Tuesday, December 30, 2008

मैं अभी मरना नहीं चाहता

आतंकवाद से कौन लड़ेगा?
अभी बताता हूं.
महंगाई से कौन लड़ेगा?
अभी बताता हूं.
बेरोजगारी से कौन लड़ेगा?
अभी बताता हूं.
चुनाव कौन लड़ते हैं?
नहीं बताऊंगा.
शेयर कौन खरीदता है?
नहीं बताऊंगा.
देश कौन बेंचता है?
नहीं बताऊंगा.
बताता हूं...बताऊंगा....
आखिर कुछ बोलते क्यों नहीं?
नहीं बताऊंगा,
वे हत्यारे हैं, मार डालेंगे मुझे,
मैं अभी
मरना नहीं चाहता.
क्यों, मरना क्यों नहीं चाहते?
नहीं बताऊंगा..........

Friday, December 26, 2008

सब एक महीने से बेंच-खा रहे हैं आतंकवाद





उनके पास दिखाने के लिए और कुछ नहीं है. मुंबई हमले के एक महीने पूरे हो गए. वे चैनल वाले हैं. उनके पास दिखाने के लिए और कुछ नहीं है. मुंबई हमले के वही दृश्य घुमा-फिरा कर परोसे जा रहे हैं.

आज रात देखा कि किस तरह मनोज वाजपेयी एनडीटीवी पर लच्छेदार और लटपटिया जुबान से तान-तान कर बता रहा है कि छत्रपति शिवा जी रेलवे स्टेशन पर किस तरह आज भीड़ है और किस तरह 26 नवंबर की रात यहां आतंकवादियों ने अब तक छप्पन यानी छप्पन लोगों को भून दिया था. बीच-बीच में विज्ञापनों की छौंक, फिर उसी तरह मुंह बनाते हुए मनोज वाजपेयी की जुमलेबाजी.

हद है. ये बेशर्म कुछ भी बेंचने से बाज नहीं आएंगे. इनके लिए ऐसी लोमहर्षक घटनाएं में शेयर बाजार की तरह सिर्फ माल हैं.

इसी तरह सन 57 से सन 47 तक देश के स्वतंत्रता सेनानियों के लड़ने के बाद बेशर्म नेता सेठों-साहुकारों और लुटेरे उद्योगपतियों की गोद में बैठकर भगत सिंह की शहादत को बेचने-खाने लगे थे. दनादन फिल्मे बनाने लगे थे. कभी अजय देवगन भगत सिंह के वेश में अंग्रेजी टोपी लगाकर नमूदार होता तो कभी बॉबी देओल. इससे पहले मनोज कुमार उर्फ भारत ऐसी ही नौटंकियां किया करता था.

आजादी की लड़ाई में किस तरह अंग्रेजों ने बहादुर हिंदुस्तानियों को चुन-चुन कर मारा था, उसी तरह आज देश की जनता को चुन-चुन कर पराजित करने वाले लुटेरे बेंच खा रहे हैं. पूंजी और पैसे की जरूरतों ने, मुंबई-दिल्ली में रहने के शौक ने उन्हें कितना बेशर्म बना दिया है. इन दिनों वे सब-के-सब आतंकवाद को बेंचकर खा रहे हैं. चैनल आजतक (फक्क) हो या स्टान न्यूज (फ्यूज), पाठकों को बेवकूफ समझते हुए अपनी टीआरपी की लड़ाई में व्यस्त हैं. थूह.......


ये सचमुच कफन फरोश हैं.

मुंबई के हमलावरों से ज्यादा क्रूर और स्वार्थी हैं.

इन्हें पहचानो.

ये आज के हिंदुस्तान के सौदागर हैं.

कल के हिंदुस्तान के जयचंद और मीर जाफर हैं.

इन्हें पहचानो.

ये बलबोले आधुनिक शिखंडी हैं.

आतंकवाद तक को बेंच-खाने वाले बिना देह के रंडी हैं.

चुनाव आ रहा है तो

वे मुल्क फरोश आतंकवाद के नाम पर अलग ही दुंदभी बजा रहे हैं

बता रहे हैं

कि सीमा पर लड़ाकू विमान मंडरा रहे हैं.

जबकि होगा कहीं कुछ नहीं.

उधर जरदारी होगा.

इधर अपना मदारी होगा.

दोनों नीरो हैं, चैन की बंशी बजाएंगे,

मरते दम तक ऐसे ही नजर आएंगे.

आतंकवाद को भी बेंच-खाएंगे.


Saturday, December 13, 2008

बड़ी रसीली है

कई तरह की निरर्थकताएं हैं. कुछ लोग यूं ही जिए जा रहे हैं. कुछ लोग यूं लिखे जा रहे हैं. कुछ लोग बस यूं कुछ-न-कुछ पढ़ते रहते हैं. कुछ लोग यूं ही विश्व पुस्तक मेले तक में पहुंच जाएंगे और जो किताब दिख जाए, खरीद लेंगे. इन निरर्थकताओं में तो भी कुछ-न-कुछ सार्थकता झलकती है. होती भी है.
कुछ लोग ऐसे मिले, जिन्हें कोई रोग-व्याधि नहीं, बस यूं बाबा रामदेव को सराहने में जुटे हुए हैं रात दिन. जैसे चाटुकार और चापलूस अपनी पार्टियों के नेताओं को अनायास सराहते रहते हैं. कुछ लोगों को बेवजह ठिस्स-ठिस्स हंसने की आदत होती है और कइयों को इसी तरह मुस्कुराने की. जैसे कालेज के बड़े बाबू प्रिंसिपल साहब को देखकर दबे होंठ चपरासियों को हंसने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.
एक पत्रकार हैं. उन्हें ट्रैफिक पुलिस वालों के साथ चौराहे पर खड़े होकर वहां से गुजरने वालों की आंखों में आंखों घुसेड़ने की लत है. अपने शहर में एक दरोगा जी हैं. हफ्ते में एक बार जरूर मौका निकालकर कप्तान साहब के मझले बेटे को (जो एसपी का सबसे मुंहलगा है) टॉफी-समोसा खिला आते हैं. अब वह बर्गर-पिज्जा की डिमांड करने लगा है. तब से दरोगा जी भी मोटी मछलियां नाधने लगे हैं.
एक कविजी हैं. पोखर के किनारे उनकी बुजुर्ग कोठी है. उसमें एक खिड़की है. बगल में तख्त डालकर पोखर की तरफ मुंह किए जनाब वहीं दिनरात कवियाते रहते हैं. माथे से टकलू हैं. खिड़की जाली से ही पता चल जाता है कि कोई महाकाव्य मकान के उस सिरे पर दमक रहा है. जब चिंतन-मनन करते-करते थक जाते हैं, सामने मोहल्ले की सड़क पर निकल आते हैं. आने-जाने वालों को काव्यात्मक अंदाज में निहारते रहते हैं. नमस्कार करते-कराते रहते हैं. जब वहां से भी थक जाते हैं, आगे नुक्कड़ पर पहुंच जाते हैं. देखते ही जूठन चाय वाला समझ जाता है कि विषखोपड़ी ग्राहकों का भेजा फ्राइ करने आ रही है. वाकया ही कुछ ऐसा है. चाय की यह दुकान किसी जमाने में पूरे शहर में मशहूर थी. कवि जी ने एक दिन अपने पिछलग्गू नवोदित कवि से कहा कि इस चाय वाले रुपई को कविता करना सिखाओ. लिखने लगा तो फिर यहां मुफ्त की चाय की जुगाड़ बन जाएगी. सो, मिशन सफल रहा. वाकई चाय वाला कवि हो गया. दुकान पर ग्राहक झख मार रहे होते और वह हिसाब-किताब वाली कापी में कविताएं लिखता रहता. वहां दिन रात कविगोष्ठियां होती रहतीं. एक दिन ऐसी नौबत आई कि उसे दुकान बेंच कर भाग खड़ा होना पड़ा था. तब से यह नया चायवाला दुकान थामे हुए है. कवि जी को देखते ही उसे पुराने दुकानदार रुपई के दुर्दिन याद आ जाते हैं.

प्रस्तुत हैं उसी की चार लाइनें (अप्रकाशित, हीहीही).....

छैल-छबीली है.
चाय अलबेली है.
पी लो राजा पी लो
बड़ी रसीली है.

...वाह-वाह वाह-वाह. कविता तो जानदार है गुरू. ऐं? (आखिरकार दुकान बेंचकर भाग खड़ा हुआ बेचारा)

जमाने के सताए हुए कुछ ऐसे लोग भी मिलते रहते हैं, जो आजकल ब्लॉगिंग पर दिन काट रहे हैं. कुछ लिक्खाड़ों ने जब देखा कि गुरू यहां तो मामला जोरदार चल निकला है तो वे कलम-डायरी छोड़कर इनदिनो इधर चरस-गांजा बो रहे हैं. जय हो.....जय हो!!

विचार मर जाने के बाद

चिट्ठियां लिखे
आधी उम्र जा चुकी,
अब कोई कविता लिखने का
मन नहीं करता,
दोस्ती के मुहावरे जाने कब के
झूठे पड़ चुके,
बातें बचपन के गांव की करूं
-तो......
किताबों की करूं
-तो........
मां की लोरियों और पिता की स्नेहिल झिड़कियों की करूं
-तो.......
उस समय से इस समय तक
जब कुछ भी
साबुत नहीं रहा
-तो....
करूं क्या
सोचने से पहले अथवा
विचार मर जाने के बाद
उसके साथ भी वही हुआ, जैसाकि अक्सर होता है
बहुतों के साथ.

Friday, December 12, 2008

दोगला सनातन हूं

नेता हूं
नेता हूं

कविता बनाता हूं
और गुनगुनाता हूं

बेमौसम छाता हूं
बड़े-बड़े लोगों को फंसाता हूं जाल में.


