Thursday, February 5, 2009

प्रेम के पांच रंग तस्वीरों में





हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट

दिल दीवाना माने ना
वन डे लव

वैलेंटाइन डे मनाने की प्रथा रोम से प्रचलित हुई. इस दिन वैलेंटाइन नाम के धर्मगुरु शहीद हुए थे. रोम में इनके शरीर को दफनाने के बाद कुछ प्रेम के पहरेदार इनको संत के रुप में जानने लगे और धीरे-धीरे वैलेंटाइन नाम का प्रेम-पत्र, शुभेच्छा कार्ड देने की प्रथा शुरु हो गई. यूरोप के विश्वविध्यालय से शुरु हुई यह प्रथा धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गई और हर जगह वेलेन्टाइन डे प्रेम पर्व के रुप में मनाया जाने लगा. वेलेंटाइन डे को यादगार बनाने के लिए लवर्स एक दूसरे को तोहफे देते हैं. सब अपने प्यार को दिल का ही तोहफा देना चाहते हैं. एक दिन पहले शहर की कार्ड व गिफ्ट गैलरियों में युवाओं की भीड़ लग जाती है. हार्ट शेप गिफ्ट आइटमों की ज्यादा डिमांड होती है. टेडीबियर से लेकर कार्ड तक में हर जगह हार्ट शेप पर नजर होती है. कोई डेढ़ से दो हजार रुपये तक के म्यूजिकल कार्ड खरीदता है तो कोई बॉक्स कार्ड. हर कार्ड पर प्यार की कोटेशन. हर पेज पर तितलियों और फूलों की बात. वैलेंटाइन डे को यादगार बनाने के लिए प्रेमी युगल खास तैयारियां करते हैं. किसी के फैशन में वैस्टर्न वियर शुमार होता है तो किसी की पसंद होती है जींस के साथ कुर्ती. कोई स्कर्ट के साथ शार्ट या सैमी शार्ट टॉप रैड और ओरेंज कलर में पहनना चाहता है तो कोई ड्रैस के साथ मैचिंग एक्सैसरीज में डूब जाता है. मेक-अप पर भी खास ध्यान होता है.
इश्क की मुश्किलों भरी राह पर चलने वाले हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट जैसे प्रेमियों को दुनिया आज भी याद करती है. लेकिन कहते हैं कि उनका प्रेम अवसाद, अविवेक, असंसारिकता जैसी चीजों के नीचे दबा हुआ था. जिसके जीवन का उद्देश्य ही सिर्फ़ एक स्त्री हो, उसके लिए तो वैलेंटाइन डे ठीक है, मगर ‘प्यार से भी जरूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए. वैलंटाइंस डे वाले इश्क-विश्क की दौड़ में हिंदुस्तानी एशिया में नंबर दो पर चल रहे हैं. 68.5 फीसदी भारतीय अपने महबूब से प्यार का इजहार करने के लिए इस दिन को चुनते हैं. यहां की महिलाएं चाहती हैं कि इस दिन का खर्च उनका प्रेमी उठाए. वैलंटाइंस डे मनाने में फिलिपीन नंबर वन है. इस दिन पैसे सबसे ज्यादा सिंगापुर, चीन और कोरिया के लोग खर्च करते हैं. सबसे मक्खीचूस थाइलैंड के आशिक होते हैं. एक सर्वे में 21 फीसदी महिलाओं का कहना था कि हमारे प्रेमी वैलंटाइंस डे पर हम पर 500 से 5,000 डॉलर तक खर्च करें, जबकि पुरुषों की तरफ से सिर्फ 7 फीसदी ने महिलाओं से खर्च की उम्मीद रखी. 38 फीसदी भारतीयों ने कहा कि हम अगली बार ज्यादा पैसे खर्च करेंगे. देश के 76 फीसदी ने कहा कि हम एक दिन पहले ही तोहफा खरीदेंगे, जबकि अन्य देश वाले एक महीने पहले से खरीदारी शुरू कर देते हैं. सर्वे में पता चला कि वैलेंटाइन डे के सबसे पॉपुलर गिफ्ट चॉकलेट और फूल हैं.

