अपराध और राजनीति
मिलाप का संपादकीय
अंतत उत्तर प्रदेश के एक मंत्री जमुना निषाद ने इस्तीफा दे ही दिया और उनका इस्तीफा मुख्यमंत्री मायावती ने स्वीकार भी कर लिया है। मंत्री पर आरोप लगा था कि उन्होंने अपने साथियों के साथ एक पुलिस थाने पर हमला किया था और उनकी पिस्तौल से चली गोली से एक पलिसकर्मी की मौत हो गयी है। सुना है अब इस आरोप में थोड़ा बदलाव किया गया है - अब कहा जा रहा है कि पुलिसकर्मी की मौत मंत्री की कार से चली गोली से हुई है। बहरहाल, तथ्य यह है कि गोली चलने से पुलिस वाला मारा गया और यह गोली मंत्री महोदय के नेतृत्व में थाने गयी भीड़ की तरफ से चली थी। इसलिए मुख्यमंत्री ने मंत्री से इस्तीफा मांगा, इस्तीफा दे दिया गया और मंजूर भी हो गया। निश्चित रूप से यह एक अच्छा उदाहरण है और मुख्यमंत्री मायावती की यह घोषणा भी प्रशंसनीय है कि `अपराधी अपराधी है, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो और चाहे वह कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो।' यह देखना रोचक होगा कि आरोपी मंत्री अपराधी घोषित होते हैं या नहीं। वैसे यह मायावती सरकार से जुड़ा इस तरह का पहला मामला नहीं है। निषाद मायावती सरकार के तीसरे ऐसे मंत्री हैं जो आपराधिक मामले में लिप्त बताये जा रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है यह, लेकिन किसी को आश्चर्य नहीं हो रहा, यही स्थिति है - राजनीति और अपराध के रिश्ते इतने गहरे हो गये हैं हमारे यहां कि जनता ने उन्हें एक नियति के रूप में स्वीकार कर लिया है। राजनीति में आपराधिक तत्वों से कहीं ज्यादा गंभीर है यह तथ्य कि जनता ने इसे एक स्वाभाविक स्थिति के रूप में स्वीकार लिया है। यह स्वाभाविक स्थिति नहीं है। नियति भी नहीं है। अपराध और राजनीति का यह गठबंधन हमारी व्यवस्था और हमारी समझ दोनों पर प्रशनचिह्न लगाता है। उत्तर प्रदेश में पिछले चुनावों में 872 ऐसे उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था जिन पर आपराधिक मामले चल रहे थे और आरोप भी छोटे-मोटे नहीं हैं - किसी पर हत्या की कोशिश का आरोप है, किसी पर बलात्कार का, किसी पर दंगे फैलाने का...। और यह उम्मीदवार किसी एक दल के नहीं थे। शायद ही कोई राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाने के लालच से बचा था। यह विडम्बना ही है कि हर राजनीतिक दल के लिए उम्मीदवार की जीत की संभावना ज्यादा महत्वपूर्ण थी, उम्मीदवार का साफ-सुथरा होना नहीं। राजनीतिक दलों की यह विवशता हमारी व्यवस्था पर प्रशनचिह्न लगाती है और उत्तर प्रदेश में इन 872 दागी उम्मीदवारों में से 130 उम्मीदवारों का जीतना हमारी अर्थात् मतदाता की समझ को कठघरे में खड़ा करता है। दुर्भाग्य यह भी है कि यह सच्चाई सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। शायद ही कोई राज्य ऐसा बचा होगा जहाँ आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायक नहीं हैं। यही नहीं, संसद में भी ऐसे व्यक्ति हमारा प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और हर दल में हैं ऐसे लोग। यह सवाल बार-बार उठता रहा है और आज फिर उठ रहा है कि राजनीतिक दल ऐसे तत्वों का समर्थन लेने के लिए मजबूर क्यों हैं? जहाँ तक आपराधिक तत्वों का सवाल है, निश्चित रूप से राजनीति से जुड़ना उन्हें एक तरह की स्वीकार्यता देता है और एक सम्मान भी। यही नहीं, राजनीतिक हैसियत आपराधिक तत्वों को अपने स्वार्थों की सिद्धि को नये अवसर भी देती है। आपरेशन दुर्योधन के माध्यम से हमने देखा कि किस तरह हमारे सांसद अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को लिए व्यापक राष्ट्रीय हितों का सौदा कर सकते हैं। वैसे तो यह सौदा वे सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं जो अपनी कथित जीत के लिए समूची व्यवस्था को पराजय की स्थिति में डाल देते हैं। यह सही है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाला उम्मीदवार जब जीतता है तो दल-विशेष की एक सीट बढ़ जाती है, लेकिन यह कथित जीत ही है, वास्तविक जीत नहीं - इस जीत में जनतंत्र की पराजय छिपी है। यह भी एक विडम्बना है कि जनतंत्र की पराजय हमारे राजनीतिक दलों को कहीं भी जरा-सी भी पीड़ा नहीं देती। हर राजनीतिक दल अपराध और राजनीति के रिश्तों की आलोचना करता है। अपराधियों के महिमा मंडन को सब गलत बताते हैं, लेकिन कोई भी दल यह निर्णय लेने को तैयार नहीं कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार नहीं बनायेगा। हां, दूसरे की चादर ज्यादा मैली है, यह बताने की कोशिश हर दल करता है। यही नहीं, जब भी किसी राजनीतिक दल पर आपराधिक तत्वों को बढ़ावा देने का आरोप लगता है तो अपनी सफाई में वह आरोप को गलत नहीं बताता, यह कहता है कि हमें ही कटघरे में क्यों खड़ा किया जा रहा है? सच तो यह है कि हर राजनीतिक दल ने यह मान लिया है कि आपराधिक तत्वों की शह के बिना राजनीति नहीं हो सकती। कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे हमारे राजनीतिक दल यह कथन प्रमाणित करने पर तुले हैं कि राजनीति शैतानों की अंतिम शरणस्थली है। जिस जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने स्वीकार किया है, उसकी सफलता का तकाजा है कि अच्छे लोग राजनीति में आयें। यह कहना तो गलत होगा कि हमारी राजनीति में अच्छे लोग हैं ही नहीं, लेकिन यह सही है कि आज हमारी राजनीति में आपराधिक तत्व लगातार हावी हो रहे हैं। उनकी महत्ता बढ़ रही है, उनका वर्चस्व बढ़ रहा है। ऐसे तत्वों को अपना उम्मीदवार बनाना ही राजनीतिक दलों की मजबूरी नहीं है, लगता है, जीतने पर मंत्री पद देना भी एक पूर्व शर्त होती है इस गठबंधन की। तीन मंत्रियों को मायावती ने पदमुक्त किया है, लेकिन क्या वे नहीं जानती थीं कि यह लोग आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं? आज देश के हर राज्य में ऐसे मंत्री मिल जाएंगे जिन पर दर्जनों मुकदमे चल रहे हैं और ऐसों की भी कमी नहीं, जिन पर मुकदमे भले ही न चल रहे हों, पर उनकी कारगुजारियों से सब परिचित होते हैं। एक सवाल यह भी है कि सीट जीतना राजनीतिक दल की विवशता हो सकती है लेकिन ऐसे तत्वों को वोट देने के लिए मतदाता क्यों विवश है? इसका एक उत्तर धन-बल और बाहुबल हो सकता है, लेकिन यह उत्तर तो हमारी राजनीति के साथ-साथ मतदाता को भी नंगा कर रहा है। अपराध और राजनीति का रिश्ता एक कड़वा सच है। हो सकता है यह अपवित्र रिश्ता पूरी तरह कभी न मिटाया जा सके, लेकिन इसे मिटाने की अनवरत कोशिश हमारे जनतंत्र की रक्षा की एक शर्त है। यह कोशिश नेतृत्व और नागरिक दोनों के स्तर पर होनी जरूरी है। दागी मंत्रियों का इस्तीफा महत्वपूर्ण है। लेकिन इससे कहीं महत्वपूर्ण है वह जागरूकता जो ऐसे लोगों को मंत्री बनने की नौबत ही न आने दे।
