Saturday, September 27, 2008
चांद का मुँह टेढ़ा है. / गजानन माधव मुक्तिबोध
आधी रात--अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना--अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार--चिह्नाकार--मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।
समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!
भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये
हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी--
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।
बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!
अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब--
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये--
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट--
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः थूः है ।
बरगद की डाल एक
मुहाने से आगे फैल
सड़क पर बाहरी
लटकती है इस तरह--
मानो कि आदमी के जनम के पहले से
पृथ्वी की छाती पर
जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो
हवा के लहरीले सिफ़रों को आज भी
बरगद की घनी-घनी छाँव में
फूटी हुई चूड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सी
सूनी-सूनी गलियों में
ग़रीबों के ठाँव में--
चौराहे पर खड़े हुए
भैरों की सिन्दूरी
गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी,
तिलिस्मी चांद की राज़-भरी झाइयाँ !!
तजुर्बों का ताबूत
ज़िन्दा यह बरगद
जानता कि भैरों यह कौन है !!
कि भैरों की चट्टानी पीठ पर
पैरों की मज़बूत
पत्थरी-सिन्दूरी ईट पर
भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर
ज्वलन्त अक्षर !!
सामने है अंधियाला ताल और
स्याह उसी ताल पर
सँवलायी चांदनी,
समय का घण्टाघर,
निराकार घण्टाघर,
गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है !!
परन्तु, परन्तु...बतलाते
ज़िन्दगी के काँटे ही
कितनी रात बीत गयी
चप्पलों की छपछप,
गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज़,
फुसफुसाते हुए शब्द !
जंगल की डालों से गुज़रती हवाओं की सरसर
गली में ज्यों कह जाय
इशारों के आशय,
हवाओं की लहरों के आकार--
किन्हीं ब्रह्मराक्षसों के निराकार
अनाकार
मानो बहस छेड़ दें
बहस जैसे बढ़ जाय
निर्णय पर चली आय
वैसे शब्द बार-बार
गलियों की आत्मा में
बोलते हैं एकाएक
अंधेरे के पेट में से
ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आय
वैसे, अरे, शब्दों की धार एक
बिजली के टॉर्च की रोशनी की मार एक
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गयी अकस्मात्बरगद के खुरदरे अजगरी तने परफैल गये हाथ दो
मानो ह्रदय में छिपी हुई बातों ने सहसा
अंधेरे से बाहर आ भुजाएँ पसारी हों
फैले गये हाथ दो
चिपका गये पोस्टर
बाँके तिरछे वर्ण और
लाल नीले घनघोर
हड़ताली अक्षर
इन्ही हलचलों के ही कारण तो सहसा
बरगद में पले हुए पंखों की डरी हुई
चौंकी हुई अजीब-सी गन्दी फड़फड़
अंधेरे की आत्मा से करते हुए शिकायत
काँव-काँव करते हुए पक्षियों के जमघट
उड़ने लगे अकस्मात्
मानो अंधेरे के
ह्रदय में सन्देही शंकाओं के पक्षाघात !!
मद्धिम चांदनी में एकाएक एकाएक
खपरैलों पर ठहर गयी
बिल्ली एक चुपचाप
रजनी के निजी गुप्तचरों की प्रतिनिधि
पूँछ उठाये वह
जंगली तेज़
आँख
फैलाये
यमदूत-पुत्री-सी
(सभी देह स्याह, पर
पंजे सिर्फ़ श्वेत और
ख़ून टपकाते हुए नाख़ून)
देखती है मार्जार
चिपकाता कौन है
मकानों की पीठ पर
अहातों की भीत पर
बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर
अंधेरे के कन्धों पर
चिपकाता कौन है ?
चिपकाता कौन है
हड़ताली पोस्टर
बड़े-बड़े अक्षर
बाँके-तिरछे वर्ण और
लम्बे-चौड़े घनघोर
लाल-नीले भयंकर
हड़ताली पोस्टर !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी भी ख़ूब है
मकान-मकान घुस लोहे के गज़ों की जाली
के झरोखों को पार कर
लिपे हुए कमरे में
जेल के कपड़े-सी फैली है चांदनी,
दूर-दूर काली-काली
धारियों के बड़े-बड़े चौखट्टों के मोटे-मोटे
कपड़े-सी फैली है
लेटी है जालीदार झरोखे से आयी हुई
जेल सुझाती हुई ऐयारी रोशनी !!