Wednesday, February 4, 2009

फरवरी में गर्लफ्रेंड-ब्वॉय फ्रेंड

आज का युवा वर्ग हर दृष्टि से काफी स्पष्टवादी है। जीवन के महत्वपूर्ण पहलू विवाह के लिए भी वह स्वयं निर्णय लेना चाहता है। जब कोई उन्हें भा जाता है, उनके दिलोदिमाग पर छा जाता है तो वह उसे जीवनसाथी बनाने का मन बना लेते हैं। किसी अनजान अजनबी के साथ बंधने की बजाय वह उस शक्स के साथ बंधना चाहते हैं जिन्हें वे प्यार करते हैं, जानते समझते हैं। यदि प्रेम विवाह में धर्म प्रेम विवाह भी कई बार असफल हो जाते हैं। ऐसा तब होता है जब प्रेमी-प्रेमिका जज्बातों में बहकर जल्दबाजी में विवाह का फैसला ले लेते हैं। ऐसे में विवाह बाद बी वे जीवनसाथी से वैसी ही अपेक्षाएं करते हैं जैसी विवाह पूर्व करते थे। वे भूल जाते हैं कि विवाह पूर्व की परिस्थितियां भिन्न थीं तब कुछ समय के लिए प्रेमी-प्रेमिका मिलते थे। एक दूसरे के सम्मुख खूबसूरत दिखने के अलावा अच्छे से अच्छा व्यवहार करते थे। विवाह के बाद जब पति-पत्नी बनते हैं तब वे कल्पनालोक से उतर कर यथार्थ के धरातल पर आते हैं जो जाहिर है कल्पना के सुनहरी ख्वाबों से भिन्न होता है। यहां एक दूसरे को प्रसन्न करने के लिए छोटे-छोटे सुखद
आज के लड़के भले ही अपनी मोटरबाइक पर हर रोज नई लड़की को सैर कराते हों लेकिन जब शादी की बात आती है तो वे एकदम अनछुई, समझदार व सुंदर लड़की तलाशते हैं। यानी गर्लफ्रेंड कोई भी कैसी भी चलेगी लेकिन पत्नी का ग्राफ उनके मस्तिष्क में पहले से बना होता है। भावी पत्नी चुनने के लिए वे फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं। कुंवारी कन्या की तलाश में चले हैं, क्या कहा आप भी कुंवारे हैं, बगलें क्यों झांकने लगे आप ? आज के लड़के भले ही कितनी ही लड़कियों के साथ फ्लर्ट कर चुके हों लेकिन ब्वायफ्रेंड की शौकीन लड़की को कभी बी अपनी संगिनी नहीं बनाना चाहते। यहां तक कि कोई उनकी पत्नी से हंस-बोल कर खुलकर बातें करें, उनके लिए यह सहना भी मुश्किल होता है। आज के लड़के कामकाजी लड़कियों को ज्यादा पसंद करते हैं। आज जिसके पास पैसा है वहां सारी सुविधाएं हैं। एक से भले दो हों तो पैसा भी कमाएंगे खर्च भी खुले हाथ करेंगे। वे चाहते हैं उनकी मां की खूबियों के अलावा उनकी जीवनसंगिनी हर मोर्चे पर उनका हाथ बंटाने वाली हो, अर्थव्यवस्था का बोझ उठाने वाली हो। उनके ख्वाबों की हूर की परी ऐश्वर्या न सही उससे मिलती-जुलती जरूर रहती है। जो दिखने में सुंदर व देहयष्टि से स्लिम-ट्रिम हो। आज के युवा शर्मीली लड़की की बजाय फुर्तीली लड़की से शादी करना चाहते हैं जो शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। चाहिए इंटेलीजेंसी भी छरहरी देहयष्टि की लड़की की चाहत तो हर किसी लड़के में रहती है साथ ही वे उसकी बुद्धिमता के भी कायल है।

Monday, February 2, 2009

बुद्धिजीवी वर्ग की कूपमंडूकता


बुद्धिजीवियों का भी एक बड़ा तबका ऐसा हो चुका है जिसके लिए मजदूरों की जिंदगी और उसके संघर्ष किसी दूसरी दुनिया की बात बन चुके हैं. आज चंद एक संगठनों और उँगलियों पर गिने जाने वाले बुद्धिजीवियों ने मजदूरों के पक्ष में एकता फोरम का गठन किया है. लेकिन एक समय ऐसा था जब दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता जैसे शहरों में ऐसी कोई घटना घटने पर सैंकडों बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार आदि न केवल ज्ञापन आदि और कानूनी सहायता प्रदान करने जैसे कामों में सक्रिय हो जाते थे बल्कि मजदूरों के पक्ष में कई बार सडकों पर भी उतरते थे. आज तो ज्यादातर प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी चंद एक ईमेल भेजकर संतुष्ट हो जाते हैं. आज इतने विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, मीडिया का इतना विस्तार हुआ, मीडिया में काम करने वालों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है, फ़िर भी मजदूरों पर दमन की बड़ी से बड़ी घटनाएँ भी मुठ्ठीभर लोगों को उद्वेलित नहीं कर पाती. यह बात भी इस सच्चाई को ही साबित करती है की मजदूर वर्ग को अपनी मुक्ति की लडाई ख़ुद ही लड़नी होगी. अपने दमन-उत्पीडन के खिलाफ संगठित होकर संघर्ष करना होगा. जब वह संगठित हो जाएगा, तब उसके पक्ष में आवाज उठाने वाले भी चले आएँगे.