वर्तिका नंदा का लेख
जर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को गौर से पढ़ा और पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस और तमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के कॉफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। यह माना गया कि जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के जरिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज पर निर्भर करती है। जाहिर है कि अक्सर कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है। अपराध के नाम से तेजी से कटती फसल भी इसी अंदेशे की तरफ इशारा करते दिखती है। करीब 225 साल पुराने प्रिंट मीडिया और 60 साल से टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे इलेक्ट्रानिक मीडिया की खबरों का पैमाना अपराध की बदौलत अक्सर छलकता दिखाई देता है। खास तौर पर टेलीविजन के 24 घंटे चलने वाले व्यापार में अपराध की दुनिया खुशी की सबसे बड़ी वजह रही है क्योंकि अपराध की नदी कभी नहीं सूखती। पत्रकार मानते हैं कि अपराध की एक बेहद मामूली खबर में भी अगर रोमांच, रहस्य, मस्ती और जिज्ञासा का पुट मिला दिया जाए तो वह चैनल के लिए आशीर्वाद बरसा सकती है। लेकिन जनता भी ऐसा ही मानती है, इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं। बुद्धू बक्सा कहलाने वाला टीवी अपने जन्म के कुछ ही साल बाद इतनी तेजी से करवटें बदलने लगेगा, इसकी कल्पना आज से कुछ साल पहले शायद किसी ने भी नहीं की होगी लेकिन हुआ यही है और यह बदलाव अपने आप में एक बड़ी खबर भी है। मीडिया क्रांति के इस युग में हत्या, बलात्कार, छेड़-छाड़, हिंसा- सभी में कोई न कोई खबर है। यही खबर 24 घंटे के चैलन की खुराक है। अखबारों के पेज तीन की जान हैं। इसी से मीडिया का अस्तित्व पल्लवित-पुष्पित हो सकता है। नई सदी के इस नए दौर में यही है- अपराध पत्रकारिता और इसे कवर करने वाला अपराध पत्रकार भी कोई मामूली नहीं है। हमेशा हड़बड़ी में दिखने वाला, हांफता-सा, कुछ खोजता सा प्राणी ही अपराध पत्रकार है जो तुरंत बहुत कुछ कर लेना चाहता है। पिछले कुछ समय में मीडिया का व्यक्तित्व काफी तेजी के साथ बदला है। सूचना क्रांति का यह दौर दर्शक को जितनी हैरानी में डालता है, उतना ही खुद मीडिया में भी लगातार सीखने की ललक और अनिवार्यता को बढ़ाता है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि इस क्रांति ने देश भर की युवा पीढ़ी में मीडिया से जुड़ने की अदम्य चाहत तो पैदा की है लेकिन इस चाहत को पोषित करने के लिए लिखित सामग्री और बेहद मंझा हुआ प्रशिक्षण लगभग नदारद है। ऐसे में सीमित मीडिया लेखन और भारतीय भाषाओं में मीडिया संबंधी काफी कम काम होने की वजह से मीडिया की जानकारी के स्रोत तलाशने महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मीडिया के फैलाव के साथ अपराध रिपोर्टिंग मीडिया की एक प्रमुख जरुरत के रुप में सामने आई है। बदलाव की इस बयार के चलते इसके विविध पहलुओं की जानकारी भी अनिवार्य लगने लगी है। असल में 24 घंटे के न्यूज चैनलों के आगमन के साथ ही तमाम परिभाषाएं और मायने तेजी से बदल दिए गए हैं। यह बात बहुत साफ है कि अपराध जैसे विषय गहरी दिलचस्पी जगाते हैं और टीआरपी बढ़ाने की एक बड़ी वजह भी बनते हैं। इसलिए अब इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भी माना जाता है कि अपराध रिपोर्टिंग से न्यूज की मूलभूत समझ को विकसित करने में काफी मदद मिलती है। इससे अनुसंधान, संयम, दिमागी संतुलन और निर्णय क्षमता को मजबूती भी मिलती है। जाहिर है जिंदगी को बेहतर ढंग से समझने में अपराधों के रुझान का बड़ा योगदान हो सकता है। साथ ही अपराध की दर पूरे देश की सेहत और तात्कालिक व्यवस्था का भी सटीक अंदाजा दिलाती है।अपराध रिपोर्टिंग की विकास यात्राअपराध के प्रति आम इंसान का रुझान मानव इतिहास जितना ही पुराना माना जा सकता है। अगर भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों को गौर से देखें तो वहां भी अपराध बहुतायत में दिखाई देते हैं। इसी तरह कला, साहित्य, संस्कृति में अपराध तब भी झलकता था जब प्रिंटिग प्रेस का अविष्कार भी नहीं हुआ था लेकिन समय के साथ-साथ अपराध को लेकर अवधारणाएं बदलीं और मीडिया की चहलकदमी के बीच अपराध एक 'बीट' के रुप में दिखाई देने लगा। अभी दो दशक पहले तक दुनिया भर में जो महत्व राजनीति और वाणिज्य को मिलता था, वह अपराध को मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर धीरे-धीरे लंदन के समाचार पत्रों ने अपराध की संभावनाओं और इस पर बाजार से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को महसूस किया और छोटे-मोटे स्तर पर अपराध की कवरेज की जाने लगी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के आस-पास टेबलॉयड के बढ़ते प्रभाव के बीच भी अपराध रिपोर्टिंग काफी फली-फूली। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि दुनिया भर में आतंकवाद किसी न किसी रूप में हावी था और बड़ा आतंकवाद अक्सर छोटे अपराध से ही पनपता है, यह भी प्रमाणित है। इसलिए अपराधों को आतंकवाद के नन्हें रुप में देखा-समझा जाने लगा। अपराध और खोजी पत्रकारिता ने जनमानस को सोचने की खुराक भी सौंपी। वुडवर्ड और बर्नस्टन के अथक प्रयासों की वजह से ही वाटरगेट मामले का खुलासा हुआ था जिसकी वजह से अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपना पद तक छोड़ना पड़ा था। इसी तरह नैना साहनी मामले के बाद सुशील शर्मा का राजनीतिक भविष्य अधर में ही लटक गया। उत्तर प्रदेश के शहर नोएडा में सामने आए निठारी कांड की गूंज संसद में सुनाई दी। जापान के प्रधानमंत्री तनाका को भी पत्रकारों की जागरुकता ही नीचा दिखा सकी। इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस ने बरसों पहले कमला की कहानी के जरिए यह साबित किया था कि भारत में महिलाओं की ख़रीद-फरोख़्त किस तेज़ी के साथ की जा रही थी। यहां तक कि भोपाल की यूनियन कार्बाइड के विस्फोट की आशंका आभास भी एक पत्रकार ने दे दिया था। इस तरह की रिपोर्टिंग से अपराध और खोजबीन के प्रति समाज की सोच बदलने लगी। कभी जनता ने इसे सराहा तो कभी नकारा। डायना की मौत के समय भी पत्रकार डायना के फोटो खींचने में ही व्यस्त दिखे और यहां भारत में भी गोधरा की तमाम त्रासदियों के बीच मीडिया के लिए ज्यादा अहम यह था कि पहले तस्वीरें किसे मिलती हैं। इसी तरह संसद पर हमले से लेकर आरुषि मामले तक घटनाएं एक विस्तृत दायरे में बहुत दिलचस्पी से देखी गई। धीरे-धीरे अपराध रिपोर्टिंग और खोजबीन का शौक ऐसा बढ़ा कि 90 के दशक में, जबकि अपराध की दर गिर रही थी, तब भी अपराध रिपोर्टिंग परवान पर दिखाई दी। हाई-प्रोफाइल अपराधों ने दर्शकों और पाठकों में अपराध की जानकारी और खोजी पत्रकारता के प्रति ललक को बनाए रखा। अमरीका में वाटर गेट प्रकरण से लेकर भारत में नैना साहनी की हत्या तक अनगिनित मामलों ने अपराध और खोजबीन के दायरे को एकाएक काफी विस्तार दिया।