अंधियाले ताल पर
काले घिने पंखों के बार-बार
चक्करों के मंडराते विस्तार
घिना चिमगादड़-दल भटकता है चारों ओर
मानो अहं के अवरुद्ध
अपावन अशुद्ध घेरे में घिरे हुए
नपुंसक पंखों की छटपटाती रफ़्तार
घिना चिमगादड़-दल
भटकता है प्यासा-सा,
बुद्धि की आँखों में
स्वार्थों के शीशे-सा !!
बरगद को किन्तु सब
पता था इतिहास,
कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च
गान्धी के पुतले पर
बैठे हुए आँखों के दो चक्र
यानी कि घुग्घू एक--
तिलक के पुतले पर
बैठे हुए घुग्घू से
बातचीत करते हुए
कहता ही जाता है--
"......मसान में......
मैंने भी सिद्धि की ।
देखो मूठ मार दी
मनुष्यों पर इस तरह......"
तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घू ने
देखा कि भयानक लाल मूँठ
काले आसमान में
तैरती-सी धीरे-धीरे जा रही
उद्गार-चिह्नाकार विकराल
तैरता था लाल-लाल !!
देख, उसने कहा कि वाह-वाह
रात के जहाँपनाह
इसीलिए आज-कल
दिल के उजाले में भी अंधेरे की साख है
रात्रि की काँखों में दबी हुई
संस्कृति-पाखी के पंख है सुरक्षित !!
...पी गया आसमान
रात्रि की अंधियाली सच्चाइयाँ घोंट के,
मनुष्यों को मारने के ख़ूब हैं ये टोटके !
गगन में करफ़्यू है,
ज़माने में ज़ोरदार ज़हरीली छिः थूः है !!
सराफ़े में बिजली के बूदम
खम्भों पर लटके हुए मद्धिम
दिमाग़ में धुन्ध है,
चिन्ता है सट्टे की ह्रदय-विनाशिनी !!
रात्रि की काली स्याह
कड़ाही से अकस्मात्
सड़कों पर फैल गयी
सत्यों की मिठाई की चाशनी !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी
भीमाकार पुलों के
ठीक नीचे बैठकर,
चोरों-सी उचक्कों-सी
नालों और झरनों के तटों पर
किनारे-किनारे चल,
पानी पर झुके हुएपेड़ों के नीचे बैठ,
रात-बे-रात वह
मछलियाँ फँसाती है
आवारा मछुओं-सी शोहदों-सी चांदनी
सड़कों के पिछवाड़े
टूटे-फूटे दृश्यों में,
गन्दगी के काले-से नाले के झाग पर
बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर
सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी !
किंग्सवे में मशहूर
रात की है ज़िन्दगी !
सड़कों की श्रीमान्
भारतीय फिरंगी दुकान,
सुगन्धित प्रकाश में चमचमाता ईमान
रंगीन चमकती चीज़ों के सुरभित
स्पर्शों में
शीशों की सुविशाल झाँइयों के रमणीय
दृश्यों में
बसी थी चांदनी
खूबसूरत अमरीकी मैग्ज़ीन-पृष्ठों-सी
खुली थी,
नंगी-सी नारियों के
उघरे हुए अंगों के
विभिन्न पोज़ों मे
लेटी थी चांदनी
सफे़द
अण्डरवियर-सी, आधुनिक प्रतीकों में
फैली थी
चांदनी !
करफ़्यू नहीं यहाँ, पसन्दगी...सन्दली,
किंग्सवे में मशहूर रात की है ज़िन्दगी
अजी, यह चांदनी भी बड़ी मसखरी है !!
तिमंज़ले की एक
खिड़की में बिल्ली के सफे़द धब्बे-सी
चमकती हुई वह
समेटकर हाथ-पाँव
किसी की ताक में
बैठी हुई चुपचाप
धीरे से उतरती है
रास्तों पर पथों पर;
चढ़ती है छतों पर
गैलरी में घूम और
खपरैलों पर चढ़कर
नीमों की शाखों के सहारे
आंगन में उतरकर
कमरों में हलके-पाँव
देखती है, खोजती है--
शहर के कोनों के तिकोने में छुपी हुई
चांदनी
सड़क के पेड़ों के गुम्बदों पर चढ़कर
महल उलाँघ कर
मुहल्ले पार कर
गलियों की गुहाओं में दबे-पाँव
खुफ़िया सुराग़ में
गुप्तचरी ताक में
जमी हुई खोजती है कौन वह
कन्धों पर अंधेरे के
चिपकाता कौन है
भड़कीले पोस्टर,
लम्बे-चौड़े वर्ण और
बाँके-तिरछे घनघोर
लाल-नीले अक्षर ।
कोलतारी सड़क के बीचों-बीच खड़ी हुई
गान्धी की मूर्ति पर
बैठे हुए घुग्घू ने
गाना शुरु किया,
हिचकी की ताल पर
साँसों ने तब
मर जाना
शुरु किया,
टेलीफ़ून-खम्भों पर थमे हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक-कॉल-सुरों में
थर्राना और झनझनाना शुरु किया !
