Friday, November 21, 2008

महामंदी के बाद साम्राज्यवाद

सांसें गिनता साम्राज्यवाद एवं बढता फासीवादफासीवाद का वित्तीय पूंजी के साथ सीधा संबंध है. 1930 की महामंदी के बादसाम्राज्यवाद ने कीन्सीय औजारों के जरिये कुछ समय के लिए और मोहलत हासिल की.इसके अलावा इसे थोडी और मोहलत इसलिए भी मिली क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध केबाद सीधे औपनिवेशिक बंधनों से मुक्त हुए उत्पीडित देशों में पूंजीवाद या फिरराजकीय एकाधिकार पूंजीवाद की स्थापना ने इसे थोडे समय के लिए और जीवनदान दिया.लेकिन साम्राज्यवाद वास्तव में और ज्यादा मरता और सडता जा रहा है. इसकी सडांधतो और कहीं ज्यादा व्यापक थी. साम्राज्यवाद पुनः 1970 के दशक से दीर्घकालिकसंकट में फंसता गया. 1970 के दशक तक सट्टेबाज पूंजी अपने लिए रास्ते तलाशती रही.इसका हल भी आइएमएफ, वर्ल्ड बैंक एवं भूमंडलीकरण के जरिये निकाल लिया गया. 1980के दशक में तीसरी दुनिया के देशों को दिये जानेवाले कर्जे में इस बेकार पूंजीने अपने लिए रास्ता ढूंढा. 1990 के बाद भूमंडलीकरण के जरिये इसने दुनिया केबाजारों को हासिल करके फिर थोडे समय के लिए संकट से बाहर आने की कोशिश की.लेकिन इसके बावजूद संकट का कोई अंत नहीं था. 2002 की शुरुआत में डॉट कॉमबुलबुला फूटने के बाद इसकी रही-सही कसर भी निकल गयी. इसके बाद से ही विश्व एवंअमेरिकी अर्थव्यवस्था सिकुडती गयी. इंटरनेट बुलबुले के फूटने के बाद फेडरलरिजर्व (अमेरिकी केंद्रीय बैंक) ने हाउसिंग बुलबुले के जरिये इस संकट को पारकरने की कोशिश की. कुछ समय तक तो वह सफल हुआ, लेकिन 15 अगस्त, 2007 को यह बुरीतरह धराशायी हो गया, जिसे सब प्राइम संकट कहा गया. इस संकट के प्रभाव काफीदूरगामी हैं. आइएमएफ के तात्कालिक प्रबंध निदेशक रोडिगो राटो के अनुसार 'अमेरिका इस संकट के प्रभाव का शिकार लंबे समय तक रहेगा. इस संकट के प्रभाव कोकम करके नहीं देखा जाना चाहिए एवं इसके ठीक होने की प्रक्रिया दीर्घकालिक होगी.साख (क्रेडिट) की स्थिति जल्दी सामान्य नहीं होगी.' इसके आगे उनका कहना है किइसका प्रभाव वास्तविक अर्थव्यवस्था पर पडेगा एवं यह 2008 में सबसे ज्यादा महसूसकिया जायेगा (3). हम अमेरिकी अर्थव्यवस्था, जो अब भी दुनिया की सबसे बडीअर्थव्यवस्था है, के इस संकट को समझ सकते हैं. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यहउस बाजार में पहला संकट है, जहां कर्जों एवं परिसंपत्तियों की जमानत पर निर्मितनये 'उत्पादों' की विश्व स्तर पर खरीद-फरोख्त होती है. इस पूरे संकट कादुष्प्रभाव अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर व दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पडना लाजिमीहै. फिर मंदी के आसार देखे जाने लगे हैं, जो भूमंडलीय आर्थिक संकट को और बढादेगी.