बाल मजदूरी का कारण गरीब माँ-बाप का लालच या बेबसी ?

विद्वान प्रोफेसर जुत्शी साहब से दो बातें

अभी पिछले दिनों एक एन.जी.ओ. ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ की ओर से दिल्ली में एक संवादाता सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें फुटबाल सिलने वाले बच्चों की दशा और दिशा पर चर्चा हुई. इस संवाददाता सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक विद्वान प्रोफेसर बी. जुत्शी ने फ़रमाया कि बाल मजदूरी के लिए बच्चों के माता-पिता ही जिम्मेदार हैं जो अतिरिक्त आय के लिए अपने बच्चों को काम में लगा देते हैं.

विद्वान प्रोफेसर साहब के खयाल से गरीब माँ-बाप थोड़ा कम इन्सान होते हैं, जो अपने बच्चों को प्यार नहीं करते, पढा-लिखाकर उनका भविष्य नहीं संवारना चाहते और “अतिरिक्त आमदनी” के लिए उनका वर्तमान और भविष्य उजरती गुलामी के अंधेरे में झोंक देना चाहते हैं.

आदरणीय जुत्शी साहब, हम लोग बरसों से नोएडा, दिल्ली की असंगठित, गरीब मेहनतकश आबादी के बीच काम कर रहे हैं. पिछले दिनों गाजियाबाद. नोएडा और दिल्ली की मजदूर बस्तियों से गायब होने वाले बच्चों के बारे में जाँच-पड़ताल करने और रिपोर्ट तैयार करने के दौरान हमें मजदूर बस्तियों के बच्चों के जीवन के बारे में कुछ और अधिक गहराई से जानने का अवसर मिला. हम आपको यकीन दिलाना चाहते हैं कि गरीब मजदूर भी सामान्य इन्सान होते हैं और शायद समृद्धि की चकाचौंध भरे अतिरेक में जीने वालों से अधिक इन्सान होते हैं. चंद एक अपवादस्वरूप, विमानवीकृत (डीह्यूमनाईज़ड) शराबखोर चरित्रों को छोड़ दे, तो हर गरीब अपने बच्चे को किसी भी तरह से पढाना-लिखाना चाहता है. वह उसे उजरती गुलामी की रसातल से बाहर निकालना चाहता है, पर ठोस हकीकत की चट्टान से सर टकराकर समझ जाता है कि मजदूर का बच्चा भी ८५ फीसदी मामलों में मजदूरी करने की लिए ही पैदा होता है. जुत्शी साहब, इस सच्चाई को तो डेढ़ सौ साल पहले कार्ल मार्क्स ही नहीं, बहुतेरे बुर्जुआ यथार्थवादी साहित्यकार भी समझ चुके थे कि मजदूर अपनी श्रम शक्ति बेचकर उतना ही हासिल कर पाते हैं कि श्रम करने के लिए जिंदा रहें और मजदूरों की नई पीढी पैदा कर सकें. आप शायद मंगल ग्रह से आये हैं या ज़्यादा किताबें पढ़ लेने से जिंदगी की हकीकत आपकी नजरों से ओझल हो गयी है. नोएडा और दिल्ली में ४० रूपये से साठ रूपये की दिहाड़ी पर औरत-मर्द मजदूर आठ, दस या कहीं-कहीं बारह घंटे काम करते हैं. सिंगल रेट पर कभी-कभार ओवर-टाइम मिल जाता है तो महीने में कई दिन बेकारी के भी होते हैं. मालिक या ठेकेदार की ओर से शिक्षा, स्वास्थ्य या आवास की कोई सुविधा नहीं होती. इन हालात में पति-पत्नी दोनों लगातार काम करने के बाद मुश्किल से दो जून की रोटी, झुग्गी का किराया, कुछ कपड़े आदि की जरूरतें पूरी कर पाते हैं. क़र्ज़ लिए बिना दवा इलाज नहीं हो पता और फ़िर उस क़र्ज़ को चुकाने का सिलसिला चलता रहता है. इस हालत में मुश्किल से ही मजदूरों के बच्चे दो जून की रोटी खा पाते हैं. सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भी पेट में रोटी तो होनी चाहिए ही. क्या आप इन आंकडों से परिचित नहीं हैं कि अस्सी फीसदी से भी अधिक मजदूरों के बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं. आपका जो नजरिया है, उसके हिसाब से तो शायद गरीब लोग पैसा बचाने के लिए अपने बच्चों को रोटी नहीं देते. नहीं, प्रोफेसर महोदय, ऐसा नहीं हैं. जब हड्डियाँ गलाकर भी मजदूर बच्चे को भरपेट भोजन, तन पर कपडा और बीमारी में दवा नहीं दे पाता तो कलेजे पर सिल रखकर यह तय करता है कि कप-प्लेट धोकर, सामान धोकर, गाडियां साफकर या फुटबाल सिलकर शायद बच्चा जिंदा रह सके और जिंदगी की कोई बेहतर राह निकाल सके. उसके सामने कई विकल्प नहीं, बल्कि एकमात्र विकल्प होता है और वह उसे चुनने के लिए विवश होता है.

