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गडकरी बनाम यादव की लड़ाई में अब सपा के पूर्व नेता अमर सिंह भी कूद पड़े हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग पर बीजेपी अध्यक्ष गडकरी के कुत्ते वाले बयान पर लिखा है कि गडकरी को इस बयान पर क्षमादान दे देना चाहिए क्योंकि उन्हें भली-भांति पता है 'देश की राजनीति में असली कुत्ता कौन है।'उन्होंने लिखा है कि गडकरी के एक बयान पर जिस तरह से राजनीतिक पार्टियों में हाहाकार मचा हुआ है मुझे नहीं लगता ऐसा होना चाहिए। क्योंकि गडकरी ने खुलेआम अपने शब्द वापस ले लिए थे। लेकिन कुछ लोग तो इतने बेशर्म होते हैं कि वो गाली देकर भी सीना तान कर चलते हैं। उनका इशारा समाजवादी नेता रामगोपाल यादव की तरफ था।अमर सिंह ने लिखा कि यह सभी जानते हैं सपा के पास इस समय कोई मुद्दा नहीं है इस वजह से वह गडकरी के बयान को इतनी तूल देने में जुटी है। लेकिन जिस तरह से गडकरी ने अपने शब्द वापस लिए थे तो सपा को फिर उन्हें कुत्ता नहीं कहना चाहिए था।उन्होंने अपने आपको अपमानित करने वाले सपा नेता रामगोपाल का नाम लिए बिना लिखा है कि जिस पार्टी का मैंने दिन-रात साथ दिया उसी के एक नेता ने मुझे पागल और न जाने क्या-क्या कह डाला। हालांकि बाद में उन्होंने मुझसे फोन पर अपनी बेशर्मी की क्षमायाचना की थी। लेकिन मैंने इस माफी को सार्वजनिक कर दिया था जिसके बाद भी मुझे भयंकर गालियां दी गई थी। लेकिन मैने किसी के खिलाफ कुछ नहीं किया लेकिन अगर अब गडकरी के खिलाफ केस करने की बात की जा रही है तो यह राजनीति में अच्छी बात नहीं है। क्योंकि राजनीति में इस तरह की बात तो होती ही रहती है।
Friday, May 14, 2010
Thursday, May 13, 2010
लालू ने कहा- गडकरी कान पकडकर माफी मांगे नहीं तो...
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और राजद प्रमुख लालू प्रसाद के खिलाफ कहे गए कथित अपशब्दों पर कडा एतराज जताते हुए लालू ने आज यहां कहा कि वह कान पकडकर माफी मांगे नहीं तो उनकी पार्टी जन-आंदोलन छेड़ेगी।सीबीआई दुरुपयोग को लेकर भाजपा द्वारा चलाए गए राष्ट्रव्यापी आंदोलन पर लालू ने आज पटना में संवाददाताओं से कहा कि मंहगाई सहित देश की कई अन्य प्रमुख समस्याओं को छोडकर सीबीआई के कथित दुरुपोग को भाजपा द्वारा प्राथमिकता दिए जाने के पीछे उनके कई नेताओं के स्विस बैंक में राशि जमा होने के मामले फंसने से जुड़ा है।लालू ने सीबीआई के दुरूपयोग का केंद्र की पिछली राजग सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि कौन कहता है कि चारा घोटाला मामले में कांग्रेस ने उनकी मदद की।चारा घोटाले से जुडे आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के मामले में निचली अदालत में राजद नेता के पक्ष में फैसला आने के खिलाफ सीबीआई के उपरी अदालत में अपील नहीं किए जाने पर लालू ने दावा किया कि उस मामले में दम ही नहीं था और क्या सभी मामले में सीबीआई अपील में जाती है।लालू ने केंद्र की पिछली राजग सरकार पर उनके और उनकी पत्नी राबडी देवी के खिलाफ सीबीआई का गलत इस्तेमाल किये जाने का आरोप लगाते हुए कहा कि तत्कालीन केंद्र सरकार ने न केवल राबडी देवी के घर पर छापा डलवाया बल्कि उन्हें फंसाने के लिए सीबीआई के तत्कालीन निदेशक यू एन विश्वास को राज्यपाल तक बनाने का आश्वासन दिया था। जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन करके इस बारे में बताया तो उन्होंने इसे रोका।
Sunday, May 9, 2010
बिहार में गृहयुद्ध छेड़ना चाहते हैं नीतीश:लल्लन
