Saturday, April 17, 2010

वे सांसदजी तो हर फिक्र को धुंए में उड़ाते चले गए!


sansadji.com

संसदीय राजनीति बनाम फिल्मी सांसद-३

लता मंगेशकर, शबाना आजमी, देवानंद, अमिताभ बच्चन, नरगिस, सुनील दत्त और असफल संजय दत्त, जया बच्चन, जयाप्रदा। कोई सांसद बना, कोई बनते-बनते रह गया। छूट गया। लालसा भरपूर थी। आजाद की भूमिका में जो बिग बी, मुन्नाभाई की भूमिका में जो संजय दत्त, सामाजिक सरोकारों को जिन तमाशबीनों के लिए बुनते-खेलते हैं, हकीकी जिंदगी में जीते उसके उलट हैं। हकीकत तो ये है कि फिल्म इंडस्ट्रीज के लोग दो कारणों से संसद की चीढ़ियां चढ़ने को भूखे रहते हैं, एक तो अपनी अनाप-शनाप की कमाई बचाने, ढंके-तोपे रखने के लिए पॉवर प्वाइंट मिल जाता है, दूसरे उन्हें टिकट देने वालों को ऐसा बबुआ मिल जाता है जो नाच-तमाशा दिखाकर समस्याओं से त्रस्त जनता को उनके बैलेट बॉक्स या एबीएम तक खींच ले आ सके। सपा की लाल टोपी लगा लेने से कोई संजय दत्त जनसेवक हो जाए, मतदाता कोई अक्ल का अंधा नहीं होता। साम-दाम-दंड-भेद वह भी जानता है, लेकिन क्या करे मजबूर है। उसके सामने और कोई विकल्प ही नहीं।
देवानंद इमरजेंसी के समय (1975) नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया बनाते हैं। पार्टी पिट-कुट गई। 1984 के दशक में राजीव गांधी के दोस्त अमिताभ बच्चन इलाहबाद से सांसद बन कर आते हैं। बोफोर्स की तोपें गरजते ही भाग खड़े होते हैं। लेकिन जी का जायका मितलाता रहता है। अमर सिंह से यारी-बासी चलती रहती है। अब उसमें भी खटास पड़ गई है। जया बच्चन भी तुरुप का पत्ता बनी हुई हैं। राजेश खन्ना भी सांसद रहे। वह अमिताभ की तरह बीच रास्ते फूट लिए। शाहरुख, सलमान भी कांग्रेस के गुण गाते रहते हैं। गोविंदा भी कांग्रेस से सांसद रहे, लेकिन न तो संसद, न ही अपने मतदाताओं के बीच उन्हें जाना गंवारा होता था, 'सरकाइ ले खटिया जाड़ा लगे' में जो मजा मिलता है आंटी नंबर वन को, वो सियासत में कहां। यद्यपि यहां भी बड़े अनाप-शनाप मजे हैं। बस हुनर होना चाहिए। अभिनेत्री नगमा कांग्रेस के लिए प्रचार करती रही हैं, लेकिन उन्हें कोई टिकट ही नहीं देता। हेमा मालिनी, धमेंद्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, स्मृति ईरानी, दारा सिंह किस-किस का नाम लिया जाए। गांव के लोग ऐसे फिल्मी राजनेताओं को आज भी 'नचनिहा-पदनिहा' ज्यादा महत्व नहीं देते। वे भले ही राजनीतिक मंचों से डॉयलॉग बोलकर अपने को चाहे जितना बड़ा राजनेता मान लें। मायावती या राजद अध्यक्ष-सांसद लालू को तो कभी इनकी तलब नहीं लगी!। अब सांसद मुलायम सिंह, अखिलेश यादव, रामगोपाल यादव को भी फिल्मी सियासत का सच पूरी तरह समझ में आ गया है। लालू के जोड़ीदार रामविलास पासवान प्रकाश झा को जरूर बेतिया से उम्मीदवार बना देते हैं, जो हारकर अपनी राजनीति फिल्म बनाने में व्यस्त हो जाते हैं। नेशनल सोशल वॉच के 2004 से 2009 के बीच राज्य सभा-लोकसभा के काम काज पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि फिल्मी सांसदों के मुकाबले उद्योगपति सांसदों ने संसद को ज्यादा समय दिया, सदन में ज्यादा सवाल पूछे। नवजोत सिंह सिद्धू, गोविंदा, धर्मेंद्र, विनोद खन्ना, जया प्रदा, दारा सिंह, राहुल बजाज, जया बच्चन, हेमा मालिनी, श्याम बेनेगल और विमल जालान जैसे 12 सांसद थे। इनमें से किसी भी सांसद की सदन की बैठकों में 20 प्रतिशत से अधिक उपस्थिति नहीं रही। गोविंदा, धर्मेंद्र और श्याम बेनेगल ने सदन में एक सवाल पूछने की जहतम भी नहीं उठाई। जबकि इसके विपरीत उद्योग जगत से जुड़े सांसदो में किंगफिशर के विजय माल्या, रिलायंस समूह के पीरामल नाथवानी, बजाज ऑटो इंडस्ट्रीज के राहुल बजाज, बीपीएल समूह के राजीव चंद्रशेखर और नवीन जिंदल, राजीव धूत आदि शामिल हैं। इन आठ में से पाँच उद्योगपति सांसदों ने संसद की 50 प्रतिशत से ज्यादा बैठकों में भागीदारी की। विजय माल्या और राजीव धूत दो ही ऐसे सांसद रहे जिन्होंने संसद की 20 प्रतिशत से कम बैठकों में हिस्सेदारी की। इनमें से ज्यादातर सांसद संसद की स्थायी समिति और अन्य समितियों के सदस्य रहे। रिपोर्ट में उद्योगपति सांसदों की संसद में सक्रिय भागीदारी को लेकर यह सवाल भी उठाया गया है कि कहीं इससे सरकार पर उद्योग जगत के हितों को बनाए रखने के लिए तो इस्तेमाल नहीं किया गया। मजे की बात यह है कि राज्य सभा सांसद और किंगफिशर एयरलाइंस के मालिक विजय माल्या उद्योग मंत्रालय की स्थायी समिति के सदस्य हैं। इसके अलावा वह उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं। कमोबेश इससे ज्यादा फिल्मी सांसद हर लोकतांत्रिक अथवा जनजवाबदेही की फिक्र को धुंए में उड़ाते रहे हैं।

No comments: