Saturday, February 21, 2009

चाहे जितने रूप चुरा लूं


चाहे जितना भी विष पी लूं,

चाहे जितने भी दिन जी लूं,

जीवन अपनी गंध न देगा.


चाहे जितने फूल चुरा लूं,

चाहे जितना सौरभ पा लूं,

मधुवन अपनी गंध न देगा.


मन में चाहें जितना वर लूं,

चाहे जितनी पूजा कर लूं,

चंदन अपनी गंध न देगा.


चाहे जितनी बातें लिख दूं,

आंखों की बरसातें लिख दूं,

सावन अपनी गंध न देगा.


चाहे जितनी मांग सजा लूं,

चाहे जितने रूप चुरा लूं,

दर्पन अपनी गंध न देगा.


चाहे जिसके द्वार बुला लूं,

चाहे जब सांकल खटका लूं,

आंगन अपनी गंध न देगा.


आईटी में भगदड़

एक तरफ लाखों-करोड़ों आईटी छात्र देश-दुनिया के इंजीनियरिंग कॉलेजों में अपने भविष्य के सपने बुन रहे हैं, दूसरी तरफ कंपनियां अपने लाखों कर्मचारियों को बेलौस बाहर का रास्ता दिखा रही हैं. प्लेसमेंट किस चिड़िया का नाम है, छात्र और कालेज भूलते-से जा रहे हैं. बाहर चारों तरफ भगदड़ का माहौल है. उम्मीद है तो सिर्फ इतनी कि शायद कुछ साल बाद हालात काबू में आ जाएं. हालात तो तब काबू में आएंगे, जब मंदी से निजात मिले. हाल-फिलहाल तो ऐसा लगता नहीं.
आईटी क्षेत्र के करोड़ों कर्मचारियों पर गाज गिरने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. एक ओर कंपनियां हजारो-हजार लोगों को एक साथ नौकरी से विदा कर दे रही हैं, दूसरी तरफ जरूरत के हिसाब से भर्तियां भी कर ले रही हैं. सत्यम कंप्यूटर के ही सायेदार सत्यम बीपीओ अपने अलग-अलग प्रोजेक्ट्स के लिए नए कर्मचारियों की भर्ती कर रही है. अभी तक नई नियुक्तियों को लंबित रखा गया था. देश की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज (टीसीएस) ट्रेनीज के सहारे काम निकाल लेना चाहती है. टीसीएस के वाइस प्रेजिडेंट अजय मुखर्जी कहते हैं कि ऐसा कॉस्ट मैनेजमेंट के मद्देनजर किया जा रहा है. अब अनुभवी लोगों को नौकरी पर रखने से पहले डोमेन एक्सपर्टीज और बिजनेस जरूरतों को ध्यान में रखा जाना जरूरी हो गया है. दूसरी ओर कंपनी अगले कारोबारी साल (2009-10) में 24,800 लोगों की भर्ती करने का इरादा भी जताती है. आईटी कंपनियों ने कर्मचारियों की नियुक्ति प्रक्रिया को 12 से 15 महीने के लिए टाल दिया है. इससे पहले आईटी कंपनियां इंजीनियरिंग छात्रों को प्रशिक्षण पूरा करने से पहले ही नौकरी दे देती थीं. एचआर कंसल्टिंग फर्म हेविट और अमेरिकी कंपनियों का भारत में प्रतिनिधित्व करने वाले समूह एएमसीएचएएम की तमिलनाडु में कराई गई स्टडी में यह बात सामने आई है कि इंजीनियरिंग संस्थानों के काफी फैकल्टी सदस्यों का मानना है कि कॉलेजों में प्लेसमेंट अंतिम सेमेस्टर में ही कराए जाएं। नैस्कॉम ने तो देश भर के 200 इंजीनियरिंग कॉलेजों को आगाह कर दिया है कि वे प्लेसमेंट टाल दें. हालांकि इस प्रस्ताव को मानना अनिवार्य नहीं बताया जा रहा है. इंफोसिस टेक्नोलॉजीज ने 16-17 महीने पहले जिन लोगों को नौकरी का वायदा किया था (उन्हें कैंपस सिलेक्शन के जरिये चुना गया था) उन 20000 फ्रेशर्स को काम पर रख रही हैं, बाकी भर्ती पर रोक लगा दी है. यह भी अंदेशा बना हुआ है कि कंपनी अपने एम्पलॉइज की सैलरी कट कर सकती है. इनक्रिमेंट रोक सकती है. कंपनी के कर्मचारियों की सैलरी का एक हिस्सा वैरियएबल सेल्स कंपोनेट के रूप में आता है. रेवेन्यू गिर रहा है तो सैलरी भी कटेगी. कंपनी में फ्रेश हायरिंग अभी फ्रिज कर दी गई है. विप्रो लिमिटेड का सोचना है कि आईटी कंपनियों का कारोबार जब रफ्तार पकड़ेगा , तब नौकरियां दी जाएंगी. दूसरी तरफ वह 8000 भर्तियों के लिए कैंपस सेलेक्शन करने वाली है. उसने 15000 नौकरियों के लिए ऐप्लिकेशन मंगाए थे. इसी तरह पिछले साल 14000 भर्तियां की गई थीं. कंपनी ने तीसरी तिमाही में 1092 सॉफ्टवेयर इंजीनियर और 226 बीपीओ एंम्पलॉयी को निकाल बाहर किया था.
एक तरफ छंटनी की अंधाधुंध मार, दूसरी फॉर्च्युन उन 100 कंपनियों की लिस्ट जारी करती है, जो सेवाशर्तों और कामकाज के लिहाज से अच्छी बताई जाती हैं. अमेरिका की नेटैप पहले नंबर पर है. इसके पास कुल 7,999 कर्मचारी हैं. मंदी में जब अन्य कंपनियां कर्मचारियों को लगातार छांटती जा रही हैं, इस कंपनी ने अपना इरादा अडिग रखा है. यहां के कर्मचारियों की सालाना औसत सैलरी 1,34,716 डॉलर है. छंटनी का हाल ये है कि जापान की इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी पैनासोनिक 15000 कर्मचारियों को एक झटके में नौकरी से निकाल देती है. मुनाफे पर संकट है तो जॉब कट होगा ही. पहले उम्मीद थी कि कंपनी चालू साल में 30 अरब येन का मुनाफा कमा लेगी. अब 380 अरब येन का नुकसान होना है.इसी तरह प्लाज्मा टीवी की डिमांड घटने की वजह से नुकसान बढ़ता जा रहा है. फ्रांसीसी-इतालवी कंपनी एसटीमाइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स भी 4500 जॉब कट करने जा रही है. कंपनी में 45 हजार कर्मचारी हैं. इस कंपनी को पिछले साल 59 करोड़ 60 लाख यूरो का नुकसान हुआ है. इस साल वह अपनी कॉस्ट में 70 करोड़ डॉलर की कटौती कर रही है. इससे पहले वह अपनी 3 कंपनियां बंद करने का ऐलान भी कर चुकी है. माइक्रोसॉफ्ट ने अपने 5 हजार स्टाफ को नौकरी से निकाल दिया है. उसके भी मुनाफे में 11 प्रतिशत गिरावट आ गई है. उधर, इंटेल कॉरपोरेशन मलयेशिया और फिलिपीन के अपने प्लांट को बंद करने जा रही है. उसने 6 हजार स्टाफ को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. पिछले साल इस कंपनी में कुल 84,000 कर्मचारी थे. एरिक्सन भी अपने 5 हजार कर्मचारियों को निकाल रही है, जबकि चौथी तिमाही में उसे 1.1 बिलियन डॉलर का मुनाफा हुआ है.