रात दिन पीता हूं
सपनों में जीता हूं
अधपका पपीता हूं
देश बेंच खाता, बाज आता हूं न चाल में

बाहर हूं, अंदर हूं
पलिहर का बंदर हूं
कवि भी धुरंधर हूं
रात-दिन बजता, बजाता हूं गाल में.

चिल्लर हूं मलमल का
खटिया का खटमल हूं
जोंक हूं गंगाजल का
पीता हूं खून, ढील-जुंआ हूं बाल में.

Thursday, December 11, 2008

लोकतंत्र का उत्सव

साठ साल से चरका-पट्टी
पढ़ा रहे उल्लू के पट्ठे.
हंस हुए निर्वंश, मलाई
उड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

चलो टिकट का खेल, खेल लें
फिर मतदाताओं को झेल लें
लोकतंत्र का उत्सव कहकर
चढ़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

वे अपना घर भरे जा रहे
हम महंगी से मरे जा रहे
धुंआ-धुंआ हम हुए, चिलम
गुड़गुड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

अबकी जब चुनाव में आवैं
इतना मारो, बच ना पावैं
पांच साल से दिल्ली में
बड़बड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

Tuesday, December 9, 2008

Thursday, December 4, 2008

नीरो की बांसुरी







नीरो के होठ देखो. उनमें विल्स फिल्टर लरज रहा है. आंखें देखो. उनमें कुर्सियां डांस कर रही हैं. हाथ देखो. नोकिया एन-70 बज रहा है. नीरो अपने लैपटॉप पर दुनिया भर में चैटिंग करता है. सुबह-सुबह अखबारों में आबकारी टेंडर खंगालता है. शाम का सूरज डूबते ही अगवा बच्चों को सुलगती तीलियों से दागता है. और आधी रात विधायक भवन की बगल में टेलीफोन बूथ पर पार्टियों में तोड़फोड़ के गणित लगाता है. इससे जो समय बचता है, रात बारह बजे के बाद.....क्या करता है नीरो....दुनिया जानती है. नीरो को भी मालूम है कि उसके दिल की तरह उसका आईना भी साफ है. उसमें उसका चेहरा कुछ इस तरह दिखाई देता है........











इससे पहले नीरो एक छोटे से कस्बे में कच्ची शराब का ठेका चलाता था. कुछ साल बाद कस्बे के बगल के गांव का प्रधान हो गया. पांच साल ग्राम प्रधान रहा. अगली बार ब्लॉक प्रमुख, उसके बाद विधायक चुन लिया गया. अवैध हथियारों की तस्करी करने लगा. बहुत बड़ा माफिया डान हो गया. एक दिन ऐसा आया जब वह जनता की आंखों में धूल झोंकता हुआ सीधे देश की सर्वोच्च सदन के लिए निर्वाचित हो गया. उन दिनों वह कु इस तरह तन गया था......












पूरा देश जानने लगा कि नीरो कौन है? नीरो भी अपने भीतर के शैतान की अकूत ताकत पहचान चुका था. अब इंटरनेशनल क्राइम नेटवर्क का सरदार बना. अपराधी राष्ट्राध्यक्षों का मुंहलगा हो गया. बराबर विदेश यात्राओं पर रहने लगा. पार्टी की चिंता बढ़ी, दबाव पड़ा तो नीरो ने अलग पार्टी बना ली और अपने धड़े के साथ सत्तादल में साझीदार हो गया. मिनिस्ट बन गया. अब तक वह अपनी उम्र के 55 बसंत पार कर चुका था. अय्याशियां करने लगा. तब वह कुछ इस तर नजर आता था.......







एक दिन रोम में आग लग गई. उन दिनों रोते-रोते रोम वाले मुंबई को रोम कहते थे. जब रोम जल रहा था, उन दिनों रोम की राजधानी दिल्ली में रोम बांसुरी बजा रहा था............बस दुनिया को आज इतना भर याद है कि नीरो बांसुरी बहुत अच्छी बजाता था. सारे चैनल उसे महीनो चिल्ला-चिल्ला कर प्रसारित करते थे.........



आतंकवाद के मुकाबिल इला अरुण और बप्पी लहरी...उफ्








इतने भयावह आतंकी हमले के बाद अब इला अरुण और बप्पी लहरी सरीखे लोग बताने लगे हैं कि आतंकवाद के खिलाफ हमें क्या करना चाहिए. एक के ललाट पर फूलन देवी जैसा टीका और दूसरे के गले में मूंगा-मोतियों का हार. दोनो अयोध्या के साधू-सधुआइन जैसे. खून से सनी मुंबई की सड़कों पर कैंडल जुलूस में नमूदार होते हैं दोनों. फिल्मी मेजर साब जाने कहां हैं. हजारों आतंकियों को दनादन मार गिराने वाले चैंपियन फाइटर सुनील सेट्ठी, शाहरुख खान, गोविंदा, नाना पाटेकर का भी कुछ अता-पता नहीं है. जिनका पता है, वे कैंडल जुलूसों में जोकरई कर रहे हैं.



काश इन कैंडल जुलूसों में कोई रिटायर्ड सेनाध्यक्ष या सेवानिवृत पुलिस कमिश्नर या सीमा पर दुश्मनों को मार गिराने वाला सैनिक होता. मति ऐसी मारी गई है कि अब भी ठिकाने आने का नाम नहीं ले रही. ऐसे संगीन दौर में भी खिलंदड़ी सूझ रही है. चैनल वाले तो खिलंदड़ी कर ही रहे हैं, नेता नपुंसक बयान दे ही रहे हैं, जरूरी है जनता का जागना और इन जोकरों को अपने यहां घुसपैठ न करने देना.



Wednesday, December 3, 2008

हाय टीआरपी...हाय टीआरपी...








अरे...ये तो खूब बिक रही है.


धड़ाधड़ बिक रही है.


हाथोहाथ बिक रही है.


बेचो-बेचो. सब बेच डालो.


.....आओ-आओ, मिट्टी के मोल ले लो, दोबारा मौका मिले-न-मिले. जो खरीदे उसका भी भला, जो न खरीदे उसका भी. मुंबई का माल है. पाकिस्तान से आया है. वतनफरोशो ने मंगाया है. दाऊद ने पठाया है. हम चैनल वाले इन दिनो रात-दिन बेच रहे हैं. ले लो, ले लो....दनादन बिक रही है, धड़ाधड़ बिक रही है. खबर है खबर. मुंबई की कौन कहे, पूरी दुनिया की बेंच डालेंगे. काश आतंकी यूं ही हमारे देश आते रहें और हमारे चैनल चनाजोर गरम दिनरात गरमाते रहें. किसी का खून खौल रहा है तो खौले. किसी के आंसू नहीं थम रहे तो न थमें. हमे खबर बेचने से मतलब है. हम चीख-चीख कर बेंचेंगे. कूद-कूद कर बेंचेगें. नाच-नाच कर बेंचेगें. बांच-बांच कर बेंचेगें. खूब बिक रही है. टकर-टकर बिक रही है. भकर-भकर बिक रही है. धकाधक बेचो. बेच डालो, बेच डालो.


खबर ले लोोोोोोो.


मुंबई की खबर ले लोोोोोोो.


विज्ञापन दे दोोोोोोोो. विज्ञापन दे दोोोोोोोो.


टीीीीीीी आरपीीीीीीी.


हाय टीआरपी


हाय टीआरपी


हाय टीआरपी


हाय टीआरपी....खबर ले लोोोोोोो. विज्ञापन दे दोोोोोोोो.


उफ्.


अरे...ये तो खूब बिक रही है.
धड़ाधड़ बिक रही है.
हाथोहाथ बिक रही है.
बेचो-बेचो. सब बेच डालो.............

Sunday, November 30, 2008

ठाकुर प्रसाद सिंह, वसीम बरेलवी, भावना कुंअर



भावना कुंअर की रचना

लम्हा इक छोटा सा फिर उम्रे दराजाँ दे गया
दिल गया धड़कन गयी और जाने क्या-२ ले गया।
वो जो चिंगारी दबी थी प्यार के उन्माद की
होठ पर आई तो दिल पे कोई दस्तक दे गया ।
उम्र पहले प्यार की हर पल ही घटती जा रही
उसकी आँखों का ये आँसू जाने क्या कह के गया।
प्यार बेमौसम का है बरसात बेमौसम की है
बात बरसों की पुरानी दिल पे ये लिख के गया ।
थी जो तड़पन उम्र भर की एक पल में मिट गयी
तेरी छुअनों का वो जादू दिल में घर करके गया।
ठाकुर प्रसाद सिंह का गीत

पाँच जोड़ बाँसुरी
बासन्ती रात के विह्वल पल आख़िरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी
वंशी स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो लेकिन
आधे अँचरा पर पिय सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

वसीम बरेलवी की गजल

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है।
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है।
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है।
बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है।
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है।



वेस्ट यूपी के चहेता

जागता शहर प्रथम पृष्ठ



जागता शहर अंक 8 नवंबर













जागता शहर अंक 22 नवंबर




















Saturday, November 29, 2008

बिग बी के तकिये के नीचे रिवाल्वर


ये हैं नकली मेजर साहब अपने नकली शागिर्द देवगन के साथ...........भैये, ताज होटल और नरीमन हाउस और ओबरॉय की तरफ न जाना....डरे-डरे से दिख रहे देवगन से शायद मेजर साब ऐसा ही कुछ कह रहे हैं.....

सदी के महानायक उर्फ मेजर साहब उर्फ कजरारे-कजरारे बहू के श्वसुर उर्फ अमिताभ बच्चन. इतने डरे-डरे से. नीद नहीं आ रही थी. तो तकिये के नीचे रिवाल्वर रख कर सोए. वाह. फिल्मी शूटिंग उर्फ ताज-नरीमन-ओबरॉय शूटिंग. क्या खूब दिलचस्प कंबिनेशन असली और नकली का.