दूसरी बात आपको और बताएं जुत्शी साहब! कुछ मजदूर यदि बच्चों को पढा पाने की स्थिति में अगर होते भी हैं तो वे यह भली-भांति जानते हैं कि उनके बच्चे आप जैसे बच्चों के समान डॉक्टर, इंजिनियर, प्रोफेसर, वकील, तो दूर म्युनिसिपैलिटी के क्लर्क भी शायद ही बन पायें ऐसी स्थिति में वे उन्हें जल्दी ही मजदूरी के काम में लगा देना चाहते हैं ताकि उसी में हुनरमंद होकर शायद वे थोड़ा बेहतर जीवन जी सकें.

जुत्शी साहब, जरा इतिहास का अध्ययन कीजिए. पूंजीवाद की बुनियाद ही स्त्रियों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़कर तैयार हुई थी. बीच में मजदूरों ने लड़कर कुछ हक हासिल किए थे. अब बीसवीं सदी की मजदूर क्रांतियों की हार और मजदूर आन्दोलन के गतिरोध के बाद, नवउदारवादी दौर में, पूँजी की डायन एक बार फ़िर सस्ती श्रम की तलाश में पूरी पृथ्वी पर भाग रही है और असंगठित, दिहाड़ी, ठेका मजदूरों- विशेषकर स्त्रियों और बच्चों की हड्डियाँ निचोड़ रही है. “कल्याणकारी राज्य” हवा हो गया है. श्रम कानूनों और जीने के अधिकार का कोई मतलब नहीं रह गया है. ऐसी सूरत में पूंजीवादी लूट का अँधा-अमानवीय तर्क उस सीमा तक आगे न बढ़ जाए कि लोग जीने के लिए विद्रोह पर अमादा हो जायें, इसके लिए विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी फंडिंग से एन.जी.ओ. नेटवर्क खडा किया गया है जो पूंजीवादी बर्बरता को सुधार के रेशमी लबादे से ढकने, पूंजीवादी जनवार की तार-तार हो रही चादर की पैबंदसाजी करने और भड़कते जनाक्रोश पर कुछ पानी के छींटे मारने का काम करता है. ये तमाम एन.जी.ओ. पूंजीवादी व्यवस्था की बजाय जनता को ही, उसकी बदहालियों के लिए दोषी ठहराते हैं और धर्म-प्रचारकों की तरह उसके उत्थान की बातें करते रहते हैं. ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ भी ऐसा ही एक एन.जी.ओ. है. कैलाश सत्यार्थी और ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ का एक और उद्देश्य होता है. पिछडे देशों के पूंजीपति अपने देशों के सस्ते श्रम के चलते उत्पादित माल को सस्ते में बेचकर साम्राज्यवादी देशों के पूंजीपतियों के सामने कुछ क्षेत्रों में प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति पैदा कर देते हैं, इसलिए धनी देशों के पूंजीपति एक ओर तो ख़ुद भी पिछडे देशों को अपना ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ बनाना चाहते हैं, दूसरी ओर वे अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों और वित्तपोषित एन.जी.ओ. द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में बाल श्रम पर प्रतिबन्ध के लिए आवाज उठाकर इन देशों के पूंजीपतियों को प्रतिस्पर्द्धा से बाहर करने की कोशिश भी करते हैं. ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ को धनी देशों की फंडिंग एजेंसियों से पैसा किसलिए और क्यों मिलता है, इसे आप न जानते हों, इतने मासूम भी तो आप नहीं होंगे जुत्शी साहब!

अतरिक्त आय! क्या बात है! जुत्शी साहब, आपके लिए अतिरिक्त आय का मतलब है नये बंगले, कार, छुट्टियों में विदेश यात्रा या संम्पत्ति बढाने के लिए, या फ़िर शेयर में लगाकर पैसे से पैसा बनाने के लिए कुछ धन जुटा लेना. पर गरीब के लिए अतिरिक्त और कुछ नहीं होता. पर आप जैसे प्रोफेसर लोग जो हफ्ते में तीन-चार क्लास लेकर साल में छः मास पढाते हैं और महीने में ३०-३५ हजार रूपए उठाते हैं, वे इस बात को नहीं समझ सकते. समृद्धि की मीनार की किसी मंजिल पर रहते हुए उसके तलघर के अंधेरे को देख पाना सम्भव भी नहीं होता.