रात्रि का काला-स्याह
कन-टोप पहने हुए
आसमान-बाबा ने हनुमान-चालीसा
डूबी हुई बानी में गाना शुरु किया ।
मसान के उजाड़
पेड़ों की अंधियाली शाख पर
लाल-लाल लटके हुए
प्रकाश के चीथड़े--
हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू ।
सचाई के अध-जले मुर्दों की चिताओं की
फटी हुई, फूटी हुई दहक में कवियों ने
बहकती कविताएँ गाना शुरु किया ।
संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के
गोल-गोल मटकों से चेहरों ने
नम्रता के घिघियाते स्वांग में
दुनिया को हाथ जोड़
कहना शुरु किया--
बुद्ध के स्तूप में
मानव के सपने
गड़ गये, गाड़े गये !!
ईसा के पंख सब
झड़ गये, झाड़े गये !!
सत्य की
देवदासी-चोलियाँ उतारी गयी
उघारी गयीं,
सपनों की आँते सब
चीरी गयीं, फाड़ी गयीं !!
बाक़ी सब खोल है,
ज़िन्दगी में झोल है !!
गलियों का सिन्दूरी विकराल
खड़ा हुआ भैरों, किन्तु,
हँस पड़ा ख़तरनाक
चांदनी के चेहरे पर
गलियों की भूरी ख़ाक
उड़ने लगी धूल और
सँवलायी नंगी हुई चाँदनी !
और, उस अँधियाले ताल के उस पार
नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक
लोहे की नभ-चुम्भी शिला का चबूतरा
लोहांगी कहाता है
कि जिसके भव्य शीर्ष पर
बड़ा भारी खण्डहर
खण्डहर के ध्वंसों में बुज़ुर्ग दरख़्त एक
जिसके घने तने पर
लिक्खी है प्रेमियों ने
अपनी याददाश्तें,
लोहांगी में हवाएँ
दरख़्त में घुसकर
पत्तों से फुसफुसाती कहती हैं
नगर की व्यथाएँ
सभाओं की कथाएँ
मोर्चों की तड़प और
मकानों के मोर्चे
मीटिंगों के मर्म-राग
अंगारों से भरी हुई
प्राणों की गर्म राख
गलियों में बसी हुई छायाओं के लोक में
छायाएँ हिलीं कुछ
छायाएँ चली दो
मद्धिम चांदनी में
भैरों के सिन्दूरी भयावने मुख पर
छायीं दो छायाएँ
छरहरी छाइयाँ !!
रात्रि की थाहों में लिपटी हुई साँवली तहों में
ज़िन्दगी का प्रश्नमयी थरथर
थरथराते बेक़ाबू चांदनी के
पल्ले-सी उड़ती है गगन-कंगूरों पर ।
पीपल के पत्तों के कम्प में
चांदनी के चमकते कम्प से
ज़िन्दगी की अकुलायी थाहों के अंचल
उड़ते हैं हवा में !!
गलियों के आगे बढ़
बगल में लिये कुछ
मोटे-मोटे कागज़ों की घनी-घनी भोंगली
लटकाये हाथ में
डिब्बा एक टीन का
डिब्बे में धरे हुए लम्बी-सी कूँची एक
ज़माना नंगे-पैर
कहता मैं पेण्टर
शहर है साथ-साथ
कहता मैं कारीगर--
बरगद की गोल-गोल
हड्डियों की पत्तेदार
उलझनों के ढाँचों में
लटकाओ पोस्टर,
गलियों के अलमस्त
फ़क़ीरों के लहरदार
गीतों से फहराओ
चिपकाओ पोस्टर
कहता है कारीगर ।
मज़े में आते हुए
पेण्टर ने हँसकर कहा--
पोस्टर लगे हैं,
कि ठीक जगह
तड़के ही मज़दूर
पढ़ेंगे घूर-घूर,रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बागपढ़ेंगे ज़िन्दगी की
झल्लायी हुई आग !