अमेरिकी सब प्राइम बाजार के संकट से पूरी दुनिया के शेयर बाजार लडखडाने लगे. इससंकट के परिणाम इतने गहरे थे कि विश्व के कई नेतृत्वकारी बैंकों को गंभीर खतराहो गया. इनको बचाने के लिए केंद्रीय बैंकों ने भारी पैमाने पर धन डाला. यूरोपीयकेंद्रीय बैंक ने 130 बिलियन डॉलर, जापान के बैंक ने एक ट्रिलियन डॉलर एवंअमेरिकी फेडरल ने 43 बिलियन डॉलर इसमें लगाये. इस दौर के संकट के आयाम तो पिछलेसमयों के तमाम संकटों से काफी व्यापक हैं. इसका मूल कारण यह है कि साम्राज्यवादने उन तमाम कीन्सीय एवं अन्य औजारों का इस्तेमाल कर लिया, जिसके जरिये वहमहामंदी से बाहर निकला था, लेकिन संकट में बदलाव के कहीं कोई खास संकेत नहींहैं. इन संकटों के परिणामस्वरूप उत्पीडित देशों में और ज्यादा भयानक पैमाने परलूट-खसोट मचायी जायेगी, जिसका माध्यम भूमंडलीकरण होगा. अमेरिका द्वारा अपने देशसे बाहर किये गये, निवेश के जरिये कमाये गये मुनाफे पर नजर डालें तो 1970 केदशक के 11 प्रतिशत से बढ कर 1980 एवं 1990 के दशक में यह क्रमशः 15 एवं 16प्रतिशत तथा 2000-04 के बीच यह औसतन 18 प्रतिशत था (4). इसके अलावा सट्टेबाजीमें और वृद्धि होगी. हम यदि पिछले 30 सालों के रूझानों पर नजर डालें तोन्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज में 1975 में लगभग 19 मिलियन शेयर की खरीद-फरोख्तहोती थी. यह 1985 में 109 मिलियन से बढ कर 2006 में 1,600 मिलियन तक पहुंच गया.विश्व मुद्रा बाजार में खरीद-फरोख्त इससे कहीं ज्यादा है. यह 1977 के 18 मिलियनडॉलर प्रतिदिन से बढ कर 2006 में 1.8 ट्रिलियन डॉलर प्रतिदिन हो गया. इसका मतलबथा कि प्रत्येक 24 घंटे में मुद्रा की खरीद-फरोख्त पूरी दुनिया के वार्षिकजीडीपी के बराबर थी(5). अर्थात मुनाफे की भूख में आवारा पूंजी और ज्यादा मुंहमारती फिरेगी. इससे हम विश्व की अर्थव्यवस्था की अस्थिरता का अंदाजा भर लगासकते हैं.इसके अलावा केंद्रीकरण में भी भयानक स्तर तक इजाफा हुआ है. नवंबर/दिसंबर, 2005में प्रकाशित एक अध्ययन पर नजर डालें तो दुनिया की 10 बडी दवा कंपनियों का 98नेतृत्वकारी घरानों के 59 प्रतिशत शेयर पर नियंत्रण था. दुनिया के 21,000मिलियन डॉलर के व्यावसायिक बीज बाजार के लगभग 50 प्रतिशत पर 10 बडी कंपनियों कानियंत्रण था. 29,566 मिलियन डॉलर के विश्व कीटनाशक बाजार के लगभग 89 प्रतिशत कानियंत्रण 10 बडी कंपनियों के हाथ में था. विश्लेषकों के अनुसार 2015 तक केवलतीन कंपनियों का पूरे कीटनाशक बाजार पर कब्जा होगा. 2004 में फूड रिटेल बाजारके अनुमानित आकार 3.5 ट्रिलियन डॉलर के 24 प्रतिशत हिस्से (84,000 मिलियन डॉलर)पर 10 बडी कंपनियों का कब्जा था. इन इजारेदारियों से हम अनुमान लगा सकते हैं किहमारे आम सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन का निर्धारण किस तरह से पारदेशीय निगमकर रहे हैं. भूमंडलीकरण के शुरुआती दौर (1990) में कहा गया था कि निगमों केविलय का दौर समाप्त हो गया है, लेकिन 2004 की शुरुआत में विश्व स्तर पर विलयोंएवं अधिग्रहणों का आंकडा 1.95 ट्रिलियन डॉलर का था. यह 2004 में 2003 के 1.38ट्रिलियन डॉलर से 40 प्रतिशत बढ गया था. 