Friday, September 12, 2008

मोहल्ला से ज्यों-का-त्यों

बिहार के बाढ़ पीडितों के समर्थन में संवेदना मार्च

प्रिय साथियो


पटना में बाढ़ पी‍ड़‍ितों के लिए प्रदर्शन
बिहार के शोक के नाम से जानी जानेवाली कोसी नदी ने अपने साथ हुई छेड़छाड़ के प्रति अपना ग़ुस्सा दिखाते हुए तटबंधों को तोड़ दिया है। उत्तर बिहार के 15 ज़िले के लोगों की ज़िंदगी और रोज़गार पानी के धारों के साथ बह चली है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से राज्य के लगभग 30 लाख लोग अपने घर, रोज़गार और सम्मान से वंचित हो गए हैं। अपनी मेहनत से कमाकर खानेवाले लोग मुट्ठी-भर दाने के लिए मुहताज हो गए हैं। कार्यकर्ता और बचाव और राहत कार्य में जुटे गंभीर विश्लेषकों का मानना है कि मृतकों और प्रभावितों की संख्या का सही आकलन तभी लगाया जा सकता है जब बाढ़ उतर जाए और सारे लोग अपनी जगह पर वापस आ जाएं। इसकी संभावना भी कम ही दिखाई देती है क्योंकि अभी से लोग बड़ी संख्या में पनाह और रोज़गार की तलाश में दिल्ली, पंजाब और दूसरे छोटे-बड़े शहरों की ओर पलायन करने लग गए हैं। एक अख़बार के अनुसार 1 लाख हेक्टेयर या 2.5 लाख एकड़ की खेती तबाह हो गई है। इससे बिहार की पहले से बिगड़ी खाद्य-स्थिति पर और भी बुरा असर पड़ेगा और क्षेत्र की जनसंख्या को पोषित करने की क्षमता में तीव्र गिरावट निश्चित है।

दोस्तो, जैसे-जैसे बाढ़ के पानी के उतरने की ख़बर आ रही है मीडिया के लिए बाढ़ की ख़बर ग़ैर-ज़रूरी होती जा रही है। बिहार सरकार ने मान लिया है कि बचाव का काम पूरा हो चुका है और अब बचाव कार्य की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। सरकार ने यह घोषणा भी कर दी है लेकिन बचाव और राहत कार्य से जुड़े एक प्रोफ़ेसर कार्यकर्ता ने सेना के एक महत्वपूर्ण अफ़सर के हवाले से कहा है कि अभी तक 3/4 लोग यहां-वहां बाढ़ के पानी में फंसे हैं और उनतक राहत का कोई सामान नहीं पहुंच रहा है।

अभी समय की मांग है कि सभी प्रभावित और बाढ़ में फंसे लोगों को बिना और समय गंवाए सुरक्षित जगहों तक पहुंचाया जाए। बाढ़ग्रस्त इलाक़ों से यह ख़बर आ रही है कि बचाव और राहत कार्य में दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ बड़े स्तर पर भेदभाव किया जा रहा है। हम सभी का यह दायित्व है कि सरकारों और प्रशासन पर यह दबाव बनाया जाए कि वे जाति-धर्म और दूसरी सभी दीवारों को भूलकर सभी प्रभावित लोगों को देश का समान नागरिक मानकर अपनी सेवाएं पहुंचाएं।

दोस्तो, बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में राहत सामग्रियों की बेहद कमी है। कई सामाजिक संस्थाओं, राज्यों की सरकारों और दूसरे समूहों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए बाढ़ पीड़ितों के साथ अपनी एकजुटता का परिचय दिया है और राहत के कामों में जुटी हैं। लेकिन इस बाढ़ से जिस स्तर की तबाही आई है उससे लड़ने के लिए इतना सहयोग काफ़ी नहीं है। बिहार की सरकार द्वारा कोसी नदी तटबंध के टूटने के पहले और बाद में जिस तरह की लापरवाहियां बरती गई हैं वे जगज़ाहिर हैं। बचाव और राहत कार्यों को पूरा करने में भी सरकार ने अपनी अक्षमता का खुलकर प्रदर्शन किया है। इन कारणों से सरकारी पुनर्निर्माण की संभावनाएं भी शक के घेरे में आ जाती हैं। इसलिए जागरूक नागरिकों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि बचाव और राहत कार्यों पर कड़ी नज़र रखें और राहत सामग्री सही हक़दारों तक पहुंचे इसकी भी गारंटी करें।

दोस्तो, इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाढ़ का पानी जैसे-जैसे उतरेगा मानवीय अपील के कारण होने वाले राहत कार्य भी शिथिल पड़ते जाएंगे। पीड़ित लोगों की यादों में बाक़ी रह जाएंगी अपने अपनों, घर और रोज़गार की तबाही की तस्वीरें और एक ऐसा निराशाजनक भविष्य जो किसी का भी दिल दहला दे। इसलिए हमारी यह भी मांग होनी चाहिए कि सभी प्रभिावित लोगों का पूरा पुनस्र्थापन हो। जीवन और मानवता के पुनर्निर्माण के इस काम में हमें अपनी भूमिका भी तय करनी होगी। अगर हम इस काम में असमर्थ रहते हैं तो पलायन का एक ऐसा दौर चलेगा जो ग़रीबों के जीवन को और भी कठिन बना देगा और मानवाधिकारों की सभी लड़ाइयों को कमज़ोर कर देगा।