Friday, February 20, 2009

फागुन-1



आग बटोरे चांदनी, नदी बटोरे धूप.

हवा फागुनी बांध कर रात बटोरे रूप..


नख-शिख उमर गुलाल की देख न थके अनंग.

भरी-भरी पिचकारियां मारे सगरो अंग..


पुड़िया बंधी अबीर की मौसम गया टटोल.

पोर-पोर पढ़ने लगे मन की पाती खोल..


फागुन चढ़ा मुंडेर पर प्राण चढ़े आकाश.

रितु रानी के चित चढ़ा रितु राजा मधुमास..


गांव-गली की गंध में रिश्ते-नाते भूल.

छोरी मारे कनखिया, छोरा मारे फूल..

Thursday, February 19, 2009

वह पहला खत और आखिरी दीदार















वे स्कूली किताबों के दिन थे. कहिए कि कॉलेज लाइफ. युवा उमंगों, तरह-तरह की तरंगों के दिन. बोर्ड के एक्जाम चल रहे थे. मैं भी इंटरमीडिएट की परीक्षा दे रहा था. जिस रिश्तेदार के यहां रुककर एक्जाम दे रहा था, आंखों ही आंखों में एक ऐसा वाकया जवान होने लगा कि दिमाग पर इम्तेहान कम, छायावाद का सुरूर ज्यादा हिलोरें लेता रहता . जित देखूं, तित लाली मेरे लाल की. जैसे समंदर नीला हो चुका हो, आकाश सुरमई. चंपई और सोनजुही फिजाओं में लिखे जाते गीत गूंजते रात-रात भर...





चांदनी रात हो
तुम रहो, मैं रहूं
और कुछ
तुम कहो, मैं कहूं....
रात चांदी की हो
सोने के सपन बन निखरे
चंदनी तन की महक
प्यार के चमन बिखरे
सांस-सांस में सब-कुछ
तुम सहो, मैं सहूं
और कुछ
तुम कहो, मैं कहूं....



कोई बासंती इशारे सराबोर करते जाते, मन कभी गुलाब, कभी, गेंदा, कभी महुए के फूल से रसमसाता रहता. ...कानों में हर पल हरिवंश राय बच्चन के गीत ठुमकते रहते....महुआ के नीचे फूल झरे, महुआ के... जहां मैं रुका था, उस घर के सामने आधे फर्लांग की दूरी पर कुंआ था. कुंए के चारो ओर पक्की फर्श, जिस पर देर शाम तक मोहल्ले की औरतें चौपाल जमाए रहतीं.


उसका नाम था कमल, जिसने मेरी रातों की नींद उड़ा रखी. मेरे एग्जाम की ऐसी-तैसी कर रखी थी. जब कमल को लगता कि मैं उसकी तरफ नहीं देख रहा हूं, वह मुझे अपलक पढ़ती रहती. मैं भी कम न था. उसके इस तरह निहारने से अनभिज्ञ बना रहता. दो-तीन दिनो बाद ही कमल की छोटी बहन के माध्यम से प्रेमाचार परवान चढ़ने लगा. मैं प्रश्नपत्रों की सिलवटों में छिपाकर महुए के फूल भेंट किया करता. एक सप्ताह तक उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं रही.....



अंक मैं आइ सनेहमयी छवि सौं अकलंक मयंक-सी लागै.
नैनन-नैनन में समुझै सब, सैनन-सैनन मैं अनुरागै.
दैन न चाहत मैन कौ भेद अभेद के बावन अंगन पागै
सोवत सांझि-सी कुंतल छोरि के लाज लजाइ के भोर सी जागै



अचानक उस दोपहर कमल की गहरी मुस्कान मेरी निगाहों की जद में आ गई. वह शर्म से दोहरी हो गई. तेजी से घर के अंदर ओझल हो गई.



तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया.
पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक दिया....




इस बीच एक दिन एग्जाम खत्म हुआ. भारी मन से मैं अपने घर लौट चला. महीने भर बाद कमल का वह पहला और आखिरी खत मिला कि मैं जल्दी से मुलाकात को आ जाऊं. उसी शाम मैं जब वहां पहुंचा, दरवाजे पर चहल-पहल देख माथा ठनका कि कमल के साथ कुछ अनचाहा होने वाला है. उसे लड़के वाले देखने आ चुके थे. सजी-धजी डबडबायी आंखों से कमल का वह आखिरी दीदार था. तब अथाह गम था, अब खुशी होती है कि कमल एक आईएएस परिवार की मालकिन है. देश के एक महानगर में शायद वे दिन भूल चुकी हो अपनी हंसती-विहसती दुनिया में.

कोई अंतिम खत लिख देता फिर से मेरे नाम....

एक बार बस और मुझे दे देता विदा-प्रणाम!