2004 में 200 बडे पारदेशीय निगमों कीसंयुक्त बिक्री विश्व की संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों की 29 प्रतिशत थी. यहलगभग11,442,256मिलियन डॉलर के बराबर थी. धन के संकेंद्रण का अंदाजा हम इस बात से भी लगा सकतेहैं कि दुनिया के 946 अरबपतियों के धन में प्रतिवर्ष लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धिहो रही है. वहीं दुनिया की आबादी के नीचे के 55 प्रतिशत लोगों की आय में या तोगिरावट है या ठहराव है. जेम्स पेत्रास ने लिखा है कि रूस, लैटिन अमेरिका और चीन(जहां 10 से भी कम सालों में 20 अरबपतियों ने 29.4 प्रतिशत बिलियन डॉलर जमा कियेहैं) में वर्गीय एवं आय असमानताओं को देखते हुए इन देशों को उभरती हुईअर्थव्यवस्था के बजाय उभरते हुए अरबपति कहना ज्यादा मुनासिब होगा. पिछडे देशोंमें भूमंडलीकरण को जनता के तमाम संकटों का समाधान बताया गया. सरकारीअर्थशास्त्रियों ने हमें पढाया कि अंततः पूंजी का प्रवाह अमीर से गरीब देशों कीतरफ होता है. लेकिन 'द इकोनॉमिस्ट' पर नजर डालें तो पता चलता है कि 2004 मेंउभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने अमीर देशों को 350 बिलियन डॉलर भेजे(6).केंद्रीकरण के ये तमाम तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि साम्राज्यवाद और कितनेगहरे संकट में फंसता जा रहा है. हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद के संकट का सबसेमूल कारण मालिकाने का निजी स्वरूप और उत्पादन के सामूहिक चरित्र के बीचअंतर्विरोध है. ये तमाम प्रक्रियाएं साम्राज्यवाद के तमाम अंतर्विरोधों को औरभयानक पैमाने पर तीखा करती जायेंगी. हम कह सकते हैं कि लेनिन के समय कासाम्राज्यवाद यदि परजीवी और मरणासन्न था तो आज वह उससे हजार गुना परजीवी औरमरणासन्न है. साम्राज्यवाद इससे बचने के लिए और प्रतिगामी रुख अपनायेगा.परिणामस्वरूप गरीब देशों की लूट और भयानक स्तर पर बढ जायेगी. साम्राज्यवादीयुद्ध के खर्चों में वृद्धि होगी. हथियारों के बाजार को और प्रोत्साहित कियाजायेगा. तमाम देशों में नस्लीय एवं धार्मिक नफरतों को भडकाया जायेगा. और तो औरमुनाफे के स्तर को बनाये रखने के लिए भयानक नरसंहार किये जायेंगे. चूंकिसाम्राज्यवाद के पास अंततः यही औजार हैं.भारतीय अर्थव्यवस्था के मुखिया भले ही भारतीय जनता को अर्थव्यवस्था के फूलप्रूफहोने के सब्जबाग दिखाते रहें, लेकिन उनको भी पता है कि स्थिति उतनी अच्छी नहींहै. अमेरिका के सब प्राइम संकट के बाद विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अगस्त मेंसबसे ज्यादा बिक्री की. यह 1990 में उनकी भागीदारी से अब तक एक महीने में सबसेअधिक थी. अर्थात अमेरिकी बाजार का एक संकट पूरे बाजार को हिला देने की क्षमतारखता है. भारत के दलाल पूंजीपति घराने आज ज्यादा से ज्यादा हद तकसाम्राज्यवादियों के साथ जुडे हुए हैं. कई बडे बैंक भारतीय से अधिक विदेशी