Saturday, October 25, 2008

कैद करोगे अंधकार में / अवतार सिंह पाश





क्या-क्या नहीं है मेरे पास
शाम की रिमझिम
नूर में चमकती ज़िंदगी
लेकिन मैं हूं
घिरा हुआ अपनों से
क्या झपट लेगा कोई मुझ से
रात में क्या किसी अनजान में
अंधकार में क़ैद कर देंगे
मसल देंगे क्या
जीवन से जीवन
अपनों में से मुझ को क्या कर देंगे अलहदा
और अपनों में से ही मुझे बाहर छिटका देंगे
छिटकी इस पोटली में क़ैद है आपकी मौत का इंतज़ाम
अकूत हूँ सब कुछ हैं मेरे पास
जिसे देखकर तुम समझते हो कुछ नहीं उसमें.

आइए, गांव की कुछ खबर ले चलें / रामकुमार कृषक

आइए गांव की कुछ ख़बर ले चलें
आँख भर अपना घर खंडहर ले चलें
धूल सिंदूर-सी थी कभी माँग में
आज विधवा-सरीखी डगर ले चलें
लाज लिपटी हुई भंगिमाएँ कहाँ
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें
एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई
साँझ होती हुई दोपहर ले चलें
देह पर रोज़ आँकी गई सुर्खियाँ
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें
राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी
मिल सकें तो जटायु के पर ले चलें
खेत-सीवान हों या कि हों सरहदें
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें
राजहंसों को पाएँ न पाएँ तो क्या
संग उजड़ा हुआ मानसर ले चलें
देश दिल्ली की अँगुली पकड़ चल चुका
गाँव से पूछ लें अब किधर ले चलें.

अखबार वाला/ रघुवीर सहाय




धधकती धूप में रामू खड़ा है
खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह
बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं ।
एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है,
और कम पर भी उसे वह बेच सकता है
अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें
अगर ख़ैरात वह ले ले ।
लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है
ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है,
हमने बनायी है
यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ?
कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ?
वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा
ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी
करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा ।

एक चाय की चुस्की, एक कहकहा/ उमाकांत मालवीय

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
चुभन और दंशन पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।
एक अदद गंध एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।
एक कसम जीने की ढेर उलझनें
दोनों गर नहीं रहे बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।

गुजर गया एक और दिन

गुजर गया एक और दिन,
रोज की तरह ।
चुगली औ’ कोरी तारीफ़, बस यही किया ।
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़ कुछ नहीं किया ।
तौबा कर आज फिर हुई, झूठ से सुलह ।
याद रहा महज नून-तेल, और कुछ नहीं
अफसर के सामने दलेल, नित्य क्रम यही
शब्द बचे, अर्थ खो गये, ज्यों मिलन-विरह ।
रह गया न कोई अहसास क्या बुरा-भला
छाँछ पर न कोई विश्वास दूध का जला
कोल्हू की परिधि फाइलें मेज की सतह ।
‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात, यहाँ यह मजा ।
मुँहदेखी, यदि न करो बात तो मिले सजा ।
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों – के लिए जगह ।
डरा नहीं, आये तूफान, उमस क्या करुँ ?
बंधक हैं अहं स्वाभिमान, घुटूँ औ’ मरूँ
चर्चाएँ नित अभाव की – शाम औ’ सुबह।
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध, और बेबसी ।
अपनी सीमाओं का बोध खोखली हँसी
झिड़क दिया बेवा माँ को उफ्, बिलावजह ।

झंडे रह जाएंगे, आदमी नहीं

झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।
जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।
शायद कल मानव की हों न सूरतें
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
आदम के शकलों की यादगार हम,
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।
पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?

भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल/ त्रिलोचन


भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को । जाकर पूछा
'भिक्षा से क्या मिलता है। 'जीवन।' 'क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं ।' 'दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा ।' 'मुझे आप से
ऎसी आशा न थी ।' 'आप ही कहें, क्या करूं,
खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं,
क्या अच्छा है ।' जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।

इतने भले न बन जाना साथी/वीरेन डंगवाल




इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी

गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा

किसी से कुछ लिया नहीं

न किसी को कुछ दिया

ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना

सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना

अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए

लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना

सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना

बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना

ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना

बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना

दुनिया देख चुके हो यारो

एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो

पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानवकठमुल्लापन

छोड़ो उस पर भी तो तनिक विचारो
काफ़ी बुरा समय है साथी

गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती

अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन

जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती

संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती

इनकी असल समझना साथी

अपनी समझ बदलना साथी.