Wednesday, February 18, 2009

कि याद भी तुझको आ न पाऊँ माँ





बच्चे हर दिन हमारी आंखों के तारे होते हैं तो हमारे लिए हर दिन बाल दिवस जैसा क्यों न हो. और ऐसे तनाव भरे दौर में, जबकि ज्यादातर लोगों की हर सुबह तमाम तरह की टेंसन से शुरू होकर रात की नींद आने तक बनी रहती है. ऐमनेस्टी इंटरनेशनल की एक सूचना के अनुसार पाकिस्तान की जेलों में लगभग साढ़े चार हज़ार बच्चे क़ैद हैं और उनमें से दो-तिहाई ऐसे हैं, जिन पर अभी तक कोई अपराध भी दायर नहीं हुआ है.बच्चों को कई बरस इस लिए जेल में गुज़ार देने पड़ते हैं क्योंकि माता-पिता उनकी ज़मानत कराने की क्षमता नहीं रखते हैं. ये मामले जब अदालत में आते हैं, उनमें से मात्र पंद्रह प्रतिशत पर ही अपाराध दायर हो पाता है. क़ानून व्यस्था बंदी बच्चों के अभिभावक की भूमिका निभाने में विफल रही है और जजों को भी बच्चों के अधिकारों की पूरी जानकारी नहीं है. तेहर साल के एक बच्चे को तो चार साल जेल में इसलिए रहना पड़ा क्योंकि उसका आरोप-पत्र खो गया था. रिपोर्ट के अनुसार ज़मानत आमतौर पर पचास हज़ार रुपये होती है जबकि पाकिस्तान में एक सरकारी कर्मचारी तक सात हज़ार रुपये महीने से ज़्यादा तनख़्वाह नहीं पाता है. बच्चों को भी वयस्कों की कोठरी में रखा जाता है. बार बारह साल तक के बच्चों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते समय एक ही ज़ंजीर से बाँध दिया जाता है. पंजाब की जेलों में साढ़े तीन सौ बच्चे मौत की सज़ा का इंतज़ार करते रहते हैं, जबकि राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़न उस समय उनकी सज़ा माफ़ कर कर चुके होते हैं. एक देश है हेग. वहां के पूर्वी कॉंगो के संदिग्ध युद्ध अपराधी थॉमस लुबांगा पर बच्चों को सेना में भर्ती करने और युद्ध में झोंकने का आरोप था. उन बच्चों को एके 47 बंदूक चलाना तो आता है, लेकिन एक अक्षर लिखना नहीं आता. सन् 2002 से 03 के बीच ऐसे 30,000 से ज़्यादा बच्चों को बाल सिपाही बनाने के आरोप में लुबांगा को वहां के अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय में पेश किया गया. वहां सोने की खदानों को लेकर 1999 से चल रही लड़ाई में अब तक 60,000 लोगों की मौत हो चुकी है. उस ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान ही पता चला कि लुबांगा की सेना ने किस तरह हज़ारों बच्चों को खून और बालात्कार के लिए ट्रेंड किया. ऐसा भी नहीं कि यह सब सिर्फ पाकिस्तान या पूर्वी कॉंगो शहर के बच्चों के साथ होता है. नोएडा का आरुषि कांड, निठारी कांडों भी बच्चों की दुनिया पर कहर बनकर टूटने वाले बड़ों की बदमिजाजी और क्रूरता बयान करती है. एक नया शोध कहता है कि पैरेंट्स जितने सोशल होंगे, उनके बच्चों का ' ऑलओवर परफॉर्मेंस' उतना ही शानदार होगा तथा भविष्य उतना ही सकारात्मक. जो पैरेंट्स ज्यादा लोगों से घुलना-मिलना और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न होना पसंद करते हैं, उनके बच्चे न केवल स्कूली शिक्षा में बल्कि हर गतिविधि में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं, बजाय उन पैरेंट्स के जिनका ज्यादातर समय टीवी के सामने और घर में बंद होकर गुजरता है. दरअसल घरघुस्सु या टीवी चिपकू टाइप के माता-पिता न तो बच्चों के साथ समय गुजार पाते हैं न ही बच्चों को बाहर की दुनिया से ज्यादा जोड़ पाते हैं. नतीजा ऐसे बच्चे पढ़ाई के अलावा अपना अधिकांश समय टीवी और कम्प्यूटर गेम्स के सहारे बिताते हैं तथा सामाजिक रवायतों से अनभिज्ञ रह जाते हैं. आरुषि कांड को लें, किशोर हो रही आरुषि को जब अपनों की जरूरत थी, संबंध बन गए उसके अधेड़ नौकर से. आरुषि निम्न मध्यमवर्ग नहीं, साधन संपन्न परिवार से थी. आधुनिक होते जाने की छलांग में बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, माता-पिता समझना नहीं चाहते. जब किशोर वय को अपनों की जरूरत होती है, उनके हाथ में झूलता रहता है टीवी का रिमोट या एक क्लिक में पूरी दुनिया की गलाजत परोस देने वाले कंप्यूटर-इंटरनेट का माउस. डॉ. तलवार और उनकी सहकर्मी डॉ. दुर्रानी के बीच के संबंध की क्या छवि उसके मानस पटल पर अंकित हुई होगी.
अपने आसपास की दुनिया की दूसरी तस्वीर यह सामने आती है कि भारतीय पुलिस इटावा के थाने पर बच्ची को बेरहमी से पीटती है या सुरत (गुजरात) में 13 से 15 वर्ष की उम्र के बच्‍चों को बिजली के झटके देती. कुसूर सिर्फ इतना-सा कि उन बच्‍चों ने पैसे चुराए थे. पुलिस के विभागीय तनाव का खामियाजा बच्चे भोगते हैं. वैसे भी पुलिस अब अदालत के कानून को कुछ नहीं समझती. बच्‍चों को कई बार भूखा-प्‍यासा और निर्वस्‍त्र रखकर पताड़ित किया जाता है. भारत में हर 23 मिनट में अपहरण का एक मामला सामने आता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2006 में अपहरण के 21,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए तथा वर्ष 2007 में यह आँकड़े पिछले आँकड़ों को भी पार कर गए. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तो और भी चौंका देने वाली है जिसके अनुसार भारत में हर साल 45,000 बच्चों का अपहरण होता है. अपहरण के सर्वाधिक मामले दिल्ली व उससे जुड़े इलाकों में अधिक सामने आते हैं. नोएडा का अनंत गुप्ता अपहरण कांड हो या कोलकाता और आगरा के शुभम अपहरण कांड, चंडीगढ़ का अभि वर्मा हो या कोटा का वैभव, सभी मामलों में अपराधियों का निशाना बने मासूम बच्चे.