दिल्ली के सजग नागरिकों, कार्यकर्ताओं और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने मिलकर बिहार फ़्लड रिलीफ़ नेटवर्क नाम से एक मोर्चा बनाया है जो बाढ़ पीड़ितों के अधिकारों के लिए काम करनेवाले लोगों और संस्थाओं के कामों में अपना सहयोग दे रहा है। आप भी इस मोर्चे से जुड़ें और बिहार के बाढ़ पीड़ितों के जीवन के पुनर्निर्माण के काम में अपना सहयोग सुनिश्चित करें।
कल दिनांक 13 सितंबर को सायं साढ़े चार बजे एक 'संवेदना मार्च' निकाला जाएगा. आपसे गुज़ारिश है कि मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक के इस मार्च में आप ज़रूर शामिल हों.
ज़्यादा जानकारी के लिए संपर्क करें:
राकेश सिंह फ़ोन : 9811972872 ईमेल : rakeshjee@gmail.com
विनय सिंह फ़ोन : 9810361918 ईमेल : kumarvinaysingh@gmail.com
इश्तियाक़ अहमद फ़ोन : 9968329198 ईमेल : muktigami@gmail.com

घर से भागी हुईं लड़कियां

जरूरी है पढ़ते चलना। इन लड़कियों को, आलोक धन्वा की जुबानी। जरूरी है पढ़ते चलना। इन सफेदपोशों को अदम गोंडवी की जुबानी। पहले आ.....फिर अ..... अर्थात छह अंकों में आलोक धन्वा.... तीन अंकों में अदम...



एक
घर की जंजीरें
कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है

क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भगती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी?
और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले!

क्या तुम यह सोचते थे
कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गए?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था?

दो
तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं
कभी वह खत
जिसे भागने से पहले
वह अपनी मेज पर रख गई
तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?

उसकी बची-खुची चीजों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
सन्तूर की तरह
केश में

तीन
उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहां से भी
मैं जानता हूं
कुलीनता की हिंसा !

लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जाएगी
पुरानी पवनचिक्कयों की तरह

वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अन्तिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियां होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में

लड़की भागती है
जैसे फूलों गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में

चार
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है

तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

पांच
लड़की भागती है
जैसे सफेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आरपार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है

तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रमिकाओं में !

अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में
जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा

छह

कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है

क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?

क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं?

क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गया?
क्या तुम उसे उठा लाए
अपनी हैसियत अपनी ताकत से?
तुम उठा लाए एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें !

तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर

सिर्फ आज की रात रुक जाओ
तुमसे नहीं कहा किसी स्त्री ने
सिर्फ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाजों तक दौड़ती हुई आयीं वे

सिर्फ आज की रात रुक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ आज की रात भी रहेगी





अदम गोंडवी.....1

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में।
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में।

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशोहवास में ।



अदम गोंडवी.....2
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है



अदम गोंडवी.....3
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

Wednesday, September 10, 2008

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली / मीना कुमारी

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली
रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली
मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली
होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आँखों में, सादा सी जो बात मिली

Monday, September 8, 2008

एक हिरन की आत्मकथा के चंद कतरे





















रेत
है सामने
रेत
का समंदर है....
दौड़ा जा रहा है हिरना पियासा
उसका कोई जंगल है
पंचतंत्र की कथाओं में पढ़ी गयी कोई पंचाट,
फिर तो उसे
उसे अंततः मरना ही होगा।

सुअर कितने सानंद हैं,
रहा है दुनिया भर के नाबदानों में
इतना सारा अन्न,
आदमी हैं कहां,
सब-के-सब मर गये क्या रे!
पूछता है कोई
अक्तूबर क्रांति
या उड़ीसा या बिहार के पिछवाड़े से
बड़ा अजीब हाल है...उफ्!!




हिरन पानी खोज रहा है,
नौजवान नौकरियां,
नेता और अफसर दलाली के अड्डे,
कवि और लेखक
पुरस्कारों और अखबारों की सुर्खियां,
पत्रकार पैकेज,
बुद्धिजीवी खलनायकों के पनाहगाह
और शब्द
अपने अर्थ के मायने....उफ्!!!

Sunday, September 7, 2008

नागार्जुन, निदा फाजली और राजेश जोशी

नागार्जुन की एक लोकप्रिय रचना

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
  कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास 
  कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
  कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
   दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
   धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
   चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
   कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनो के बाद।





राजेश जोशी की लोकप्रिय रचना

कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह

भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना

लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें

क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं

सारी रंग बिरंगी किताबों को

क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने

क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं

सारे मदरसों की इमारतें

क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन

खत्‍म हो गए हैं एकाएक

तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?

कितना भयानक होता अगर ऐसा होता

भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह

कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए

बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे

काम पर जा रहे हैं।


निदा फाजली की लोकप्रिय रचना

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग

रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में

मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग

मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ

मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