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जनता दल (यूनाइटेड) के विक्षुब्ध सांसद राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन ने आज दावा किया कि बिहार में नीतीश कुमार की सरकार अगर दोबारा सत्ता में आई तो बटाईदारी बिल को लागू कर वह इस प्रदेश में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न कर देगी। सरकार के कथित प्रस्तावित बटाईदारी बिल के विरोध में आज पटना के गांधी मैदान में आयोजित किसान महापंचायत को संबोधित करते हुए जद (यू) के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लल्लन ने नीतीश पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की राह पर चलने का आरोप लगाते हुए कहा कि लालू से किसी को व्यक्तिगत विरोध नहीं था, बल्कि उनकी कार्यशैली सही नहीं थी। उन्होंने आरोप लगाया कि चारा घोटाला मामले में आरोपी लालू सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए रिक्शा की सवारी किया करते थे, उसी प्रकार अब नीतीश बग्घी और रिक्शा पर सवार होकर यात्रा कर रहे हैं। लल्लन ने सांसद शिवानंद तिवारी, श्याम रजक और रमई राम का जिक्र करते हुए कहा कि नीतीश के दरबार में आज वही लोग हैं, जो कि कभी लालू के दरबार में शामिल थे। प्रदेश में पिछले 15 वर्षों के राजद शासन काल के दौरान समाज में जिस प्रकार से विद्वेष फैलाने का काम किया गया, उसी प्रकार नीतीश कुमार भी अपने शासन काल के दौरान अगड़ा-पिछड़ा, दलित-महादलित और मुसलमानों में पसमांदा समाज की बातकर समाज को खंडित करने में लगे हैं।
ब्रिटेन में सरकार के लिए सौदेबाज़ी
ब्रिटेन में गठबंधन सरकार बनाने के लिए कंजरवेटिव और लिबरल डेमोक्रेट्स के बीच तीसरे दिन भी कड़ी सौदेबाज़ी जारी रही। ब्रिटेन में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह पहली गठबंधन सरकार होगी, लेकिन यह बातचीत किसी भी समय गड़बड़ा सकती है क्योंकि एक टॉप सीक्रेट खत मिला है जिसमें सरकार बनाने की स्थिति में होने पर टोरी के यूरो विरोधी रुख को रेखांकित किया गया है। यह पत्र ऐसे समय लीक हुआ है, जब टोरी और लिबरल डेमोक्रेट गठबंधन सरकार बनाने के लिए रात-दिन बातचीत में लगे हैं। चुनाव में कंजरवेटिव सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। उसे 650 सदस्यीय हाउस ऑफ कॉमन्स में 306 सीटें मिली हैं। टोरी और लिबरल डेमोक्रेट नेता डेविड केमरन एवं निक क्लेग ने बीती रात लगभग 70 मिनट तक आमने सामने बैठकर बात की। उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में छह मई को हुए चुनावों में डेविड केमरन के नेतृत्व में कंजरवेटिव पार्टी को 19 संसदीय क्षेत्रों के 16,000 मतदाताओं की वजह से पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। कोलिन रालिंग्स और माइकल थ्रेशर ने अपनी पड़ताल में दावा किया है कि कंजरवेटिव पार्टी पूर्ण बहुमत के करीब पहुंच गई थी। प्लेमाउथ यूनिवर्सिटी स्थित चुनाव केंद्र के निदेशकों रालिंग्स और थ्रेसर के हवाले से ‘संडे टाइम्स’ ने कहा है, ‘‘कैमरन बहुत करीब पहुंच गए थे और अब बहुत दूर हैं। 19 संसदीय क्षेत्रों के महज 16000 वोट कंजरवेटिव को पूर्ण बहुमत दिला सकते थे।’’ रालिंग्स और थ्रेसर का विश्लेषण है कि निकट भविष्य में होने वाले दूसरे चुनाव में तुलनात्मक रूप से थोड़ी सी बढ़त टोरी को पूर्ण बहुमत दिला सकती है।
कैग ने की दूरसंचार विभाग की खिंचाई