पहले बिगड्डा बानगी लीजिए......यानी बिग बी की तीन दिन......


Prateeksha, Mumbai November 26/27, 2008 1:23 am
MUMBAI UNDER TERRORIST ATTACK !! SEVERAL LOCATIONS BOMBED AND TERRORISTS FIRING ALL OVER THE CITY. MAJOR HOTELS UNDER SEIGE. TAJ HOTEL BATTLE GOING ON INSIDE THE HOTEL. MULTIPLE ACTION ON. ARMY CALLED OUT. OVER 60 REPORTED KILLED AND 120 INJURED. 7 OF THE POLICE KILLED.
TERRIBLE ! TERRIBLE SITUATION !


Prateeksha, Mumbai November 25, 2008 11:51 pm
“In prosperity our friends know us. In adversity we know our friends.”
“No one can predict to what heights you can soar. Even you will not know until you spread your wings.” “Destiny is no matter of chance. It is a matter of choice. It is not a thing to be waited for; it is a thing to be achieved.” ” We deceive ourselves when we fancy that only weakness needs support. Strength needs it far more.” “Courage is what it takes to stand up and speak. Courage is also what it takes to sit and listen.” ” Two thoughts that define our attitude. What we think of ourself when we have nothing.. and …. what we think of others when we have everything.”
“Motivation is what gets you started, habit is what keeps you going - “ Lack of sleep again. But the body responds to the day as just another. Its a crew lay off so there is no shooting, but for me there is. A dubbing early morning for two commercials done a few days ago. Dabur and Luxor. They are well shot and well constructed. I dislike myself in them. I need to reduce some substantial quantity of weight !! Shall start work on it straight away. No more biscuits and cheese and sugar and french fries !! Been doing these on shoots as though there was no tomorrow !! The marvel of cinema technology gets the magnificent Dhoni and myself together in the Dabur Honey. ‘Cheeni ko dhakka maro…Dabur honey.. Hi honey !!’ ha.. Charging off madly to Filmistan Studios for Reid and Taylor. 14 different set ups for a photo shoot and … you got it.. 44 different suits to wear.. Standing by the BMW at night, standing by the podium at a function, sitting and reading classic English Literature, giving an autograph to a child, being interviewed by smart young news anchor; she being young and beautiful and from Brazil, in the conference room, standing by my awards, standing with dark glasses on, chatting at a bar with guests and another Brazillian… where are all these tall majestic Brazillians coming from ??
I ask them. They come to work in commercials !! What, all the way from South America !!
That over, over to Vishal @ Shekhar Studio to prepare for a performance on December 7th.. LIVE EARTH !! Charity for the cause of the earth’s survival… Al Gore, Bon Jovi and many from the Industry. I need to prepare also for the CGI - Clinton Global Initiative in Hong Kong. Global warming, solar energy, lighting villages… The house is vacant and lonely. Jaya campaigns for the on coming elections in various parts of the nation. Abhishek and Aishwarya campaign for Mani Ratnam in Kerala, where it is still raining. And I need to campaign for sound sleep… Am I not getting monotonous by my constant refrain on sleep ??
Sleep well..ha ha.........Amitabh Bachchan



Ptrateeksha, Mumbai November 24, 2008/written on November 25, 2008
11:10 pm
Yes I know.. there has been a lapse. But the timings of my day and my work are quite quite absurd. Night shoots always do this to all. You cannot rest in the day for the night and you cannot night shoot without rest. So basically one remains a zombie for an endless period of time. And one such zombie is addressing this post to you. The day of 24th disappears in trying to organize a moment when I could put aside everything and set up for the night shoot, and before you know it, the shoot is upon us.


Prateeksha, Mumbai November 23/24, 2008 2:58 am
Just back from another night shoot and action… speeding cars, jumping on bonnets, whacking the villian.. Exhausting and tiring..Its little Agastya’s birthday, 23rd November. My grandson.
But of that later. I must to the gym in the morning early, so must retire. Though the hours will be not at all substantial. More later.. Ab


अब सुनिए .....
शुक्रवार को बिग बी मुंबई पर आतंकी हमले से इतने डर गए कि तकिए की नीचे रिवाल्वर रखकर खर्राटे लिये. यह डर आतंकी हमला टीवी पर देखने के बाद उनके मन में घुसा. सोने से पहले उन्होंने अपनी लाइसेंसी 32 बोर की रिवाल्वर में गोलियां भरने के बाद उसे अपने सिरहाने तकिये के नीचे छुपाया और सो गए. पता चला है कि फिर भी उन्हें वह नींद नहीं आयी जो ऐश्वर्या के साथ कजरारे-कजरारे डांस करने के बाद आयी होगी.

अब सुनिए तारे जमीन पर वाले हीरो की......

SHOCKED, HEARTBROKEN, HELPLESS, ANGRY. Nov,27,2008
Have been watching television since yesterday and to see various locations in Mumbai turned into a war zone is shocking and heart breaking to say the least. My heartfelt condolences to the families of persons killed and taken hostage. I was feeling sick in the stomach when the fire broke out at the Taj. What would the people caught inside be going through. The fire fighters were doing their best but my imagination was running wild and I was feeling helpless watching other people trapped in the rooms adjoining the fire. My heartfelt condolences to the family of the brave officers of the Mumbai Police who lost their lives leading from the front to take on these terrorists. Especially Hemant Karkare of the ATS who in the recent past was being targeted by various political parties for the work that he was doing. When will these politicians realize and admit that terrorists HAVE NO RELIGION. Terrorists are not Hindu or Muslim or Christian. They are not people of religion or God. They are people who have gone totally sick in their head and have to be dealt with in that manner. Hemant Karkare is an example of a brave officer who gave his life in the line of duty. At this moment I pray that the brave officers of the Mumbai Police, the Indian Army, Navy, the NSG and the various other security forces dealing with the situation are able to end this crisis as soon as possible. If it had just been a matter of simply fighting the terrorists the security forces would have dealt with it sooner, but here of course the situation is extremely complicated with many innocent lives at stake. The fact that the locations are huge hotels with multiple floors, hundreds of rooms, many corridors, staff quarters, work spaces, entries, exits etc, and have innocent guests still in there, have made the task very difficult and delicate. I dread to think of how various political parties are now going to try and use this tragedy to further their political careers. At least now they should learn to not divide people and instead become responsible leaders. An incident such as this really exposes how ill-equipped we are as a society as far as proper leaders go. We desperately need young, dynamic, honest, intelligent and upright leaders, who actually care for the country.

Faith.Jai Hind.
(कुछ भी हो आमिर को सोने से पहले रिवाल्वर की जरूरत नहीं पड़ी. शाबाश आमिर.)

फिलहाल बहादुर सैनिकों ने आपरेशन फतह कर लिया है. अब गड्डा-बिगड्डा वाले शांति मार्च पर निकलेंगे.

Friday, November 28, 2008

नचनियों की नगरी में हीरो ने सारे आतंकवादियों को मार गिराया

अभी समुद्री डकैतों ने पूरा जहाज ही अगवा कर लिया. उसे डुबो दिया गया. समुद्र के रास्ते मुंबई पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया. एक हीरो पूरी रात पूरे शहर में घूम-घूम कर अकेले इतने आतंकवादियों से मोरचा लेता रहा और एक-एक कर सभी को मार गिराया. इससे पहले वह पाक और बांग्लादेश की सीमाओं पर हैरतअंगेज लड़ाइयां फतह कर चुका है. वह हीरो हो सकता है ऋतिक रोशन, अमिताभ बच्चन, सुनील सेट्ठी, शहारुख खान, अनिल कपूर, संजय दत्त या कोई और. देहफरोश हिरोइनों के साथ नाच-नाच कर हराम के करोड़ों-अरबों रुपये कमाने के बाद दौलत वालों की दुनिया में गाल बजाने वाले अय्याशों ने सबसे ज्यादा इस देश की नई पीढ़ी को बर्बाद किया है. जब मुंबई पर हमला हुआ, परदे पर तिलस्मी शेखी बघारने वाले इन नकली बहादुरों में से काश कोई एक भी निकल कर सामने आ गया होता और कम से कम अपने एक हीरो की शहादत पर भारतीय नौजवान फक्र कर लेते कि हमारे हीरो सिर्फ पैसा नहीं कमाते, सिर्फ परदा-बहादुर भर नहीं, सिर्फ नाचने और नंगी हिरोइनो को बॉडी दिखाने के लिए मसल्स नहीं चमकाते, वे सिर्फ चूमाचाटी कर रुपये नहीं उगाते बल्कि हकीकत की जिंदगी में भी वे उतने ही बहादुर हैं.
वे कायर क्या बहादुरी दिखाएंगे जो पैसे के लिए दाऊद की पार्टियों की शोभा बढ़ाने दुबई पहुंच जाते हैं. उनका जितना दिमाग खराब है, उससे ज्यादा पैसे की हवस में डूबे अखबार और चैनल वाले उनके दिमाग खराब किए हुए हैं. देश की प्रतिभा और बहादुरी की उपेक्षा कर सबसे ज्यादा इन हिजड़ों और हिजड़नियों (कैटरीना, ऐश्वर्या, रानी कानी) को स्पेस दिया जाता है. इन्होंने पूरी पीढ़ी को निर्वीर्य बना दिया है.
मुंबई में जब तड़ातड़ गोलियां चल रही थीं, पैसे वाले ताज होटल में अय्याशी में डूबे हुए थे, दारू के कई-कई पैग सूत कर अकबका रहे थे. जब गोलियां बरसने लगीं, सारा नशा अंदर घुस गया और चड्ढी-चोली में मागो-मागो चिल्लाने लगे. हराम के. इन पैसे वालों और उनके नचनियों ने पूरे मुल्क को हरम में तब्दील कर रखा है. मुश्किल तो ये है कि इन हरमवालों की हिफाजत के लिए हमारे 14 नौजवानों को बलिदान होना पड़ा.
आज जरूरत है कि देश के बुद्धिजीवी एक हों, कुशासन पीड़ित एक हों, ईमानदार लोग एक हों और हरामखोरों के खिलाफ सड़कों पर उतरें. लगातार ऐसे अभियान चलें. जब पूरी जनता लामबंद हो जाए, फिर किसी की हिम्मत नहीं, जो अपने प्यारे भारत पर कोई कुत्ता बुरी नजर डालने की हिम्मत कर सके. यह शोक में बिसूरने का समय नहीं, सांप्रदायिक आनंद लेने का समय नहीं, हाय-हाय, उफ्-उफ् करने का समय नहीं, अपने बीच के हरामियों के खिलाफ उड़ खड़े होने का समय है. मुंबई हमले का यही बुनियादी सबक हो सकता है. हम अपने बीच के हरामखोरों से निपट लें तो बाहर के हरामी वैसे ही डर जाएंगे. जब तक हम वीरता का नकली प्रदर्शन करते रहेंगे, काफी हाउसों में बैठकर बौद्धिक जुगालियां करते रहेंगे, संसद में नोट की गडि्डयां बटोरते रहेंगे, तब तक इस देश का भगवान ही मालिक होगा.
देखना....जब सब कुछ सामान्य हो चुका होगा, सारे आतंकवादी मारे या पकड़े जा चुके होंगे, तब साबुन-सेंट से नहा-धोकर ब्रांडेड कपड़े पहने हीरो और गोरे-गोरे मुखड़े पर काले-काले चश्मे पहने हिरोइनें मुंबई की सड़कों पर शांति मार्च करने निकलेंगी. चैनल और अखबार फोटो ग्राफरों के दनादन फ्लैश चमकेंगे. गेंदा-गुलाब की मालाओं से लदे-फदे मंत्री और अफसर शोक यात्रा में ठठाकर हंसते-गपियाते हुए भारतीय लोकतंत्र और फिल्म इंडस्ट्री की अथाह कमाई-धमाई की हिफाजत की अलख जगाएंगे. देखना ऐसा ही होगा. और हम फिल्मी पर्दे पर स्टंट-तालियां बजाते हुए रात-रात भर टीवी पर भक्कूलाल की तरह आंखें फाड़-फाड़ कर देखते रहेंगे कि..........अरे-अरे-रे....मार दिया...मार दिया....मार दिया रे......