होचुके हैं. भारत में स्टॉक बाजार में भारी पैमाने पर विदेशी संस्थागत निवेश कीमूल वजह तो सब प्राइम बाजार का संकट, अमेरिकी ब्याज दरों का कम होना रहा है, नकि भारतीय अर्थव्यवस्था का काफी मजबूत होना. अर्थव्यवस्था में विदेशी नियंत्रणभयावह पैमाने पर बढ गये हैं. दूर संचार क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश लगभग 74प्रतिशत है. भारत का रियल एस्टेट बूम भी अमेरिकी रास्ते पर ही बढ रहा है. कृषिसंकट जग जाहिर है. देश में खाद्यान्न उत्पादन की दर में भारी गिरावट थी, जोपिछले 30 सालों में सबसे अधिक थी. बाजार में मुद्रास्फीति की मूल वजह खाद्यान्नउत्पादन में गिरावट थी. विदेशी कर्ज 2006-07 के दौरान 23 प्रतिशत बढ कर 155बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. यह पूरी जीडीपी का लगभग 16.4 प्रतिशत है. मई, 2007से ही अर्थव्यवस्था की विकास दर के धीमे होने के संकेत हैं. विदेशी पूंजी पर इसहद तक निर्भरता से स्पष्ट है कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का छोटा संकट भीभारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोर देगा. इसके अलावा भूमंडलीकरण के दौर मेंभयानक पैमाने पर संकेंद्रण में भी वृद्धि हुई है. जेम्स पेत्रास के अनुसार 'भारत में जहां अरबपतियों की संख्या एशिया में सबसे अधिक, 36, है-की कुल संपत्तिलगभग 191 बिलियन डॉलर की है. ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह माओवादियों एवंदेश देश के सबसे गरीब इलाकों के जन संघर्षों को सबसे बडा आंतरिक खतरा घोषितकरते हैं. चीन 20 अरबपतियों की 29.4 बिलियन डॉलर की संपत्ति के साथ दूसरे नंबरपर है. इस दौर में भयानक पैमाने पर प्रतिरोधों का सामना कर रहे नये शासकों नेप्रदर्शन एवं दंगा विरोधी विशेष सशस्त्र बलों की संख्या में 100 गुना वृद्धि कीहै (7). अर्थात बढते जनसंघर्षों का सीधा संबंध इन आर्थिक संकटों एवंसंकेंद्रणों से है. इससे निबटने के लिए शासक वर्ग के पास फासीवाद के अलावा कोईऔर विकल्प नहीं है.सामाजिक जनवाद और फासीवादभारत में सामाजिक जनवाद, जो कि मूलतः सामाजिक फासीवाद में बदल चुका है, ने भीफासीवाद के विकास में भूमिका निभायी. इसने जान-बूझ कर इसके वर्गीय चरित्र एवंवित्तीय पूंजी के साथ रिश्ते के पहलुओं को अनदेखा किया. इसका एक बडा कारण था किजिन राज्यों में यह लंबे समय से सत्ता में है, वहां इसका भी वर्गीय आधार कमोबेशवही है एवं वित्तीय पूंजी की इसकी भूख तो जग जाहिर है. संसदवाद की दलदल में सिरसे पैर तक धंसे इन तमाम झूठे मार्क्सवादियों ने फासीवाद के खिलाफ तमाम संघर्षोंको संसदवाद के समीकरणों में जान-बूझ कर फंसाये रखा. वित्तीय पूंजी की तिजारतीमें तो इसने शासकवर्गीय पार्टियों को भी पीछे छोड दिया है. इसने जनता कीगोलबंदी को न केवल वित्तीय पूंजी के हित के लिए इस्तेमाल किया, बल्कि उसने इनजन समूहों का इस्तेमाल वित्तीय पूंजी के खिलाफ संघर्षरत जनता के दमन के