Saturday, November 1, 2008

तुम्हे जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो.





यूं ही बेसबब ना फ़िरा करो किसी शाम घर भी रहा करो
वो गज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढा करो.

कोई हाथ भी ना मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिजाज का शहर है जरा फ़ासले से मिला करो.

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हे जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो.

मुझे इश्तहार सी लगती हैं ये मोहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो.

कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो जरा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं मेरे साथ तुम भी चला करो.

ये खिज़ा की जर्द सी शाम में जो उदास पेड के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है इसे आंसुओं से हरा करो.

नहीं बेहिज़ाब वो चांद सा कि नज़र का कोई असर नहीं
उसे तनी गर्मी-ए-शौक से बड़ी देर तक ना तका करो.

Monday, October 27, 2008

शीबी jaisi कोई नहीं


तब उसकी उमर, यही कोई छह-सात साल रही होगी. उदकती-फुदकती. चहकती-चिचियाती. बात-बात पर हंसती, बात-बात पर रोती. टुहुक्का टपकाती. फिर गली बच्चियों या स्कूल की सहेलियों के साथ फुर्र हो जाती. तब वह आगरा के सेंट जांस कालेज में तीसरी या चौथी कक्षा पढ़ रही थी. मझोले वर्ग के बाप की बेटी. अपनी कचर-बचर चार-पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी और दुबली-पतली. चिमट्टी चेहरा, बड़े-बड़े दांत और तिपट्टी नाक. जूंजीवी बालों की लंबी सी चुटिया, जो उसके ऊधमों के कारण उसके टीचरों और मां-बाप के पीटने के काम आती थी.

शीबी जितना स्कूल में पिटती, उससे कहीं ज्यादा अपने मां-बाप से. सहेलियों से भी अक्सर नहीं बनती. पिट जाती या पीटकर भाग लेती. पूरा खंदारी इलाका जान चुका था कि शीबी है कितनी शैतान बच्ची. किसी एक सहेली के पीछे वह हाथ धोकर पड़ जाती कि तू सिर्फ मेरी सहेली. अगर शीबी उसे किसी और के साथ हंसते-बतियाते देख ले तो पीछे से धप्प से पीटकर भाग जाए.

शीबी के झोले में किताब-कापी कम, हीरो-हिरोइनों के फोटो ज्यादा होते. या बीड़ी-सिगरेट के खाली पैकेट या खाली माचिस या टूटी-फूटी गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां या फटे-पुराने ताश के पत्ते. दरअसल शीबी को राह में पड़ी कोई भी चीज उठाकर अपने बैग में रख लेने लत थी. सनकी लत. अपनी इस लत के कारण भी वह कई बार घर-स्कूल में पिट चुकी थी लेकिन लत थी कि छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी....और शीबी पिटती जा रही थी, पिटती जा रही थी.

एक दिन अचानक 14 साल बाद शीबी दिखी आरबीएस कालेज के चौराहे पर.....कुछ इस तरह, जैसा आप यहां ऊपर इस चित्र में देख रहे हैं. मैंने ठमक कर नजदीक पहुंच कर देखा, 14 साल बाद किसी बच्ची को देखकर पहचानना मुश्किल जो था. खैर वह शीबी ही थी. मैं भी चौका, वह भी.....
अरे शीबी तू?
अरे अंकल आप??
तू ने अपना सिर क्यों मुंड़ा रखा है?
अरे अंकल....वो मेरा शैतान बाप मर गया ना...
तो तुमने भी सिर मुंड़वा लिया?
क्या करती अंकल, चाहे वह बेचारा मुझे जितना भी मारता था, वह था तो मेरा बाप न. उसके मरने पर मुझे भी बड़ा दुख हुआ.
इसके बाद शीबी फिर दुम दबाकर भाग ली. उसे लगा होगा कि मुझे इस तरह देखकर अंकल अपनी बेटी यानी मेरे बचपन की सहेली से मेरे बारे में जाने क्या कह दें.
तो शीबी आज भी नहीं बदली थी.














कवियों की दीवाली

गोपालदास नीरज



जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।


तुम दीवाली बन कर

  • तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    सूनी है मांग निशा की चंदा उगा नहीं
  • हर द्वार पड़ा खामोश सवेरा रूठ गया,
  • है गगन विकल, आ गया सितारों का पतझर
  • तम ऎसा है कि उजाले का दिल टूट गया,
  • तुम जाओ घर-घर दीपक बनकर मुस्काओ
  • मैं भाल-भाल पर कुंकुम बन लग जाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    कर रहा नृत्य विध्वंस, सृजन के थके चरण,
  • संस्कृति की इति हो रही, क्रुद्व हैं दुर्वासा,
  • बिक रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर,
  • पढ रहा किन्तु साहित्य सितारों की भाषा,
  • तुम गाकर दीपक राग जगा दो मुर्दों को
  • मैं जीवित को जीने का अर्थ बताऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    इस कदर बढ रही है बेबसी बहारों की
  • फूलों को मुस्काना तक मना हो गया है,
  • इस तरह हो रही है पशुता की पशु-क्रीड़ा
  • लगता है दुनिया से इन्सान खो गया है,
  • तुम जाओ भटकों को रास्ता बता आओ
  • मैं इतिहास को नये सफे दे जाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    मैं देख रहा नन्दन सी चन्दन बगिया में,
  • रक्त के बीज फिर बोने की तैयारी है,
  • मैं देख रहा परिमल पराग की छाया में
  • उड़ कर आ बैठी फिर कोई चिन्गारी है,
  • पीने को यह सब आग बनो यदि तुम
  • सावन मैं तलवारों से मेघ-मल्हार गवाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    जब खेल रही है सारी धरती लहरों से
  • तब कब तक तट पर अपना रहना सम्भव है!
  • संसार जल रहा है जब दुख की ज्वाला में
  • तब कैसे अपने सुख को सहना सम्भव है!
  • मिटते मानव और मानवता की रक्षा में
  • प्रिय! तुम भी मिट जाना, मैं भी मिट जाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!