टेलीविजन के युग में अपराध पत्रकारिताअखबारों के पेज नंबर तीन में सिमटा दिखने वाला अपराध 24 घंटे की टीवी की दुनिया में सर्वोपरि मसाले के रुप में दिखाई लगा। फिलहाल स्थिति यह है कि तकरीबन हर न्यूज चैनल में अपराध पर विशेष कार्यक्रम किए जाने लगे हैं। अब अपराध को मुख्य पृष्ठ की खबर या टीवी पर पहली हेडलाइन बनाने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता। मीडिया मालिक यह समझने लगे हैं कि अब दर्शक की रूचि राजनीति से कहीं ज्यादा अपराध में है। इसलिए इसके कलेवर को लगातार ताजा, दमदार और रोचक बनाए रखना बहुत जरुरी है। लेकिन अगर भारत में टेलीविजन के शुरुआती दौर को टटोलें तो वहां भी प्रयोगों की कोशिश होती दिखती है। 1959 में भारत में टेलीविजन का जन्म सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक था। तब टीवी का मतलब विकास पत्रकारिता ज्यादा और खबर कम था। वैसे भी सरकरी हाथों में कमान होने की वजह से टीवी की प्राथमिकताओं का कुछ अलग होना स्वाभाविक भी था। भारत में दूरदर्शन के शुरुआती दिनों में इसरो की मदद से साइट नामक परियोजना की शुरुआत की गई थी ताकि भारत में खाद्य के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके। यह भारत के विकास की दिशा में एक ठोस कदम था। इसने सामुदायिक टीवी के जरिए आम इंसान को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सका। 1983 में पी सी जोशी ने भारतीय ब्राडकास्टिंग रिपोर्ट में कहा था कि हम दूरदर्शन को गरीब तबके तक पहुंचाना चाहते हैं। दूरदर्शन ने इस कर्तव्य को निभाने के प्रयास भी किए लेकिन सेटेलाइट टेलीविजन के आगमन के बाद परिस्थितियां काफी तेजी से बदल गईं। 90 का दशक आते-आते भारत में निजी चैनलों ने करवट लेनी शुरु की और इस तरह भारत विकास की एक नई यात्रा की तरफ बढ़ने लगा। जी न्यूज ने जब पहली बार समाचारों का प्रसारण किया तो इन समाचारों का कलेवर उन समाचारों से अलग हटकर था जिन्हें देखने के भारतीय दर्शक आदी थे। नए अंदाज के साथ आए समाचारों ने दर्शकों को तुरंत अपनी तरफ खींच लिया और दर्शक की इसी नब्ज को पकड़ कर टीवी की तारों के साथ नए प्रयोगों का दौर भी पनपने लगा। वैसे भी न्यूज ट्रैक की वजह से भारतीयों को सनसनीखेज खबरों का कुछ अंदाजा तो हो ही गया था। 80 के दशक में जब खबरों की भूख बढ़ने लगी थी और खबरों की कमी थी, तब इंडिया टुडे समूह के निर्देशन में न्यूज ट्रैक का प्रयोग अभूतपूर्व रहा था। न्यूज ट्रैक रोमांच और कौतहूल से भरी कहानियां को वीएचएस में रिकार्ड करके बाजार में भेज देता था और यह टेपें हाथों-हाथ बिक जाया करती थीं। भारतीयों ने अपने घरों में बैठकर टीवी पर इस तरह की खबरी कहानियां पहली बार देखी थीं और इसका स्वाद उन्हें पसंद भी आया था। दरअसल तब तक भारतीय दूरदर्शन देख रहे थे। इसलिए टीवी का बाजार यहां पर पहले से ही मौजूद था लेकिन यह बाजार बेहतर मापदंडों की कोई जानकारी नहीं रखता था क्योंकि उसका परिचय किसी भी तरह की प्रतिस्पर्द्धा से हुआ ही नहीं था। नए चैनलों के लिए यह एक सनहरा अवसर था क्योंकि यहां दर्शक बहुतायत में थे और विविधता नदारद थी। इसलिए जरा सी मेहनत, थोड़ा सा रिसर्च और कुछ अलग दिखाने का जोखिम लेने की हिम्मत भारतीय टीवी में एक नया इतिहास रचने की बेमिसाल क्षमता रखती थी। जाहिर है इस कोशिश की पृष्ठभूमि में मुनाफे की सोच तो हावी थी ही और जब मुनाफा और प्रतिस्पर्द्धा- दोनों ही बढ़ने लगा तो नएपन की तलाश भी होने लगी। दर्शक को हर समय नया मसाला देने और उसके रिमोट को अपने चैनल पर ही रोके रखने के लिए समाचार और प्रोग्रामिंग के विभिन्न तत्वों पर ध्यान दिया गया जिनमें पहले पहल राजनीति और फिर बाद में अपराध भी प्रमुख हो गया। वर्ष 2000 के आते-आते चैनल मालिक यह जान गए कि अकेले राजनीति के बूते चैनलनुमा दुकान को ज्यादा दिनों तक टिका कर नहीं रखा जा सकता। अब दर्शक को खबर में भी मनोरंजन और कौतुहल की तलाश है और इस चाह को पूरा करने के लिए वह हर रोज सिनेमा जाने से बेहतर यही समझता है कि टीवी ही उसे यह खुराक परोसे। चैनल मालिक भी जान गए कि अपराध को सबसे ऊंचे दाम पर बेचा जा सकता है और इसके चलते मुनाफे को तुरंत कैश भी किया जा सकता है। अपराध में रहस्य, रोमांच, राजनीति, जिज्ञासा, सेक्स और मनोरंजन- सब कुछ है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिए न तो 3 घंटे खर्च करने की जरूरत पड़ती है और न ही सिनेमा घर जाने की। वास्तविक जीवन की फिल्मी कहानी को सिर्फ एक या डेढ़ मिनट में सुना जा सकता है और फिर ज्यादातर चैनलों पर उनका रिपीट टेलीकॉस्ट भी देखा जा सकता है। भारत में अपराध रिपोर्टिंग के फैलाव का यही सार है।भारत में निजी चैनल और बदलाव की लहरभारत में 90 के दशक तक टीवी बचपन में था। वह अपनी समझ को विकसित, परिष्कृत और परिभाषित करने की कोशिश में जुटा था। खबर के नाम पर वह वही परोस रहा था जो सरकारी ताने-बाने की निर्धारित परिपाटी के अनुरुप था। इसके आगे की सोच उसके पास नहीं थी लेकिन संसाधन बहुतायत में थे। इसलिए टीवी तब रुखी-सूखी जानकारी का स्त्रोत तो था लेकिन एक स्तर के बाद तमाम जानाकरियां ठिठकी हुई ही दिखाई देती थीं। यह धीमी रफ्तार 90 के शुरुआती दशक तक जारी रही। इमरजेंसी की तलवार के हटने के बाद भी मीडिया की रफ्तार एक लंबे समय तक रुकी-सी ही दिखाई दी। 