Saturday, May 23, 2009

उदय प्रकाश की दिल्ली और राजधानी में बैल

क्या वाकई दिल्ली दिल वालों की नहीं. शोर मचाते एक दैत्याकार कारखाने में तब्दील हो चुका है यह महानगर. कहीं बाहर से, गांव से, जंगलों-पहाड़ों से चल कर यहां पहली बार पहुंचने वाला आदमी जिस अचंभित- लालयित नजरों से इस शहर को टकटकी बांधकर देखता है, उसका दिल पथरीला और बेहूदा है. पिछली कई शामों से जब आंधियां आती हैं, हजारों झुग्गियां और उसमें रखे घर-गृहस्थी के , जीवन यापन के किंचित सामान जाने कहां उड़ा ले जाती हैं. आंधियों को क्या पता कि झुग्गियों में रखे गृहस्थी के थोड़े सामान किस तरह नंगी धूप में किसी कचरा बीनते बच्चे और उसकी मां ने बमुश्किल जुटाए होंगे. इसी बेदर्द और बेहूदे दिल्ली की हकीकत बयान कर रहे हैं उदय प्रकाश अपनी इन कविताओं में.....

1

समुद्र के किनारे

अकेले नारियल के पेड़ की तरह है

एक अकेला आदमी इस शहर में.

समुद्र के ऊपर उड़ती

एक अकेली चिड़िया का कंठ है

एक अकेले आदमी की आवाज़

कितनी बड़ी-बड़ी इमारतें हैं दिल्ली में

असंख्य जगमग जहाज

डगमगाते हैं चारों ओर रात भर

कहाँ जा रहे होंगे इनमें बैठे तिज़ारती

कितने जवाहरात लदे होंगे इन जहाजों में

कितने ग़ुलाम

अपनी पिघलती चरबी की ऊष्मा में

पतवारों पर थक कर सो गए होगे.

ओनासिस ! ओनासिस !

यहाँ तुम्हारी नगरी में

फिर से है एक अकेला आदमी.

2

बादलों को सींग पर उठाए

खड़ा है आकाश की पुलक के नीचे

एक बूंद के अचानक गिरने से

देर तक सिहरती रहती है उसकी त्वचा

देखता हुआ उसे

भीगता हूं मैं

देर तक.

3
एक सफ़ेद बादल

उतर आया है नीचे

सड़क पर

अपने सींग पर टांगे हुए आकाश

पृथ्वी को अपने खुरों के नीचे दबाए अपने वजन भर

आंधी में उड़ जाने से उसे बचाते हुए

बौछारें उसके सींगों को छूने के लिए

दौड़ती हैं एक के बाद एक

हवा में लहरें बनाती हुईं

मेरा छाता

धरती को पानी में घुल जाने से

बचाने के लिए हवा में फड़फड़ाता है

बैल को मैं अपने छाते के नीचे ले आना चाहता हूं

आकाश , पृथ्वी और उसे भीगने से बचाने के लिए

लेकिन शायद

कुछ छोटा है यह छाता ।


4

सूर्य सबसे पहले बैल के सींग पर उतरा

फिर टिका कुछ देर चमकता हुआ

हल की नोक पर

घास के नीचे की मिट्टी पलटता हुआ सूर्य

बार-बार दिख जाता था

झलक के साथ

जब-जब फाल ऊपर उठते थे

इस फसल के अन्न में

होगा

धूप जैसा आटा

बादल जैसा भात

हमारे घर के कुठिला में

इस साल

कभी न होगी रात ।


5

पेसिफ़िक मॉल के ठीक सामने

सड़क के बीचोंबीच खड़ा है देर से

वह चितकबरा

उसकी अधमुंदी आंखों में निस्पृहता है अज़ब

किसी संत की

या फ़िर किसी ड्रग-एडिक्ट की

तीखे शोर , तेज़ रफ़्तार , आपाधापी और उन्माद में

उसके दोनों ओर चलता रहता है

अनंत ट्रैफ़िक

घंटों से वह वहीं खड़ा है चुपचाप

मोहनजोदाड़ो की मुहर में उत्कीर्ण

इतिहास से पहले का वृषभ

या काठमांडू का नांदी

कभी-कभी बस वह अपनी गर्दन हिलाता है

किसी मक्खी के बैठने पर

उसके सींगों पर टिकी नगर सभ्यता कांपती है

उसके सींगों पर टिका आकाश थोड़ा-सा डगमगाता है

उसकी स्मृतियों में अभी तक हैं खेत

अपनी स्मृतियों की घास को चबाते हुए

उसके जबड़े से बाहर कभी-कभी टपकता है समय

झाग की तरह .