प्यारे भाई कारीगर,
अगर खींच सकूँ मैं--
हड़ताली पोस्टर पढ़ते हुए
लोगों के रेखा-चित्र,
बड़ा मज़ा आयेगा ।
कत्थई खपरैलों से उठते हुए धुएँ
रंगों में
आसमानी सियाही मिलायी जाय,
सुबह की किरनों के रंगों में
रात के गृह-दीप-प्रकाश को आशाएँ घोलकर
हिम्मतें लायी जायँ,
स्याहियों से आँखें बने
आँखों की पुतली में धधक की लाल-लाल
पाँख बने,
एकाग्र ध्यान-भरी
आँखों की किरनें
पोस्टरों पर गिरे--तब
कहो भाई कैसा हो ?
कारीगर ने साथी के कन्धे पर हाथ रख
कहा तब--
मेरे भी करतब सुनो तुम,
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है--
ज़िन्दगी भूरी ही नहीं, वह ख़ाकी है ।
ज़माने ने नगर के कन्धे पर हाथ रख
कह दिया साफ़-साफ़
पैरों के नखों से या डण्डे की नोक से
धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर
तसवीरें बनाती हैं
बशर्ते कि ज़िन्दगी के चित्र-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो ।
कारीगर ने हँसकर
बगल में खींचकर पेण्टर से कहा, भाई
चित्र बनाते वक़्त
सब स्वार्थ त्यागे जायँ,
अंधेरे से भरे हुए
ज़ीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो
अभिलाषा--अन्ध है
ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं
अपने लिए नहीं वे !!
ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है यह, भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और
छीनने का दम है ।
फ़िलहाल तसवीरें
इस समय हम
नहीं बना पायेंगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे ।
हम धधकायेंगे ।
मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में
भाफ-बने आँसू के ख़ूँख़ार अक्षर !!
चटाख से लगी हुई
रायफ़ली गोली के धड़ाकों से टकरा
प्रतिरोधी अक्षर
ज़माने के पैग़म्बर
टूटता आसमान थामते हैं कन्धों पर
हड़ताली पोस्टर
कहते हैं पोस्टर--
आदमी की दर्द-भरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
बूढ़ी माँ के झुर्रीदार
चेहरे पर छाये हुए
आँखों में डूबे हुए
ज़िन्दगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
चिल्लाते हैं पोस्टर ।
धरती का नीला पल्ला काँपता है
यानी आसमान काँपता है,
आदमी के ह्रदय में करुणा कि रिमझिम,
काली इस झड़ी में
विचारों की विक्षोभी तडित् कराहती
क्रोध की गुहाओं का मुँह खोले
शक्ति के पहाड़ दहाड़ते
काली इस झड़ी में वेदना की तडित् कराहती
मदद के लिए अब,
करुणा के रोंगटों में सन्नाटा
दौड़ पड़ता आदमी,
व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ
दौड़ता जहान
और दौड़ पड़ता आसमान !!
मुहल्ले के मुहाने के उस पार
बहस छिड़ी हुई है,
पोस्टर पहने हुए
बरगद की शाखें ढीठ
पोस्टर धारण किये
भैंरों की कड़ी पीठ
भैंरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है
ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा
सुबह होगी कब और
मुश्किल होगी दूर कब
समय का कण-कण
गगन की कालिमा से
बूंद-बूंद चू रहा
तडित्-उजाला बन !!
Wednesday, September 24, 2008
दिनकर की बात पर इतनी क्यों?
ऐसी बातें निस्सन्देह गप्प की श्रेणी में आती हैं।
या आप अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए सन्दर्भ,पुस्तकनाम,लेखक, अता-पता,प्रकाशक या जो भी आपकाआधर रहा है उसका पूरा ब्यौरा दें,प्रतिलिपि उपलब्ध कराएँ। अन्यथा ऐसे बेसिर पैर के फूहड़ हवाई बेतुकेपन केलिए सार्वजनिक क्षमा माँगें।
ऐसा न होने की स्थिति में मैं आपका तीव्र विरोध ही नहीं निन्दा करती हूँ।
रंजन का सवाल...
क्या ये सही बात है? अगर हां तो शर्मनाक है..
उड़न तश्तरी उवाच...
चाहे दिनकर जी हों या कोई और कवि-कलाकार का ऐसा असम्मान उसकी प्रस्तुति के दौरान-हमेशा शर्मनाक हीकहलायेगा!!
और लोकेश said...