Thursday, November 27, 2008

स्त्री रचनाकारों के प्रमुख ब्लॉग


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http://laharein.blogspot.com/2008/11/blog-post_26.html

ब्लॉग फिल्मी हैं

क्रमशः अब जानिए उनके ब्लॉग, जिनको जानने के लिए दुनिया वाले मचलते रहते हैं. तरह-तरह के ब्लॉग और तरह-तरह की ब्लॉगिंग, तरह-तरह की बातें और तरह-तरह के रंग-विरंगे उपाख्यान, चमकीले, भड़कीले, कलमुंहे और सुनहले, कुछ सही, कुछ गलत, कुछ ऊल-जुलूल......

http://manojbajpayee.itzmyblog.com
www.katharinehepburntheater.org/
www.starstore.com
http://radiovani.blogspot.com/2007/10/blog-post_22.html
http://blogsolute.com/hi/tag/movies/
www.themovieblog.com/
www.filmexperience.blogspot.com/
www.guardian.co.uk/film/filmblog
filmbabble.blogspot.com/
www.cinematical.com/
www.indiefilmblog.com/
www.jeffreyhill.typepad.com/filmblog/
www.thehobbitblog.com
www.filmmakermagazine.com/blog/ - 99k
www.bollywood-star.blogspot.com/
www.bollywood.ac/
www. wallpapers123.blogspot.com/2008/09/bollywood-and-south-indian-film-stars.html - 238k -
www.hotklix.com
www.mixx.com/photos/.../bollywood_and_south_indian_film_stars_at_actress_maheshwari_marriage_photo_gallery_pict... - 49k
www.realbollywood.com/
www.americanchronicle.com/articles/66803
www.bestindianfilms.com/blog/
www.blogcatalog.com/directory/arts/movie - 34k
www.indiescene.net/archives/Asia/Pacific/Bollywood-Star-Urges.html - 67k
www.wordpress.com/tag/film-stars/ - 41k
www.blogs.reuters.com/indiamasala/2008/06/06/just-let-the-bollywood-stars-be-some-iifa-memories/ - 42k
www.vicky.in/straightfrmtheheart/is-auto-majors-betting-on-film-stars/ - 81k
www.blogtoplist.com/entertainment/blogdetails-1571.html - 51k
www.webalalza.com/economyblogs/2008/01/25/Highest-paid-Bollywood-India-film-stars/ - 55k
www.eco.netvibes.com/tag/bollywood%2Bstar - 32k
www.search1.rediff.com/dirsrch/srchred.cgi?red...asp%3FMT%3Dindian%2Bfilm%2Bstars%26src%3... - 24k
www.bollywoodmovies.us/blog/2008/05/bollywood-stars-at-cannes-film-festival.html - 31k
www.humsurfer.com/bollywood-film-stars-at-the-relaunch-of-poison-photo-gallery - 17k
www.bisnoo.sulekha.com/blog/post/2004/03/xxx-porno-movies-of-indian-film-stars/comments.htm - 50k
www.bollywoodpremiere.com/ - 57k
www.jumptags.com/tag/Indian%20film - 61k
www.charts.technorati.com/blogs/www.bollywood.ac - 50k
www.zimbio.com/bollywood+trends/articles/3/One+Bollywood+film+credits+stars+shown+same - 46k
www.guardian.co.uk/film/filmblog+bollywood - 81k
www.bollywoodsargam.com/bollywood_movies_photo_gallery.php?photoalbum=6116230---latest-Film_Star_Movie... - 28k -
www.bollywood-buzz.com/news/1288/indian-film-industry-filled-with-bengali-actresses.html - 28k
www.bollywoodmovies.rediffblogs.com/ - 36k
www.widgetbox.com/widget/bollywood-actors--actresses-blog - 95k

Wednesday, November 26, 2008

ब्लॉग कम्युनिटी


ब्लागिंग की दुनिया कितनी संपन्न हो चुकी है, उसने रचनाधर्मिता के कितने विविधतापूर्ण आयाम विकसित कर दिए हैं, यह जानना है तो क्लिक करें ये ब्लॉग. इस श्रृंखला के प्रारंभ में हम सबसे पहले 1. विज्ञान विषयक 2.स्त्री समाज विषयक सामग्री से संपन्न चिट्ठों के नाम दे रहे हैं.


विज्ञान सामग्री वाले ब्लॉग
1. www.indianscifiarvind.blogspot.com (अरविंद मिश्रा)
2. www. tasliim.blogspot.com
3.www.alizakir.blogspot.com (ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ )
4.www.unmukt-hindi.blogspot.com (उन्मुक्त)
5.www.sujalam.blogspot.com
6.www.jalvayu.blogspot.com
7.www.paryavaran-digest.blogspot.com(डॉ. खुशालसिंह पुरोहित)
8.www.khetibaari.blogspot.com(अशोक पांडेय)
9.www.gdpradeep.blogspot.com(डॉ.गुरदयाल प्रदीप)
10.www.hinditoday.blogspot.com(अतुल चौहान )
11.www.askingnlearning.com
12.www.awramedia.org
13.www.kentbeatty.com
14.www.tarasfilatov.com
15.www.manuwebdesign.it

मुख्य महिला ब्लॉगर्स की साइट्स

1. www.Beji-viewpoint.blogspot.com
2. www.bakalamkhud.blogspot.com
3. www.pratyaksha.blogspot.com
4. www. linkitmann.blogspot.com
5. www. ghughutibasuti.blogspot.com
6. www. parulchaandpukhraajkaa.blogspot.com
7. www. vadsamvad.blogspot.com
8. www. bedakhlidiary.blogspot.com
9. www. swapandarshi.blogspot.com
10. www. neelima-mujhekuchkehnahai.blogspot.com
11. www. auratnama.blogspot.com
12. www. lavanyashah.com
13. www. mamtatv.blogspot.com
14. www. nishamadhulika.com
15. www.raviwar.com

इस कड़ी में हम आगे भी विषय क्रम से ब्लॉगों की सूची देते रहने की कोशिश करेंगे ताकि नए चिट्ठाकारों को इन नए बाग-बगीचों की सैर कराई जा सके और रचना संसार और संपन्न होता जाए. आगे हम साहित्य, मीडिया, राजनीति आदि विषयों की जानकारियों से संपन्न ब्लॉगों की सूची भी क्रमशः प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे. आशा है इससे चिट्ठा-संसार संपन्न होने में कुछ मदद मिल सकेगी.

चिट्ठाकारों से विनम्र निवेदन सहित प्रस्तुत. तकनीकी कारणों से सभी ब्लागर्स के नाम उपलब्ध कराना संभव नहीं हो पा रहा है.