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली में रैली का एलान किया तो दूरदर्शन को सरकार की तरफ से कथित तौर पर यह निर्देश मिला कि रैली का कवरेज कुछ ऐसा हो कि वह असफल दिखाई दे। इस मकसद को हासिल करने के लिए दूरदर्शन ने पूरजोर ताकत लगाई। दूरदर्शन के कैमरे रैली-स्थल पर उन्हीं जगहों पर शूट करते रहे जहां कम लोग दिखाई दे रहे थे। रात के प्रसारण में दूरदर्शन ने अपनी खबरों में रैली को असफल साबित कर दिया लेकिन उसकी पोल दूसरे दिन अखबारों ने खोल दी। रैली में लाखों लोग मौजूद थे और तकरीबन सभी अखबारों ने अपार जनसमूह के बीच जेपी को संबोधित करते हुए दिखाया था। तब अपराध नाम का एजेंडा शायद दूरदर्शन की सोच में कहीं था भी नहीं। तब कवरेज बहुत सोच-परख कर की जाती थी। इसके अपने नफा-नुकसान थे लेकिन पंजाब में जब आतंकवाद अपने चरम पर था, तब दूरदर्शन का बिना मसाले के खबर को दिखाना काफी हद तक फायदेमंद ही रहा। जिन्हें इसमें कोई शक न हो, वो उन परिस्थितियों को निजी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज करने की हड़बड़ाहट की कल्पना कर समझ सकते हैं। इसी तरह इंदिरा गांधी और फिर बाद में राजीव गांधी की हत्या जैसे तमाम संगीन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी घटनाओं को बेहद सावधानी से पेश किया गया। खबरों को इतना छाना गया कि खबरों के जानकार यह कहते सुने गए कि खबरें सिर्फ कुछ शॉट्स तक ही समेट कर रख दी गई और शाट्स भी ऐसे जिनकी परछाई तक विद्रूप न हो और जो सामाजिक या धार्मिक द्वेष या नकारात्मक विचारों की वजह न बनते हों। विवादास्पद और आतंक से जुड़ी खबरों को बहुत छान कर अक्सर या तो बिना शाट्स के ही बता दिया जाता या फिर ज्यादा से ज्यादा 10 से 15 सेंकेंड की तस्वीर दिखा कर ख़बर बता दी जाती। कोशिश रहती थी कि खबर सिर्फ एक खबर हो, आत्म-अभिव्यवक्ति का साधन नहीं। टीवी के पर्दे पर छोटे अपराध तो दिखते ही नहीं थे। ऐसी खबरें तो जैसे 'पंजाब केसरी' सरीखे अखबारों के जिम्मे थीं जो एक लंबे समय तक भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार बना रहा। इसी तरह एक समय में मनोहर कहानियां भी अपने इसी विशिष्ट कलेवर की वजह से एक अर्से तक भारतीय पत्रिकाओं की सरताज बनी रही थी। लेकिन सरकारी तंत्र के लिए इस तरह के प्रयोग करना अपने आप में एक बड़ी खबर थी। अति उत्साह में दूरदर्शन अपराध की तरफ झुका तो सही लेकिन एक सच यह भी है कि तब तमाम मसलों की कवरेज में कहीं कोई कसाव नहीं था। बेहतरीन तकनीक, भरपूर सरकारी प्रोत्साहन और धन से लबालब भरे संसाधनों के बावजूद सरकारी चैनल पर तो अक्सर गुणवत्ता दिखाई ही नहीं देती थी। इसी कमी को निजी हाथों ने लपका और टीवी के रंग-ढंग को ही बदल कर रख दिया। यहीं से टेलीविजन के विकास की असली कहानी की शुरुआत होती है। प्रतियोगिता ने टेलीविजन को पनपने का माहौल दिया है और इसे परिपक्वता देने में कुम्हार की भूमिका भी निभाई है। इसी स्वाद को जी टीवी ने समझा और भारतीय जमीन से खबरों का प्रसारण शुरु किया। पहले पहल जी टीवी ने हर रोज आधे घंटे के समाचारों का प्रसारण शुरु किया जिसमें राष्ट्रीय खबरों के साथ ही अतर्राष्ट्रीय खबरों को भी पूरा महत्व दिया गया। समाचारों को तेजी, कलात्मकता और तकनीकी स्तर पर आधुनिक ढंग से सजाने-संवारने की कोशिश की गई। आकर्षक सेट बनाए गए, भाषा को चुस्त किया गया, हिंग्लिश का प्रयोग करने की पहल हुई और नएपन की बयार के लिए तमाम खिड़कियों को खुला रखने की कोशिश की गई। इन्हीं दिनों दिल्ली में एक घटना हुई।टीवी पर अपराध रिपोर्टिंगयह घटना 1995 की है। एक रात नई दिल्ली के तंदूर रेस्तरां के पास से गुजरते हुए दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने आग की लपटों को बाहर तक आते हुए देखा। अंदर झांकने और बाद में पूछताछ करने के बाद यह खुलासा हुआ कि दिल्ली युवक कांग्रेस का एक युवा कार्यकर्ता अपने एक मित्र के साथ मिलकर अपनी पत्नी नैना साहनी की हत्या करने बाद उसके शरीर के टुकड़े तंदूर में डाल कर जला रहा था। यह अपनी तरह का अनूठा और वीभत्स अपराध था। जी ने जब इस घटना का वर्णन किया और तंदूर के शॉटस दिखाए तो दर्शक चौंक गया और वह आगे की कार्रवाई को जानने के लिए बेताब दिखने लगा। यह बेताबी राजनीतिक या आर्थिक समाचारों को जानने से कहीं ज्यादा थी और दर्शक आगे की खबर को नियमित तौर पर जानना भी चाहता था। इस तरह की कुछेक घटनाओं ने टीवी पर अपराध की कवरेज को प्रोत्साहित किया। बेशक इस घटना ने टीवी न्यूज में अपराध के प्रति लोगों की दिलचस्पी को एकदम करीब से समझने में मदद दी लेकिन दर्शक की नब्ज को पकड़ने में निजी चैनलों को भी काफी समय लगा। 90 के दशक में अक्सर वही अपराध कवर होता दिखता था जो प्रमुख हस्तियों से जुड़ा हुआ होता था। सामाजिक सरोकार और मानवीय संवेदनाओं से जुड़े आम जिंदगी के अपराध तब टीवी के पर्दे पर जगह हासिल नहीं कर पाते थे। विख्यात पत्रकार पी साईंनाथ के मुताबिक साल 1991 से लेकर 1996 तक मीडिया ने मोटापा घटाने से संबंधित इतनी खबरें दीं और विज्ञापन दिखाए कि उसमें यह तथ्य पूरी तरह से छिप गया कि तब 1000 मिलियन भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था। एक ऐसे वक्त में मीडिया मोटापा घटाने के लिए खुली तथाकथित दुकानों पर ऐसा केंद्रित हुआ कि वह उन लोगों को भूल गया जो अपना बचा-खुचा वजन बचाने की कोशिश कर रहे थे। इस माहौल में वही अपराध टीवी के पर्दे पर दिखाए जाने लगे जो कि ऊंची सोसायटी के होते थे या सनसनी की वजह बन सकते थे। चुनाव के समय भी अपराध को छानने की प्रक्रिया तेज हो जाती थी ताकि इसके राजनीति से जुड़े तमाम पहलुओं को आंका जा सके। जाहिर है कि ऐसे में अपराध की कवरेज ज्यादा मुश्किल और जोखम भरी थी और इसलिए अपराध रिपोर्ट करने में इच्छुक पत्रकार को खोजना अपराध की जानकारी रखने से ज्यादा मुश्किल माना जाता था। इसी कड़ी में 1995 में जी टीवी ने इंडियाज़ मोस्ट वांटेड नामक कार्यक्रम से एक नई शुरुआत की। इसके निर्माता सुहेल इलियासी ने इस कार्यक्रम की रुपरेखा लंदन में टीवी चैनलों पर नियमित रुप से प्रसारित होने वाले अपराध जगत से जुड़ी खबरों पर आधारित कार्यक्रमों को देख कर बनाई। यह कार्यक्रम अपने धमाकेदार अंदाज के कारण एकाएक सुर्खियों में आ गया। कार्यक्रम के हर नए एपिसोड में दर्शकों को पता चलता था कि जिस अपराधी का हुलिया और ब्यौरा सुहेल ने दिखाया था, वह अब सलाखों के पीछे है, तो वह टीवी की वाहवाही करने से नहीं चूकता था। यह बात यह है कि सुहेल की कार्यशैली हमेशा विवादों में रही।