हो भी सकता है।
कविता जी
पहले तो यह जान लीजिए कि दिनकर जी जितने बड़े कवि, उतने ही सत्तालोलुपभी थे। राष्ट्रकवि का खिताब उन्हें उसी चापलूसी में मिला था। वरना उस जमाने में उनसे बहुत अच्छा-पढ़ने वाले और भी तमाम कवि-रचनाकार थे। उस जमाने के किसी भी जीवित रचनाकार से यह हकीकत जान सकती हैं(यद्यपि संभव नहीं कि कोई जीवित हो)
मैं अपनी बात शुरू करने से पहले कविता जी की जिज्ञासा शांत कर दूं कि न मैं उस कवि सम्मेलन का प्रत्यक्षदर्शी था, न श्रोता। मुझे यह बात दिनकर जी के साहित्यिक प्रतिद्वंद्वी और हल्दीघाटी के रचनाकार पं.श्यामनारायण पांडेय ने बतायी थी। खेद है कि अब वह इस दुनिया में नहीं रहे। वही मेरे एकमात्र प्रमाण थे। दूसरी बात यह कि यदि किसी के भीतर जरा-सी भी रचनात्मक कौशल है तो तथ्यों को पढ़ते-सुनते ही जान लेता है कि बात गप्पबाजी की है या वास्तविक। मेरी स्मृति में और भी कई नामवर लोगों की व्यथा-कथा है। उनमें से कुछ आपको बता ही देता हूं। इससे पहले मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि राहुल सांकृत्यायन जहां-जहां गये, उन्हें एक बीवी की जरूरत महसूस हुई, क्या ये बात गलत है? पंडित नेहरू अंग्रेजी मेम पर फिदा थे, क्या ये बात गलत है? पटेल कट्टर हिंदूवादी थे, क्या ये बात गलत है? लोहिया ने इस देश में वामपंथ को विकृत किया था, क्या ये बात गलत है? महाप्राण कहे जाने वाले निराला कोठों तक की खाक छानते रहते थे, भांग-धतूरा-शराब-गांजा का जमकर सेवन करते थे, ये सच्चाई कौन नहीं जानता? कामायनी के रसिया रचनाकार जयशंकर प्रसाद हर शाम शिल्क का कुर्ता-धोती पहनकर लकदक वेश-भूषा में बनारस की दालमंडी (कोठेवालियों का अड्डा) क्यों जाते थे? महान आलोचक नामवर सिंह भयानक ठाकुरवादी हैं, क्या ये बात गलत है? महान कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव स्त्री-विमर्श के लेखन और स्त्री के प्रति (मन्नू भंडारी) निजी जीवन में कितना अंतर रखते हैं, क्या ये बात आपको मालूम है? और तो और क्रांतिकारी कवि नागार्जुन जब कमला सांकृत्यायन के यहां मसूरी की घाटी में बार-बार पहुंचने से बाज नहीं आ रहे थे तो कमला जी को उन्हें कड़ी फटकार लगानी पड़ी थी। क्यों?
कविता जी यह सब भी मैंने देखा नहीं है, किसी न किसी प्रसिद्ध रचनाकार के मुंह से सुना ही है, और इनमें तमाम बातें तमाम लोगों को मालूम हैं। तो इन कथित महान लोगों के दोहरेपन की कोई कड़ी खुलने पर इतना बेचैन न हों। आज के उन मंचीय भाड़ों (कवियों) के तो एक-से-एक किस्से हैं, जिन्हें लोग टकटकी बांधकर सुनते रहते हैं। ऐसे भांड़ की राजू श्रीवास्तव भी पानी-पानी हो जाए।
कविता जी
आपको कुछ बातें और बता दूं कि नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी, दूसरे कथित राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी राजनीतिक गलियारों में बड़ी शीतलता महसूस करते थे। इसके लिए उनका साहित्यिक सरोकार ताक पर होता था। पुरस्कारों के लिए उन दिनों बड़ी भयानक मुठभेड़ें हुआ करती थीं। तब बड़े रचनाकारों को देव पुरस्कार मिला करता था। उसे पाने के लिए पांच बड़े-बुजुर्ग कवियों-लेखकों की जांच कमेटी से गुजरना पड़ता था। उन्हीं दिनों एक दिन निराला जी ने अपने बुजुर्ग अनुरागी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी से कहा था कि भैया जी, हम लिखते-लिखते मरे जा रहे हैं, हमें कोई पूछ नहीं रहा और फलां की किताबे विश्वविद्यालय प्रकाशन पर लाइन लगकर बिक रही हैं! इस तरह के अंतरदाह से बड़े-बड़े पीड़ित रहा करते थे।
...तो एक और ताजा-सा छोटा-सा संस्मरण झेल लीजिए-
बात सन् 1982 में गाजीपुर के उपनगर नंदगांव की है। कवि सम्मेलन शुरू हो चुका था लेकिन आयोजक का कहीं अता-पता नहीं था। आयोजक था कौन? नंदगांव थाने का इंसपेक्टर। नमूदार हुआ रात दो बजे, जब कविसम्मेलन समाप्त होने को था। कहां गुम थे जनाब? तो पता चला कि बगल के बलिया जिले में किसी फर्जी मुठभेड़ में गए थे और चार लोगों को ठिकाने लगाने के बाद अभी-अभी लौटे हैं। इसके बाद इंसपेक्टर ने एक-के-बाद-एक कई कविताएं झूम-झूमकर पढ़ डालीं। लोगों ने कहा...वाह-वाह...आह्!!
