Sunday, April 11, 2010

सांसद मुंडे ने फेंकी सूखी घास पर चिंगारी


(sansadji.com)

भाजपा सांसद गोपीनाथ मुंडे ने यह कह कर महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश के राजनीतिक गलियारों में एक नई बहस को हवा दे दी है कि ओबीसी के अधिकारों के लिए वह राकपा नेता छगन भुजबल के नेतृत्व में काम करने के इच्छुक हैं। ओबीसी जनगणना को लेकर इस समय पूरे देश में इस वर्ग के लोगों में गुस्सा है। पूर्व में ये मसला सांसद राहुल गांधी के सामने भी उठ चुका है। सांसद जयंती नटराजन इस पर केंद्र सरकार का नजरिया भी स्पष्ट कर चुकी हैं। मसला तीन साल पूर्व सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के गृह क्षेत्र भरथना (इटावा) से उठा था।
बहरहाल, अब भिन्न संदर्भ लेते हुए ही सही सूखी घास में चिंगारी फेंककर सांसद गोपीनाथ मुंडे ने कहा है कि वह ओबीसी के राष्ट्रीय आंदोलन में भुजबल के नेतृत्व में काम करने को इच्छुक हैं। इसे भाजपा नेतृत्व के भुजबल को राज्य में ओबीसी का नेता स्वीकार करने के तौर पर देखा जा रहा है। एक मंच से बोलते हुए मुंडे और भुजबल दोनों ने मुखर तौर पर ओबीसी की गणना को वर्तमान जनगणना में शामिल करने की बात की। मुंडे ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्गों की गणना जनगणना में शामिल होनी चाहिए। ऐसा नहीं किया गया क्योंकि कुछ लोगों को भय है कि अपनी असली क्षमता जानने के बाद ओबीसी एकजुट हो जाएंगे। भुजबल ने कहा कि ओबीसी में 340 जातियां हैं, जोकि देश की आबादी का कुल 54 प्रतिशत हैं। उन्होंने ओबीसी गणना की जरूरत बताई।
इसी तरह तीन साल पहले ओबीसी जनगणना पर नवभारत टाइम्स में शकील अख्तर की उत्तप्रदेश पर एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें बताया गया था कि .." उत्तर प्रदेश विधानसभा और दिल्ली नगर निगम के चुनावों के ठीक पहले कांग्रेस ओबीसी की जनगणना के मामले में अपने ही अन्तर्विरोधों में उलझ गई। पार्टी में एक-दूसरे के विरोधी स्वर उभरने लगे। पार्टी के एक प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने साफ तौर पर जातिगत जनगणना का विरोध करते हुए इसे समाज को बांटने की साजिश बताया था। मगर यूपी और दिल्ली चुनावों में अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाताओं की नाराजगी के डर से कांग्रेस की दूसरी प्रवक्ता जयंती नटराजन का कहना था कि पार्टी इस मुद्दे पर अपने सहयोगी दलों से सलाह-मशविरा करेगी। पार्टी के पिछड़े वर्ग के नेताओं ने इस मामले में अपनी तीखी नाराजगी का इजहार करते हुए हाईकमान से कहा था कि कांग्रेस यूपी और बिहार में हार के बावजूद देश की जातिगत व्यवस्था से आंखें चुराकर काल्पनिक आदर्शवाद की दुनिया सजा रही है। यूपी के भरथना जिले (इटावा) में विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को कड़ी चुनौती दे रहे कांग्रेस के उम्मीदवार बलराम सिंह यादव के बेटे अजय कुमार यादव के समर्थकों ने राहुल गांधी के सामने भी इस मुद्दे को रखा था। राहुल के साथ भरथना के यादव बहुल क्षेत्र में गए कांग्रेस के पिछड़े वर्ग के नेताओं ने बताया था कि ओबीसी को उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण को लेकर कांग्रेस की पहल से ओबीसी में कांग्रेस का आधार बनना शुरू हुआ था। मगर उनका आरोप था कि कांग्रेस की नीतियों पर हावी सवर्णवादी नेता ओबीसी की जनगणना के विरोध के बहाने अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण को टालने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। उन दिनों डैमेज कंट्रोल के उद्देश्य से जयंती नटराजन का कहना था कि पार्टी सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध है। वह सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले पर सहयोगी दलों से विचार-विमर्श करेगी। पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने इस मुद्दे को स्पष्ट करते हुए कहा था कि आरक्षण के लिए जातिगत आधार पर जनगणना जरूरी नहीं है। हमारे पास पहले से सभी आंकड़े हैं, लेकिन उन्होंने याद दिलाया कि मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए मैंने तत्कालीन एनडीए सरकार को जाति के आधार पर जनगणना का सुझाव दिया था, जिसे उस वक्त की सरकार ने अस्वीकार कर दिया था। .."
