कितनी टपकीं,
पर दाढ़ तले दबा ही रक्‍खा मैंने

कंजूस ने ज्‍यों कौड़ी,
पहले तूने मुझ को खींचा,
दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा,
अरी, तेरे लिए छोड़ी

बम्‍हन की पकाई
मैंने घी की कचौड़ी।

अपनों से हार गए रविदास

1
अब मैं हार्यौ रे भाई।

थकित भयौ सब हाल चाल थैं, लोग न बेद बड़ाई।। टेक।।

थकित भयौ गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा।

काम क्रोध थैं देह थकित भई, कहूँ कहाँ लूँ दूजा।।१।।

रांम जन होउ न भगत कहाँऊँ, चरन पखालूँ न देवा।

जोई-जोई करौ उलटि मोहि बाधै, ताथैं निकटि न भेवा।।२।।

पहली ग्यांन का कीया चांदिणां, पीछैं दीया बुझाई।

सुनि सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई।।३।।

दूरि बसै षट क्रम सकल अरु, दूरिब कीन्हे सेऊ।

ग्यान ध्यानं दोऊ दूरि कीन्हे, दूरिब छाड़े तेऊ।।४।।

पंचू थकित भये जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ थिति पाई।

जा करनि मैं दौर्यौ फिरतौ, सो अब घट मैं पाई।।५।।

पंचू मेरी सखी सहेली, तिनि निधि दई दिखाई।

अब मन फूलि भयौ जग महियां, उलटि आप मैं समाई।।६।।

चलत चलत मेरौ निज मन थाक्यौ, अब मोपैं चल्यौ न जाई।

सांई सहजि मिल्यौ सोई सनमुख, कहै रैदास बताई।।७।।


2

अब मोरी बूड़ी रे भाई।

ता थैं चढ़ी लोग बड़ाई।। टेक।।

अति अहंकार ऊर मां, सत रज तामैं रह्यौ उरझाई।

करम बलि बसि पर्यौ कछू न सूझै, स्वांमी नांऊं भुलाई।।१।।

हम मांनूं गुनी जोग सुनि जुगता, हम महा पुरिष रे भाई।

हम मांनूं सूर सकल बिधि त्यागी, ममिता नहीं मिटाई।।२।।

मांनूं अखिल सुनि मन सोध्यौ, सब चेतनि सुधि पाई।

ग्यांन ध्यांन सब हीं हंम जांन्यूं, बूझै कौंन सूं जाई।।३।।

हम मांनूं प्रेम प्रेम रस जांन्यूं, नौ बिधि भगति कराई।

स्वांग देखि सब ही जग लटक्यौ, फिरि आपन पौर बधाई।।४।।

स्वांग पहरि हम साच न जांन्यूं, लोकनि इहै भरमाई।

स्यंघ रूप देखी पहराई, बोली तब सुधि पाई।।५।।

ऐसी भगति हमारी संतौ, प्रभुता इहै बड़ाई।

आपन अनिन और नहीं मांनत, ताथैं मूल गँवाई।।६।।

भणैं रैदास उदास ताही थैं, इब कछू मोपैं करी न जाई।

आपौ खोयां भगति होत है, तब रहै अंतरि उरझाई।।७।।

3

इहै अंदेसा सोचि जिय मेरे।
निस बासुरि गुन गाँऊँ रांम तेरे।। टेक।।
तुम्ह च्यतंत मेरी च्यंता हो न जाई, तुम्ह च्यंतामनि होऊ कि नांहीं।।१।।
भगति हेत का का नहीं कीन्हा, हमारी बेर भये बल हीनां।।२।।
कहै रैदास दास अपराधी, जिहि तुम्ह ढरवौ सो मैं भगति न साधी।।३।।


4
ऐसी भगति न होइ रे भाई।

रांम नांम बिन जे कुछ करिये, सो सब भरम कहाई।। टेक।।
भगति न रस दांन, भगति न कथै ग्यांन, भगत न बन मैं गुफा खुँदाई।
भगति न ऐसी हासि, भगति न आसा पासि, भगति न यहु सब कुल कानि गँवाई।।१।।
भगति न इंद्री बाधें, भगति न जोग साधें, भगति न अहार घटायें, ए सब क्रम कहाई।
भगति न निद्रा साधें, भगति न बैराग साधें, भगति नहीं यहु सब बेद बड़ाई।।२।।
भगति न मूंड़ मुड़ायें, भगति न माला दिखायें, भगत न चरन धुवांयें, ए सब गुनी जन कहाई।
भगति न तौ लौं जांनीं, जौ लौं आप कूँ आप बखांनीं, जोई जोई करै सोई क्रम चढ़ाई।।३।।
आपौ गयौ तब भगति पाई, ऐसी है भगति भाई, राम मिल्यौ आपौ गुण खोयौ, रिधि सिधि सबै जु गँवाई।
कहै रैदास छूटी ले आसा पास, तब हरि ताही के पास, आतमां स्थिर तब सब निधि पाई।।४।।


5

भगति ऐसी सुनहु रे भाई।
आई भगति तब गई बड़ाई।। टेक।।
कहा भयौ नाचैं अरु गायैं, कहौं भयौ तप कीन्हैं।
कहा भयौ जे चरन पखालै, जो परम तत नहीं चीन्हैं।।१।।
कहा भयौ जू मूँड मुंड़ायौ, बहु तीरथ ब्रत कीन्हैं।
स्वांमी दास भगत अरु सेवग, जो परंम तत नहीं चीन्हैं।।२।।
कहै रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमांन मेटि आपा पर, पिपलक होइ चुणि खावै।।३।।