जुत्शी साहब, आप तो शायद यही सोचते होंगे कि गरीबों के बच्चे ही अपने घरों से भागकर महानगरों के अपराधियों के हत्थे चढ़ जाते हैं, चोर-मवाली-पौकेटमार -भिखमंगे और नशेड़ी बन जाते हैं, उन्हें बेच दिया जाता है, उनके अंगों की तस्करी की जाती हैं, इसमें दोष गरीबों का ही है. आप शायद सोच भी नहीं सकते की समृद्धि की चकाचौंध और अमीरों के बच्चों को मिले ऐशो-आराम को तिल-तिल करके आभाव में जीते गरीबों के बच्चे किस निगाह से देखते हैं और उनके दिलो-दिमाग पर क्या प्रभाव पड़ता है. आप शायद यह नहीं जान सकते की पूरी दुनिया के लिए जीने की बुनियादी चीजें उत्पादित करने वाले जिन लोगों को इन्सान की तरह जीने के लिए न्यूनतम चीजें भी मयस्सर नहीं होती, उनके घरेलू और सामाजिक परिवेश में किस कदर विमानवीकरण का घटाटोप होता है. इस आभाव और विमानवीकरण के परिवेश में घुटने वाले मासूम यदि घरों से भाग जाते हैं तो इसके लिए उनके बेबस माँ-बाप नहीं बल्कि यह सामाजिक ढांचा और राजनितिक व्यवस्था जिम्मेदार होती हैं.

पर ये बातें आपको बताने का फायदा ही क्या? आप इन्हें नहीं समझ सकते, क्योंकि सबकुछ समझकर न समझने वाले की समझ तो हकीम लुकमान भी नहीं बढा सकते!


पूंजीवादी व्यवस्था ने पैदा किया आतंकवाद का नासूर

यह अंधराष्ट्रवादी जूनून में बहने का नहीं,

संजीदगी से सोचने और फ़ैसला करने का वक्त है.

मुंबई में आतंकवादी हमले की घटना. है कोई भी विवेकवान और संवेदनशील व्यक्ति इस घटना और इससे पैदा हुई स्थिति पर औपचारिक या अखबारी ढंग से भावनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करेगा बल्कि पूरे राजनितिक-सामाजिक परिदृश्य पर अत्यन्त चिंता और सरोकार के साथ विचार करेगा.यह घटना है कि जब प्रगति की धारा पर गतिरोध की धारा हावी होती है तो किस तरह राजनीती के एजेंडा पर शासक वर्गों की राजनीती हावी हो जाती है और उनके तरह-तरह के टकराव विकृत रूपों में सामने आते हैं जिनकी कीमत जनता को चुकानी पड़ती है. देश के भीतर और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के स्तर पर शासक धड़ों के बीच के टकराव विभिन्न रूपों में समाज में कलह-विग्रह पैदा करते रहे हैं. इसके अलावा शासक जमात की नीतियों की बदौलत एक लम्बी प्रक्रिया में आतंकवाद पैदा हुआ और फैलता गया है. शासक वर्ग एक हद तक अपने-अपने हितों के लिए इसका इस्तेमाल भी करते रहे हैं लेकिन कभी-कभी यह उनके हाथ से बाहर निकल जाता रहा है. दोनों ही सूरतों में इसकी कीमत जनता ही चुकाती रही है. पूंजीवादी मीडिया ने इस घटना के समय से ही जैसा उन्मादभरा माहौल बना रखा है उसमें संजीदगी से सोचने की ज़रूरत और भी बढ़ गयी है. टीआरपी बढाने के लिए सनसनी के भूखे मीडिया को तो इस घटना ने मानो मुंहमांगी मुराद दे दी. घटना के ‘दिन’ से ही सारे टीवी चैनल एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जुट गये थे. किसी का कैमरामैन कमांडो के पीछे-पीछे घुसा जा रहा था तो किसी का रिपोर्टर अपनी सारी अभिनय प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए रिपोर्टिंग को ज्यादा से ज्यादा नाटकीय बना रहा था. गोली चलने, बम फटने, आग लगने, या किसी के मरने के दृश्य को किसने सबसे पहले दिखाया इसे बताने की होड़ का बेशर्मीभरा प्रदर्शन लगातार तीन दिन तक चलता रहा. कुल मिलाकर, इस पूरी घटना को देशभक्ति के पुट वाली जासूसी या अपराध कथा जैसा बना दिया गया. अधिकांश चैनलों और अख़बारों की रिपोर्टिंग ने साम्प्रदायिकता का रंग चढी हुई देशभक्ति और अंधराष्ट्रवादी भावनाओं को उभाड़ने का ही काम किया. हालाँकि कुछ संजीदा पत्रकारों और बुद्धिजीविओं ने कहा कि किसी एक सम्प्रदाय विशेष को कठघरे में खडा करना या सीधे पाकिस्तान को निशाना बनाना ठीक नहीं है, लेकिन यह धारा कमज़ोर थी.