उत्तर प्रदेश का एक जिला है कौशाम्बी . यहां के तमाम बच्चों को अपराध विरासत में मिलता है. बदमाशी उनका पुश्तैनी पेशा हो जाता है. यहां के ओसा और भदंवा गांव में तो एक ही परिवार में कई-कई कातिल है. डकैतों के बेटे डकैत और चोरों के बेटे चोर हो जाते हैं. ये बदमाश पुलिस और मुकदमों के चक्कर में इस तरह फंसते चले जाते हैं कि उनके पास बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए वक्त ही नहीं बचता. ऐसे में अपराधियों के बच्चों को चिह्नित कर उन्हे तालीम मुहैया कराने की कोशिशें भी चलती रहती हैं. फीस, बस्ता, किताब, कापी और पढ़ाई का अन्य खर्च उठाया जाता है. सवाल उठता है, ऐसा और कितने जिलों में हो पाता है. सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में जहाँ इंटरनेट दुनियाभर की जानकारियाँ परोस रहा है, वही अश्लील साहित्य परोसने में भी इसका कोई सानी नहीं है. इसका भी सर्वाधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं. अनेक परिवारों में सुबह होते ही माँ-बाप दफ्तर निकल जाते हैं. बच्चों को छोड़ जाते हैं टीवी, इंटरनेट के भरोसे. उनकी इसी लापरवाही या अनदेखी से परिपक्व होने से पहले ही बच्चे अश्लीलता की बातें करने लगते हैं. अविकसित ‍मस्तिष्क के कारण बच्चे ‍कच्ची ‍मिट्टी जैसे होते हैं. जैसा गढ़ा जाएगा, वैसा ही बनेंगे. बहुत सी चीजों से वे अनभिज्ञ होते हैं. सामने उन्हें जो नहीं देखने दिया जाता, छिपकर देखना चाहते हैं. यही से शुरुआत होता है भटकाव. फिल्में और चैनल्स भी नई पीढ़ी को बर्बाद करने में पीछे कहां हैं. जिनमें जिस्मफरोशी अधिक होती है इंसानी ज्ञान की ललक जगाने की प्रवृत्ति कम. क्योंकि ऐसा करने से टीआरपी बढ़ती है, करोड़ों की कमाई होती है. टीवी चैनल्स ऐसी खबरों को चटखारे ले-लेकर दिखाते हैं, जिसमें सनसनी हो. ये जानते हुए भी कि दर्शकों में सबसे बड़ा प्रतिशत बच्चों और किशोरवय का है.
बच्चों तो नादान होते ही हैं. इतने समझदार हों तो उन्हें बच्चा कहा ही क्यों जाए? जब इस सवाल की तह में जाते हैं, बड़ों की दुनिया साफ-साफ उन अपराधी बच्चों के भविष्य के लिए जिम्मेदार नजर आती है. जैसी कि आजकल घटनाएं आम होती जा रही हैं, चोरी, मारपीट, छेड़छाड़, किडनैपिंग, साइबर क्राइम, दुराचार जैसे संगीन अपराधों में भी अगर बच्चे लिप्त पाए जाते हैं तो उन्हें ऐसा हो जाने के लिए मुख्य रूप से अभिभावकों बेखयाली सबसे बड़ी वजह लगती है. पुलिस से लेकर साइकोलॉजिस्ट तक सभी ऐसा मानते हैं. यदि बच्चा चुपचाप रहता है, अचानक बहुत तेज गुस्सा करने लगता है, उस पर पैनिक अटैक आते हैं, ज्यादातर समय घर से बाहर बिताता है या फिर ऐसा व्यवहार करता है जैसा कि आमतौर पर बच्चे नहीं करते हैं, तो भी अभिभावक जरूरी नहीं समझते कि उसकी वजह तो जान लें. नहीं जानना चाहते कि घर को खुशियों से भर देने वाला लाड़ला गुमसुम क्यों रहता है? कहाँ खो गई उसकी शरारतें, क्यों खुद में खोया-खोया तन्हा अकेला बैठा हैं? आजकल के बच्चों का ईक्यू यानी इमोशनल कोशेंट बहुत कम होता है. उनमें किसी चीज के लिए इंतजार करने का धैर्य नहीं होता. तब इच्छापूर्ति के लिए वे कुछ भी कर गुजरना चाहते हैं. घंटों इंटरनेट यूज करते हैं. बच्चों को अकेले कंप्यूटर पर काम नहीं करने देना चाहिए. ये अभिभावको की जिम्मेदारी होती है कि अपने बच्चे को बताएं कि नेट पर काम करने के कौन-कौन से खतरे हैं. और तो और, पैरेंट्स खुद जल्दी से अमीर बनने की सनक में अपने बच्चों को मेहनत और ईमानदारी का पाठ पढ़ाना भी फालतू की बात समझते हैं.
बच्चे स्वभाव से बड़े कोमल होते है. बगैर कुछ सोचे-समझे ही वे किसी अजनबी पर भरोसा कर लेते है परंतु कभी-कभी उनकी यह भूल उनके लिए जीवनभर की परेशानियों का न्यौता बन जाती है. आए दिन बच्चों के साथ ‍होने वाली शोषण की घटनाएं इसी कड़वी हकीकत का पर्दाफाश करती है. शोषण शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार का हो सकता है. शोषण रोकने के कानून से ज्यादातर लोग वाकिफ नहीं. एक सर्वे के अनुसार भारत में 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं. ऐसे आधे से अधिक मामलों में अपराधी बच्चों के पारिवारिक सदस्य जैसे उसके मामा, काका, भाई आदि ही आरोपी पाए जाते हैं. ज्यादातर मामले या तो बदनामी के कारण दर्ज नहीं कराए जाते या चुपचाप रफा-दफा कर दिए जाते हैं. माँ तब आँसू क्यों न बहाए, जब कोई उसके जिगर के टुकड़े को कुत्तों की तरह नोंचता है. बाद में ऐसे बच्चों को हर दिन घुट-घुट कर जीना पड़ता है. ऐसे में बहुत जरूरी होता है कि बच्चों को अजनबियों के भरोसे न छोड़े. दोस्त बनकर बच्चों की समस्याओं को सुने. अधिक से अधिक समय बच्चों के साथ बिताएँ. बच्चों की गलतियों पर उसे प्यार से समझाएँ.
' भीड़ में यूं ना छोड़ों मुझे