Monday, May 25, 2009

नौ सपने/अमृता प्रीतम


एक

तृप्ता चौंक के जागी,
लिहाफ़ को सँवारा
लाल लज्जा-सा आँचल
कन्धे पर ओढ़ा

अपने मर्द की तरफ़ देखा
फिर सफ़ेद बिछौने की
सिलवट की तरह झिझकी

और कहने लगी :
आज माघ की रात
मैंने नदी में पैर डाला

बड़ी ठण्डी रात में –
एक नदी गुनगनी थी

बात अनहोनी,
पानी को अंग लगाया
नदी दूध की हो गयी

कोई नदी करामाती
मैं दूध में नहाई

इस तलवण्डी में यह कैसी नदी
कैसा सपना?

और नदी में चाँद तिरता था
मैंने हथेली में चाँद रखा, घूँट भरी

और नदी का पानी –
मेरे खून में घुलता रहा
और वह प्रकाश
मेरी कोख में हिलता रहा।

दो

फागुन की कटोरी में सात रंग घोलूँ
मुख से न बोलूँ
यह मिट्टी की देह सार्थक होती
जब कोख में कोई नींड़ बनाता है
यह कैसा जप? कैसा तप?
कि माँ को ईश्वर का दीदार
कोख में होता.


तीन

कच्चे गर्भ की उबकाई
एक उकताहट-सी आई

मथने के लिए बैठी तो लगा मक्खन हिला,
मैंने मटकी में हाथ डाला तो
सूरज का पेड़ निकला।

यह कैसा भोग था?
कैसा संयोग था?

और चढ़ते चैत
यह कैसा सपना?


चार

मेरे और मेरी कोख तक –
यह सपनों का फ़ासला।

मेरा जिया हुलसा और हिया डरा,
बैसाख में कटने वाला
यह कैसा कनक था
छाज में फटकने को डाला
तो छाज तारों से भर गया...

पांच

आज भीनी रात की बेला
और जेठ के महीने –
यह कैसी आवाज़ थी?

ज्यों जल में से थल में से
एक नाद-सा उठे
यह मोह और माया का गीत था
या ईश्वर की काया का गीत था?

कोई दैवी सुगन्ध थी?
या मेरी नाभि की महक थी?
मैं सहम-सहम जाती रही,
डरती रही
और इसी आवाज़ की सीध में
वनों में चलती रही...

यह कैसी आवाज़,
कैसा सपना?
कितना-सा पराया?
कितना-सा अपना?

मैं एक हिरनी –
बावरी-सी होती रही,
और अपनी कोख से
अपने कान लगाती रही।


 छह
आषाढ़ का महीना –
स्वाभाविक तृप्ता की नींद खुली

ज्यों फूल खिलता है,
ज्यों दिन चढ़ता है

"यह मेरी ज़िन्दगी
किन सरोवरों का पानी
मैंने अभी यहाँ
एक हंस बैठता हुआ देखा

यह कैसा सपना?
कि जागकर भी लगता है
मेरी कोख में
उसका पंख हिल रहा है..."


  सात

कोई पेड़ और मनुष्य
मेरे पास नहीं
फिर किसने मेरी झोली में
नारियल डाला?

मैंने खोपा तोड़ा
तो लोग गरी लेने आये
कच्ची गरी का पानी
मैंने कटोरों में डाला

कोई रख ना रवायत ना,
दुई ना द्वैत ना
द्वार पर असंख्य लोग आये
पर खोपे की गरी –
फिर भी खत्म नहीं हुई।

यह कैसा खोपा!
यह कैसा सपना?
और सपनों के धागे कितने लम्बे!

यह छाती का सावन,
मैंने छाती को हाथ लगाया
तो वह गरी का पानी –
दूध की तरह टपका।


आठ
यह कैसा भादों?
यह कैसा जादू?

सब बातें न्यारी हैं
इस गर्भ के बालक का चोला
कौन सीयेगा?

य़ह कैसा अटेरन?
ये कैसे मुड्ढे?
मैंने कल जैसे सारी रात
किरणें अटेरीं...

असज के महीने –
तृप्ता जागी और वैरागी

"अरी मेरी ज़िन्दगी!
तू किसके लिए कातती है मोह की पूनी!

मोह के तार में अम्बर न लपेट जाता
सूरज न बाँधा जाता
एक सच-सी वस्तु
इसका चोला न काता जाता..."

और तृप्ता ने कोख के आगे
माथा नवाया
मैंने सपनों का मर्म पाया
यह ना अपना ना पराया

कोई अज़ल का जोगी –
जैसे मौज में आया
यूँ ही पल भर बैठा –
सेंके कोख की धूनी...

अरी मेरी ज़िन्दगी!
तू किसके लिए कातती है –
मोह की पूनी.


नौ
मेरा कार्तिक धर्मी,
मेरी ज़िन्दगी सुकर्मी
मेरी कोख की धूनी,
काते आगे की पूनी
दीप देह का जला,
तिनका प्रकाश का छुआ
बुलाओ धरती की दाई,
मेरा पहला जापा.


मुर्दा शांति से भर जाना.....हमारे सपनों का मर जाना/पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।