6

आई.टी.ओ. पुल के पास

दिल्ली के सबसे व्यस्त चौराहे पर

खड़ा है बैल

उसे स्मृति में दिखते हैं

गोधूलि में जंगल से गांव लौटते

अपने पितर-पुरखे

उसकी आंखों के सामने

किसी विराट हरे समुद्र की तरह

फैला हुआ कौंधता है

चारागाह

उसके कानों में गूंजती रहती है

पुरखों के रंभाने की आवाजें

स्मृतियों से बार-बार उसे पुकारती हुई

उनकी व्याकुल टेर

बयालीस लाख या सैंतालीस लाख

कारों और वाहनों की रफ़्तार और हॉर्न के बीच

गहरे असमंजस में जड़ है वह

आई.टी.ओ. पुल के चौराहे से

कहां जाना चाहिए उसे

पितरों-पुरखों के गांव की ओर

जहां नहीं बचे हैं अब चारागाह

या फिर कनॉटप्लेस या पालम हवाई अड्डे की दिशा में

जहां निषिद्ध है सदा के लिए

उसका प्रवेश.

दाया हाथ मालिश, बाया बूट पॉलिश करने लगा!

बोलो भाई
बोलते क्यों नहीं बात-बात में
कि हाथ हमारे साथ में
लिये कटोरा हाथ में.....
लाइन से खड़े भिखमंगे
जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने लगे-
हमे दे दो
हमे दे दो
हमे दे दो.

एक बूढ़ा भिखमंगा बोला-
मैं जिंदगी भर
देशभक्ति का आलाप लेता रह गया
दो पीढ़ियों से
घर बेरोजगार पड़ा है
गांव के हर दरवाजे पर
कोई-न-कोई यूकलिप्टस
हर बूढ़ी नीम के सिरहाने
तन कर खड़ा है,
इमलियां कोंतड़ हो चुकी हैं,
कोटरों में उल्लू पल रहे हैं
हमारे गांवों के लोकतंत्र को छल रहे हैं

एक जवान भिखमंगा बोला-
बुड्ढा सठिया गया है,
अनाथों-का-नाथ है हाथ,
पूरा देश है हमारे साथ,
और इस बुड्ढे को अपनी पड़ी है,
उसे नहीं मालूम
कि प्रत्येक यूकलिप्टस की छांव में
हर बूढ़ी नीम
कितनी सुरक्षित खड़ी है,
जहां तक पीढ़ियों का सवाल है,
देश का हर नागरिक
भला एक नेहरू परिवार में कैसे पैदा हो सकता है,
जब यह संभव नहीं
तो देश का हर जवान
प्रधानमंत्री बनने का सपना कैसे देख सकता है?

यह सब सुनकर
हजारों दाएं हाथ हवा में मुस्कराए
हजारों बाएं हाथ जोर से थरथराए
दाएं हाथ
गांधी की मालिश करने लगे,
बाएं हाथ
बूट पॉलिश करने लगे,
दाएं हाथ गाने लगे-
रघुपति राघव राजा राम,
बाएं हाथ लहराने लगे-
कर्ज की पर्चियां तमाम,
दाएं हाथ बोले-
लो, तुम्हारे कर्ज माफ किया
दुख-दरिद्दर साफ किया,
बाएं हाथ बोले-
हमारी आदत खराब मत करो,
हमे सूद-मूल में फंसाकर
अपने-अपने घर मत भरो,
हमे पता है
कि कर्ज माफी चुनाव का मजमा है
स्विस बैंकों में तुम्हारा अरबों का माल जमा है

यह सब सुनकर
दाएं हाथ की ओर से
गोरी हथेलियों वाली बुढ़िया ने आंख तरेरी
राजकुमार बोला-
सब मेरी, धत्त तेरी जनता की.........