इस बात में ज़्यादा संदेह नहीं है कि इस हमले के पीछे जैश-ऐ-मोहम्मद या लश्करे-तैयबा और अल-कायदा जैसे संगठनों का हाथ हो सकता है और इसके लिए पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किया गया है. पाकिस्तान में आज कई वर्ग शक्तियों का टकराव बहुत तीखा हो चुका है और बहुत सी शक्तियाँ सत्ता के नियंत्रण से स्वतंत्र होकर काम कर रही हैं. आईएसआई और सेना के भीतर पुनरुत्थानवादी कट्टरपंथियों के मज़बूत धडे हैं और ये पूरी तरह सरकार के कहने से नहीं चलते हैं. साथ ही यह भी सच है कि जब-जब शासक वर्ग आर्थिक-राजनितिक संकट में फंसते हैं तब-तब अंधराष्ट्रवाद की लहर पैदा करने की कोशिक की जाती है. इससे दोनों हुक्मरानों के हित सधते हैं. अपने-अपने शासक वर्गों की जरूरतों के मुताबिक कभी ये युद्ध के लिए आमादा दिखाई पड़ते हैं तो कभी गले मिलते नजर आते हैं. जो मुशर्रफ कारगिल में युद्ध के लिए जिम्मेदार था, वही कुछ महीने बाद आगरा में शान्ति दूत बना नजर आता है.

पाकिस्तान में भी कुछ लोगों ने इस मौके पर संजीदगी से काम करने की बात कही लेकिन आसिफ अली जरदारी की कमजोर सत्ता ने इस तरह के बयान देकर फ़िर वही पुराना दांव खेलना शुरू कर दिया है कि हम हर तरह से तैयार हैं-दोस्ती चाहो तो दोस्ती, जंग चाहो तो जंग कर लो. यह अयूब खान और भुट्टो के जमाने से चला आ रहा आजमूदा दांव है. भूलना नही चाहिए कि पाकिस्तान की आर्थिक हालत इस समय इतनी खराब है कि अभी एक महिना पहले वह दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया था. ऐसे में, इस घटनाक्रम से ज़रदारी की भी गोट लाल हो रही है और भारत-विरोधी अंधराष्ट्रवादी लहर पैदा कर उसका फायद उठाने की वे पूरी कोशिश कर रहे हैं.

भारतीय शासक वर्ग के विभिन्न धड़े भी अपने-अपने ढंग से इसका फायदा उठाने में लगे हैं. आर्थिक मंदी और कमरतोड़ महंगाई से निपट पाने में पूरी तरह नाकाम मनमोहन सिंह सरकार को मूल मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने का मौका मिल गया है. चुनाव में अल्पसंख्यक वोटों के लिए पोटा हटाने का कांग्रेस ने वादा तो किया था लेकिन ऐसा कड़ा कानून आज भारतीय शासक वर्ग की ज़रूरत भी है और इस मुद्दे पर भाजपा के हमले से वह दबाब में भी है. इस घटना के बहाने उसे पोटा से भी सख्त कानून बनाने का मौका मिल गया है.

उधर भाजपा को ऐन विधानसभा चुनाव के पहले एक ऐसा मुद्दा मिल गया जिसे वह जमकर भुनाने की कोशिश कर रही है और जिसके शोर में मालेगंव तथा नांदेड़ आदि बम धमाकों में पकडे गया हिंदू आतंकवादियों का मामला फिलहाल पृष्ठभूमि में चला गया है. संघ गिरोह के संगठनों को हम तो पहले भी आतंकवादी मानते थे- गुजरात और उड़ीसा में जो कुछ इन्होने किया वह भी आतंकवाद ही था. योजनाबद्ध ढंग से बहशी भीड़ को लेकर गर्भवती औरतों के पेट चीरकर बच्चों को काट डालना, सामूहिक बलात्कार, लोगों को जिंदा जला देना- ये सब भी बर्बर, वहशी आतंकवाद ही है. लेकिन इनका दूसरा रूप भी जनता के सामने नंगा हो रहा था जिस पर अब पर्दा पड़ गया है. इसे भुनाने के लिए ये इतने उतावले थे कि मुठभेड़ अभी जारी ही थी कि नरेंद्र मोदी और आडवणी मुंबई पहुंचकर बयानबाजी करने लगे.