महोदय पत्रकार !



'इतने मरे'

यह थी सबसे आम,

सबसे ख़ास ख़बर

छापी भी जाती थी सबसे चाव से

जितना खू़न सोखता था

उतना ही भारी होता था अख़बार।
अब सम्पादक चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी

लिहाज़ा अपरिहार्य था

ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।

एक हाथ दोशाले से छिपाता

झबरीली गरदन के बाल

दूसरा रक्त-भरी चिलमची में

सधी हुई छ्प्प-छ्प।
जीवन किन्तु बाहर था

मृत्यु की महानता की

उस साठ प्वाइंट काली चीख़ के बाहर था जीवन

वेगवान नदी सा हहराता काटता तटबंध

तटबंध जो अगर चट्टान था तब भी रेत ही था

अगर समझ सको तो,

महोदय पत्रकार !


गप्प-सबद


आंधी में उड़ियो न सखी, मत आंधी में उड़ियो।

ओ३म लिखा स्कूटर दौड़ा राम लिखा कर कार

लेकिन पप्पी दी गड्डी पर न्यौछावर संसार

उन्हीं का होना है संसार

बस न तू आंधी में उड़ियो.
धक्-धक्-धक्-धक् काँपे हियरा

थर-थर-थर-थर पैर

अलादीन को बेढब सूझी

बेमौसम यह सैर

बिना चप्पू-लंगर यह सैर

ज़रा आंधी में मत उड़ियो.
खाना खा लेटी ही थी झांसी की रानी

थोड़ा वहीं खाट के पास बंधा था उस का मश्की घोड़ा

बड़ी देर से मक्खी उसको एक कर रही तंग

खिसियाई रानी ने जब देखे उस के ढंग

चीखी, 'नुचवा दूंगी मैं तेरे ये चारों पंख

तुड़ा दूँगी मैं आठों पैर

अरी, फिर आंधी में उड़ियो।'
देस बिराना हुआ मगर इस में ही रहना है

कहीं ना छोड़ के जाना है,

इसे वापस भी पाना है

बस न तू आंधी में उड़ियो।

मती ना आंधी में उड़ियो।

Friday, October 24, 2008

दीवाली पर पुरदलपुरा में जागता शहर की होली जली

एक खनन माफिया की गंदी कारस्तानियों का खुलासा करने पर पुरदलपुरा मोहल्ले में आज कुछ चमचों ने न्यूज साप्ताहिक जागता शहर की होली जलाई. ये वे चमड़ा माफिया थे, जिन्होंने एक साल पहले एक महिला की आबरू पर डाका डालने के साथ ही उसके दोनों पैरों के पंजे काट डाले थे. यह स्टोरी जागता शहर के लोकप्रिय स्थाई कॉलम शहर आपबीती में प्रकाशित हुई थी. घटना की विस्तृत रिपोर्ट की प्रतीक्षा है.

Thursday, October 23, 2008

जागता शहर का तीसरा अंक


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली रीजनल फोकस न्यूज मैग्जीन
-संपादक जयप्रकाश त्रिपाठी
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जागता शहर का चौथा अंक


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली रीजनल फोकस न्यूज मैग्जीन
-संपादक जयप्रकाश त्रिपाठी
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जागता शहर का पांचवां अंक


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली रीजनल फोकस न्यूज मैग्जीन
-संपादक जयप्रकाश त्रिपाठी
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जागता शहर का छठवां अंक


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली रीजनल फोकस न्यूज मैग्जीन के छठवें अंक का मुखपृष्ठ
........संपादक
-जयप्रकाश त्रिपाठी
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Tuesday, October 21, 2008