और एक बार फिर वही शोर-
किबोलोभाई
बोलते क्यों नहीं बात-बात में
कि हाथ हमारे साथ में
लिये कटोरा हाथ में.....
लाइन से खड़े भिखमंगे
जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने लगे-
हमे दे दो
हमे दे दो
हमे दे दो ......
(...मंत्री की कुर्सी,
वरना लोकतंत्र अनाथ हो जाएगा,
हर बाजू-बिजूका
बाएं हाथ के साथ हो जाएगा )......
जय्य्य्य होह्ह्ह्ह्होोोोो

Thursday, May 21, 2009

पिल्ली नाचे, पिल्ला नाचे..तिल्ली के संग तिल्ला नाचे

लोकतंत्र के
जुटे चिबिल्ला,
फिर आगे-आगे
मरगिल्ला,
धा-धिल्ला..
धिल्ला...धिल्ला
धा-धिल्ला..धिल्ला...धिल्ला.........

पस्सवान से बीसा लल्लू
और मुलायम-माया मल्लू,
मोदी, लालकिसुन भै कल्लू,
ललिता के नैनन पर पल्लू,
ममता रंग
हुआ भड़किल्ला..
धा-धिल्ला..
धिल्ला...धिल्ला
धा-धिल्ला..धिल्ला...धिल्ला.........

विपक्ष का अंगूर है खट्टा
दिल्ली बनी हंसी का ठट्ठा
बजे पीठ महंगी का फट्टा
लो झेलो, अब रगड़ो घट्ठा
बोले कांय-कांय
ज्यों पिल्ला,
धा-धिल्ला..
धिल्ला...धिल्ला
धा-धिल्ला..धिल्ला...धिल्ला.........


धोकर वामपंथ का धब्बा
चाप रहीं सोनिया मुरब्बा,
बड़े मगन हैं राहुल बब्बा,
इर्द-गिर्द सब चौबा-छब्बा
दांत दिखाएं
खूब छबिल्ला,
धा-धिल्ला..
धिल्ला...धिल्ला
धा-धिल्ला..धिल्ला...धिल्ला.........

वोट डालकर वोटर भागे
चोर-चपाटी पीछे-आगे
लिये कटोरा कुर्सी मांगें
जिससे दुक्ख-दरिद्दर भागे
ठग-ठगिनी
सब एक साथ में
तिल्ली के संग
नाचे तिल्ला...
धा-धिल्ला..
धिल्ला...धिल्ला
धा-धिल्ला..धिल्ला...धिल्ला.........
लोकतंत्र के
जुटे चिबिल्ला,
फिर आगे-आगे
मरगिल्ला,
धा-धिल्ला..
धिल्ला...धिल्ला
धा-धिल्ला..धिल्ला...धिल्ला.........



Tuesday, May 19, 2009

किसी बड़े षडयंत्र की आशंका!

यह मामूली खेल नहीं, जो खुल कर खेला जाने वाला है. पांसे बिछाए जा रहे हैं. व्यूह रचना चरम पर है. कई बड़ों का इसमें हाथ है. साथ है. जिसे हाथोहाथ लिया जा रहा है, उसका माथा संदेह में चकराने लगा है कि आखिर ये हो क्या रहा है, क्यों हो रहा है. बड़े-बड़े चतुर सुजान पता करने में जुट गए हैं कि माजरे के पीछे किसकी अक्ल काम कर रही है. क्या कोई इतनी बड़ी परिघटना सामने आने वाली है, जिसकी पृष्ठभूमि अभी से तैयार की जा रही है. इन्हीं सवालों में छिपा है खेल का मकसद............
1.बिना मांगे समाजवादी पार्टी समर्थन देने पर क्यों उतारू है
2.बिना मांगे बसपा ने भी क्यों कांग्रेस सरकार को समर्थन का ऐलान किया है
3.बेचारे नामवर दलबदलू अजित सिंह भी जीतते ही भाजपा को गच्चा देकर क्यों दुम हिला रहे हैं,
4. पासवान के पास तो समर्थन देने के नाम पर संसद में कोई नामलेवा भी नहीं बचा, वो क्या कर रहे हैं
5.लालू कूद-कूद कर पहले ही दिन से समर्थन देने पर उतारू हैं
6.शरद यादव और नितीश कुमार की भी लार टपक रही होगी

......अब तो कमी इतनी भर दिख रही है कि भाजपा भी भांगड़ा करते हुए सिद्धू के नेतृत्व में पहुंच जाए मनमोहन के दरबार में. जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल....राजनीति का मैं जैकाल....मुझे भी अपनी मंडली में ले लो सद्दार भाई....मुझे भी अमेरिका से बड़ा गहरा नेह है......आडवाणी नहीं तो क्या हुआ.....हम दोनो सरदार अकेले ह्वाइट हाउस खंगाल आएंगे. जरूरत पड़ी तो मोंटेक पा जी को भी साथ लिये चलेंगे. जब सारे पाजी उधर तो एनडीए के अंगने में अकेले मेरे क्या काम है.....दुबारा मुझे इस तरह पूंछ पटक-पटक कर नहीं जीतना....समझे प्राइमिनिस्टर

पा जी!