मीडिया में लगातार इस पर चर्चा जारी है कि यह घटना सुरक्षा इंतजामों और खुफिया तन्त्र की खामियों का नतीजा है. पर सच तो यह है कि महज़ इंतजामों को चाक-चौबंद करके ऐसे हमलों को नहीं रोका जा सकता. अगर भारत इजराइल से हथियारों का सौदा करेगा, अमेरिका के इशारे पर इरान विरोधी बयान देगा, अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर फिलिस्तीन के साथ दिखाई जाने वाली रस्मी एकता से भी पीछे हटेगा, अफगानिस्तान में हामिद करजई की अमेरिकी कठपुतली सरकार के साथ गलबहियां डालेगा और अमेरिका टट्टू जैसा आचरण करेगा तो ख़ुद अमेरिका के पैदा किए हुए तालिबान और अलकायदा जैसे भस्मासुरों का यहाँ-वहां निशाना बनने से भला कब तक बचेगा. भारतीय विदेशनीति के चलते इसकी छवि दिन-ब-दिन अमेंरिका-परस्त और पश्चिम परस्त बनती जा रही है. बेशक, आतंकवाद द्वारा साम्राज्यवाद का कोई विरोध नहीं किया जा सकता और अंततः यह साम्राज्यवाद को फायदा ही पहुंचता है लेकिन जो आतंकवादी संगठन सोचते हैं कि अपने ढंग से साम्राज्यवाद पर चोट कर रहे हैं उन्होंने भारत को भी निशाने पर ले लिया है.

इसके साथ ही, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आडवणी की रथयात्रा और बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय से हो रही घटनाएँ देश के अल्पसंख्यक समुदाय के अलगाव और अपमान को लगातार बढाती रही हैं. किसी क्रान्तिकारी विकल्प की गैर-मौजूदगी में उनकी गहन निराशा और घुटन बढ़ती जा रही है. जब गुजरात जैसे नरसंहार और टीवी पर बाबू बजरंगी जैसे लोगों को सरेआम अपनी बर्बर हरकतों का बयान करते दिखाने के बाद भी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती और दूसरी तरफ महज़ अल्पसंख्यक होने के कारण हजारों नौजवानों को गिरफ्तार और टॉर्चर किया जाता है, फर्जी मुठभेडों में मार दिया जाता है तो इस देश में इन्साफ मिलने की उनकी उम्मीद दिन-ब-दिन ख़त्म होती जाती है. ऐसे में गहरी निराशा और बेबसी की हालत में, कोई उपाय न देखकर प्रतिक्रियास्वरूप कुछ युवा आतंकवाद की तरफ मुड़ सकते है. मुंबई जैसी घटनाओं के बाद बना माहौल, जिसमे मीडिया की मुख्य भूमिका है, अल्पसंख्यकों के अलगाव को और बढा ही रहा है. अख़बारों में भी ऐसी अनेक घटनाओं की खबर आई है कि २६ नवंबर के बाद स्कूल से लेकर कार्यालय और रेल-बस तक में लोगों को उनके मजहब के कारण अपमानित किया गया है. बुर्जुआ राज्य के हित में दूर तक सोचने वाले कुछ संजीदा बुद्धिजीवी संयम से काम लेने की सलाह दे रहे हैं और ऐसी बाते कर रहे हैं कि संकट की इस घडी में हम सबको एक रहना चाहिए, आदि-आदि. लेकिन प्रकारान्तर से ये भी उस समुदाय के अलगाव को बढाने का ही काम कर रहे हैं जिसकी वफादारी को हिंदू कट्टरपंथी पाकिस्तान से जोड़कर उसे गैर-देशभक्त साबित करने पर तुले रहते हैं.

इस वक्त देश की एकता की काफी बातें की जा रही हैं मानों टाटा-बिड़ला-अम्बानी से लेकर २० रूपये रोज़ पर जीने वाले ८४ करोड़ गरीब लोगों तक सबके हित एक ही हैं. आज तक देशभर में होने वाले बम-विस्फोटों, दंगे-फसाद में हजारों आम लोग मरते रहे, उनके घर जलते रहे पर इतना बडा मुद्दा कभी नहीं बना. इस बार सबसे अधिक बवंडर इसलिए भी मचा है क्योंकि आतंकवादियों ने ताज होटल जैसे भारत के “आर्थिक प्रतीकचिह्नों” पर हमला किया है. उस ताज होटल पर जिसके बारे में एक अख़बार ने लिखा कि ताज में घुसने पर पता चलता है कि विलासिता और शानो-शौकत क्या होती है ! जिसके एक सुइट का एक दिन का किराया एक मजदूर की साल भर की कमाई से ज़्यादा होता है ! छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर सबसे बड़ी संख्या में मारे गये आम लोगों के लिए इतनी चिंता और दुःख नहीं जताया जा रहा जितना की ताज और ओबरॉय होटलों में मरने वाले लोगों के लिए. सीएसटी स्टेशन पर मरने वाले सारे लोग आम लोग थे- कोई दिनभर की मेहनत के बाद घर लौट रहा था, कोई परिवार सहित अपने गाँव जा रहा था, कोई नौकरी के इंटरव्यू के लिए ट्रेन पकड़ने आया था. लेकिन इस समाज में आम आदमी की जिंदगी भी सस्ती होती है और उसकी मौत भी.