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने ग्रामीण क्षेत्रों में दूरसंचार को बढ़ावा देने के लिये एकत्रित 18,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि का इस्तेमाल नहीं करने और इस्तेमाल नहीं हुई राशि के बारे में गलत जानकारी देने पर दूरसंचार विभाग की खिंचाई की है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने केंद्र सरकार के कामकाज के पर दी गयी रिपोर्ट में कहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में दूरसंचार सेवा के विकास के लिये वित्त वर्ष 2002-03 से 2008-09 के दौरान विशेष दायित्व शुल्क के रूप में 26,163. 96 करोड़ रुपये वसूले गये। लेकिन इस अवधि के दौरान इसमें से केवल 7,971. 44 करोड़ रुपये ही वितरित किये गये। रिपोर्ट के अनुसार सार्वभौमिक सेवा दायित्व कोष (यूएसओ) 31 मार्च 2009 तक 18,192. 52 करोड़ रुपये होने चाहिए न कि ‘शून्य’ जैसा कि दूरसंचार विभाग के खातों में दिखाया गया है। कैग ने इस बात पर भी अफसोस जताया कि कोष का इस्तेमाल बजट घाटा पाटने के लिये इस्तेमाल किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में दूरसंचार के विकास के लिये यूएसओ कोष का गठन सरकार ने 2002 में किया। इसके तहत दूरसंचार कंपनियों से उनकी समायोजित सकल आय का 5 फीसद बतौर शुल्क लिया जाता है। कोष का प्रबंधन दूरसंचार विभाग करता है। कैग ने एकत्र किये गये कोष का इस्तेमाल उसी साल करने के लिये स्कीम तैयार करने की सिफारिश की है ताकि यूएसओ लक्ष्य को पूरा किया जा सके। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने इस बात पर अफसोस जताया कि खर्च नहीं की गयी राशि का इस्तेमाल बजटीय घाटा पाटने में किया गया है। उल्लेखनीय है कि कैग इससे पूर्व दूरसंचार मंत्री ए.राजा को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े कर चुका है, जिस पर संसद में भी हो-हल्ला होता रहा है।
संसदीय समिति ने किया रेलवे को आगाह
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संसद की लोकलेखा समिति का मानना है कि देश भर में फैली रेलवे की जमीन पर दो लाख से ज्यादा अवैध कब्जे हो चुके हैं, परंतु रेलवे ने खरबों रूपये की अपनी जमीन को इन अवैध कब्जों से मुक्त कराने की गंभीर कोशिश नहीं की और हर साल हजारों की संख्या में अतिक्रमण हो रहे हैं। लोक लेखा समिति ने अतिक्रमण शीघ्र हटाने और नये अवैध कब्जे रोकने के लिए रेलवे से व्यापक कार्य योजना तैयार करने को कहा है। रेलवे के पास कुल दस लाख 68 हजार एकड़ भूमि है, जिसमें एक लाख 13 हजार एकड़ भूमि खाली पड़ी है जो कुल भूमि का दस प्रतिशत है। समिति का मानना है कि कतिपय समस्याओं के कारण रेलवे शीघ्र और परिणामोन्मुखी विकास के माध्यम से अपने बड़े विशाल भू-संसाधनों का वांछित उपयोग करने में असफल रहा है। समिति ने साथ ही अतिक्रमण हटाने के लिए संपदा अधिकारियों को अधिक शक्तियां प्रदान करने और उन्हें मजिस्ट्रेट का दर्जा देने के लिए कानून में संशोधन करने की आवश्यकता बताई है। साथ ही रेलवे के भूमि रिकार्डों के रखरखाव को बेहतर बनाने पर भी जोर दिया है। संसदीय समिति ने ‘भारतीय रेल में आपदा प्रबंधन और भूमि प्रबंधन’ विषय पर हाल में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा है कि रेलवे की भूमि पर अतिक्रमण का मामला 1999 में संसद में जोरदार ढंग से उठा था। लगता है कि रेलवे ने कोई प्रभावी बेदखली अभियान शुरू नहीं किया है, क्योंकि 2004 में अतिक्रमण के दो लाख बीस हजार से ज्यादा मामले दर्ज थे और वर्ष 2004 से वर्ष 2006 के दौरान अतिक्रमण के 16 हजार नये मामले आ गये।
देश और संसद को जाति की जरूरत!