लिएकिया. इसने भूमि सुधार की भयानक डींगें हांकीं, लेकिन सर्वविदित है कि अधिगृहीतजमीनों का बडा हिस्सा अब भी कानूनी पचडे में फंसा हुआ है. इसने किसानों कोबांटने के लिए जमीनें जमींदारों से लेने में उतनी तत्परता नहीं दिखायी, जितनीसाम्राज्यवादियों के लिए किसानों से छीनने में. फासिज्म के सत्तारूढ होने केबारे में सामाजिक जनवादियों की भूमिका पर दिमित्रोव ने लिखा : 'फासिज्म इसलिएभी सत्तारूढ हुआ, क्योंकि सर्वहारा ने खुद को स्वाभाविक मित्रों से अलग-थलगपाया. फासिज्म इसलिए भी सत्तारूढ हुआ क्योंकि किसानों के विशाल समुदाय को वहअपने पक्ष में लाने में सफल हुआ और इसका कारण यह था कि सामाजिक जनवादियों नेमजदूर वर्ग के नाम पर ऐसी नीति का अनुसरण किया, जो दरअसल किसानविरोधी थीं.किसानों की आंखों के सामने कई सामाजिक जनवादी सरकारें सत्ता में आयीं, जो उनकीदृष्टि में मजदूर वर्ग की सत्ता का मूर्तिमान रूप थीं, पर उनमें से एक ने भीकिसानों की गरीबी का खात्मा नहीं किया, एक ने भी किसानों को जमीन नहीं दी.जर्मनी में, सामाजिक जनवादियों ने जमींदारों को छुआ तक नहीं, उन्होंने खेतमजदूरों की हडतालों को कुचला...'(8) क्या यह पूरी तरह भारत के भी सामाजिकजनवादियों के लिए सही नहीं है? भारत के भी सामाजिक जनवादियों ने मेहनतकशों कोविकास के हित में हडताल न करने की सलाह दी. उन्होंने कहा कि अभी वर्ग संघर्ष कानहीं बल्कि वर्ग सहयोग का वक्त है.अक्सर फासीवाद को रोकने के नाम पर यहां के सामाजिक जनवादियों ने दलाल बुर्जुआएवं सामंती शासक वर्ग के दूसरे हिस्से के साथ गठजोड किया, जिनके फासीवाद के रूपमें विकसित होने के पर्याप्त कारण मौजूद थे. इन्हीं सवालों पर दिमित्रोव नेलिखा :'क्या जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी सत्तारूढ नहीं थी? क्या स्पेनिशसोशलिस्ट उसी सरकार में नहीं थे, जिसमें पूंजीपति शामिल थे? क्या इन देशों मेंपूंजीवादी साझा सरकारों में सामाजिक जनवादी पार्टियों की शिरकत ने फासिज्म कोसर्वहारा पर हमला करने से रोका? नहीं रोका. फलतः यह दिन की रोशनी की तरह साफ हैकि पूंजीवादी सरकारों में सामाजिक जनवादी मंत्रियों की शिरकत फासिज्म के रास्तेमें दीवार नहीं है' (9). दिमित्रोव के शब्दों से ही सामाजिक जनवादियों के ढोंगस्पष्ट हो जाते हैं.2003 में पंचायत चुनाव के बाद वेंकैया नायडू ने बुद्धदेव भट्टाचार्य के बारेमें अपने एक साक्षात्कार में कहा : 'बुद्धदेव बाबू एक सुसंस्कृत आदमी हैं.लेकिन क्या उनके आदेश से पार्टी चलती है? पोटा पर उनकी राय को कौन नहीं जानता?लेकिन क्या इसे वे अपने राज्य में लागू कर सकते थे? वे इस तथ्य से अच्छी तरहवाकिफ हैं कि कई गैर कानूनी मदरसों से विध्वंसकारी गतिविधियां चलायी जा रही हैंएवं वे कडे कदम उठाना चाहते हैं.' (10)2002 से ही बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मदरसों के खिलाफ बातें व पश्चिम बंगाल मेंपोटा जैसे कानून को लागू करने की बात शुरू कर दी थी. इसके अलावा 6 मई, 2003 कोतपन सिकदर पर हुए हमले पर दुख जताने के लिए बुद्धदेव ने आडवाणी को फोन किया(11).