इसी माह 3 अप्रैल को राजेश कश्यप ने अपनी वेबसाइट पर लिखा था कि ......" इसमें कोई दो राय नहीं है, देश की सातवीं जनगणना के दौरान बड़े महत्वपूर्ण आंकड़े एकत्रित होंगे और जिनका प्रयोग अगामी दस वर्षों के दौरान लागू होने वाली योजनाओं के निर्माण में किया जाएगा। इस बार जनगणना के दौरान कुछ नए कार्यक्रम जोड़े गए हैं, मसलन राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) तैयार करना, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरों के मद्देनजर हर व्यक्ति की फोटो और उंगलियों के निशान लिए जाने हैं, ताकि नागरिकों का एक व्यापक बायोडाटा तैयार किया जा सके। सबसे महत्वपूर्ण एवं हैरानी पैदा करने वाली बात यह है कि इस जनगणना के दौरान ओबीसी अर्थात् अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों का अलग से कोई डाटा तैयार नहीं किया जाएगा। सरकार ने ओबीसी जनगणना करने से साफ मना करते हुए दलील दी है कि दलित व आदिवासी के मामले में सत्यापन आसान है, लेकिन ओबीसी जातियों का सत्यापन आसान नहीं है। सरकार ने दोहरा रवैया अपनाते हुए यहाँ तक कहा है कि आजाद भारत का सपना जातिविहिन समाज बनाने का था, इसलिए भी ओबीसी की गणना नहीं होगी। सरकार द्वारा ओबीसी की जनगणना न करने के पीछे जो दलील, तर्क अथवा बहाना पेश किया गया है, वह न केवल बचकाना और दोहरी मानसिकता वाला है, बल्कि ओबीसी जाति के लोगों के साथ एक भारी छलावा भी है। क्या सरकार यह स्पष्ट करेगी कि जनगणना में ओबीसी की अलग से जनगणना न करने से यह देश जातिविहिन हो जाएगा? यदि ‘हाँ’ तो क्या इसका मतलब क्या देश में केवल ओबीसी जातियाँ ही ‘जात-पांत’ का पर्याय हैं? यदि ‘नहीं’ तो फिर सरकार ने जनगणना के माध्यम से ओबीसी की स्थिति स्पष्ट न होने देने की अपनी संकीर्ण मानसिकता का परिचय क्यों दिया? कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को यह भी नहीं पता है कि उसके यहाँ ओबीसी की वास्तविक स्थिति है क्या? सरकार सिर्फ कयासों, अनुमानों और सैम्पल सर्वे रिपोर्टों के आधार पर ही ओबीसी के उत्थान के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों-अरबों रूपयों का बजट खर्च करने के दावे करके स्वयं को ओबीसी हितैषी सिद्ध करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है। शिक्षण संस्थानों एवं नौकरियों में भी ओबीसी को अलग से आरक्षण देने की व्यवस्था की गई है तो वहाँ सरकार ओबीसी का सत्यापन कैसे कर लेती है? सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब सरकार द्वारा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग की जातियों की बाकायदा सूची जारी की गई है तो फिर उनके सत्यापन का सवाल कहाँ से पैदा हो गया। यदि