दिनकर की हकीकत पर इतनी हाय-तौबा क्यों?
ऐसी बातें निस्सन्देह गप्प की श्रेणी में आती हैं।
या आप अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए सन्दर्भ,पुस्तकनाम,लेखक, अता-पता,प्रकाशक या जो भी आपकाआधर रहा है उसका पूरा ब्यौरा दें,प्रतिलिपि उपलब्ध कराएँ। अन्यथा ऐसे बेसिर पैर के फूहड़ हवाई बेतुकेपन केलिए सार्वजनिक क्षमा माँगें।
ऐसा न होने की स्थिति में मैं आपका तीव्र विरोध ही नहीं निन्दा करती हूँ।
रंजन का सवाल...
क्या ये सही बात है? अगर हां तो शर्मनाक है..
उड़न तश्तरी उवाच...
चाहे दिनकर जी हों या कोई और कवि-कलाकार का ऐसा असम्मान उसकी प्रस्तुति के दौरान-हमेशा शर्मनाक हीकहलायेगा!!
और लोकेश said...
हो भी सकता है।
कविता जी
पहले तो यह जान लीजिए कि दिनकर जी जितने बड़े कवि, उतने ही सत्तालोलुपभी थे। राष्ट्रकवि का खिताब उन्हें उसी चापलूसी में मिला था। वरना उस जमाने में उनसे बहुत अच्छा-पढ़ने वाले और भी तमाम कवि-रचनाकार थे। उस जमाने के किसी भी जीवित रचनाकार से यह हकीकत जान सकती हैं(यद्यपि संभव नहीं कि कोई जीवित हो)
मैं अपनी बात शुरू करने से पहले कविता जी की जिज्ञासा शांत कर दूं कि न मैं उस कवि सम्मेलन का प्रत्यक्षदर्शी था, न श्रोता। मुझे यह बात दिनकर जी के साहित्यिक प्रतिद्वंद्वी और हल्दीघाटी के रचनाकार पं.श्यामनारायण पांडेय ने बतायी थी। खेद है कि अब वह इस दुनिया में नहीं रहे। वही मेरे एकमात्र प्रमाण थे। दूसरी बात यह कि यदि किसी के भीतर जरा-सी भी रचनात्मक कौशल है तो तथ्यों को पढ़ते-सुनते ही जान लेता है कि बात गप्पबाजी की है या वास्तविक। मेरी स्मृति में और भी कई नामवर लोगों की व्यथा-कथा है। उनमें से कुछ आपको बता ही देता हूं। इससे पहले मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि राहुल सांकृत्यायन जहां-जहां गये, उन्हें एक बीवी की जरूरत महसूस हुई, क्या ये बात गलत है? पंडित नेहरू अंग्रेजी मेम पर फिदा थे, क्या ये बात गलत है? पटेल कट्टर हिंदूवादी थे, क्या ये बात गलत है? लोहिया ने इस देश में वामपंथ को विकृत किया था, क्या ये बात गलत है? महाप्राण कहे जाने वाले निराला कोठों तक की खाक छानते रहते थे, भांग-धतूरा-शराब-गांजा का जमकर सेवन करते थे, ये सच्चाई कौन नहीं जानता? कामायनी के रसिया रचनाकार जयशंकर प्रसाद हर शाम शिल्क का कुर्ता-धोती पहनकर लकदक वेश-भूषा में बनारस की दालमंडी (कोठेवालियों का अड्डा) क्यों जाते थे? महान आलोचक नामवर सिंह भयानक ठाकुरवादी हैं, क्या ये बात गलत है? महान कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव स्त्री-विमर्श के लेखन और स्त्री के प्रति (मन्नू भंडारी) निजी जीवन में कितना अंतर रखते हैं, क्या ये बात आपको मालूम है? और तो और क्रांतिकारी कवि नागार्जुन जब कमला सांकृत्यायन के यहां मसूरी की घाटी में बार-बार पहुंचने से बाज नहीं आ रहे थे तो कमला जी को उन्हें कड़ी फटकार लगानी पड़ी थी। क्यों?