नए परिदृश्य में बदलाव का दौर21वीं सदी के आगमन के साथ ही परिदृश्य भी बदलने लगा। एनडीटीवी, आज तक, स्टार न्यूज, सहारा जैसे 24 घंटे के कई न्यूज चैनल बाजार में उतर आए और इनमें से किसी के लिए भी न्यूज बुलेटिनों को चौबीसों घंटे भरा-पूरा और तरोताजा रखना आसान नहीं था। इसके अलावा अब दर्शक के सामने विकल्पों की कोई कमी नहीं थी। दर्शक किसी एक चैनल की कवरेज दो पल के लिए पसंद न आने पर वह दूसरे चैनल का रुख कर लेने के लिए स्वतंत्र था। दर्शक की इस आजादी, बेपरवाही और घोर प्रतियोगिता ने चैनलों के सामने कड़ी चुनौती खड़ी कर दी। ऐसे में दर्शक का मन टटोलने की असली मुहिम अब शुरु हुई। बहुत जल्द ही वह समझने लगा कि दर्शक को अगर फिल्मी मसाले जैसी खबरें परोसी जाएं तो उसे खुद से बांधे रखना ज्यादा आसान हो सकता है। इसी समझ के आधार पर हर चैनल नियमित तौर पर अपराध कवर करने लगा। फिर यह नियमितता डेढ़ मिनट की स्टोरी से आगे बढ़ कर आधे घंटे के कार्यक्रमों में तब्दील होती गई और हर चैनल ने अपराध रिपोर्टरों की एक भरी-पूरी फौज तैयार करनी शुरु कर दी जो हर गली-मोहल्ले की खबर पर नजर रखने के काम में जुट गई। चैनल यह समझ गए कि ऐसे कार्यक्रमों के लिए टीआरपी, विज्ञापन और दर्शक सभी आसानी से मिल जाते हैं। अब खबरों की तलाश और उन्हें दिखाने का तरीका भी बेहद तेजी से करवट बदलने लगा। वर्ष 2000 में मंकी मैन एक बड़ी खबर बना। एक छोटी सी खबर पर मीडिया ने हास्यास्पद तरीके से हंगामा खड़ा किया। खबर सिर्फ इतनी थी कि दिल्ली के पास स्थित गाजियाबाद के कुछ लोगों का यह कहना था कि एक अदृश्य शक्ति ने एक रात उन पर हमला किया था। एक स्थनीय अखबार में यह खबर छपी जिसे बाद में दिल्ली की एक-दो अखबारों ने भी छापा। हफ्ते भर में ही दिल्ली के विभिन्न इलाकों से ऐसी ही मिलती-जुलती खबरें मिलने लगीं। ज्यादातर घटनाओं की खबर ऐसी जगहों से आ रही थीं जो पिछड़े हुए इलाके थे। टीवी रिपोर्टरों ने खूब चाव से इस खबर को कवर किया। आज तक और एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से मोहल्ले के मोहल्ले रात भर जाग कर चौकीदारी कर रहे हैं ताकि वहां पर 'मंकी मैन' न आए। फिर मीडिया को कुछ ऐसे लोग भी मिलने लगे जिनका दावा था कि उन्होंने मंकी मैन को देखा है। ऐसे में टीवी पर एक से बढ़कर एक रोचक किस्से सुनाई देने लगे। हर शाम टीवी चैनल किसी बस्ती से लोगों की कहानी सुनाते जिसमें कोई दावा करता कि मंकी मैन चांद से आया है तो कोई तो दावा करता कि मंगल ग्रह से। कुछ लोग अपनी चोटों और खरोंचों के निशान भी टीवी पर दिखाते। टीवी चैनलों ने इस अवसर का पूरा फायदा उठाया। एक चैनल ने तो एनिमेशन के जरिए इस कथित मंकी मैन का चित्र ही बना डाला और टीवी पर बताया कि अपने स्प्रिंगनुमा पंजों से मंकी मैन एक साथ कई इमारतें फांद लेता है। फिर एक कहानी यह भी आई कि शायद इस मंकी मैन के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। मंकी मैन एक, कहानियां अनेक और वह भी मानव रुचि के तमाम रसों से भरपूर! यह कहानी महीने भर तक चली और एकाएक खत्म भी हो गई। मीडिया दूसरी कहानियों में व्यस्त हो गया और मंकी मैन कहीं भीड़ में खो-सा गया। बाद में दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट ने भी किसी अदृश्य प्राणी और खतरनाक शक्ति की मौजूदगी जैसी कहानियों की संभावनाओं को पूरी तरह से नकार दिया। तो फिर यह मंकी मैन था कौन। बाद में जो एक जानकारी सामने आई, वह और भी रोचक थी। जानकारी के मुताबिक मंकी मैन का सारा हंगामा निचली बस्तियों में हो रहा था जहां बिजली की भारी कमी रहती है। गर्मियों के दिन थे और एकाध जगह वास्तविक बंदर के हमले पर जब मीडिया को मजेदार कहानियां मिलने लगीं तो वह भी इसे बढ़ावा देकर इसमें रस लेने लगा। लोग भी देर रात पुलिस और मीडिया की गुहार लगाने लगे। नतीजतन रात भर बिजली रहने लगी और गर्मियां सुकूनमय हो गईं। माना जाता है कि इस सुकून की तलाश में ही मंकी मैन खूब फला-फूला और स्टोरी की तलाश में हड़बड़ाकर मीडिया का दर्शक ने भी अपनी बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया।अपराध और आतंकलेकिन यह कहानी का एक छोटा-सा पक्ष है। बड़े परिप्रेक्ष्य में दिखाई देता है- करगिल। अपराधों की तलाश में भागते मीडिया के लिए 1999 में करगिल 'बड़े तोहफे' के रुप में सामने आया जिसे पकाना और भुनाना फायदेमंद था। मीडिया को एक्सक्लूजिव और ब्रेकिंग न्यूज की आदत भी तकरीबन इन्हीं दिनों पड़ी। एक युद्ध भारत-पाक सीमाओं पर करगिल में चल रहा था और दूसरा मीडिया के अंदर ही शुरु हो गया। कौन खबर को सबसे पहले, सबसे तेज, सबसे अलग देता है, इसकी होड़ सी लग गई। हर चैनल की हार-जीत का फैसला हर पल होने लगा। जनता हर बुलेटिन के आधार पर बेहतरीन चैनल का सर्टिफिकेट देने लगी। कुछ चैनलों ने अपनी कवरेज से यह साबित कर दिया कि प्यार और युद्ध में सब जायज है। इस बार भी मुहावरा तो वही रहा लेकिन मायने बदल गए। इस बार यह माना गया कि युद्ध के मैदान में एक्सक्लूजिव की दौड़ में बने रहने के लिए सब कुछ जायज है। यही वजह है कि माना जाता है कि एक भारतीय टीवी चैनल ने इस कदर गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग की कि रिपोर्टर की वजह से चार भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह माना जाती है कि टीवी पत्रकार की रिपोर्टिंग से ही पाकिस्तानी सेना को इस बात का अंदाजा लगा कि एक खास बटालियन की तैनाती उस समय किस दिशा में थी! इसके बाद दो और बड़ी घटनाएं हुईं। 22 दिसंबर 2000 की रात को लश्कर ए तायबा के दो फियादीन आतंकवादी लाल किले के अंदर जा पहुंचे और उन्होंने राजपूताना राइफल्स की 7वीं बटालियन के सुरक्षा गार्डों पर हमला कर तीन को मार डाला। 17वीं सदी के इस ऐतिहासिक और सम्माननीय इमारत पर हमला होने से दुनियाभर की नजरें एकाएक भारतीय मीडिया पर टिक गईं। तमाम राजनीतिक रिपोर्टरों ने शायद तब पहली बार समझा कि भारतीय मीडिया पर अपनी पकड़ बनाने के लिए अकेले संसद भवन तक की पहुंच ही काफी नहीं है बल्कि अपराध की बारीकियों की समझ भी महत्वपूर्ण है। 13 दिसंबर 2001 को कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी ने संसद पर हमला कर दिया। यह दुनिया भर के इतिहास में एक अनूठी घटना थी। घटना भरी दोपहर में घटी। तब संसद सत्र चल रहा था कि अचानक गोलियों के चलने की आवाज आई। संसद सदस्यों और कर्मचारियों से लबालब भरे संसद भवन में उस समय हड़बड़ी मच गई। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि उस समय संसद भवन के अंदर और बाहर- दोनों ही जगह पत्रकार मौजूद थे। इनमें तकरीबन सभी प्रमुख चैनलों के टीवी कैमरामैन शामिल थे। पाकिस्तान के 5 आतंकवादियों ने करीब घंटे भर तक संसद में गोलीबारी की। इसमें 9 सुरक्षाकर्मियों सहित 16 अन्य लोग घायल हो गए। अभी संसद में हंगामा चल ही रहा था कि मीडिया ने भी अपनी विजय पताका फहरा दी क्योंकि मीडिया इस सारे हंगामे को कैमरे में बांध लेने में सफल रहा। कुछ कैमरामैनों ने अपनी जान पर खेल कर आतंकवादियों का चेहरा, उनकी भाग-दौड़, सुरक्षाकर्मियों की जाबांजी और संसद भवन के गलियारे में समाया डर शूट किया। एक ऐसा शूट जो शायद मीडिया के इतिहास में हमेशा सुरक्षित रहेगा। संसद में हमले के दौरान ही संसद भवन के बाहर खड़े रिपोर्टरों ने लाइव फोनो और ओबी करने शुरु कर दिए। पूरा देश आतंक का मुफ्त, रोमांचक और लाइव टेलीकास्ट देखने के लिए आमंत्रित था। थोड़ी ही देर बाद नेताओं का हुजूम भी ओबी वैनों की तरफ आ कर हर चैनल को तकरीबन एक सा अनुभव सुनाने लगा। हाथ भर की दूरी पर एक-दूसरे के करीब खड़े टीवी चैनल उस वक्त खुद आतंकित दिखने लगे क्योंकि यह समय खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का था। टीवी पर गोलियों की आवाज बार-बार सुनाई गई। फिर रात में रिपोर्टर ही नहीं बल्कि कुछ चैनल ने तो कैमरामैनों के इंटरव्यू भी दिखाए। यह पत्रकारिता के एक अनोखे युग का सूत्रपात था। हड़बड़ाए हुए मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज की पताका को हर पल फहराया। इस 'सुअवसर' की वजह से इलेक्ट्रानिक मीडिया एक सुपर पावर के रुप में प्रतिष्ठित होने का दावा करता दिखाई देने लगा और फिर ब्रेकिंग न्यूज की परंपरा को और प्रोत्साहन मिलता भी दिखाई दिया लेकिन यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया ने अपनी हड़बड़ी में कई गलत ब्रेकिंग न्यूज़ को भी अंजाम दिया और कई बार आपत्तिजनक खबरों के प्रसारण की वजह से सवालों से भी घिरा दिखाई दिया। जाहिर है कि मीडिया की हड़बड़ी के अंजाम भी मिले-जुले रहे हैं और इलेक्ट्रानिक मीडिया की जल्दबाजी और शायद आसानी से मिलती दिखती शोहरत की वजह से भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बीच बढ़ती दूरियां भी साफ दिखने लगी हैं। मीडिया ने कई बार न्यूज देने के साथ ही रिएल्टी टीवी बनाने की भी कोशिश की जिससे न्यूज की वास्तविक अपेक्षाओं से खिलवाड़ होता दिखाई देने लगा। इसका प्रदर्शन गुड़िया प्रकरण में भी हुआ। वर्ष 2004 में एक अजीबोगरीब घटना घटी। पाकिस्तान की जेल से 2 भारतीय कैदी रिहा किए गए। इनमें से एक, आरिफ़, के लौटते ही खबरों का बाजार गर्म हो गया। खबर यह थी कि आरिफ़ भारतीय सेना का एक जवान था और करगिल युद्ध के दौरान वह एकाएक गायब हो गया था। सेना ने उसे भगोड़ा तक घोषित कर दिया लेकिन अचानक खबर मिली कि वह तो पाकिस्तान में कैद था! अपने गांव लौटने पर उसने पाया कि उसकी पत्नी गुड़िया की दूसरी शादी हो चुकी है और वह 8 महीने की गर्भवती भी है। यहां यह भी गौरतलब है कि आरिफ़ जब लापता हुआ था, तब आरिफ़ और गुड़िया की शादी को सिर्फ 10 दिन हुए थे। अब वापसी पर आरिफ़ का कथित तौर पर मानना था कि गुड़िया को उसी के साथ रहना चाहिए क्योंकि शरियत के मुताबिक वह अभी भी पहले पति की ही विवाहिता थी। इस निहायत ही निजी मसले को मीडिया ने जमकर उछाला और भारतीय मीडिया के इतिहास में पहली बार जी न्यूज के स्टूडियो में लाइव पंचायत ही लगा दी गई। कई घंटे तक चली पंचायत के बाद यह फैसला किया गया कि गुड़िया आरिफ़ के साथ ही रहेगी। इस कहानी को परोसते समय मीडिया फैसला सुनाने का काम करता दिखा जो कि शायद मीडिया के कार्यक्षेत्र का हिस्सा नहीं है। लेकिन इस खबर का दूसरा पहलू और भी त्रासद था। खबर थी कि गुड़िया, आरिफ़ और उसके कुछेक रिश्तेदारों को जी टीवी के ही गेस्ट हाउस में काफी देर तक रखा गया ताकि कोई चैनल गुड़िया परिवार की तस्वीर तक न ले पाए। मीडिया की अंदरुनी छीना-झपटी की यह एक ऐसी मिसाल है जो मीडिया के अस्तिव पर गंभीर सवाल लगाने के लिए काफी है। यह एक ऐसी प्रवृति का परिचायक है जो घटनाओं को सनसनीखेज बनाकर अपराध की प्लेट पर परोस कर मुनाफे के साथ बेचना चाहती है। बदलते हुए माहौल के साथ मीडिया के राजनीतिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक समीकरण भी तेजी से बदलते रहते हैं। अपने पंख फैलाने की इस कोशिश में मीडिया ने कई बार सनसनी फैलाने से भी परहेज नहीं किया है फिर चाहे वह गोधरा हो या कश्मीर। अमरीकी टेलीविजन ने 11 सितंबर की घटना की कवरेज के समय जिस समझदारी से प्रदर्शन किया था, वह सीखने में भारतीय मीडिया को शायद अभी काफी समय लगेगा। अमरीका की अपने जीवनकाल की इतनी बड़ी घटना को भी अमेरीकी मीडिया ने मसाले में भूनकर नंबर एक होने की कोशिश नहीं की। इसकी एक बड़ी मिसाल यह भी है कि घटना की तस्वीरों को बुलेटिन को गरमागरम बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया लेकिन इस मिसाल से भारत सहित और कई देशों ने सबक नहीं लिया है। सितंबर 2004 में जब रुस के एक स्कूल पर हमलावरों ने हमला बोल दिया और 155 स्कूली बच्चों सहित करीब 320 लोगों को मार डाला तो खूनखराबे से भरे शॉट्स दिखाने में कोई परहेज़ नहीं किया गया। इसी तरह मीडिया ने कई बार अपराधियों को भी सुपर स्टार का दर्जा देने में भूमिका निभाई है। वह कभी चंदन तस्कर वीरप्पन को परम शक्तिशाली तस्कर के रुप में स्थापित करता दिखाई दिया तो कभी अपराधियों को पूरे सम्मान साथ राजनीति के गलियारों की धूप सेंकते बलशाली प्रतिद्वंदी के रुप में। जाहिर है- इस समय मीडिया का जो चेहरा हमारे सामने है, वह परिवर्तनशील है। उसमें इतनी लचक है कि वह पलक झपकते ही नए अवतार के रुप में अवतरित हो सकता है। नए युग में अपराध के अंदाज, मायने और तरीके बदल रहे हैं। साथ ही उनकी रोकथाम की गंभीर जरुरत भी बढ़ रही है। मीडिया चाहे तो इस प्रक्रिया में लगातार सार्थक भूमिका निभा सकता है। बेशक मीडिया ने अपराध की कवरेज के जरिए कई बार समाज की खोखली होती जड़ों को टटोला है लेकिन अब भी मीडिया को समाज के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की नियमित आदत नहीं पड़ी है। अपराध की संयमित- संतुलित रिपोर्टिंग समाज में चिपक रही धूल की सफाई का कामगर उपकरण बन सकती है। यह कल्पना करना आसान हो सकता है लेकिन यह सपना साकार तभी होगा जब पत्रकार को शैक्षिक, व्यावहारिक और मानसिक प्रशिक्षण सुलभ हो सके। कुल मिलाकर बात प्रशिक्षण और सोच की ही है।
राजनीति का अपराध (सहारा)