Monday, November 24, 2008

शब्दजाल...सितारे....संपदा....बिंदास

शहर संदर्भ....
साइबर बाजार के बहेलिये

शहर संधान.........
हिंदी की भूमिका से मुंह मत फेरोः शंभुनाथ

शहर टॉप............
वेस्ट यूपी में साइबर क्राइम का मास्टर माइंड विजय
हैकर हूं मैं
नेट पर चट शादी, पट तलाक

शहर फीरोजाबाद...
25 लाख में जेब काटने का ठेका

शहर आभा...........
शादी, सर्दियां और आपका पहनावा


शहर बिंदास.........
उफ् उनका सुरूर

शहर खेलकूद...........
मैं बॉडी बिल्डर

शहर शब्दजाल...........
लाटरीः उषा यादव

शहर संपदा.........
और भयावह होगी मंदीः सीए संजय अग्रवाल

शहर सिनेमा...........
गजनी ः रीयल ऐक्शन थ्रिलर

शहर सितारे.......
शनि बनाता है राजनेता

यह सब पढि़ये जागता शहर के ताजा अंक में. यदि आपके शहर में आपकी यह पत्रिका उपलब्ध न हो तो पढ़ें गतांग.......क्लिक करें
www.jaagtashahar.com

शुक्रिया मंदी, अलविदा किसान


भारत में र्आिथक मंदी का असर दिखाई देने लगा है। इस असर को कम करने के लिए रिजर्व बैंक ने बाजार में ज्यादा पैसा उपलब्ध कराने से संबंधित जो कदम उठाए हैं, अभी तक उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। चूंकि बैंकों को रिजर्व बैंक से कम दर पर रूपया मिल सकता है, इसलिए उन्होंने जमा रकमों पर देय अपनी ब्याज दरें बढ़ा दी हैं। इससे उनकी जमा राशियों में तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन यह कोई समाधान नहीं है। मुद्दे की बात यह है कि क्या बैंक अपने यहां जमा राशियों का उत्पादक निवेश कर सकते हैं। मंदी की आहट आने के पहले से ही यह समस्या बनी हुई थी। भारत के नागरिकों को दुनिया भर में सर्वोच्च बचत करने वाला माना जाता है। युवा पीढ़ी में यह प्रवृत्तिा कुछ कम है, परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके पूंजीगत खर्चे भी ज्यादा हैं। बीस-पच्चीस साल पहले नौकरीपेशा लोग रिटायर हो जाने के बाद और व्यवसाय करनेवाले उल्लेखनीय सफलता हासिल करने के बाद अपना घर बनवाया करते थे। आज की सफल युवा पीढ़ी सबसे पहले मोटरगाड़ी और फ्लैट पर ध्यान देती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन दोनों चीजों तथा अन्य उपभो‡ा वस्तुओं के लिए कर्ज सहजता से मिल जाता है। दरअसल, बैंकों के पास इतना पैसा आ गया है कि कर्ज देने में उनके बीच जबर्दस्त प्रतियोगिता चल रही है। बाजार में तरलता की मात्रा बढ़ जाने से बैंकों के सामने उपस्थित यह समस्या तेज हो रही है कि वे अपने पास जमा पैसे का क्या करें। जिस तरह र्आिथक विकास एक सुचक्र है जिसमें एक सफलता दूसरी सफलता की आ॓र ले जाती है, वैसे ही मंदी एक दुश्चक्र है, जिसमें एक क्षेत्र की विफलता दूसरे सभी क्षेत्रों को प्रभावित करती है। हमारा मोटरगाड़ी उघोग संकट में आ गया है, जिसके चलते टाटा को लखनऊ और पुणे के अपने संयंत्र हफ्ता-हफ्ता भर बंद रखने का निर्णय करना पड़ा है। कपड़ा उघोग में छंटनी का वातावरण बन गया है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में टेलीविजन और मोबाइल फोनों की मांग बनी हुई है, पर दूसरे उपकरणों का हाल अच्छा नहीं है। सॉफ्टवेयर व्यवसाय, बीपीआ॓ और कॉल केंद्र जबरदस्त तंगी का सामना कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पूरे औघोगिक वातावरण में डर और निराशा फैले हुए हैं। यही वह ‘मार्केट सेंटीमेंट’ है जो सभी का मूड तय करता है। आजकल यह मूड पस्ती और बेचैन प्रतीक्षा का है। इस मूड का प्रभाव यह पड़ा है कि शेयरों के भाव गिरते जाते हैं और नए उघोग-धंधे शुरू करने की प्रेरणा कमजोर होती जाती है। यह स्थिति हमारे लिए कुछ ज्यादा ही खतरनाक इसलिए है कि हमारा कृषि क्षेत्र पहले से ही पस्त है। किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं अब भी जारी है। मंदी का असर यह होगा कि कृषि उपज की कीमतों में वृद्धि की दर किसानों के हितों के प्रतिकूल ही बनी रहेगी। यानी हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट दूर नहीं होगा, बल्कि और गहरा होगा। दूसरी आ॓र, मशीनी उत्पादन को बढ़ाने में हम कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर पाए हैं। पिछले कुछ दशकों में इस तरफ ध्यान भी कम दिया गया है। नई औघोगिक इकाइयां बैठाने में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की कोई खास भूमिका नहीं है। बड़े-बड़े औघोगिक घराने सेवा क्षेत्र या फुटकर कारोबार में उतर रहे हैं। जब कृषि और उघोग में विस्तार और वृद्धि का माहौल न हो, बल्कि यथास्थिति को बनाए रखना भी कठिन साबित हो रहा हो, तब इनकी सक्रियता पर निर्भर सेवा क्षेत्र अपनी प्रगति के मामले में कितना निश्चत रह सकता है? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की नई र्आिथक अमीरी के पीछे सेवा क्षेत्र की निर्णायक भूमिका है। सेवा क्षेत्र स्वभाव से ही परजीवी होता है। जब खेत में फसल ही नहीं होगी, तो पंछी दाना कहां चुगेगा?अमेरिका में भी मंदी है, दुनिया भर में मंदी है, यह बार-बार दुहराने से भारत की मंदी का जो अपना विशष्टि चरित्र है, उसे छिपाया नहीं जा सकता। अमेरिका, इंग्लैंड आदि देश अमीर हैं। अत: उनका संकट अमीरी का संकट है। अमीरी में थोड़ी कमी आ जाए, तो स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ता। जिनकी नौकरियां जा रही हैं, वे एकदम सड़क पर नहीं आ जाते। उनके लिए सहज ही उपलब्ध सामाजिक सुरक्षा का जो स्तर है, वह अस्सी प्रतिशत भारतीयों के रहन-सहन के स्तर से बेहतर है। लेकिन हमारी मंदी पूरी अर्थव्यवस्था की गति को प्रभावित करने वाली है। यूं भी जिस नई अर्थव्यवस्था के बल पर हमारे शासक और योजनाकार कूदते रहे हैं, उसके दायरे में देश की पंद्रह-बीस प्रतिशत आबादी ही आती है। इसी आबादी में शामिल हैं केंद्रीय सरकार के कर्मचारी, जिनकी तनखा दुगुनी के करीब कर दी गई है। वास्तव में मजे तो सिर्फ इन्हीं के हैं, क्योंकि न तो इनकी छंटनी हो सकती है न इनका वेतन कम किया जा सकता है। लेकिन इस वर्ग को भी दो अप्रत्यक्ष नुकसान होने जा रहे हैं। मंहगाई बढ़ने से इनकी आय का वास्तविक मूल्य कम होता जाएगा तथा उघोग-व्यापार में संकट आने से इनके बेटे-बेटियों को उपलब्ध अवसर घटते जाएंगे। इसका प्रभाव पूरे परिवार के रहन-सहन के स्तर पर पड़ेगा। सामाजिक सुरक्षा के अभाव में आत्महत्याएं बढ़ेगी, पारिवारिक तनाव में तीव्रता आएगी और समाज का अपराधीकरण होगा। इसलिए यह सवाल पूछने लायक है : क्या सिर्फ मौद्रिक नीतियों में परिवर्तन से स्थिति को गंभीर होने से रोका जा सकेगा? बैंक ण को सस्ता और सुलभ बनाना एक मृग मरीचिका है। अगर ण चुकाने की क्षमता में वृद्धि नहीं होती है, तो बैंक ण जल्लाद का फांस बन जाता है। अमेरिका अर्थव्यवस्था के संकट का मुख्य कारण यही बताया जाता है -- मकान लेने के लिए बैंक ण को कुछ ज्यादा ही सुलभ कर दिया जाना। शुक्र है कि हमारे बैंक इतने लालची नहीं हैं कि हर ऐरे-गैरे को पकड़ कर कर्ज देते जाएं। इसीलिए हमारे बैंक संकट में नहीं हैं। लेकिन विकास में मंदी आने से सब गुड़ चौपट हो जाएगा। इसलिए मंदी से निपटने के लिए हमें जो कदम उठाने चाहिए उनकी प्रकृति अमेरिका और यूरोप से अलग होगी। इस मामले में हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते। हमें यह देखना होगा कि ज्यादा से ज्यादा नौकरियां कैसे पैदा हों और वेतन तथा आमदनी में कैसे कम से कम फर्क लाया जाए। साथ ही, हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात-अभिमुख न हो कर अधिक से अधिक आत्मनिर्भर बने।