गरीब की दुश्मन जाति अमीर
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जाति की जरूरत ने अचानक संसद को इतना बेचैन क्यों कर दिया है? लोकतंत्र के पहरुओं ने जाति का जहर बुझाने की बजाय उसकी लौ जलाए रखने पर अपना जोर एक बार फिर केंद्रित कर लिया है। एक बार फिर वे काले अध्याय लिखने में मशगूल दिखते हैं। विपक्ष मांग कर रहा है कि जनगणना जाति के आधार पर होनी चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लोकसभा को भरोसा दे चुके हैं कि मंत्रिमंडल इस बारे में जल्द कोई फैसला लेगा। उनके बयान से हालांकि साफ नहीं हुआ है कि सरकार यह मांग मानेगी या नहीं। कांग्रेस सांसद पवन बंसल कहते हैं, ठीक बात है। प्रणव मुखर्जी कहते हैं, विपक्ष की मांग जायज है। संसद की एक स्टैंडिंग कमिटी भी ओबीसी गणना की सिफारिश कर चुकी है। राजग, सपा, जद यू की राजनीति ही जाति पर टिकी है। और आग में घी डाल रही है उन संगठनों की जरूरत, जो हर बात पर जाति-जाति चिल्लाने लगते हैं। वे चाहते हैं कि जाति भी बनी रहे और सरकारी मलाई भी सबसे ज्यादा वे सरपोटते रहें। वर्ण्यव्यवस्था भी न हो और आरक्षण का लाभ भी भरपूर मिलते रहना चाहिए। आखिर ये किस किस्म का मानवाधिकार हो सकता है! खैर, हम बात कर रहे हैं जात-पांत वाली जनगणना की तो संसद के बाहर-भीतर चिल्लपों मचने के बाद अब तय सा हो चला है कि जनगणना जाति के आधार पर होगी। सब जानते हैं कि देश में हर दशक में भारतीयों की गणना होती है। वर्ष 1931 के बाद से जाति के आधार पर जनगणना नहीं हुई है। तब से मुल्क चलाने वाले जाति के आधार पर जनगणना जरूरी नहीं मान रहे थे। स्वतंत्र भारत में जातिगत जनगणना ये सोचकर नहीं कराई जा रही थी कि जाति ने ही इस देश का सबसे ज्यादा सत्यानाश किया है। अब अचानक पक्ष-विपक्ष दोनों आजादी की लड़ाई लड़ने वाले राजनेताओं से ज्यादा होशियार हो चले हैं।
अब अचानक सियासत के पेट में बड़ा जोर का जाति का मरोड़ उठा है। हकीकत ये है कि मौजूदा सिस्टम और संसदमार्गी सियासत दोनों की विश्वसनीयता खतरे में पड़ती जा रही है। जाति ही एक ऐसा अस्त्र दिख रहा है, जिससे जनता का ध्यान उसकी बुनियादी समस्याओं से हटाकर जातीय बाग-बगीची में कुछ साल टहलाया जा सकता है। इसी में पक्ष-विपक्ष दोनों को अपना भला दिखता है। अब तक सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की अलग से पहचान होती रही है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से पक्ष-विपक्ष दोनों को जाति होने के फायदे नजर आने लगे हैं। जाति के आधार पर जनगणना की सबसे ज्यादा बेचैनी ओबीसी में है। उन्हें ये मालूम कर लेना बहुत जरूरी लगता है कि वे संख्याबल में कितने हैं। इसके आधार पर वे अपने समुदायों के एजेंडे बनाकर सरकारी और राजनीतिक सुविधाओं में अपनी जगह बनाने की नए सिरे से शुरुआत करेंगे। लालू, मुलायम, शरद यादव कहते हैं कि उनके लोगों आबादी का ठीक-ठीक आंकड़ा अनुपलब्ध है। मंडल कमिशन ने कुल आबादी में पिछड़ों का हिस्सा 52 प्रतिशत माना था और इसके लिए 1931 की जनगणना को आधार बताया था। 