Saturday, June 21, 2008

पुस्तकचोर बच्चे यानी तरह-तरह के चोर

हाय! वे मेरी किताबें कौन ले गया? इधर ढूंढूं, उधर ढूंढूं, कहीं न मिलें। कौन ले गया? अभी यहीं तो रखी थीं! हाय! मेरी लायब्रेरी, इसे किसकी नजर लग गयी। बाद में पता चला कि घर का भेदी लंका ढाए, जब्बर चोर सेंध में गाए। पुस्तकचोर और कोई नहीं, अपने ही बच्चे हैं, अपने ही साथी-संघाती हैं, नाते रिश्तेदार हैं, परिचित-सुपरिचत हैं, जो एक-एक कर मेरी आंख बचाकर आदि विद्रोही को उठा ले गए। परती परिकथा लुप्त हो गई। मैला आंचल गुम हो गया। गोदान भी गायब है। धीरे बहो दोन रे, जाने किसके घर में बह रही होगी! जिस रैक में होती थी युद्ध और शांति, वहां रद्दी के अखबार ठुसे पड़े हैं। टालस्टॉय के चारो सेट गायब, साथ में अन्ना केरेनीना भी लापता। उफ्, ये क्या हो रहा है? एक-एक कर कौन ठिकाने लगा रहा है मेरी थाती। माथा ठनका तो मैं छानबीन में जुटा। काफी मशक्कत, ताक-झांक, पूछताछ के बाद आखिर एक दिन सुराग हाथ लग ही गया।
यूं ही एक दिन घूमते-घामते अपने परिचित के घर पहुंच गया। अंदर घुसते ही देखा कि उनका सबसे छोटा बच्चा फर्श पर युद्ध और शांति के चौथे खंड को दो टुकड़े कर उसके पन्नों से खेल रहा है, कुछ पन्ने इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। देख कर मेरा कलेजा फट गया। उल्टे पांव सनाका खाये घर लौट आया।
लेकिन सबसे बड़ा चोर तो मेरे मझले बेटे का सहपाठी निकला। अभी 11वीं में पढ़ रहा है। हाथ की सफाई में अव्वल है, ऐसा तो मैंने काफी पहले से सुन रखा था। लेकिन उसकी करनी का फल मैंने भोगा पहली बार। एक दिन दोपहर में भोजन के बाद रागदरबारी पढ़ने को मन मचला तो लायब्रेरी की निचली रैक में उसे ढूंढने लगा। वह भी लापता। तभी ध्यान आया कि मेरे मझले बेटे का सहपाठी टिन्नू कुछ दिन पहले मेरी पत्नी को राग दरबारी के किस्से सुनाकर जोर-जोर से हंस रहा था। तुरंत मैंने पैरों में चप्पल डाली और पहुंच गया उसके घर। टुन्नू घर के सामने के पार्क में क्रिकेट खेल रहा था। बुलाकर बहाने से उसे उसके घर ले गया। सुरागगशी के लिए मैंने उसके कोर्स की हिंदी की किताब मांगी और पीछे-पीछे मैं भी उसके भरे-पुरे वाचनालय में पहुंच गया। देखकर मेरी आंखें फटी रह गयीं। मेरी गायब हो चुकी ज्यादातर किताबें उसकी आलमारी पर बेतरतीब लदी पड़ी थीं। गुस्से में मैंने तत्काल उसका गिरेबां पकड़ा और घसीटते हुए उसके पिता के सामने ले गया। उलाहने में सब कुछ बक डाला। उसके पिता भी हक्के-बक्के। उन्होंने बड़ी शालीनता से पूछा कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने मुझे आज तक इस रूप में कभी नहीं देखा-सुना था। जब पूरा वाकया उन्हें पता चला तो वे भी लाल-पीले हो उठे। इस बीच मुझे अपने गुस्से पर गुस्सा या और शर्मींदगी भी। जाने क्या-क्या कह डाला था चुन्नू को।
उसने चोरी तो की थी लेकिन किताबों की। अब इस चोरी को क्या कहें। एक ऐसा सच, जो न उगला जा रहा था, न निगला। टुन्नू फफक-फफक कर रो रहा था। मैं उसे समझाने लगा कि बेटे, किताबें पढ़नी ही थीं तो तुम मुझसे मांग ले आता। चोरी करने की क्या जरूरत थी। और मैं मन-ही-मन उसकी इस करनी पर जाने क्यों अभिभूत-सा होने लगा, यह सोच-सोचकर कि चलो मेरी कालोनी में आज के समय में एक ऐसा बच्चा भी तो है जो अन्ना केरेनीना, गोदान और आदिविद्रोदी पढ़ने का शौकीन है। उस दिन के बाद मैंने अपनी लायब्रेरी की चाबी उसके हवाले कर दी।

Sunday, June 15, 2008

अगर बिके.......तो ब्लॉग बेंच दो

देखो-देखो काग-भुसंडी!
खुला-खुला बाजार खड़ा है
बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!

अपने मन की आग बेंच दो,
धुले-धुलाए दाग बेंच दो,
गिटपिट राग-विराग बेंच दो,
फूहड़-फिल्मी फाग बेंच दो,
बुझते हुए चिराग बेंच दो
और दुधमुंहे नाग बेंच दो,
अगर बिके तो ब्लॉग बेंच दो....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!

फर्जी साधु-फकीर बेंच दो,
अपने संगम-तीर बेंच दो,
गंगा-यमुनी नीर बेंच दो,
जान परायी पीर बेंच दो,
बापू की तकरीर बेंच दो,
नेहरू की तस्वीर बेंच दो,
दिल्ली की तकदीर बेंच दो....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!


तालपचीसी तान बेंच दो,
अपने बहरे कान बेंच दो,
जज हो, तो ईमान बेंच दो,
सैंतालिस की शान बेंच दो
बिके तो संविधान बेंच दो,
राष्ट्र बेंच दो, गान बेंच दो,
सारा हिंदुस्तान बेंच दो, ....बेंचो-बेंचो काग-भुसंडी!