इस पर तपन सिकदर ने बुद्धदेव एवं सीपीएम के राज्य नेतृत्व द्वारा हमले के बादकी प्रतिक्रिया पर आभार जताया.हम इन तमाम संकेतों से सामाजिक जनवादियों के वर्ग चरित्र को समझ सकते हैं. जोमुख्यमंत्री गरीब किसान जनता की विदेशी पूंजी के हित में हत्याएं करवाता हो औरइस पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहता हो कि उन्हीं की भाषा में जवाब दे दिया गयाहै, वही मुख्यमंत्री फासीवादियों पर हमले के लिए माफी मांगता हो, यह हमें काफीकुछ कह जाता है. इन सामाजिक जनवादियों ने भारत के ग्रामीण इलाकों में संघर्षरतताकतों को ही सबसे बडा खतरा बताया. नंदीग्राम की घटना में इसने शासक वर्ग कोमाओवादियों के खतरे को समझने की सलाह दी. ऐसे खतरों के बारे में बात करनेवालोंके बारे में दिमित्रोव ने कहा : 'दूसरे इउंटरनेशनल के सठियाये सिद्धांतकारकार्ल काउत्स्की जैसे भारी नक्काल, पूंजीपति वर्ग के चाकर ही मजदूरों को इस तरहकी झिडकियां दे सकते हैं कि उन्हें ऑस्ट्रिया और स्पेन में हथियार नहीं उठानेचाहिए थे. अगर ऑस्ट्रिया और स्पेन में मजदूर वर्ग काउत्स्की जैसों की गारी भरीसलाहों से निर्देशित होते, तो इन देशों में आज मजदूर वर्ग का आंदोलन कैसा दिखता?'(12).आज सामाजिक जनवाद हमें सलाह दे रहा है कि हमें अब समाजवाद के सपनों को भूल जानाचाहिए. हमें भूल जाना चाहिए कि मानव सभ्यता का इतिहास हमारे भाइयों-बहनों एवंमेहनतकशों के खून से रक्तरंजित है. हमें भूल जाना चाहिए कि इन बर्बर सत्ताओं नेमुनाफे की लूट के लिए पूरी दुनिया को खून के समुंदर में डुबो दिया. हमें भूलजाना चाहिए कि हमारे दोस्तों ने जार एवं च्यांग काई शेक का ध्वंस कर एक नयीव्यवस्था के लिए कुरबानी दी. हमें यह समझाया जा रहा है कि मजदूर वर्ग के करोडोंबेटे-बेटियों की अब तक की शहादत बेमानी है एवं समाजवाद उनका दिमागी फितूर था.हमें भूल जाना चाहिए कि हिरोशिमा व नागासाकी में पूरी मानव सभ्यता को मुनाफे केलिए नष्ट कर दिया गया. हमें भूल जाना चाहिए कि इन मुनाफाखोर लुटेरों के हाथवियतनाम, चिली एवं अन्य देशों में हमारे भाइयों-बहनों के खून से सने हैं. जनतासमाजवाद के सपनों को भूल नहीं सकती. काउत्स्की की विरासत जनता की विरासत नहींहै. जनता की विरासत तो महान क्रिस्टोफर कॉडवेल, लोरका और केन सारो वीवा जैसेलेखकों और बुद्धिजीवियों की व उन महान सोवियत बेटे-बेटियों की विरासत है,जिन्होंने स्टालिन के नेतृत्व में दुनिया के नक्शे को बदल देने का सपनापालनेवाले हिटलर के खूनी पंजों को तोड दिया.