कविता जी यह सब भी मैंने देखा नहीं है, किसी न किसी प्रसिद्ध रचनाकार के मुंह से सुना ही है, और इनमें तमाम बातें तमाम लोगों को मालूम हैं। तो इन कथित महान लोगों के दोहरेपन की कोई कड़ी खुलने पर इतना बेचैन न हों। आज के उन मंचीय भाड़ों (कवियों) के तो एक-से-एक किस्से हैं, जिन्हें लोग टकटकी बांधकर सुनते रहते हैं। ऐसे भांड़ की राजू श्रीवास्तव भी पानी-पानी हो जाए।
कविता जी
आपको कुछ बातें और बता दूं कि नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी, दूसरे कथित राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी राजनीतिक गलियारों में बड़ी शीतलता महसूस करते थे। इसके लिए उनका साहित्यिक सरोकार ताक पर होता था। पुरस्कारों के लिए उन दिनों बड़ी भयानक मुठभेड़ें हुआ करती थीं। तब बड़े रचनाकारों को देव पुरस्कार मिला करता था। उसे पाने के लिए पांच बड़े-बुजुर्ग कवियों-लेखकों की जांच कमेटी से गुजरना पड़ता था। उन्हीं दिनों एक दिन निराला जी ने अपने बुजुर्ग अनुरागी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी से कहा था कि भैया जी, हम लिखते-लिखते मरे जा रहे हैं, हमें कोई पूछ नहीं रहा और फलां की किताबे विश्वविद्यालय प्रकाशन पर लाइन लगकर बिक रही हैं! इस तरह के अंतरदाह से बड़े-बड़े पीड़ित रहा करते थे।
...तो एक और ताजा-सा छोटा-सा संस्मरण झेल लीजिए-
बात सन् 1982 में गाजीपुर के उपनगर नंदगांव की है। कवि सम्मेलन शुरू हो चुका था लेकिन आयोजक का कहीं अता-पता नहीं था। आयोजक था कौन? नंदगांव थाने का इंसपेक्टर। नमूदार हुआ रात दो बजे, जब कविसम्मेलन समाप्त होने को था। कहां गुम थे जनाब? तो पता चला कि बगल के बलिया जिले में किसी फर्जी मुठभेड़ में गए थे और चार लोगों को ठिकाने लगाने के बाद अभी-अभी लौटे हैं। इसके बाद इंसपेक्टर ने एक-के-बाद-एक कई कविताएं झूम-झूमकर पढ़ डालीं। लोगों ने कहा...वाह-वाह...आह्!!
Tuesday, September 23, 2008
जब नेहरू के सामने दिनकर के चेहरे का रंग उड़ गया!!
सो, हुआ यह कि पहुंच गए नेहरू जी भी। पूरा हाल खचाखच भरा था। मंच पर देश भर लोकप्रिय मंचीय विराजमान थे। कवि सम्मेलन शुरू हुआ। किसी की जुबान से महुआ के नीचे फूल झरे (बच्चन) तो कोई हल्दीघाटी के मैदान में राणाप्रताप की तलवार भांजने लगा। कविता के नाम पर यह आल्हा-ऊदलबाजी चल रही थी कि नेहरू की मांग पर दिनकर जी नमूदार हुए माइक के सामने अपने सरकारी महिमामय व्यक्तित्व के साथ। ...और शुरू हुआ उनका काव्य-पाठ।
इसी बीच श्रोतादीर्घा से किसी ने दिनकर के नाम एक चिट लिख भेजी। कविता पढ़ते-पढ़ते में ही दिनकर ने उस चिट के हर्फों पर भी तिरछी नजर डाल ली। ....और पढ़ते ही उनके चेहरे से काव्य-रंग फाख्ता हो चले। जल्दी-जल्दी उन्होंने कविता की शेष लाइना निपटायीं और धम्म से आ गिरे अपने अध्यक्षीय गाव-तकिये पर शून्य में ताकते हुए।
न लोगों को कुछ समझ में आया, न नेहरू जी को आखिर आज दिनकर के काव्यपाठ में वो रंग क्यों नहीं दिखा और झटपट क्यों माइक छोड़ आए। उधर, नीचे से कुछ श्रोताओं ने दिनकर को और सुनने की इच्छा जतायी। यह बात और थी, कि उनकी इच्छा पूरी होने से रही। दिनकर पर घड़ो पानी फूट रहे थे। तो बात क्या थी?