मुंबई की घटना के बाद उद्योगपतियों से लेकर फ़िल्म-स्टारों तक उपरी तबके के तमाम लोग अचानक आतंकवाद के खिलाफ सड़क पर उतर आये क्योंकि इस हमले ने पहली बार उनके भीतर अपनी जान का भय पैदा कर दिया. अब तक आतंकवादी हमलों में अक्सर आम लोग ही मरते थे और वे सोचते थे बंदूकधारी सिक्यूरिटी गार्डों और ऊँची दीवारों से घिरे अपने बंगलों में वे सुरक्षित हैं, लेकिन इस बार उन्हें लगने लगा कि अब तो हद ही हो गयी ! अब तो हम भी महफूज नहीं!

लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. यह घटना देश की चोर, भ्रष्ट, विलासी और आपराधिक नेताशाही के खिलाफ़ आम जनता को स्वर देने का भी जरिया बन गयी. नेताओं की लूट-खसोट, निकम्मेपन और ख़ुद भयंकर खर्चीले सुरक्षा तन्त्र में रहते हुए जनता की सुरक्षा पर ध्यान न देने वाले नेताओं पर लोगों का गुस्सा फूट पडा. इस घटना पर लोगों की प्रतिक्रियाओं के कई पहलू थे लेकिन सबसे अधिक नफ़रत और गुस्सा हर पार्टी की नेताशाही के खिलाफ़ था. किसी ने कहा कि नेता बार-बार कहते हैं कि वे जनता के लिए प्राण न्यौछावर कर देंगे तो क्यों नहीं वे अपनी सुरक्षा छोड़कर लोगों के बीच चले आते. एक महिला ने कहा कि जितनी सुरक्षा एक-एक नेता को दी जाती है उतने में बच्चों के एक-एक स्कूल की सुरक्षा का इंतजाम किया जा सकता है- क्या सैंकडों बच्चों की जान एक नेता से भी कम कीमती है? बेशक, लोगों के गुस्से का यह उभार तात्कालिक है और किसी संगठित आन्दोलन के आभाव में जल्दी ही यह शांत हो जाएगा, लेकिन इसने सत्ताधारियों की पूरी जमात को इस बात का अहसास जरूर करा दिया होगा कि जनता के मन में नेताओं के खिलाफ़ किस क़दर नफ़रत भरी हुई है.

मुंबई की घटना कोई अलग-थलग घटना नहीं है और न ही सुरक्षा के सरकारी उपायों को चुस्त-दुरस्त करने से ऐसी घटनाओं की पुनरावृति को रोका जा सकता है. प्रश्न को व्यापक सन्दर्भों में देखना होगा. आतंकवाद एक वैश्विक परिघटना भी है जिसकी जड़ें साम्राज्यवादी देशों की नीतियों में हैं. भारतीय समाज का भी यह एक असाध्य रोग बन चुका है जिसे यहाँ की आर्थिक-राजनितिक स्थितियों ने पैदा किया है और खाद-पानी दिया है. यह पूंजीवादी व्यवस्था के चौतरफा संकट की ही एक अभिव्यक्ति है. विभिन्न रूपों में आतंकवादी घटनाएँ पूरे देश में हो रही हैं. इस व्यवस्था के पास इसका कोई समाधान नहीं है, बल्कि व्यवस्था का आर्थिक संकट इसके लिए और जमीन तैयार कर रहा है. आतंकवाद इस व्यवस्था का एक ऐसा नासूर है जो रिसता रहेगा और समाज में कलह और तकलीफ पैदा करता रहेगा. लोगों को आपस में लडाने वाली इस लुटेरी और अत्याचारी व्यवस्था के नाश के साथ ही इस नासूर का भी अंत होगा.

जनता का एक हिस्सा इन बातों को समझता भी है लेकिन जनता का बड़ा हिस्सा अंधराष्ट्रवादी जूनून में भी बहने लगता है. शासक वर्ग के हित भी इससे पूरे होते हैं. आतंकवाद रोकने के नाम पर संघीय जाँच एजेंसी गठित करने और पोटा से भी कड़ा कानून बनाने की जो कवायदें की जा रही हैं उनसे आतंकवाद को तो रोका नहीं जा सकेगा मगर इनका असली इस्तेमाल होगा मेहनतकशों के आंदोलनों को कुचलने के लिए. रासुका और टाडा से लेकर पोटा तक इसके उदाहरण हैं.

हर तरह का आतंकवाद जनता की वास्तविक मुक्ति के आन्दोलन को नुकसान पहुंचाता है. आतंकवाद के रास्ते से जनता कुछ हासिल नहीं कर सकती. असली सवाल एक क्रान्तिकारी विकल्प खडा करने का है. मेहनतकश वर्ग के उन्नत, वर्ग सचेत तत्वों को इस बात को समझना होगा और व्यापक मेहनतकश अवाम को इसके लिए संगठित करने की तैयारी करनी होगी.