तथ्य यह दिखाते हैं कि दुनिया के स्तर पर साम्राज्यवाद के संकट के नये दौर कीशुरुआत एवं भारत में विदेशी पूंजी का प्रवेश ही भारत में हिंदुत्व की फासीवादीताकतों एवं कानूनों के उदय का दौर है. जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजीकी भूमिका बढी है, वैसे-वैसे दंगों एवं नफरतों का दौर भी शुरू हुआ है तथा गैरजनवादी औजारों का इस्तेमाल बढता गया है. गुजरात से लेकर नंदीग्राम तक की भारतीयलोकतंत्र की शोभायात्रा का संबंध भी इसी विदेशी पूंजी के साथ है. राजनीतिक संकटमें लगातार वृद्धि ने भी तमाम शासकीय पार्टियों को तमाम प्रतिगामी तरीकों केइस्तेमाल की तरफ बढाया है. इन संकटों से जूझ रहे शासकवर्ग के पास फासीवाद केसिवाय और कोई विकल्प नहीं है. सामाजिक जनवादी और अन्य उदारवादी ताकतें फासीवादकी ताकत को बढा-चढा कर दिखा कर अंततः फासीवाद की चाल को ही पूरा करते हैं. इसतथ्य को वे अनदेखा करते हैं कि बढते जन संघर्षों एवं अपने गहराते संकट से हीनिकलने के लिए वह फासीवाद का इस्तेमाल करता है. शासक वर्ग अपनी सत्ता को बचायेरखने के लिए धार्मिक एवं जातीय विभाजन एवं जनता के आपसी अंतर्विरोधों को लगातारतीखा कर रहा है. लेकिन इन्हीं भयानक संकटों के बीच जनता उठ खडी होती है व अपनेसंकटों को हल करने के लिए भारी जनसंघर्षों में गोलबंद होती है. इसमें जनसंघर्षही प्रधान पहलू हैं, जिसकी ताकत के बारे में लेनिन कहते हैं, 'गृहयुद्ध कीपाठशाला जनता को प्रभावित किये बिना नहीं छोडेगी. यह एक कठोर पाठशाला है औरइसके पूर्ण पाठ्यक्रम में अनिवार्यतः प्रतिक्रांति की जीतें, क्रुद्धप्रतिक्रियावादियों की लंपटताएं, पुरानी सरकारों द्वारा विद्रोहियों को दी गयीबर्बरतापूर्ण सजाएं आदि शामिल होती हैं. किंतु इस तथ्य पर कि राष्ट्र इस कष्टकरपाठशाला में भरती हो रहे हैं, वे ही आंसू बहायेंगे जो सरासर दंभी और दिमागी तौरपर बेजुबान पुतले होंगे, यह पाठशाला उत्पीडित वर्गों को यह सिखाती है किगृहयुद्ध कैसे चलाया जाये, यह सिखाती है कि किस तरह विजयी क्रांति संपन्न करनीचाहिए, यह आज के गुलामों के समुदाय में इस नफरत को घनीभूत कर देती है, जिसेपददलित, निश्चेष्ट, ज्ञानशून्य गुलाम अपने हृदय में हमेशा पाले रहते हैं और जोउन गुलामों से, जो अपनी गुलामी की लानत के बारे में जागरूक हो जाते हैं, महानतमऐतिहासिक कारनामे कराती है'(13).आज फिर शासक वर्ग लगातार फासीवादी होता जा रहा है. फासीवाद अपराजेय नहीं है. यहशासक वर्ग को और पतन की ओर ले जायेगा. दूसरी तरफ जनता के महान संघर्षों कीरफ्तार भी बढी है, जिसे कुचलने के लिए शासक वर्ग और फासीवादी हो रहा है. आज फिरसाम्राज्यवाद महामंदी के बाद सबसे गंभीर संकट से जूझ रहा है. यह ज्यादा सेज्यादा प्रतिक्रियावादी हो रहा है. लेकिन दूसरी तरफ लैटिन अमेरिका सहित एशियाके बडे हिस्सों की जनता ज्यादा-से-ज्यादा संघर्ष में शामिल हो रही है. आज फिरफासीवाद को परास्त करने की महान जिम्मेदारियां फासीवाद के खिलाफ कुरबान हुएसोवियत बेटे-बेटियों एवं मुनाफाखोर सत्ता को ध्वंस करने के लिए कुरबान हुए महानयोद्धाओं के उत्तराधिकारियों पर है. मेहनतकशों की जीत अवश्यंभावी है, क्योंकिजनता ही सृष्टि करती है. सत्ता तो केवल और केवल दमन करती है.

विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र / धूमिल












जब मैं बाहर आया


मेरे हाथों में एक कविता थी


और दिमाग में आँतों का एक्स-रे।


वह काला धब्बा कल तक एक शब्द था;


खून के अँधेर में दवा का ट्रेड मार्क बन गया था।


औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद


अपनी ऊब का दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।


मैंने सोचा !


क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच


अपनी भूख को ज़िन्दा रखना


..........स्थानिक भूगोल की वाजिब मजबूरी है।


मैंने सोचा और संस्कार के


वर्जित इलाकों में अपनी आदतों का


शिकार होने के पहले ही


बाहर चला आया।


बाहर हवा थी


धूप थी


घास थी


मैंने कहा आजादी…


मुझे अच्छी तरह याद है-मैंने यही कहा था


मेरी नस-नस में बिजली दौड़ रही थी


उत्साह में खुद मेरा स्वर मुझे अजनबी लग रहा था


मैंने कहा-आ-जा-दी


और दौड़ता हुआ खेतों की ओर गया।


वहाँ कतार के कतार अनाज के अँकुए फूट रहे थे


मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये बच्चे।


तारों पर चिडि़याँ चहचहा रही थीं


मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…


खेत की मेड़ पार करते हुये मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी


सड़क पर जाते हुये आदमी से उसका नाम पूछा


और कहा- बधाई…घर लौटकर मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं


पुरानी तस्वीरों को दीवार से उतारकर


उन्हें साफ किया


और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह) पोंछकर टाँग दिया।


मैंने दरवाजे के बाहर एक पौधा लगाया


और कहा–वन महोत्सव…


और देर तक हवा में गरदन उचका-उचकाकर


लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा


देर तक महसूस करता रहा–कि मेरे भीतर वक्त का


सामना करने के लिये


औसतन, जवान खून है मगर,


मुझे शान्ति चाहिये


इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर


डाल दिया


‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’


और चहकते हुये कहा यही मेरी आस्था है


यही मेरा कानून है।


इस तरह जो था


उसे मैंने जी भरकर प्यार किया


और जो नहीं था


उसका इंतज़ार किया।


मैंने इंतज़ार किया–


अब कोई बच्चा भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा


अब कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी।


अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी मेंअपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा


अब कोई दवा के अभाव में


घुट-घुटकर नहीं मरेगा


अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा


कोई किसी को नंगा नहीं करेगा


अब यह ज़मीन अपनी है


आसमान अपना है


जैसा पहले हुआ करता था…


सूर्य,हमारा सपना है


मैं इन्तजा़र करता रहा.


.इन्तजा़र करता रहा…


इन्तजा़र करता रहा…


जनतन्त्र, त्याग, स्वतन्त्रता…संस्कृति, शान्ति, मनुष्यता…


ये सारे शब्द थे


सुनहरे वादे थे


खुशफ़हम इरादे थे


सुन्दर थे


मौलिक थे


मुखर थे


मैं सुनता रहा…


सुनता रहा…


सुनता रहा…


मतदान होते रहे


मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे


उसी लोकनायक को बार-बार चुनता रहा


जिसके पास हर शंका और हर सवाल का


एक ही जवाब था


यानी कि कोट के बटन-होल में महकता हुआ


एक फूल गुलाब का।


वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र समझाता रहा।


मैं खुद को समझाता रहा-’


जो मैं चाहता हूँ-


वही होगा।


होगा-आज नहीं तो कल


मगर सब कुछ सही होगा।

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Thursday, November 20, 2008

निंदिया बिन रैना / भूपेन हजारिका



कोमल चांद पिघला
मुंह अंधेरे ओस की बूंदें उतरी
मेघ को चीरते हुए राजहंस
सूरज के सातों
घोड़ों की मंथर गति की आवाज
मेरी चेतना में प्रवेश करते हैं
सीने का स्पर्श करता है
एक नया गहरा सागर
लहर विहीन
जिसकी एक बिन्दु
हौले से लटक रही है
मेरे आंगन में
झड़े हुए
रातरानी की सफेद पंखुड़ी पर
शायद शरत आ गया
एक गुप्तांग
दो स्तन
कुछ अल्टरनेट सेक्स
छिप न सके, इसके लिए
डिजाइनर की तमाम कोशिश
हर आदमी एक द्वीप की तरह
एके फोर्टी सेवन जिन्दाबाद
आदिम छन्द हेड हंटर का।
बैलून/मूल्यबोध/उपभोक्तावाद
जीवन जाए
जडहीन शून्यता में।
मुमकिन हो तो टिकट कटा लें
मंगल ग्रह पर जाने के लिए
मनुष्य की खोज में
मनुष्य की खोज में


------और अब

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