2004-05 के नैशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक यह आंकड़ा 41 प्रतिशत है। सन 2002 का बीपीएल हाउसहोल्ड सर्वे इस आंकड़े को 38.5 प्रतिशत बताता है। जातिगत जनगणना के समर्थकों का कहना है कि पिछड़ों की आबादी का सही आंकड़ा मिलने के बाद ही उनके समुदायों के लिए सही योजनाओं को अंजाम दिया जा सकेगा। साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि जातिगत जनगणना से जातिवाद मजबूत होगा। देश में अनगिनत जातियां, उपजातियां और समूह-समुदाय हैं। उनकी पहचान भी साफ नहीं है। एक राज्य में जो पिछड़े हैं, दूसरे में कुछ और हैं। दिल्ली में धोबी, महाराष्ट्र में कोली, यूपी में पटुआ और एमपी में रज्झर अनुसूचित जाति की श्रेणी में आते हैं, लेकिन केंद्र के हिसाब से ये पिछड़े वर्ग के लोग हैं। इसी तरह तमिलनाडु में अनाथ और बेसहारा बच्चे पिछड़ों की श्रेणी में आते हैं। अनुमान के तौर पर ऐसे लोगों के पांच से छह हजार अलग-अलग समूह हैं। अब इनकी गणना कैसे, किस आधार पर की जाए, यही सबसे बड़ी मुश्किल है। दरअसल ये सब उन सांसदों, मंत्रियों, पार्टियों को भी पता है लेकिन वे चाहते हैं कि जात-पांत का भूत मर गया तो उनकी सियासत क्या होगा! इस तरह की राजनीति करने वालों का जनाधार तेजी से खिसक रहा है। लोग जाग रहे हैं, जात-पांत से नफरत करना ज्यादा ठीक मानते जा रहे हैं। हैरत सभी राजनीतिक दल लोकतंत्र की बात करते हैं, जात-पांत को सबसे बुरा भी मानते हैं और उसके कल्याण के लिए खूब बेचैन भी हैं। वह चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो या सपा-राजग-जदयू आदि। प्रणव कहते हैं कि संप्रग सरकार ने इस मामले में विपक्ष की मांग को स्वीकार कर लिया है। जातिगत आधार पर जनगणना का काम वर्ष 1931 में हुआ था और देश की स्वतंत्रता के बाद भी जातिगत आधार पर जनगणना होनी चाहिए थी जबकि ऐसा नहीं हो सका था लेकिन अब संप्रग सरकार ने इसकी पहल की है। जब उनसे कहा जाता है कि इसी जात-पांत के चक्कर में तो महिला आरक्षण बिल भी ताक पर लटका दिया गया है तो वह जवाब देते हैं कि इस विधेयक पर अब लोकसभा के आगामी सत्र में विचार किया जाएगा। उधर, जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर जल्द कोई फैसला लेने के सरकार के हालिया आश्वासन के बीच, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने जनगणना फॉर्म में धर्म और भाषा का कॉलम भी जोड़ने का सुझाव दिया है। आयोग के अध्यक्ष कमाल फारुकी कहते हैं कि अगर जनगणना जाति के साथ धर्म और भाषा को भी बुनियाद बनाया जाता है तो इससे देश के अलग.अलग तबकों की असल स्थिति का पता चलेगा। नतीजतन उनके हित में योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। जाति आधारित जनगणना की हकीकत को भुलाया नहीं जा सकता कि भारतीय समाज जाति आधारित है। जाति आधारित जनगणना से मिले महत्वपूर्ण आंकड़े अलग.अलग जातियों के विकास का नया खाका तैयार करने का काम आसान कर देंगे। एक तरफ जात-पांत वाली जनगणना, दूसरी तरफ भाजपा सांसद लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं कि राजनीति में कोई भी ‘अछूत’ नहीं है और सभी राजनीतिक दलों को इससे दूर रहना चाहिए। राजनीतिज्ञ का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय हित होना चाहिए। यदि बाहर छुआछूत होता है तो उसे मानवता के खिलाफ या पाप कहा जाता है। यही आदर्श राजनीतिक पार्टियों के लिए भी लागू होता है।