Monday, May 18, 2009

प्रभाकरण तुम कभी नहीं मर सकते!

कौन कहता है कि प्रभाकरण की लड़ाई खत्म हुई
कौन कहता है कि प्रभाकरण मारा गया.
किसे पता नहीं कि न कभी तमिल स्वाभिमान मरा है
न उसके संघर्षों का अंत हुआ है.
पीढ़ियां लड़ेंगी प्रभाकरण की लड़ाई
क्योंकि वह लड़ाई है
सिंघली नस्लीयता के खिलाफ
आदमखोर व्यवस्था के खिलाफ
ग्लोबल पागलपन के खिलाफ,
वे लड़ाइयां कभी नहीं हारी जातीं,
जिनके समपनों में होती है मनुष्यता की आजादी,
जिनके सपनों में होता है सिर्फ मनुष्य
सिंहली या तमिल जातिवाद नहीं,
जिनके सपने हमेशा जिंदा रहते हैं.
जिस कौम के सपने जिंदा रहते हैं,
उस कौम के सपनों के लिए कुर्बान हो जाने वाले
कभी मरा नहीं करते,
और उनकी लड़ाइयों का अंत
कभी न
गुजरात में होता है
न विएतनाम में,
न अयोध्या में होता है
न अफगानिस्तान और इराक में.
उनकी लड़ाइयों का अंत होता है
हिटलर, मुसोलिनी और बुश की कब्रगाहों पर.
प्रभाकरण!
तुम कभी नहीं मर सकते.
तुम हमेशा शान से जिंदा रहोगे
तमिल स्वाभिमान में,
लाखों-करोड़ों उन लोगों के दिलों में
जो आज हिंदुस्तान के दक्षिणी तट पर
विस्थापन का भयानक दौर झेल रहे हैं.


मारे गए गुलफाम अरे हां....



जो हो रहा था, ठीक नहीं हो रहा था. अब जो होता दिख रहा है, ठीक हो रहा है. नंबूदरीपाद के जमाने से भारतीय संसदमार्गीय वामपंथी जिस डगर पर चल पड़े, लगातार सत्ता की मलाई खाते-खाते उनकी जीभ कुछ ज्यादा ही मोटी चली. एक बार इधर-उधर मुंह मारने की लत लग जाए तो फिर वह जान संग जाती है. खुदा खैर करे कि इस छद्म वामपंथ की जड़ें भी उखड़ जाएं, ताकि वाकई जिनके सीने में अभी दर्द है महकूमी का, वे देश के उत्पीड़ित लाखों-करोड़ों लोगों की आवाज बन सकें. इस महान सपने की राह में भाकपा-माकपा टाइप वामपंथी ही सबसे बड़े रोड़ा हैं. इनका हर गणित सत्ता का गणित होता है. सत्ता भी मजदूर-किसान हितों के लिए नहीं, पूंजीपतियों के छद्म पालतू ज्योतिर्मय बसुओं और बुद्धदेव भट्टाचार्यों की. ये बातें तो किसानों-मजदूरों की करते हैं, ताकि कलई न खुल जाए और हकीकत में कार्यनीतियां और चरित्र पूंजीपतियों के दलालों से भी ज्यादा घिनौना होता है. पश्चिमी बंगाल और केरल में प्रादेशिक सरकार में रहते-रहते इन छद्म वामपंथियों का दिमाग इतना खराब हो चला कि अन्य संसदमार्गियों की तरह ये भी खुला खेल दिखाने लगे.
भारतीय शोषित-दलित जनता (और बहुसंख्यक बुद्धिजीवियों) की मजबूरी ये है कि इन लाल नकाबपोशों को ही असली वामपंथी मान बैठे हैं. उनके दोगले चरित्र को ही आधार बनाकर कम्युनिज्म पर तरह-तरह की तोहमतें लगती रहती हैं. अब सबसे जरूरी ये लगता है कि सबसे पहले बूढ़े सोमनाथ-करात-येचुरी-बुद्धदेव आदि छद्मवामपंथियों का विनाश हो, फिर धुंध छटे और वे हिरावल दस्ते परिदृश्य में उभरें, जो वाकई देश के शोषितों-दलितों की लड़ाई लड़ रहे हैं. कैसी विडंबना है कि बूढ़े सोमनाथ-करात-येचुरी-बुद्धदेव जैसे दुरंगियों के कारण देश में बदनाम वामपंथ के कारण गुंडो-मवालियों की फौज के भरोसे घिनौती जातीय राजनीति करने वाला मुलायम सिंह भी अपनी पार्टी को समाजवादी कहता-फिरता है.
साफ-साफ जानिए कि करात-येचुरी, मायावती-मुलायम में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. मायावती-मुलायम तो भी अपनी स्पष्टता में इकहरे दिखते हैं. ये दोगले तो नकाबों के ऊपर कई-कई मोटी नकाबें ओढ़े हुए हैं. इन दुरंगियों के इसी दोहरेपन का फायदा उठाते हुए पश्चिमी बंगाल में इस बार जनता तृणमूल कांग्रेस के मिजाज में बैठ गई.
देश की आर्थिक नीतियों पर तो इन इन दुरंगियों की पोल पट्टी सन 1956 से ही खुल चुकी है, अब ले-देकर सांप्रदायिकता, अमेरिका आदि विषय ही इनके राजनीतिक बयानबाजियों के आधार रह गए हैं. इनके मजदूर संगठनों (सीटू-एटक) का हाल ये है कि वे जहां भी हैं, प्रबंधन की दलाली के अलावा मजदूरों की कोई लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं. इसी तरह इनके अन्य फ्रंटल संगठन भी सत्ता की मलाई उड़ाने के लिए बेकरार रहते हैं. चाहे वह किसान सभा हो, या नौजवान सभा. इसकी सच्चाई जानने के लिए इन पार्टियों के नेताओं और इनके फ्रंटल संगठनों के अगुवों की निजी जिंदगी में झांका जाए, तो सारी सच्चाई साफ-साफ नजर आने लगती है. ये घनघोर सुविधाजीवी अपनी जिंदगी सुखद रखने के लिए वामपंथ के नारों का गंदा इस्तेमाल कर भारतीय दलित-शोषित जनता की आंखों में पिछले चार-पांच दशकों से लगातार धूल झोंक रहे हैं और उन हिरावल दस्तों को पूंजीपतियों के सैन्य बलों से तबाह करवाने में जुटे हुए हैं. कुछ हिरावल दस्ते भी उन्हीं की राह चल पड़े हैं, जिनकी इस दौर में पहचान कर लेना उतना ही जरूरी है, जितना बंगाली-केरली बूढ़े दुरंगियों की.
कुछ दिन पहले तक ये दुरंगी पूंजीपतियों की पिछलग्गू छोटी पार्टियों के भरोसे थर्ड फ्रंट बना रहे थे. चुनाव नतीजे सामने आ जाने के बाद मुंह दुबकाकर कोटरों में शर्म से जा छिपे. बल्कि शर्म से नहीं, डर से. यहां तक कि 17-18 मई की बैठक करने से भी डर गए. वे कह रहे हैं कि अपनी पराजय की समीक्षा करेंगे. कैसी समीक्षा? एक लाइन में है पूरी समीक्षा कि अपने वामपंथी दोगलेपन से बाज आ जाओ, सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन वे तो अब कत्तई बाज आने से रहे. जीभ इतनी मोटी जो हो चली है. और खाल इतनी मोटी कि फूल कर तूमड़ा हो चले हैं. इन दुरंगियों के भरोसे ही खा-पीकर मुस्टंड हजारों-लाखों बुद्धि-बहादुर भी मन-ही-मन वामपंथी होने के आह्लाद में डूबे रहते हैं. काश कांग्रेस आगामी पांच सालों में इन दुरंगियों (सोमनाथ-करात-येचुरी-बुद्धदेव-मायावती-मुलायम जैसों) का पूरी तरह से सफाया करने में कामयाब हो जाए तो भारतीय दलित-शोषित जनता का इससे बड़ा लाभ और कुछ नहीं होगा. और होना यही है, मन से, या बे-मन से.
यह वामपंथ का कोढ़ तो खत्म होना ही है, उसे कांग्रेसी खत्म करें या देर-सबेर भारतीय जनता और उसके हिरवाल दस्ते.