घर लौट कर भी आ ना पाऊँ माँ


भेज ना इतना दूर मुझको तू


याद भी तुझको आ न पाऊँ माँ ..''

Tuesday, February 17, 2009

पीढ़ियों की प्रेम कहानी

यह तीन पीढ़ियों की प्रेम कहानी है. कोई पहली बार नहीं कही जा रही है. देश ही नहीं, पूरी दुनिया जानती है लेकिन इसे एक क्रम में जानने और पढ़ने का लालित्य ही कुछ और है. एक ने यहां प्रेम किया, दो ने वहां. तीसरा अभी बाकी है, जाने कहां प्रेम करे. उसकी क्या प्रेम कहानी बने. तो लीजिए आप भी तैयार हो जाइए पढ़ने के लिए ये तीन पीढ़ियों की जगविख्यात प्रेम कहानी. भले ही वैलेंटाइन डे गुजर चुका है. बसंत तो है...............हिंदुस्तानियों का वैलेंटाइन डे...




एडविना माउंट बेटन और जवाहर लाल नेहरू
भारत में ब्रिटेन के अंतिम वायसराय की पत्नी लेडी एडविना माउंटबेटन और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच प्रेम संबंध के बारे में जानकारी देने वाली किताब है एलेक्स वॉन टुनजेलमैन की "इंडियन समर". पुस्तक में लेखिका एलेक्स ने बताया है कि किस तरह के उनके बीच गहरे संबंध थे. यह एक वास्तविक प्रेम कथा है. दोनों के बीच प्रेम प्रत्यक्ष तौर पर राजनीतिक रूप से विस्फोटक था. यह प्रेम प्रसंग राजपाट छोड़ने की प्रक्रिया में बाधा डाल सकता था. इससे देशों के भाग्य का फैसला हो सकता था. माउंटबेटन अपनी पत्नी के नेहरू के साथ रिश्तों को बढ़ावा देते थे. माउंटबेटन एडविना को तब दिलासा दे रहे थे, जब उनके साथ हुई सगाई के कारण बनी फिलिप्स नाम के व्यक्ति के साथ लेडी माउंटबेटन के प्रेम संबंध टूट गए थे. माउंटबेटन ने तब एडविना को लिखा था कि मैं इस समय तुम्हें लेकर गहराई से चिंतित हूँ. दरअसल वह जानते थे कि उन्हें एडविना की कुछ बातें सहनी होंगी और वे इस बारे में काफी उदार थे. इसी तरह कैथरीना क्लैमा की किताब से पता चलता है कि जब नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात हुई थी, एडविना की उम्र 39 वर्ष, नेहरू की 53 वर्ष थी. मुलाकात 1942 में सिगापुर के कान्फ्रेंस में हुई थी, जहाँ भीड़ में फँस जाने पर एडविना को नेहरू ने बचाया था. वहां परिचय के लिए वह आगे आईं, उस दिन जब पंडित जी के प्रशंसकों की भीड़ उमड़ पड़ी थी तो एडविना पैरों के बल गिरकर एक मेज के नीचे पहुंच गईं, जहां से नेहरू ने उन्हें बचाया. दोनो के बीच आपसी समझ 1947 के बाद से पनपी, जब माउंटबेटेन भारत आए. नेहरू से मुलाकात होने से पहले से एडविना के पास पुरुष मित्रों की एक लंबी सूची रही. सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू और नेहरू की मित्रता भी एक जमाने में सुर्खियों में रही है. वह नेहरू का व्यक्तित्व था जिस कारण एडविना फिर कहीँ न जुड़ सकीं. अपनी बड़ी पुत्री को पत्र लिखते समय डिकी ने उसे बताया था कि एडविना का स्वाभाव आश्चर्यजनक तरीके से बहुत मृदुल हो गया है, नेहरू से मिल कर और वे पारिवारिक माहौल को सुखद बनाने के लिये इस रिश्ते को अधिक से अधिक सहयोग देते रहे थे. एक सहज एवं मर्यादित प्रेम के रूप में इस कथा पर उँगली उठाने जैसा कुछ भी नहीं था. भारत में ब्रिटेन के अंतिम गवर्नर जनरल की पत्नी लेडी एडविना माउंटबेटन और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच प्रेम प्रसंग पर फिल्म बनाने की भी बातें भी होती रही हैं. ६० वर्ष की अवस्था में एडविना की मृत्यु के ठीक पूर्व नेहरू को उनके पत्रों द्वारा याद करना और एडविना के शव के बगल में बिस्तर पर बिखरे हुए नेहरू के पत्रों का पाया जाना सचमुच मन को आर्द्र करता है. अपनी वसीयत में एडविना ने एक सूटकेस भरे ये खत माउंटबैटन को सौंपे थे. इस रिश्ते पर माउंटबैटन की बेटी पामेला माउंटबैटन ने भी रोशनी डाली है. पामेला ने डायरी और पारिवारिक ऐलबम के दस्तावेजों को आधार किताब ' इंडिया रिमेम्बर्ड : ए पर्सनल अकाउंट ऑफ द माउंटबैट्न्स ड्यूरिंग द ट्रांसफर ऑफ पावर ' लिखी. नेहरू को मामू कहकर बुलाने वाली पामेला ने इस किताब के एक भाग को ' ए स्पेशल रिलेशन ' नाम दिया. पामेला लिखती हैं , ' मेरी मां के पहले भी कई प्रेमी रहे थे. मेरे पिता उनसे आहत थे , लेकिन नेहरू के केस में स्थिति थोड़ी अलग थी. ' अन्य मामलों की तुलना में नेहरू के साथ मेरी मां के संबंध थोड़े अलग थे. पामेला ने एक खत का जिक्र किया है , जो जून 1948 में माउंटबैटन ने अपनी बड़ी बहन को लिखा था. इस खत में उन्होंने एडविना - नेहरू के संबंधों के बारे में लिखा कि नेहरू और एडविना के बीच काफी मधुर संबंध थे. वे दोनों एक दूसरे की ओर बेहद खूबसूरत अंदाज में आकर्षित हुए. मार्च 1957 में नेहरू ने एडविना को एक खत में एडविना को लिखा कि अचानक मुझे महसूस हुआ ( और शायद तुम्हें भी हुआ हो ) कि हमारे बीच गहरा लगाव है और कोई अनियंत्रित ताकत है, जिसने हमें एक दूसरे का बना दिया. पामेला को अपने मां - बाप के साथ भारत आने के कारण अपना स्कूल छोड़ना पड़ा था. उन्होंने देश का विभाजन और दो नए राष्ट्रों का उदय देखा था. यह वह समय था जब भारत में ब्रिटिश राज खत्म हो रहा था और कश्मीर समस्या अत्यंत जटिल मुद्दे के रूप में छाई हुई थी. पंडित नेहरू खुद भी एक कश्मीरी थे , इसलिए इस समस्या के प्रति वह काफी भावुक थे. पामेला बताती हैं कि मेरे पिता मां से कहते थे कि नेहरू से इस दुखद लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे को देखने के लिए कहो. पामेला के मुताबिक नेहरू और उनकी मां के बीच गहरे प्रेम संबंध इसलिए हुए, क्योंकि नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का देहांत हो चुका था और उनकी बेटी इंदिरा की शादी हो चुकी थी. पामेला के अनुसार एडविना और नेहरू के बीच दार्शनिक संबंध थे, न कि शारीरिक. माउंटबैटन के लंदन लौटने के बाद भी नेहरू और एडविना साल में दो बार मिलते थे.