कथा-कुंभ में हंस-राज की चौपड़




फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्योरा देते हैं, जहां एक विशालकाय चौपड़ का चार खाने
वाला ढांचा है. उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहां से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पांसा फेंकते थे. हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे, पीले, लाल, नीले रंग के आभूषणों से सजी कन्याएं खड़ी रहती थीं और पांसे को फेंक कर अगर चार नंबर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रो से सजी सुसज्जित कन्या के पैरों में झांझर पहने झंकारती इठलाती हुई नृत्य के अंदाज में चार घर चलती थीं. जाहिर है जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के मह में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं. हंस के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इंद्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहां अप्सराओं को रिझाने-लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इंद्र बाकायदा हंस की शतरंजी चौपड़ का पांसा फेंक रहे हैं. आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है. स्त्री की अहमियत क्या है? महज एक देह. इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं. स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आई है, और हम उसे रोक नहीं पा रहे. लड़कियां यह कहने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पा देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहां आड़े आ रहे हैं? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें. पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंड़े प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है. मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा, जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक को उस दिखाऊ, उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए. आप जैसे विचारवान संपादक का एक और स्त्री विमर्श तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ ही नहीं थपथपाता, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है.
....स्त्री-विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुंध है, न भारत में. भारत में इस धुंध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही. जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने-आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का संपादक करहा है- लोलुपता और लंपटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाज
िक मान्यता प्रदान करना.
स्त्री देह को लेकर गालियां, अश्लीलता, छिछोरापन कब, किस समाज में, किस युग में नहीं रहा? साहित्य में वह गुलशन नंदा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है. दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से संबंधित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएं दे रहा है. निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं.
पश्चिम में पूंजी के आ
धिक्य से और भारत में पूंजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आई है. निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की मांगें और महत्वकांक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएं जुटा लेती हैं. शिकागो या न्यूयार्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियां ब्रा और शॉट्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं. समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नजर आना हैरानी का बायस नहीं बनता. वहां के बाशिंदों को इसकी आदत हो चुकी है और वहां कोई ठिठक कर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं, वहां की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बाहर निकल आई है. भारत के बाशिंदे अब भी नेक लाइन पर आंखें गड़ा देते हैं और जींस से बाहर झांकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते. नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहां आज भी स्त्री देह को सौंदर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज माना जाता है, उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है.
स्त्री को अदर दैन बॉडी डिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों में, न आप जैसे संपादकों में. अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौंदर्य को उसकी संपूर्णता में न देखकर, निचले हिस्से का सच जैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं, यह दृष्टिदोष लाइलाज
है.
महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर, उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए. महिलाओं की बेशुमार अंतहीन सामाजिक समस्याएं. बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती-मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को संभालने और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लंपटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलतीं
औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है, जहां देह की आजादी या देहमुक्ति कोई मायने नहीं रखती. आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ओथेलो भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिंदा है. बलात्कार और भ्रूण हत्याएं पहले से कई गुना बढ़ गई हैं. ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है.
स्त्री मुक्ति का पहला
चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा, का झंडा लिये आप अरसे घूम रहे हैं. ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हैं, आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है. हर शहर में वे पनप रही हैं. पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियां अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं. हंस के स्त्री देहमुक्ति अभियान से आंदोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेंद्र यादव जैसे भ्रमित संपादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं. अपने इस अश्वमेध यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को, जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों स तवज्जोह दी गई, यह किसी शोध का विषय नहीं है.
हंस के जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डाक्टर रामवीर ने सटीक टिप्पणी की है, कृपया प्रेमचंद की पत्रिका हंस के साथ जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक की बाइलाइन हटाकर स्त्री देह की आजादी का मुखपत्र रख दें, पचास साल बाद राजेंद्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जाएगा, इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता, पर स्त्री मुक्ति का पहला चरण देहमुक्ति से शुरू होगा, की उद्घोषणा के प्रथम प्रणेता के रूप में हंस संपादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा. मैं चाहती हूं कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शूरू हो, जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजसास्त्र और बाजार के देह
शास्त्र के बीच रखकर ही नहीं देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खोजा जा सके, क्योंकि ये प्रश्न अंततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन-सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं, आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी, क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लांघ कर आगे भी जाएंगे?
(स्त्री-विमर्श में कविता वाचक्नवी)




अपने पापा पर एक टिप्पणी रचना यादव की कलम से
हंस के संपादक
और सुप्रसिद्ध कथाकार राजेंद्र यादव की बेटी रचना मानती हैं कि राजेंद्र यादव को पापा बनना तो कभी आया ही नहीं, फिर अच्छा पापा बनना तो दूर की बात है. रचना के अनुसार उनके लिए तो माँ और पिता, इन दोनों की भूमिकाएँ मम्मी यानी मन्नू भंडारी ने ही अदा की. पापा लेखक बनने में ही इतने व्यस्त रह गए कि पिता बनने तक की तो नौबत ही नहीं आई.