बात दरअसल ये थी कि जो चिट दिनकर जी को थमायी गयी थी, उस पर श्रोता ने उनकी कविता सुनकर लिखा था......आपकी कविता से बोर हो रिया हूं, मन करता है इस चिट पर आपका नाम लिखकर दस जूते मारूं..... लाहौलबिलाकूवत!
पुत्री सरोज की स्मृति में निराला की प्रसिद्ध लंबी कविता
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --
अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --
कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख न सका तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न,
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर।" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान।
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। --
देखें वे; हसँते हुए प्रवर,
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,
देखता रहा मैं खडा़ अपल
वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन-जीवन का रवि,
लेकर-कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रंग भरती विमला,
वांछित उस किस लांछित छवि पर
फेरती स्नेह कूची भर।
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोडने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
कहती लघु-लघु उसाँस में भर;
समझता हुआ मैं रहा देख,
हटता भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा साल की जब कोमल
पहचान रही ज्ञान में चपल
माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गई चली
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक-विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खाई भाई की मार, विकल
रोई उत्पल-दल-दृग-छलछल,
चुमकारा सिर उसने निहार
फिर गंगा-तट-सैकत-विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर चली हाथ चपला;
आँसुओं-धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध-गति मुक्त छंद,
पर संपादकगण निरानंद
वापस कर देते पढ़ सत्त्वर
दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी लेकर रचना उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोंचता हुआ घास
अज्ञात फेंकता इधर-उधर
भाव की चढी़ पूजा उन पर।
याद है दिवस की प्रथम धूप
थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास में चल
दो वर्ष बाद हो कर उत्सुक
देखने के लिये अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आँगन में फाटक के भीतर,
मोढे़ पर, ले कुंडली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ-गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह।
हँसता था, मन में बडी़ चाह
खंडित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
इससे पहिले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो।
आये ऐसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैंने सविनय
सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर --
"मैं हूँ मंगली," मुडे़ सुनकर
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पडी़ अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उस नयनों का, सासु ने कहा --
"वे बडे़ भले जन हैं भैय्या,
एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,
बोले मुझसे -- 'छब्बीस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।'
फिर हाथ जोडने लगे कहा --
' वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बडे़ सज्जन।
अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन।
हैं बडे़ नाम उनके। शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।'
आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल,
आई पुतली तू खिल-खिल-खिल
हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो"
आई तू, दिया, कहा--"खेलो।"
कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश
आईं करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीत,
संकेत किया मैंने अखिन्न
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी संचित टुकडों पर।
धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आईं, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल --
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल
क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता उर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध;
छलकता दृगों से साध साध।
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर
हर पिता कंठ की दृप्त-धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वह्लि
साकार हुई दृष्टि में सुघर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज
तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश--मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।
सासु ने कहा लख एक दिवस :--
"भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना 'सरोज' को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढकर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।"
सुनकर, गुनकर, चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा, -- न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार --
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।"
फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द्र-बंध की निराधार।
वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गंध,
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह!"
फिर आई याद -- "मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय।" बँध गया भाव,
खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।
बोला मैं -- "मैं हूँ रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त --
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण
यदि महाजनों को तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर,
बारात बुला कर मिथ्या व्यय
मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र
यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।"
आये पंडित जी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मन्द,
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द
उर में भर झूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर
तू खुली एक उच्छवास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैनें वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त की प्रथम गीति --
श्रृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग --
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।"
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूंदे दृग वर महामरण!
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
Sunday, September 21, 2008
फटी-फटी चिल्लाते क्यों हैं परसौली के बाबा जी।
गीत-गौनई गाते क्यों हैं परसौली के बाबा जी।
मूछें खड़ी-खड़ी हैं
आंखे चढ़ी-चढ़ी,
बातें बड़ी-बड़ी हैं
नखरे घड़ी-घड़ी.
फिर भी दया लुटाते क्यों हैं परसौली के बाबा जी।
हरदम गाल बजाते क्यों हैं परसौली के बाबा जी।
धूत-भूत-अवधूत
सरीखे नाती-पूत,
ऋद्धि-सिद्धि की भी है
जो महिमा कूत-अकूत
राट-पाट के नाते क्यों हैं परसौली के बाबा जी।
हरदम हिट हो जाते क्यों हैं परसौली के बाबा जी।