Friday, November 21, 2008

महामंदी के बाद साम्राज्यवाद

सांसें गिनता साम्राज्यवाद एवं बढता फासीवादफासीवाद का वित्तीय पूंजी के साथ सीधा संबंध है. 1930 की महामंदी के बादसाम्राज्यवाद ने कीन्सीय औजारों के जरिये कुछ समय के लिए और मोहलत हासिल की.इसके अलावा इसे थोडी और मोहलत इसलिए भी मिली क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध केबाद सीधे औपनिवेशिक बंधनों से मुक्त हुए उत्पीडित देशों में पूंजीवाद या फिरराजकीय एकाधिकार पूंजीवाद की स्थापना ने इसे थोडे समय के लिए और जीवनदान दिया.लेकिन साम्राज्यवाद वास्तव में और ज्यादा मरता और सडता जा रहा है. इसकी सडांधतो और कहीं ज्यादा व्यापक थी. साम्राज्यवाद पुनः 1970 के दशक से दीर्घकालिकसंकट में फंसता गया. 1970 के दशक तक सट्टेबाज पूंजी अपने लिए रास्ते तलाशती रही.इसका हल भी आइएमएफ, वर्ल्ड बैंक एवं भूमंडलीकरण के जरिये निकाल लिया गया. 1980के दशक में तीसरी दुनिया के देशों को दिये जानेवाले कर्जे में इस बेकार पूंजीने अपने लिए रास्ता ढूंढा. 1990 के बाद भूमंडलीकरण के जरिये इसने दुनिया केबाजारों को हासिल करके फिर थोडे समय के लिए संकट से बाहर आने की कोशिश की.लेकिन इसके बावजूद संकट का कोई अंत नहीं था. 2002 की शुरुआत में डॉट कॉमबुलबुला फूटने के बाद इसकी रही-सही कसर भी निकल गयी. इसके बाद से ही विश्व एवंअमेरिकी अर्थव्यवस्था सिकुडती गयी. इंटरनेट बुलबुले के फूटने के बाद फेडरलरिजर्व (अमेरिकी केंद्रीय बैंक) ने हाउसिंग बुलबुले के जरिये इस संकट को पारकरने की कोशिश की. कुछ समय तक तो वह सफल हुआ, लेकिन 15 अगस्त, 2007 को यह बुरीतरह धराशायी हो गया, जिसे सब प्राइम संकट कहा गया. इस संकट के प्रभाव काफीदूरगामी हैं. आइएमएफ के तात्कालिक प्रबंध निदेशक रोडिगो राटो के अनुसार 'अमेरिका इस संकट के प्रभाव का शिकार लंबे समय तक रहेगा. इस संकट के प्रभाव कोकम करके नहीं देखा जाना चाहिए एवं इसके ठीक होने की प्रक्रिया दीर्घकालिक होगी.साख (क्रेडिट) की स्थिति जल्दी सामान्य नहीं होगी.' इसके आगे उनका कहना है किइसका प्रभाव वास्तविक अर्थव्यवस्था पर पडेगा एवं यह 2008 में सबसे ज्यादा महसूसकिया जायेगा (3). हम अमेरिकी अर्थव्यवस्था, जो अब भी दुनिया की सबसे बडीअर्थव्यवस्था है, के इस संकट को समझ सकते हैं. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यहउस बाजार में पहला संकट है, जहां कर्जों एवं परिसंपत्तियों की जमानत पर निर्मितनये 'उत्पादों' की विश्व स्तर पर खरीद-फरोख्त होती है. इस पूरे संकट कादुष्प्रभाव अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर व दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पडना लाजिमीहै. फिर मंदी के आसार देखे जाने लगे हैं, जो भूमंडलीय आर्थिक संकट को और बढादेगी.अमेरिकी सब प्राइम बाजार के संकट से पूरी दुनिया के शेयर बाजार लडखडाने लगे. इससंकट के परिणाम इतने गहरे थे कि विश्व के कई नेतृत्वकारी बैंकों को गंभीर खतराहो गया. इनको बचाने के लिए केंद्रीय बैंकों ने भारी पैमाने पर धन डाला. यूरोपीयकेंद्रीय बैंक ने 130 बिलियन डॉलर, जापान के बैंक ने एक ट्रिलियन डॉलर एवंअमेरिकी फेडरल ने 43 बिलियन डॉलर इसमें लगाये. इस दौर के संकट के आयाम तो पिछलेसमयों के तमाम संकटों से काफी व्यापक हैं. इसका मूल कारण यह है कि साम्राज्यवादने उन तमाम कीन्सीय एवं अन्य औजारों का इस्तेमाल कर लिया, जिसके जरिये वहमहामंदी से बाहर निकला था, लेकिन संकट में बदलाव के कहीं कोई खास संकेत नहींहैं. इन संकटों के परिणामस्वरूप उत्पीडित देशों में और ज्यादा भयानक पैमाने परलूट-खसोट मचायी जायेगी, जिसका माध्यम भूमंडलीकरण होगा. अमेरिका द्वारा अपने देशसे बाहर किये गये, निवेश के जरिये कमाये गये मुनाफे पर नजर डालें तो 1970 केदशक के 11 प्रतिशत से बढ कर 1980 एवं 1990 के दशक में यह क्रमशः 15 एवं 16प्रतिशत तथा 2000-04 के बीच यह औसतन 18 प्रतिशत था (4). इसके अलावा सट्टेबाजीमें और वृद्धि होगी. हम यदि पिछले 30 सालों के रूझानों पर नजर डालें तोन्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज में 1975 में लगभग 19 मिलियन शेयर की खरीद-फरोख्तहोती थी. यह 1985 में 109 मिलियन से बढ कर 2006 में 1,600 मिलियन तक पहुंच गया.विश्व मुद्रा बाजार में खरीद-फरोख्त इससे कहीं ज्यादा है. यह 1977 के 18 मिलियनडॉलर प्रतिदिन से बढ कर 2006 में 1.8 ट्रिलियन डॉलर प्रतिदिन हो गया. इसका मतलबथा कि प्रत्येक 24 घंटे में मुद्रा की खरीद-फरोख्त पूरी दुनिया के वार्षिकजीडीपी के बराबर थी(5). अर्थात मुनाफे की भूख में आवारा पूंजी और ज्यादा मुंहमारती फिरेगी. इससे हम विश्व की अर्थव्यवस्था की अस्थिरता का अंदाजा भर लगासकते हैं.इसके अलावा केंद्रीकरण में भी भयानक स्तर तक इजाफा हुआ है. नवंबर/दिसंबर, 2005में प्रकाशित एक अध्ययन पर नजर डालें तो दुनिया की 10 बडी दवा कंपनियों का 98नेतृत्वकारी घरानों के 59 प्रतिशत शेयर पर नियंत्रण था. दुनिया के 21,000मिलियन डॉलर के व्यावसायिक बीज बाजार के लगभग 50 प्रतिशत पर 10 बडी कंपनियों कानियंत्रण था. 29,566 मिलियन डॉलर के विश्व कीटनाशक बाजार के लगभग 89 प्रतिशत कानियंत्रण 10 बडी कंपनियों के हाथ में था. विश्लेषकों के अनुसार 2015 तक केवलतीन कंपनियों का पूरे कीटनाशक बाजार पर कब्जा होगा. 2004 में फूड रिटेल बाजारके अनुमानित आकार 3.5 ट्रिलियन डॉलर के 24 प्रतिशत हिस्से (84,000 मिलियन डॉलर)पर 10 बडी कंपनियों का कब्जा था. इन इजारेदारियों से हम अनुमान लगा सकते हैं किहमारे आम सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन का निर्धारण किस तरह से पारदेशीय निगमकर रहे हैं. भूमंडलीकरण के शुरुआती दौर (1990) में कहा गया था कि निगमों केविलय का दौर समाप्त हो गया है, लेकिन 2004 की शुरुआत में विश्व स्तर पर विलयोंएवं अधिग्रहणों का आंकडा 1.95 ट्रिलियन डॉलर का था. यह 2004 में 2003 के 1.38ट्रिलियन डॉलर से 40 प्रतिशत बढ गया था. 2004 में 200 बडे पारदेशीय निगमों कीसंयुक्त बिक्री विश्व की संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों की 29 प्रतिशत थी. यहलगभग11,442,256मिलियन डॉलर के बराबर थी. धन के संकेंद्रण का अंदाजा हम इस बात से भी लगा सकतेहैं कि दुनिया के 946 अरबपतियों के धन में प्रतिवर्ष लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धिहो रही है. वहीं दुनिया की आबादी के नीचे के 55 प्रतिशत लोगों की आय में या तोगिरावट है या ठहराव है. जेम्स पेत्रास ने लिखा है कि रूस, लैटिन अमेरिका और चीन(जहां 10 से भी कम सालों में 20 अरबपतियों ने 29.4 प्रतिशत बिलियन डॉलर जमा कियेहैं) में वर्गीय एवं आय असमानताओं को देखते हुए इन देशों को उभरती हुईअर्थव्यवस्था के बजाय उभरते हुए अरबपति कहना ज्यादा मुनासिब होगा. पिछडे देशोंमें भूमंडलीकरण को जनता के तमाम संकटों का समाधान बताया गया. सरकारीअर्थशास्त्रियों ने हमें पढाया कि अंततः पूंजी का प्रवाह अमीर से गरीब देशों कीतरफ होता है. लेकिन 'द इकोनॉमिस्ट' पर नजर डालें तो पता चलता है कि 2004 मेंउभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने अमीर देशों को 350 बिलियन डॉलर भेजे(6).केंद्रीकरण के ये तमाम तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि साम्राज्यवाद और कितनेगहरे संकट में फंसता जा रहा है. हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद के संकट का सबसेमूल कारण मालिकाने का निजी स्वरूप और उत्पादन के सामूहिक चरित्र के बीचअंतर्विरोध है. ये तमाम प्रक्रियाएं साम्राज्यवाद के तमाम अंतर्विरोधों को औरभयानक पैमाने पर तीखा करती जायेंगी. हम कह सकते हैं कि लेनिन के समय कासाम्राज्यवाद यदि परजीवी और मरणासन्न था तो आज वह उससे हजार गुना परजीवी औरमरणासन्न है. साम्राज्यवाद इससे बचने के लिए और प्रतिगामी रुख अपनायेगा.परिणामस्वरूप गरीब देशों की लूट और भयानक स्तर पर बढ जायेगी. साम्राज्यवादीयुद्ध के खर्चों में वृद्धि होगी. हथियारों के बाजार को और प्रोत्साहित कियाजायेगा. तमाम देशों में नस्लीय एवं धार्मिक नफरतों को भडकाया जायेगा. और तो औरमुनाफे के स्तर को बनाये रखने के लिए भयानक नरसंहार किये जायेंगे. चूंकिसाम्राज्यवाद के पास अंततः यही औजार हैं.भारतीय अर्थव्यवस्था के मुखिया भले ही भारतीय जनता को अर्थव्यवस्था के फूलप्रूफहोने के सब्जबाग दिखाते रहें, लेकिन उनको भी पता है कि स्थिति उतनी अच्छी नहींहै. अमेरिका के सब प्राइम संकट के बाद विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अगस्त मेंसबसे ज्यादा बिक्री की. यह 1990 में उनकी भागीदारी से अब तक एक महीने में सबसेअधिक थी. अर्थात अमेरिकी बाजार का एक संकट पूरे बाजार को हिला देने की क्षमतारखता है. भारत के दलाल पूंजीपति घराने आज ज्यादा से ज्यादा हद तकसाम्राज्यवादियों के साथ जुडे हुए हैं. कई बडे बैंक भारतीय से अधिक विदेशी होचुके हैं. भारत में स्टॉक बाजार में भारी पैमाने पर विदेशी संस्थागत निवेश कीमूल वजह तो सब प्राइम बाजार का संकट, अमेरिकी ब्याज दरों का कम होना रहा है, नकि भारतीय अर्थव्यवस्था का काफी मजबूत होना. अर्थव्यवस्था में विदेशी नियंत्रणभयावह पैमाने पर बढ गये हैं. दूर संचार क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश लगभग 74प्रतिशत है. भारत का रियल एस्टेट बूम भी अमेरिकी रास्ते पर ही बढ रहा है. कृषिसंकट जग जाहिर है. देश में खाद्यान्न उत्पादन की दर में भारी गिरावट थी, जोपिछले 30 सालों में सबसे अधिक थी. बाजार में मुद्रास्फीति की मूल वजह खाद्यान्नउत्पादन में गिरावट थी. विदेशी कर्ज 2006-07 के दौरान 23 प्रतिशत बढ कर 155बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. यह पूरी जीडीपी का लगभग 16.4 प्रतिशत है. मई, 2007से ही अर्थव्यवस्था की विकास दर के धीमे होने के संकेत हैं. विदेशी पूंजी पर इसहद तक निर्भरता से स्पष्ट है कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का छोटा संकट भीभारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोर देगा. इसके अलावा भूमंडलीकरण के दौर मेंभयानक पैमाने पर संकेंद्रण में भी वृद्धि हुई है. जेम्स पेत्रास के अनुसार 'भारत में जहां अरबपतियों की संख्या एशिया में सबसे अधिक, 36, है-की कुल संपत्तिलगभग 191 बिलियन डॉलर की है. ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह माओवादियों एवंदेश देश के सबसे गरीब इलाकों के जन संघर्षों को सबसे बडा आंतरिक खतरा घोषितकरते हैं. चीन 20 अरबपतियों की 29.4 बिलियन डॉलर की संपत्ति के साथ दूसरे नंबरपर है. इस दौर में भयानक पैमाने पर प्रतिरोधों का सामना कर रहे नये शासकों नेप्रदर्शन एवं दंगा विरोधी विशेष सशस्त्र बलों की संख्या में 100 गुना वृद्धि कीहै (7). अर्थात बढते जनसंघर्षों का सीधा संबंध इन आर्थिक संकटों एवंसंकेंद्रणों से है. इससे निबटने के लिए शासक वर्ग के पास फासीवाद के अलावा कोईऔर विकल्प नहीं है.सामाजिक जनवाद और फासीवादभारत में सामाजिक जनवाद, जो कि मूलतः सामाजिक फासीवाद में बदल चुका है, ने भीफासीवाद के विकास में भूमिका निभायी. इसने जान-बूझ कर इसके वर्गीय चरित्र एवंवित्तीय पूंजी के साथ रिश्ते के पहलुओं को अनदेखा किया. इसका एक बडा कारण था किजिन राज्यों में यह लंबे समय से सत्ता में है, वहां इसका भी वर्गीय आधार कमोबेशवही है एवं वित्तीय पूंजी की इसकी भूख तो जग जाहिर है. संसदवाद की दलदल में सिरसे पैर तक धंसे इन तमाम झूठे मार्क्सवादियों ने फासीवाद के खिलाफ तमाम संघर्षोंको संसदवाद के समीकरणों में जान-बूझ कर फंसाये रखा. वित्तीय पूंजी की तिजारतीमें तो इसने शासकवर्गीय पार्टियों को भी पीछे छोड दिया है. इसने जनता कीगोलबंदी को न केवल वित्तीय पूंजी के हित के लिए इस्तेमाल किया, बल्कि उसने इनजन समूहों का इस्तेमाल वित्तीय पूंजी के खिलाफ संघर्षरत जनता के दमन के लिएकिया. इसने भूमि सुधार की भयानक डींगें हांकीं, लेकिन सर्वविदित है कि अधिगृहीतजमीनों का बडा हिस्सा अब भी कानूनी पचडे में फंसा हुआ है. इसने किसानों कोबांटने के लिए जमीनें जमींदारों से लेने में उतनी तत्परता नहीं दिखायी, जितनीसाम्राज्यवादियों के लिए किसानों से छीनने में. फासिज्म के सत्तारूढ होने केबारे में सामाजिक जनवादियों की भूमिका पर दिमित्रोव ने लिखा : 'फासिज्म इसलिएभी सत्तारूढ हुआ, क्योंकि सर्वहारा ने खुद को स्वाभाविक मित्रों से अलग-थलगपाया. फासिज्म इसलिए भी सत्तारूढ हुआ क्योंकि किसानों के विशाल समुदाय को वहअपने पक्ष में लाने में सफल हुआ और इसका कारण यह था कि सामाजिक जनवादियों नेमजदूर वर्ग के नाम पर ऐसी नीति का अनुसरण किया, जो दरअसल किसानविरोधी थीं.किसानों की आंखों के सामने कई सामाजिक जनवादी सरकारें सत्ता में आयीं, जो उनकीदृष्टि में मजदूर वर्ग की सत्ता का मूर्तिमान रूप थीं, पर उनमें से एक ने भीकिसानों की गरीबी का खात्मा नहीं किया, एक ने भी किसानों को जमीन नहीं दी.जर्मनी में, सामाजिक जनवादियों ने जमींदारों को छुआ तक नहीं, उन्होंने खेतमजदूरों की हडतालों को कुचला...'(8) क्या यह पूरी तरह भारत के भी सामाजिकजनवादियों के लिए सही नहीं है? भारत के भी सामाजिक जनवादियों ने मेहनतकशों कोविकास के हित में हडताल न करने की सलाह दी. उन्होंने कहा कि अभी वर्ग संघर्ष कानहीं बल्कि वर्ग सहयोग का वक्त है.अक्सर फासीवाद को रोकने के नाम पर यहां के सामाजिक जनवादियों ने दलाल बुर्जुआएवं सामंती शासक वर्ग के दूसरे हिस्से के साथ गठजोड किया, जिनके फासीवाद के रूपमें विकसित होने के पर्याप्त कारण मौजूद थे. इन्हीं सवालों पर दिमित्रोव नेलिखा :'क्या जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी सत्तारूढ नहीं थी? क्या स्पेनिशसोशलिस्ट उसी सरकार में नहीं थे, जिसमें पूंजीपति शामिल थे? क्या इन देशों मेंपूंजीवादी साझा सरकारों में सामाजिक जनवादी पार्टियों की शिरकत ने फासिज्म कोसर्वहारा पर हमला करने से रोका? नहीं रोका. फलतः यह दिन की रोशनी की तरह साफ हैकि पूंजीवादी सरकारों में सामाजिक जनवादी मंत्रियों की शिरकत फासिज्म के रास्तेमें दीवार नहीं है' (9). दिमित्रोव के शब्दों से ही सामाजिक जनवादियों के ढोंगस्पष्ट हो जाते हैं.2003 में पंचायत चुनाव के बाद वेंकैया नायडू ने बुद्धदेव भट्टाचार्य के बारेमें अपने एक साक्षात्कार में कहा : 'बुद्धदेव बाबू एक सुसंस्कृत आदमी हैं.लेकिन क्या उनके आदेश से पार्टी चलती है? पोटा पर उनकी राय को कौन नहीं जानता?लेकिन क्या इसे वे अपने राज्य में लागू कर सकते थे? वे इस तथ्य से अच्छी तरहवाकिफ हैं कि कई गैर कानूनी मदरसों से विध्वंसकारी गतिविधियां चलायी जा रही हैंएवं वे कडे कदम उठाना चाहते हैं.' (10)2002 से ही बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मदरसों के खिलाफ बातें व पश्चिम बंगाल मेंपोटा जैसे कानून को लागू करने की बात शुरू कर दी थी. इसके अलावा 6 मई, 2003 कोतपन सिकदर पर हुए हमले पर दुख जताने के लिए बुद्धदेव ने आडवाणी को फोन किया(11).इस पर तपन सिकदर ने बुद्धदेव एवं सीपीएम के राज्य नेतृत्व द्वारा हमले के बादकी प्रतिक्रिया पर आभार जताया.हम इन तमाम संकेतों से सामाजिक जनवादियों के वर्ग चरित्र को समझ सकते हैं. जोमुख्यमंत्री गरीब किसान जनता की विदेशी पूंजी के हित में हत्याएं करवाता हो औरइस पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहता हो कि उन्हीं की भाषा में जवाब दे दिया गयाहै, वही मुख्यमंत्री फासीवादियों पर हमले के लिए माफी मांगता हो, यह हमें काफीकुछ कह जाता है. इन सामाजिक जनवादियों ने भारत के ग्रामीण इलाकों में संघर्षरतताकतों को ही सबसे बडा खतरा बताया. नंदीग्राम की घटना में इसने शासक वर्ग कोमाओवादियों के खतरे को समझने की सलाह दी. ऐसे खतरों के बारे में बात करनेवालोंके बारे में दिमित्रोव ने कहा : 'दूसरे इउंटरनेशनल के सठियाये सिद्धांतकारकार्ल काउत्स्की जैसे भारी नक्काल, पूंजीपति वर्ग के चाकर ही मजदूरों को इस तरहकी झिडकियां दे सकते हैं कि उन्हें ऑस्ट्रिया और स्पेन में हथियार नहीं उठानेचाहिए थे. अगर ऑस्ट्रिया और स्पेन में मजदूर वर्ग काउत्स्की जैसों की गारी भरीसलाहों से निर्देशित होते, तो इन देशों में आज मजदूर वर्ग का आंदोलन कैसा दिखता?'(12).आज सामाजिक जनवाद हमें सलाह दे रहा है कि हमें अब समाजवाद के सपनों को भूल जानाचाहिए. हमें भूल जाना चाहिए कि मानव सभ्यता का इतिहास हमारे भाइयों-बहनों एवंमेहनतकशों के खून से रक्तरंजित है. हमें भूल जाना चाहिए कि इन बर्बर सत्ताओं नेमुनाफे की लूट के लिए पूरी दुनिया को खून के समुंदर में डुबो दिया. हमें भूलजाना चाहिए कि हमारे दोस्तों ने जार एवं च्यांग काई शेक का ध्वंस कर एक नयीव्यवस्था के लिए कुरबानी दी. हमें यह समझाया जा रहा है कि मजदूर वर्ग के करोडोंबेटे-बेटियों की अब तक की शहादत बेमानी है एवं समाजवाद उनका दिमागी फितूर था.हमें भूल जाना चाहिए कि हिरोशिमा व नागासाकी में पूरी मानव सभ्यता को मुनाफे केलिए नष्ट कर दिया गया. हमें भूल जाना चाहिए कि इन मुनाफाखोर लुटेरों के हाथवियतनाम, चिली एवं अन्य देशों में हमारे भाइयों-बहनों के खून से सने हैं. जनतासमाजवाद के सपनों को भूल नहीं सकती. काउत्स्की की विरासत जनता की विरासत नहींहै. जनता की विरासत तो महान क्रिस्टोफर कॉडवेल, लोरका और केन सारो वीवा जैसेलेखकों और बुद्धिजीवियों की व उन महान सोवियत बेटे-बेटियों की विरासत है,जिन्होंने स्टालिन के नेतृत्व में दुनिया के नक्शे को बदल देने का सपनापालनेवाले हिटलर के खूनी पंजों को तोड दिया.तथ्य यह दिखाते हैं कि दुनिया के स्तर पर साम्राज्यवाद के संकट के नये दौर कीशुरुआत एवं भारत में विदेशी पूंजी का प्रवेश ही भारत में हिंदुत्व की फासीवादीताकतों एवं कानूनों के उदय का दौर है. जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजीकी भूमिका बढी है, वैसे-वैसे दंगों एवं नफरतों का दौर भी शुरू हुआ है तथा गैरजनवादी औजारों का इस्तेमाल बढता गया है. गुजरात से लेकर नंदीग्राम तक की भारतीयलोकतंत्र की शोभायात्रा का संबंध भी इसी विदेशी पूंजी के साथ है. राजनीतिक संकटमें लगातार वृद्धि ने भी तमाम शासकीय पार्टियों को तमाम प्रतिगामी तरीकों केइस्तेमाल की तरफ बढाया है. इन संकटों से जूझ रहे शासकवर्ग के पास फासीवाद केसिवाय और कोई विकल्प नहीं है. सामाजिक जनवादी और अन्य उदारवादी ताकतें फासीवादकी ताकत को बढा-चढा कर दिखा कर अंततः फासीवाद की चाल को ही पूरा करते हैं. इसतथ्य को वे अनदेखा करते हैं कि बढते जन संघर्षों एवं अपने गहराते संकट से हीनिकलने के लिए वह फासीवाद का इस्तेमाल करता है. शासक वर्ग अपनी सत्ता को बचायेरखने के लिए धार्मिक एवं जातीय विभाजन एवं जनता के आपसी अंतर्विरोधों को लगातारतीखा कर रहा है. लेकिन इन्हीं भयानक संकटों के बीच जनता उठ खडी होती है व अपनेसंकटों को हल करने के लिए भारी जनसंघर्षों में गोलबंद होती है. इसमें जनसंघर्षही प्रधान पहलू हैं, जिसकी ताकत के बारे में लेनिन कहते हैं, 'गृहयुद्ध कीपाठशाला जनता को प्रभावित किये बिना नहीं छोडेगी. यह एक कठोर पाठशाला है औरइसके पूर्ण पाठ्यक्रम में अनिवार्यतः प्रतिक्रांति की जीतें, क्रुद्धप्रतिक्रियावादियों की लंपटताएं, पुरानी सरकारों द्वारा विद्रोहियों को दी गयीबर्बरतापूर्ण सजाएं आदि शामिल होती हैं. किंतु इस तथ्य पर कि राष्ट्र इस कष्टकरपाठशाला में भरती हो रहे हैं, वे ही आंसू बहायेंगे जो सरासर दंभी और दिमागी तौरपर बेजुबान पुतले होंगे, यह पाठशाला उत्पीडित वर्गों को यह सिखाती है किगृहयुद्ध कैसे चलाया जाये, यह सिखाती है कि किस तरह विजयी क्रांति संपन्न करनीचाहिए, यह आज के गुलामों के समुदाय में इस नफरत को घनीभूत कर देती है, जिसेपददलित, निश्चेष्ट, ज्ञानशून्य गुलाम अपने हृदय में हमेशा पाले रहते हैं और जोउन गुलामों से, जो अपनी गुलामी की लानत के बारे में जागरूक हो जाते हैं, महानतमऐतिहासिक कारनामे कराती है'(13).आज फिर शासक वर्ग लगातार फासीवादी होता जा रहा है. फासीवाद अपराजेय नहीं है. यहशासक वर्ग को और पतन की ओर ले जायेगा. दूसरी तरफ जनता के महान संघर्षों कीरफ्तार भी बढी है, जिसे कुचलने के लिए शासक वर्ग और फासीवादी हो रहा है. आज फिरसाम्राज्यवाद महामंदी के बाद सबसे गंभीर संकट से जूझ रहा है. यह ज्यादा सेज्यादा प्रतिक्रियावादी हो रहा है. लेकिन दूसरी तरफ लैटिन अमेरिका सहित एशियाके बडे हिस्सों की जनता ज्यादा-से-ज्यादा संघर्ष में शामिल हो रही है. आज फिरफासीवाद को परास्त करने की महान जिम्मेदारियां फासीवाद के खिलाफ कुरबान हुएसोवियत बेटे-बेटियों एवं मुनाफाखोर सत्ता को ध्वंस करने के लिए कुरबान हुए महानयोद्धाओं के उत्तराधिकारियों पर है. मेहनतकशों की जीत अवश्यंभावी है, क्योंकिजनता ही सृष्टि करती है. सत्ता तो केवल और केवल दमन करती है.

विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र / धूमिल












जब मैं बाहर आया


मेरे हाथों में एक कविता थी


और दिमाग में आँतों का एक्स-रे।


वह काला धब्बा कल तक एक शब्द था;


खून के अँधेर में दवा का ट्रेड मार्क बन गया था।


औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद


अपनी ऊब का दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।


मैंने सोचा !


क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच


अपनी भूख को ज़िन्दा रखना


..........स्थानिक भूगोल की वाजिब मजबूरी है।


मैंने सोचा और संस्कार के


वर्जित इलाकों में अपनी आदतों का


शिकार होने के पहले ही


बाहर चला आया।


बाहर हवा थी


धूप थी


घास थी


मैंने कहा आजादी…


मुझे अच्छी तरह याद है-मैंने यही कहा था


मेरी नस-नस में बिजली दौड़ रही थी


उत्साह में खुद मेरा स्वर मुझे अजनबी लग रहा था


मैंने कहा-आ-जा-दी


और दौड़ता हुआ खेतों की ओर गया।


वहाँ कतार के कतार अनाज के अँकुए फूट रहे थे


मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये बच्चे।


तारों पर चिडि़याँ चहचहा रही थीं


मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…


खेत की मेड़ पार करते हुये मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी


सड़क पर जाते हुये आदमी से उसका नाम पूछा


और कहा- बधाई…घर लौटकर मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं


पुरानी तस्वीरों को दीवार से उतारकर


उन्हें साफ किया


और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह) पोंछकर टाँग दिया।


मैंने दरवाजे के बाहर एक पौधा लगाया


और कहा–वन महोत्सव…


और देर तक हवा में गरदन उचका-उचकाकर


लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा


देर तक महसूस करता रहा–कि मेरे भीतर वक्त का


सामना करने के लिये


औसतन, जवान खून है मगर,


मुझे शान्ति चाहिये


इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर


डाल दिया


‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’


और चहकते हुये कहा यही मेरी आस्था है


यही मेरा कानून है।


इस तरह जो था


उसे मैंने जी भरकर प्यार किया


और जो नहीं था


उसका इंतज़ार किया।


मैंने इंतज़ार किया–


अब कोई बच्चा भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा


अब कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी।


अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी मेंअपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा


अब कोई दवा के अभाव में


घुट-घुटकर नहीं मरेगा


अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा


कोई किसी को नंगा नहीं करेगा


अब यह ज़मीन अपनी है


आसमान अपना है


जैसा पहले हुआ करता था…


सूर्य,हमारा सपना है


मैं इन्तजा़र करता रहा.


.इन्तजा़र करता रहा…


इन्तजा़र करता रहा…


जनतन्त्र, त्याग, स्वतन्त्रता…संस्कृति, शान्ति, मनुष्यता…


ये सारे शब्द थे


सुनहरे वादे थे


खुशफ़हम इरादे थे


सुन्दर थे


मौलिक थे


मुखर थे


मैं सुनता रहा…


सुनता रहा…


सुनता रहा…


मतदान होते रहे


मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे


उसी लोकनायक को बार-बार चुनता रहा


जिसके पास हर शंका और हर सवाल का


एक ही जवाब था


यानी कि कोट के बटन-होल में महकता हुआ


एक फूल गुलाब का।


वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र समझाता रहा।


मैं खुद को समझाता रहा-’


जो मैं चाहता हूँ-


वही होगा।


होगा-आज नहीं तो कल


मगर सब कुछ सही होगा।

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