अकेले आन्ध्र प्रदेश में मुसलमानों को ओबीसी में शामिल करने का मुद्दा संकीर्ण राजनीति का शिकार हो गया है तो इसका मतलब शेष सभी राज्यों को भी इसी मुद्दे का हिस्सा बना दिया जाए? सहसा एक बार तो गहरा सन्देह पैदा होता है कि कहीं पिछड़ों को पिछड़ा बनाये रखने की संकीर्ण मानसिकता के चलते ही तो आन्ध्र प्रदेश का ओबीसी मुद्दा तो नहीं उछाला गया है? यदि वास्तविकता देखी जाए तो ओबीसी जातियों का उत्थान आरक्षण के ढ़कोसले के बावजूद नहीं हो पा रहा है। क्योंकि जब हमें यह ही नहीं पता होगा कि हमारा लक्ष्य क्या है और उस लक्ष्य को भेदने के लिए कैसे प्रयासों की जरूरत होगी तो भला कोई लक्ष्य हासिल कैसे किया जा सकता है? जब ओबीसी की वास्तविक स्थिति का ही नहीं पता है तो ओबीसी उत्थान योजनाएं क्या खाक रंग दिखाएंगी? इसके बाद सबसे बड़ा सवाल यह कि ओबीसी को अनुमानित आँकड़ों की बाजीगरी में उलझाकर क्यों रखा जा रहा है? मण्डल कमीशन कहता है कि ओबीसी की आबादी 52 फीसदी है, नेशनल सैम्पल सर्वे 35 फीसदी का दावा करता है तो ग्रामीण विकास मंत्रालय 38.5 फीसदी ओबीसी आबादी होने की लकीर पीट रहा है। आखिर सही किसको माना जाए? यहाँ ओबीसी की जनगणना की वकालत महज आरक्षण के मुद्दे को लेकर नहीं की जा रही है। यहाँ मुख्य मुद्दा है भेदभाव बरतने का। जब जनगणना में सभी धर्मों की जनगणना हो रही है, सभी आदिवासियों के तथ्य इक्कठे किए जा रहे हैं और सभी दलितों की स्थिति जानी जा रही है तो पिछड़ों ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि उसे सरेआम नजरअन्दाज कर दिया जाये? कहीं इस संकीर्ण मानसिकता के पीछे यह सोच तो नहीं है कि यदि ओबीसी को उसकी वास्तविक स्थिति का पता चल गया तो वर्तमान राजनीति में भूचाल आ जाएगा और सरकार के सभी समीकरण धराशायी हो जाएंगे या फिर ओबीसी वर्ग एक नए सिरे से अपने प्रति अव्यवस्थाओं व भेदभावों के विरूद्ध लामबन्द हो जाएगा? चाहे कुछ भी हो, इस तरह के सवाल पैदा होने स्वभाविक ही हैं।
यदि सरकार ओबीसी के मामले में निर्लेप एवं निष्पक्ष भूमिका में है तो उसे चाहिए कि ओबीसी सत्यापन में जो भी रूकावटें हैं, उन्हें शीघ्रातिशीघ्र दूर करवाए और देश की की एक बहुत बड़ी आबादी को यह स्पष्ट विश्वास दिलाए कि भविष्य में शीघ्र ही ओबीसी की वास्तविक स्थिति का पता लगाया जाएगा और वास्तविक आँकड़ों के आधार पर ही ओबीसी कल्याण के लिए योजनाओं का निर्माण एवं निष्पादन किया जाएगा। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो निश्चित तौरपर ओबीसी वर्ग में यह शंका और भी प्रबल हो जाएगी कि सरकार भी पिछड़ों को पिछड़ा बनाये रखने की संकीर्ण मानसिकता पाले हुए है।.."

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