आधुनिक समाज में किसी व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या की कल्पना तक नहीं की जा सकती। वह भी तब, जब सामने वाला अधिशासी अभियंता जैसे शीर्ष पद पर कार्यरत हो। उत्तर प्रदेश के लोक निर्माण विभाग के अधिशासी अभियंता मनोज गुप्ता की हत्या वास्तव में, हमारे सामने एक साथ कई सवाल उभारती है। हत्या के आरोप में गिरफ्तार व्यक्तियों में उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक शामिल हैं। हो सकता है कि पिटाई करने के पीछे अभियंता की हत्या का इरादा न रहा हो, लेकिन इतनी बेरहम पिटाई करने का दुस्साहस करना भी तो काफी बड़ा अपराध है! जिन लोगों के हाथों में प्रदेश की नियति संवारने का दायित्व हो, वे स्वयं कानून हाथों में लेकर ऐसा जघन्य अपराध कर डालें, इससे चिंताजनक स्थिति और कुछ हो ही नहीं सकती। इस संदर्भ में यह राजनीति और अपराध के अन्योन्याश्रय संबंध का भयानक वाकया है। इस अभियंता की क्यों पिटाई की गई, इसके बारे में अब तक जो कुछ सामने आया है, उस पर विश्वास किया जाए या नहीं, यह सवाल तब तक कायम रहेगा जब तक जांच रिपोर्ट सामने नहीं आ जाती। किंतु, किसी भी परिस्थिति में कानून अपने हाथ में और वह भी इतनी क्रूरतापूर्वक लेने की किसी को भी इजाजत नहीं दी जा सकती। वैसे भी निर्माण कार्यों में लगे इंजीनियरों की बेईमानी और भ्रष्टाचार हमारे देश में आम है और ठेकेदारों से उनका प्रेम और तनाव भी हमेशा चलता रहता है। संभव है, इस घटना में यह पहलू भी निहित हो, लेकिन इसमें मूल तत्व एक राजनीतिक नेता द्वारा जनता के मत से मिली संवैधानिक शक्ति के आपराधिक प्रयोग का है। प्रश्न है कि निर्वाचित जन प्रतिनिधि ताकत के नशे में इतने चूर क्यों हो जाते हैं कि वे अपने पद की मर्यादा या मानवीय जीवन के सामान्य शष्टिाचार तो छोडि़ए, दुष्परिणामोें तक की परवाह नहीं करते? जाहिर है, इसे दूर करने के लिए राजनीतिक प्रतिष्ठान को नजरिए एवं व्यवहार में व्यापक बदलाव लाने की सख्त आवश्यकता है। यदि किसी शख्स को पार्टी में पद या चुनावों का टिकट देने का कोई कड़ा मापदंड बना दिया जाए, तो ऐसे लोग काफी हद तक अपने-आप ही छंट जाएंगे। इस वाकये के मद्देनजर जनप्रतिनिधित्व कानून में भी कुछ और सख्त प्रावधान डाले जा सकते हैं। ऐसे आरोप लगने पर सरकारी स्तर पर कानूनी कार्रवाई के साथ पार्टी को तो मुअत्तली एवं बर्खास्तगी का कदम उठाना ही चाहिए, ताकि भविष्य में आपराधिक कृत्य को अंजाम देने के पहले कोई खास या आम व्यक्ति सौ बार सोेचने को विवश हो जाए। तर्क यह दिया जाता है कि कोई किसी के खिलाफ दुश्मनी निकालने के लिए जघन्य अपराधों का मुकदमा दर्ज करवा सकता है। यह आशंका भी हमारी राजनीति की विकृति को ही सार्वजनिक करती है। जाहिर है, उत्तर प्रदेश में हुए इस भयानक कांड ने एक बार फिर से पूरे राजनीतिक तंत्र की सफाई की आवश्यकता हमारे सामने ला दी है। प्रश्न है कि सफाई की शुरुआत कहां से हो और करे कौन? अंतत: इसकी जिम्मेदारी भी राजनीतिक तंत्र के सिर ही आती है।
समसामयिक हिंदी कविता में आतंक और अपराध (साहित्य अकादमी उदयपुर)
साहित्यकार युगीन परिस्थितियों, समसामयिक परिवेश एवं व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं से निःसन्देह आन्दोलित- परिचालित होता है। कालजयी महान् साहित्यकार भी इसका अपवाद नहीं होते। उनकी रचनाओं में भी युगबोध प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रायः प्रतिध्वनित होता ही है, पर वे अपनी प्रातिभ क्षमता से समसामयिक युगीन सन्दर्भों को भी शाश्वतता से जोड देते हैं। उदाहरण के रूप में महाकवि तुलसीदास के ?रामचरित मानस? या महाकवि बिहारी लाल की ?सतसई? के कुछ स्थलों को देखा जा सकता है। मीराबाई की पदावली में भी समय-सापेक्ष्य वैयक्तिक सन्दर्भ प्रचुर मात्रा में हैं। समकालीन हिन्दी-कविता में ही नहीं, इक्कीसवीं सदी के पिछले छः-सात वर्षों की कविता में भी ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्याओं के साथ क्षेत्रीय समस्याओं एवं युगीन सन्दर्भों की भी व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। इसी के साथ, कवि अपने आसपास के परिवेश से भी प्रभावित हुए हैं। यह स्थिति केवल नई शैली की अछान्दस् कविता की ही नहीं है, गीत, नवगीत, गजल, दोहों, प्रबन्ध-काव्यों एवं अन्यान्य नवविकसित छन्दों में रचित छान्दस् कविता की भी है। राष्ट्रीय या क्षेत्रीय समस्याओं से दो-चार होने वाले या इन समस्याओं के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हुए इनका व्यंग्यात्मक चित्रण करने वाले कवियों का जन-मानस पर क्या प्रभाव पड रहा है या फिर उनकी रचनाएँ सामाजिक-राजनीतिक- राष्ट्रीय परिवर्तन की दिशा में क्या सार्थक भूमिका निभा रही हैं, यह तो पृथक अनुसन्धान का विषय है; पर राष्ट्र के प्रति इनकी ईमानदारी एवं चिन्ता में तो कोई सन्देह नहीं है। आतंकवाद वर्तमान समय की सबसे बडी समस्या है। राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक इसकी जडें फैल चुकी हैं। अमेरीका जैसे शक्तिशाली देश भी इसके विषाक्त परिणाम को भोग चुके हैं। कभी-कभी पाकिस्तान में भी इसकी अनुगूँज सुनाई पड जाती है। भारत तो आतंकवाद का केन्द्र-बिन्दु ही बन चुका है। यहाँ आतंकवादियों की गतिविधियाँ अपने चरम पर हैं। भारत में पडोसी देशों, विशेषकर पाकिस्तान द्वारा इसे (आतंक को) फैलाया-बढाया जा रहा है। कश्मीर समस्या भारत-पाक के झगडे की जड है और इसी के चलते भारत में आतंकवादी संगठनों का जाल-सा बिछ गया है। कहा यही जाता है कि ये संगठन पाकिस्तान के इशारे पर फल-फूल रहे हैं और इनके पीछे पाकिस्तान का हाथ है। देश के बडे शहरों में जगह-जगह फटने वाले बमों से निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएँ ही नहीं होती, दहशत का माहौल भी बनता है, आतंक भी फैलता है। आतंकवादी गतिविधियों को रोकने की भारत सरकार की अब तक की सारी कोशिशें एवं पाकिस्तान सरकार से की गयी सारी चर्चाएँ और समझौते सार्थक नहीं हुए हैं। उनका कोई ठोस परिणाम जनता के सामने नहीं आया है। पुलिस और सेना की तमाम कोशिशों के बावजूद आतंकवादी गतिविधियों में कोई खास कमी नहीं आयी है, बल्कि आँकडे तो यह बताते हैं कि आतंकवादी गतिविधियाँ दिनों-दिन बढती ही जा रही हैं। यदि कभी यह छपता है कि आतंकवादी गतिविधियों में कुछ कमी आयी है तो दो-चार दिनों के बाद ही समाचार-पत्रों में यह भी पढने को मिल जाता है कि आतंकवादियों ने फिर से सिर उठा लिया है और इन गतिविधियों में काफी इजाफा हो गया है। आतंकी हमलावरों का न कोई दीन-ईमान है, न उनके लिए संबंधों की कोई अहमियत ही। केवल महानगर ही नहीं, लखनऊ, फैजाबाद, वाराणसी जैसे नगर, अनेक धर्मस्थान, संसद भवन, लालकिला जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के स्थान भी आतंकियों के निशाने पर रहे हैं। उन्हें इसकी विशेष चिन्ता नहीं कि मरने वाले हिन्दू हैं या मुसलमान या फिर सिख हैं या ईसाई; उनका मकसद है आतंक और उसके माध्यम से जेलों में बन्द खूँखार आतंकवादियों या आतंकवादी संगठनों के नेताओं को छुडाना, उन नेताओं को कि जो जेहाद के नाम पर युवा पीढी को दिग्भ्रमित कर रहे हैं और हैवानियत की ओर ले जा रहे हैं। आतंकियों के इस चेहरे को प्रो. सुन्दरलाल कथूरिया ने अपनी एक गजल में यों उजागर किया है - शोर में डूबा हुआ है शहर क्यों ? हर तरफ तुम ढा रहे हो कहर क्यों ? क्या यही इन्सानियत है दोस्तों जन्दगी में घोलते हो जहर क्यों ? खून भाई का बहा कर भागना क्या बचेंगे गाँव, सारे शहर क्यों ? हर तरफ फैली भयंकर आग है बुझ न पाती, फैलती हर सहर क्यों ? दोस्त दुश्मन हो गये ?