इंदिरा प्रियदर्शनी और फिरोज बाटलीवाला
मोती लाल नेहरू की पौत्री और जवाहर लाल नेहरू तथा कमला नेहरू की पुत्री इंदिरा गाँधी का बचपन का नाम प्रिय दर्शनी था. उनका जन्म १९ नवम्बर १९१७ को इलाहाबाद में हुआ था. वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं. 'भारत छोडो आन्दोलन' के दौरान इंदिरा गाँधी और फिरोज गाँधी को गिरफ्तार किया गया और एक साथ जेल में डाल दिया गया था. मई 1943 तक इलाहाबाद की नैनी जेल में रहीं. इंदिरा गांधी की शादी हुई फ़िरोज़ गांधी से. यह भी प्रेम विवाह था. हालांकि इंदिरा गांधी के नाम के साथ राजनीति का एक बड़ा अतीत जुड़ा रहा पर राजनीति की समझ, दाँवपेंच, सियासत, विदेश संबंधों और कामकाज के तरीके को लेकर इंदिरा गांधी की अपनी एक अलग पहचान भी थी. जब इंदिरा ने फिरोज बाटलीवाला से शादी का फैसला किया तो जवाहर लाल नेहरू को इस पर बहुत आपत्ति हुई थी. फिरोज गांधी इलाहाबाद के पारसी परिवार से ताल्लुक रखते थे. जवाहर लाल नेहरू ने राजनीतिक कारणों से विवाह की अनुमति नहीं दी, लेकिन बाद में 1942 में दोनों की शादी हो गई. तब महात्मा गांधी ने इंदिरा और फिरोज को अपना सरनेम गांधी देकर मिसाल कायम की थी. इसके बाद की कहानी भी दिलचस्प है. गांधी जी की गोद में खेलती इंदिरा से लेकर फिरोज से विवाह के बंधन में बंधती इंदिरा तक की तस्वीरें देश की धरोहर बनती गईं. फिरोज गांधी 48 वर्ष की आयु में इस संसार से चले गए. इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू के पैतृक निवास आनंद भवन के पीछे लगा संगमरमर का शिलापट दोनों की शादी की स्मृतियों को ताजा करता है. फिरोज एक राजनेता के साथ-साथ पत्रकार भी थे. लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स से पढ़ाई करने वाले फिरोज गांधी 1930 में पढ़ाई छोड़कर आजादी की लड़ाई में शरीक हो गए थे. शादी के छह महीने बाद भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान फिरोज को जेल भेज दिया गया. 1944 में इंदिरा गांधी भी जेल गई. राजीव गांधी और संजय गांधी के जन्म के बाद फिरोज और इंदिरा गांधी इलाहाबाद में ही रहने लगे. फिरोज अपने ससुर जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित अखबार द नेशनल हेराल्ड के संपादक बन गए. स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव में 1952 में वह रायबरेली से लडे़, जहां आज भी नेहरू-गांधी परिवार का प्रभाव बना है. पुरी के मंदिर में अछूतों का प्रवेश वर्जित है. अछूते मतलब गैर हिंदू और गैर सवर्ण. जब इंदिरा गांधी ने पारसी फिरोज गांधी से विवाह किया था तो उनके भी मंदिर में प्रवेश की बात को लेकर बवाल मचा था. इंदिरा गांधी के बाबा मोतीलाल नेहरू के पिता मुसलमान थे, जिनका असली नाम ग़ियासुद्दीन गाज़ी था और उन्होंने ब्रिटिश सेना से बचने के लिए अपना नाम गंगाधर रख लिया था. नेहरू परिवार में गांधी उपनाम का महात्मा गांधी से संबंध नहीं है. यह उपनाम इंदिरा ने फिरोज गांधी से विवाह करने पर अपनाया था. वह अक्टूबर 1984 का अंतिम दिन था. दिल्ली चुनाव से पूर्व के वातावरण में डूबी हुई थी. इंदिरा गाँधी ने दो महीनों के भीतर आम चुनाव करवाने का मन बना लिया था. उस समय उन्हें टीवी के लिए एक इंटरव्यू देना था. जैसे ही 1, सफदरजंग रोड स्थित अपने आवास से 1, अकबर रोड स्थित कार्यालय के लिए निकलीं, उनके सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें गोलियों से भून दिया था.

सोनिया एंटोनिया माएनो और राजीव गांधी
सोनिया गांधी का नाम था सोनिया माएनो. उनका जन्म 1946 में वैनेतो, इटली के क्षेत्र में विसेन्ज़ा से २० कि. मी दूर स्थित एक छोटे से गाँव लूसियाना में हुआ था. उनके पिता स्टेफ़िनो मायनो एक भवन निर्माण ठेकेदार थे और भूतपूर्व फासीस्ट सिपाही थे जिनका निधन 1983 में हुआ. उनकी माता पाओलो मायनों हैं. उनकी दो बहने हैं. उनका बचपन टुरिन, इटली से ८ कि. मी. दूर स्थित ओर्बसानो में व्यतीत हुआ. 1964 में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बेल शैक्षणित निधि के भाषा विद्यालय में अंग्रेज़ी भाषा का अध्ययन करने गई जहाँ उनकी मुलाकात राजीव गांधी से हुई जो कि उस समय ट्रिनिटी विद्यालय, कैम्ब्रिज में पढ़ते थे. 1968 में दोनों का विवाह हुआ जिसके बाद वे राजीव गांधी की माता, इंदिरा गांधी के साथ भारत में रहने लगीं. उनकी दो संताने हैं पुत्र राहुल गांधी (जन्म 19 जून 1970) जो अभी अविवाहित हैं, और पुत्री प्रियंका गांधी, जिनका विवाह रॉबर्ट वडेरा से हुआ है. उन्होंने 1983 में भारतीय नागरिकता स्वीकारी थी. राजीव गांधी को राजनीति में कोई रूचि नहीं थी और वो एक एयरलाइन पायलेट की नौकरी करते थे. इमरजेन्सी के उपरान्त जब इन्दिरा गांधी को सत्ता छोड़नी पड़ी थी तब कुछ समय के लिए राजीव गांधी परिवार के साथ विदेश में रहने चले गए थे. परंतु 1980 में अपने छोटे भाई संजय गांधी की एक हवाई जहाज़ दुर्घटना में असामयिक मृत्यु के बाद इन्दिरा गांधी को सहयोग देने के लिए 1982 में राजनीति में प्रवेश लिया. वह अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीत कर सांसद बने और 31 अक्टूबर 1984 को सिख आतंकवादियों द्वारा प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की हत्या किए जाने के बाद उसी दिन भारत के प्रधानमंत्री बने. उनके प्रधानमंत्रित्व काल में भारतीय सेना द्वारा बोफ़ोर्स तोप की खरीदारी में लिए गये किकबैक (घूस) का मुद्दा उछला जिसका मुख्य पात्र इटली का एक नागरिक, ओटावियो क्वाटोराची था जो कि सोनिया गांधी का मित्र था. अगले चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा. 21 मई 1991 को तमिल आतंकवादियों ने उनकी आत्मघाती विस्फ़ोट से हत्या कर दी गई थी. उस समय मर्माहत सोनिया गांधी ने कहा था कि मैं अपने बच्चों को भीख मांगते देख लूँगी, परंतु राजनीति में कदम नहीं रखूँगी. सोनिया ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके ६2 दिनों के अंदर 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं. अक्टूबर १९९९ में बेल्लारी, कर्नाटक और अमेठी से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं, जीतीं. आज भी वह कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

एक परिवार की तीन पीढ़ियों की प्रेम कहानी

Monday, February 16, 2009

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत



मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे.
हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे.
थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे.
उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे.
फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे.
रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे.
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे.
हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जायेंगे.
हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे.

बच्चे बेकारी के दिनों की बरक्कत हैं



एक सही कविता
पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।
जीवन में कविता की क्या अहमियत है-
कविता भाष़ा में आदमी होने की तमीज है।
लेकिन आज के हालात में -
कविता घेराव में किसी बौखलाये हुये आदमी का

संक्षिप्त एकालाप है।
तथा कविता शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में खड़े
एक निर्दोष आदमी का हलफनामा है।
आखिर मैं क्या करूँ
आप ही जवाब दो?
तितली के पंखों में पटाखा बाँधकर
भाषा के हलके में कौन सा गुल खिला दूँ
जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
हाशिये पर चुटकुला बन रहा है
क्या मैं व्याकरण की नाक पर
रूमाल बाँधकर निष्ठा का तुक
विष्ठा से मिला दूं?


एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुये उसने जाना
कि प्यार घनी आबादी वाली बस्तियों में मकान की तलाश है।
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुये कहा-
‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर,
खाने के लिये रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे हमें
बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
वे चुपचाप सुनते हैं
उनकी आँखों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है
कुछ पता नहीं चलता
वे इस कदर पस्त हैं
कि तटस्थ हैं
और मैं सोचने लगता हूँ
कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति यहाँ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-हाथों की जूजी है।
….और जो चरित्रहीन है
उसकी रसोई में पकने वाला चावल कितना महीन है।

संसद
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि अपने यहां संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

मोचीराम
राँपी से उठी हुई आँखों ने
मुझे क्षण-भर टटोला और फिर जैसे
पतियाये हुये स्वर में वह हँसते हुये बोला
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिये खड़ा है।
और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है
जैसा है, जहाँ कहीं है
आजकल कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर हथौड़े की तरह सहता है।
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है
जूता क्या है
चकत्तियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ
भीतर से एक आवाज़ आती है
’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,
उस समय मैं चकत्तियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।
एक जूता और है जिससे पैर को‘नाँघकर’
एक आदमी निकलता है सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ…
ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’
वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।
मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है
कि जूते और पेशे के बीच कहीं-न-कहीं
एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है
कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की दलाली करके
रोज़ी कमाने में कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है
जहाँ हर आदमी अपने पेशे से
छूटकर भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों
सुखतल्ले धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ
उस समय राँपी की मूठ को
हाथ में सँभालना मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,
सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर आदमी का नहीं,
किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है
कि आग सबको जलाती है
सच्चाई सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई
एक चीख़’और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है
भविष्य गढ़ने में ,
’चुप’ और ‘चीख’अपनी-अपनी जगह
एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

भीतर के देवता



पा-लागन

आंगन के पार
द्वार खुलेद्वार के पार
आंगन भवन के ओरछोर सभी मिले
उन्हीं में कहीं खो गया भवन
कौन द्वारी कौन आगारी,
न जाने, पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता ने किया बार-बार पा-लागन।

दिलों को तेरे तब्बसुम की याद यूं आई








चांद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शब् -ए -तनहाई का
दौलत -ए -लब से फिर आई खुस्राव -ए -शिरीन
दहनआज रिज़ा हो कोई हर्फ़ शाहान्शाई का
दीदा -ओ -दिल को संभालो कि सर -ए -शाम "फिराक "



2
साज़ -ओ -सामान बहम पहुँचा है रुसवाई का


यह नर्म-नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग
तेरे ख्याल की खुशबू से बस रहे हैं दिमाग
दिलों को तेरे तब्बसुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग
तमाम शोला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार
कि ता-हद-ए-निगाह-ए-शौक लहलहाते हैं बाग
नई जमीं, नया आस्मां, नई दुनिया
सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनो है फराग
दिलों में दाग-ए-मोहब्बत का अब यह आलम है
कि जैसे नींद में डूबे हों पिछली रात चिराग.
फिराग बज्म-ए-चिरागां है महफिल-ए-रिंदां
सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग.

कौन जाने कि तेरी नर्गिसी आँखों में कल




आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ

कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?

बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं

ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।
जिन्दगी सिर्फ है खूराक टैंक तोपों की

और इन्सान है एक कारतूस गोली का

सभ्यता घूमती लाशों की इक नुमाइश है

और है रंग नया खून नयी होली का।
कौन जाने कि तेरी नर्गिसी आँखों में कल

स्वप्न सोये कि किसी स्वप्न का मरण सोये

और शैतान तेरे रेशमी आँचल से लिपट

चाँद रोये कि किसी चाँद का कफ़न रोये।
कुछ नहीं ठीक है कल मौत की इस घाटी में

किस समय किसके सबेरे की शाम हो जाये

डोली तू द्वार सितारों के सजाये ही रहे

और ये बारात अँधेरे में कहीं खो जाये।
मुफलिसी भूख गरीबी से दबे देश का दुख

डर है कल मुझको कहीं खुद से न बागी कर दे

जुल्म की छाँह में दम तोड़ती साँसों का लहू

स्वर में मेरे न कहीं आग अँगारे भर दे।
चूड़ियाँ टूटी हुई नंगी सड़क की शायद कल

तेरे वास्ते कँगन न मुझे लाने दें झुलसे

बागों का धुआँ खाये हुए पात कुसुम

गोरे हाथों में न मेंहदी का रंग आने दें।
यह भी मुमकिन है कि कल उजड़े हुए गाँव गली

मुझको फुरसत ही न दें तेरे निकट आने की

तेरी मदहोश नजर की शराब पीने की।

और उलझी हुई अलकें तेरी सुलझाने की।
फिर अगर सूने पेड़ द्वार सिसकते आँगन

क्या करूँगा जो मेरे फ़र्ज को ललकार उठे ?

जाना होगा ही अगर अपने सफर से थक

कर मेरी हमराह मेरे गीत को पुकार उठे।
इसलिए आज तुझे आखिरी खत और लिख दूँ

आज मैं आग के दरिया में उत्तर जाऊँगा

गोरी-गोरी सी तेरी सन्दली बाँहों की कसम

लौट आया तो तुझे चाँद नया लाऊँगा।

पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला



मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा, फ़िर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत, करती मेरी मधुशाला.
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,

एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं, तुझ पर जग की मधुशाला
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण- भर ख़ाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला.

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
' किस पथ से जाऊँ? ' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग- अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ
' राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला.
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,

उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला
मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।
छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।

किस बात पर यह बहस हो रही है?


1

मैं- एक निराकार मैं थी
यह मैं का संकल्प था,
जो पानी का रुह बना और तू का संकल्प था,
जो आग की तरह नुमायां हुआ
और आग का जलवा पानी पर चलने लगा
पर वह पुरा-ऐतिहासिक समय की बात है
.....यह मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उस ने तू का दरिया पी लिया

यह मैं की मिट्टी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
यह मैं की माटी की गन्ध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला-सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया ।
यह तेरे और मेरे मांस की सुगन्ध थी
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी
संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है.


2
एक दर्द था
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं
जो सिगरेट से मैं ने राख की तरह झाड़ी.

3
मेरे सामने
ईज़ल पर एक कैनवस पड़ा है
कुछ इस तरह लगता है
कि कैनवस पर लगा रंग का टुकड़ा
एक लाल कपड़ा बन कर हिलता है
और हर इंसान के अन्दर का पशु
एक सींग उठाता है
सींग तनता है
और हर कूचा-गली-बाज़ार एक ' रिंग ' बनता है
मेरी पंजाबी रगों में एक स्पेनी परम्परा खौलती
गोया कि मिथ- बुल फाइटिंग- टिल डैथ

4
आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रुर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रुह की झलक पड़े
समझना वह मेरा घर है.

5
मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……
फिर समुन्द्र को खुदा जाने क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया
हैरान थी….पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..
लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये पर खड़ी रह गयी
कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?
मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली
सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे
और नीची छतों और संकरी गलियों के शहर में बस सकते थे….
पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने आप ही घूंट पिया
मैं अकेला किनारा किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान समुन्द्र को लौटा दिया….
अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

6
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….
आसमान की भवों पर जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….
साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे, दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….
तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान मेरे चौके से भूखा उठ गया….