अब आइए वामपंथ की ओर नजर डालते हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद सीताराम येचुरी कहते हैं कि स्वैच्छिक की बजाय आबादी की वैज्ञानिक गणना होनी चाहिए, ताकि देश में अन्य पिछडे वगो’ और बीपीएल परिवारों की वास्तविक संख्या का पता लगाया जा सके। हम जाति आधारित जनगणना के पक्षधर नहीं हैं लेकिन देश के लिए यह जानना जरूरी है कि अन्य पिछडे वर्ग के लोगों की वास्तविक संख्या क्या है। उनकी वास्तविक संख्या पता चलने पर आरक्षण के कई फायदे उन्हें मिल सकेंगे। योजना आयोग के मुताबिक देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले (बीपीएल) परिवारों की संख्या 6.8 करोड है जबकि राज्यों की ओर से बांटे गये बीपीएल कार्डों की संख्या 10.8 करोड़ है। ऐसे में वास्तव में बीपीएल परिवारों को कानूनी रूप से फायदा मिले, उसके लिए उनकी वास्तविक संख्या का पता करना जरूरी है। यह काम जनगणना के जरिए नहीं हो सकता। जनगणना में व्यक्ति स्वैच्छिक जानकारी देता है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसलिए आबादी की वैज्ञानिक गणना होनी चाहिए। साथ ही वह जनगणना के कागज में ‘राष्ट्रीयता’ का कालम लिखे जाने पर सख्त आपत्ति करते हुए कहते हैं कि जनगणना की परिभाषा यही है कि भारतीयों की गणना हो, ऐसे में राष्ट्रीयता का कालम बनाने का क्या औचित्य है। उन्होंने संदेह व्यक्त किया कि एक समय जिस तरह पृथक खालिस्तान की मांग उठी थी, इससे उसी तरह की समस्याएं पेश आएंगी। संसद में हाल के दिनों में सपा, राजद और जद यू के नेताओं मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव ने जाति आधारित जनगणना कराने के बारे में लोकसभा में मांग उठाई थी। उस समय भाजपा और वाम दलों ने जनगणना में गरीबों, पिछडों आदि के आंकडे शामिल किये जाने पर जोर दिया था। मुलायम ने कहा था कि जाति के आधार पर जनगणना हो। सरकार को इसमें क्या आपत्ति है। एक कालम जाति का बना दीजिए। जाति के आधार पर वस्तुत: अभी अनुमान से ही आरक्षण दिया जा रहा है। जद यू नेता शरद यादव ने कहा था कि हिन्दुस्तान में पिछडे और आदिवासी तबके हर तरह से सताये जा रहे हैं। इस देश में पेड, नदियों, बाघों आदि की गणना हो रही है। भारत में जाति हकीकत है इसलिए जाति के आधार पर जनगणना कराना अनिवार्य है। राजद नेता लालू ने कह चुके हैं कि हम आरक्षण की मांग नहीं कर रहे। जाति यथार्थ है। अभी तक अंदाज पर काम चल रहा है। जातीय आधार पर सरकार जनगणना कराये ताकि मालूम हो कि किसकी कितनी संख्या है।
दूसरी तरफ हकीकत ये है कि सरकारी खजाने पर कुंडली मारे सांपों को नहीं दिख रहा है कि गरीबी ने लोगों का क्या हाल बना रखा है। देश में सीधे तौर पर सिर्फ दो जातियां है, अमीर और गरीब। इस हकीकत से आंख चुराकर तरह-तरह के ताने-बाने बुने जा रहे हैं। कहावत वही है कि अंधेर नगरी, चौपट राजा। लेकिन गरीबी की सच्चाई और उसका गुस्सा धीरे-धीरे 'वयस्क' होने लगे हैं। लगता है कि उनके लिए लड़ाई के अलावा और कोई सपना बाकी नहीं बचा है। तरह-तरह की हरामखोरियां हद पार कर चुकी हैं। पानी नाक से ऊपर हो चला है, इसलिए अमीरों की हैवानियत के खिलाफ फिर से एकला चलो रे का नारा दिन पर दिन बुलंद होते जाना ही है। ये तूफान अब शायद ही थमे!! भविष्य में उनकी शामत आनी ही है जो 90 करोड़ गरीबों के सीने पर चढ़ कर मैट्रो और हवाई जहाज की पेंगे ले रहे हैं। उनके लिए जात-पांत ठेंगे पर। जाति सिर्फ दो.....गरीब की दुश्मन जाति अमीर।
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