8
बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया
आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

9
मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

10
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से फिर साईकिलों
और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….


एकगो रोटी बदे बचवन में मारि होइ गइल

मुंह ढांपैं त टंगरी उघार होइ गइल .........ई त दूसरे क गीत ह.

त भइया, गोरख पांड़े त ई कुल गावत-गावत मरि गइलैं। उनहूं के भला का मालूम रहल कि समजावाद का कमाई-धमाई खाए-खसौटे वाले दलाल टाटा की थैली में मुंह मारि-मारि के सिंदूरग्राम अउर नांदीग्राम में अपने मुंहे करिखा लगाइके थेथर की तरह घूमत बानै आजकल। आ ऊ जमाने के, पांड़े जी के जमाने के बड़े-बड़े करांतिकारी लोग दिल्ली में सहाराश्री-सहाराश्री जपत हउवैं। केहू पतरकार बनत डोलत बा, जोतीबसू का जीवनी लिखत बा त केहू एहर-ओहर पूंजी के दलालन के नाबदान में थूथुन चभोरत बा। आ जे लोग नक्सलबाड़ी में बान-धनुख तनले रहे, उनहू लोगन में केहू मीरघाट-केहू तीरघाट पर आपनि-आपनि मंडली लेके बड़ा जोरदार बहस में जुटल बा साठ साल से कि हमार असली दुसमन के हउवै। एतना साल में त आदमी चाहै त पताल खोदि नावै। धिक्कार बा उनहू लोगन के अइसन जनखा गोलइती प। सुनै में आवत ह कि ऊहो लोगन में केहू क सरदार लेबी के पइसा से अमरीकी शर्ट-बुश्शर्ट पहिनी के अरिमल-परिमल परकासन चलावत बा अपने मेहरी-लइका, साढ़ू-सढ़ुआइन के साथ त केहू तराई में टांगि भचकावत रागमल्हार में डूबलि बा। आज ले केहू से एक तिनको भर नाही उखरल। उनही लोगन में केहू अमेरिका से लौटि के बीबी के पल्लू में एनजीओगीरी करत बा त केहू बिहार अउर आन्हर परदेस के जंगलन में फालूत के धांय-धांय में आपनि ताकत झोंकले बा। अरे बेसरम, तू लोगन के चिल्लू भर पानी में डूबि मरै के चाही कि देखा नैपाल में बिना कौनो डरामा-नौटंकी कैसे बहादुरन की जमाति ने ऊ रजवा के खदेड़ि देहलस...आ तू लोगन अजादी क मशालै पढ़ावति रहि गइला। कहां गइल तोहार आइसा-फाइसा. आइपीएफ-साइपीएफ.... आखिर कब ले तोहन लोगन ढुकारि मारि के दिल्ली के कोने अतरे में फोकट का बुद्धी बघारत रहबा। तोहन लोगन त आपसै में कटि मरबा, जनता के खातिर का कइबा कट्टू?देखा कठपुतली नीयर मनमोहना कैसे चीन अमरीका धांगत हउवै, मर्द त ऊ हउवै, तोहन लोग सारी पहिनि के घूमा ससुरो। किसान मजूर क कलेजा जरी त ओकरे मुंह से ईहै कुल गारी-गुपुत निकली। मरला की हद कइ नउला तोहन लोग। खैर कौनो बात नइखैं। हमरे बस में आजि एतने हउवै कि एही तरहि से तोहन लोगन क खोज खबरिया लेत रहीं भोजपुरिया धुन में। तू लोग नगरी-नगरी द्वारे वैन प लादि के किताब कापी बेचा, क्रांति-स्रांती का नाटक-नौटकी करा, गीत-गाना का सीडी-वोडी बेचा-बिकना, आपन रोजी-रोटी चलावा, बस तोहरे लोगन से आउर कुछ उखरै-परिआए क भरोसै बेकार बा। अकारथ गइलि कुल कुरबानी। जाने केतनी सहीद लोग अपने-अपने कबर में से तोहन लोगन क ई रामलीला देखति होइहैं, जनता त देखती बाय।ई बाति तोहनो लोगन पर लागू हउवै कि...फुहरी गईल दाना भुजावै, फूटि गइल खपड़ी लगल गावै।

मोती बीए

मोती बीए को भोजपुरी सिनेमा के महानायक के बतौर जाना जाता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी मोती बीए ने फिल्मों की पटकथा से लेकर गीत तक लिखे। भोजपुरी फिल्मों में अभिनय भी किया। उनके गीत आज भी भोजपुरी क्षेत्र के लोगों की स्मृति में ताजा हैं। कहते है कि उन्होंने भोजपुरी फिल्म निर्माण को बालीवुड में एक मजबूत जमीन दी।
भोजपुरी सिनेमा को एक मुकाम तक ले जाने वाले मोती बी.ए. ब्रिटिश हुकूमत से ही भोजपुरी सिनेमा में अभिरुचि रखने लगे और 1945 तक मुम्बई में पंचोली आर्टस पिक्चर की बन रही फिल्म कैसे कहूं तथा सुभद्रा, एक कदम, काटे न कटे रे मोरा दिनवा भोजपुरी गीत फिल्म में खूब चला। इसके बाद 1947 में फिल्म साजन तथा 1948 में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल की फिल्म नदिया के पार फिल्मों के उनके लिखे गीत सुपर डुपर हिट रहे। इन फिल्मों के गीतों से ही मोती बी ए को नयी पहचान मिली। मोती जी ने 1984 में ठकुराईन तथा गजब भइले रामा एवं 1987 में चम्पा चमेली के लिए भी गीत लिखे। उन्होंने 1984 में गजब भइले रामा में अभिनय भी किया।
भोजपुरी सिनेमा के साथ ही हिन्दी साहित्य में उनकी रचनाएं मृगतृष्णा में तनी अउरि दउर हिरना पा जइब किनारा काफी चर्चित रही। इसके अलावा छम-छम पायल बाजे, अश्वमेघ यज्ञ, हरश्रृंगार के फूल, समिधा भी लोगों के बीच चर्चित हुई। इसके अलावा सेमर के फूल, वन वन बोले ले कोइलिया के साथ ही उर्दू साहित्य के रश्के-गुहर, दर्द ए गुहर ने भी साहित्य प्रेमियों के बीच अपनी जगह बनाई।
1973-74 में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य साहित्यिक पुरस्कार ,1984 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार से मोती बी.ए. को अलंकृत किया। इसी वर्ष बिहार के विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ भागलपुर ने उन्हें विद्या सागर सम्मान दिया। 1998 में विश्व भोजपुरी सम्मेलन भोपाल द्वारा सेतु सम्मान एवं 2001 में साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा भाषा सम्मान से मोती बी.ए. को नवाजा गया था।