सुन्दर? सभी विष बुझी यह चल पढी है लहर क्यों ? - डॉ. कथूरिया की साहित्य-साधना, सं. - डॉ. ?अराज?, पृ. १७८ कविवर डॉ. देवेन्द्र आर्य के सद्यः प्रकाशित गीत-संकलन ?आग लेकर मुट्ठियों में? के एक गीत ?जाग मेरे देश? में सांकेतिक रूप में आतंकवादियों के भारत-विभाजन के इरादों को व्यक्त करते हुए देश को जगाने का एक सार्थक प्रयत्न किया गया है। अक्षरधाम, संसद पर हुए आतंकी हमलों की चर्चा भी कवि ने इन शब्दों में की है - जाग मेरे देश ! अक्षरधाम, हर संसद जगी है आज सूरज की किरण से चेतना सजने लगी है। - आग लेकर मुट्ठियों में, डॉ. देवेन्द्र आर्य, पृ. १०० प्रख्यात गीतकार श्री चन्द्रसेन विराट् ने भी अपने एक गीत ?मेरे देश ! दुखी मत हो? में परिवर्द्धित आतंक, दहशत, जोर-जुल्म, अन्याय, आदिम बहशत आदि पर चिन्ता व्यक्त की है - बढा हुआ आतंक, अराजकता है, दहशत शेष अभी जोर-जुल्म, अन्याय, अनय है, आदिम वहशत शेष अभी ्र - गाओ कि जिये जीवन, पृ. २३ इन आपराधिक प्रवृत्तियों के बढे होने पर भी कवि निराश नहीं है। उसके पास आस्था का निष्कम्प स्वर है। वह आश्वस्त है कि एक-न-एक दिन ये बर्बर प्रवृत्तियाँ अवश्य समाप्त होंगी, अतः उसके गीत का शीर्षक है ?मेरे देश ! दुखी मत हो?। विश्वव्यापी आतंक, हिंसा, उग्रता, लूटपाट, आगजनी, विस्फोटों, आत्महत्याओं-हत्याओं, बर्बरता, बढते धार्मिक- साम्प्रदायिक उन्माद, राजनीतिक अपराधीकरण, माफया, ड्रग्स, सेक्स आदि के बावजूद अनेक कवि निराश-हताश नहीं हैं, यद्यपि वे इन प्रवृत्तियों के निन्दक तो हैं ही, इनके प्रति बहुत चिन्तित और संवेदनशील भी हैं। गोधरा, नन्दीग्राम, निठारी-काण्ड, बाबरी मस्जिद का ध्वंस, काशी, मथुरा, अक्षरधाम, संसद भवन आदि की दिल दहला देने वाली बर्बर आतंकी घटनाएँ मानवता के माथे पर कलंक हैं और कोई भी संवेदनशील कवि इनसे आन्दोलित हुए बिना नहीं रह सकता। इस प्रकार के आतंकी, भयावह दृश्यों का वर्णन कुछ कवियों ने यों किया है - ??आँखों के सामने/घटने लगते हैं/हत्यारे दृश्य/नंगी तलवारें लेकर/आग और धुएँ से घिरे/सहमे और डरे हुए घरों की नींद/गोलियों और सायरनों की आवाजों के बीच/ बिला जाती है/वीरान सडकों पर/छूट जाते हैं/हत्या-लूट- आगजनी और/बलात्कार के निशान।?? - हरिशंकर अग्रवाल, अभी बहुत कुछ बाकी है (नासूर होने से पहले), पृ. १३-१४ निःसन्देह, इस प्रकार के दृश्य शासन की नपुसंकता, बेबसी, अराजकता, सांस्कृतिक विपन्नता, घटती राष्ट्रीय चेतना और मानव-मूल्यों के विघटन के द्योतक हैं। ऐसे भयावह परिवेश में भी मानव की अदम्य जिजीविषा बरकरार रहती है तथा ??हिंसा और आगजनी की दहशत से/बे-खबर होकर/ खेलने निकल पडे हैं-बच्चे/गलियों और मैदानों में/उनकी उन्मुक्त आवाजें/भर रही हैं-जख्म इतिहास के।?? (वही, अभी बहुत कुछ बाकी है, पृ. ११) मानवीय-जिजीविषा के साथ यहाँ बच्चों का अबोध भोलापन भी व्यंजित है। आतंकवाद के विश्वव्यापी उन्माद एवं परमाणु अस्त्रों की होड में कुछ कवियों को विश्व-शांति के लिए अहिंसा का सन्देह देने वाले बुद्ध, महावीर, गाँधी जैसे महापुरुषों एवं गोर्बाच्योव जैसे राजनेताओं का स्मरण आना स्वाभाविक ही है। निःसन्देह, इन शान्तिदूतों ने मानवता के कल्याण के लिए अहिंसा का जो पावन सन्देह दिया है, वह प्रणम्य है। ?परिवेश? शीर्षक कविता-संकलन में श्री राम सेवक सोनी ?प्रकाश? ने अपनी एक कविता ?शान्तिदूत गोर्बाच्योव? में इन्हीं भावों को इन शब्दों में वाणी दी है - ?परमाणु अस्त्रों की होड/आतंकवाद का उन्माद/मिसाइलें अपना सिर उठाये/मानवता को विनष्ट करने उत्सुक/अहमन्यता अपने शिखर पर/तब शांति की बात करना/एक स्वप्निल संदेश है/..... अहिंसा के पुजारी/नोबल पुरस्कार से सम्मानित/ शांति के अमर दूत/तुम्हें नमन है, तुम्हें नमन है, तुम्हें नमन है।? (पृ. २९-३०) वस्तुतः चतुर्दिक व्यापी हिंसा, आतंक, उग्रता, साम्प्रदायिक उन्माद आदि के वर्तमान विषाक्त परिवेश में अहिंसा की वैचारिक अग्नि को जन-मन में प्रज्वलित करने की आवश्यकता है। इसी वैचारिक क्रांति के द्वारा ही वैर-भाव पर टिकी आतंकी प्रवृत्तियों का प्रत्युत्तर दिया जा सकता है। साथ ही, आतंक फैलाने वाले आततायियों को कडे-से-कडा दण्ड देने की भी आवश्यकता है - और इसके लिए शासन को चुस्त-दुरुस्त बनाना भी आवश्यक है। ऐसे अपराधियों के लिए न्याय-व्यवस्था कठोर और त्वरित हो तथा उन्हें किसी भी दबाव में आकर छोडने का प्रावधान न हो। आतंकवाद के साथ राजनीति में अपराधियों की बढती घुसपैठ की समस्या भी राष्ट्रव्यापिनी है। आज राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। कोई भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल ऐसा नहीं, जिसमें आपराधिक छवि के राजनेताओं का वर्चस्व न हो। आपराधिक माफया और राजनीति में चोली दामन का साथ हो गया है। एक समय था जब राजनेता जनता का आदर्श होते थे। जनता उनकी तपस्या, त्याग-भावना, निःस्वार्थ जन-सेवा की भावना आदि के प्रति श्रद्धावनत होती थी और उनकी एक आवाज पर मर-मिटने को तैयार हो जाती थी। महात्मा गाँधी, जयप्रकाश नारायण आदि ऐसे ही नेता थे। देश के अनेक पूर्ववर्त्ती प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों आदि के भी अपने आदर्श थे और उनके लिए राष्ट्रहित निजी स्वार्थों से बडा होता था। यदि कोई छोटी-बडी ऐसी घटना घट जाती थी कि जो जनहित में न होती थी तो उसकी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर वे अपने पद से त्यागपत्र दे देते थे। उनके लिए न सत्ता मद बडा था, न किसी प्रकार का प्रलोभन ही, उनके लिए सबसे बडा था राष्ट्र और जनहित। इसीलिए जनता भी उन पर जान छिडकती थी। किन्तु अब स्थितियाँ बदल गयी हैं। आज अधिकतर राजनेता सत्तालोलुप हैं, धनलोलुप हैं। वे येन-केन- प्रकारेण अपनी कुर्सी को बचाये रखना चाहते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें आपराधिक छवि के लोगों का सहयोग लेना पडे। आज न जाने कितने नेताओं पर आय से अधिक सम्पत्ति, हत्याओं, बलात्कार आदि के मुकदमें चल रहे हैं, किन्तु बलशाली नेताओं को प्रायः दोषी नहीं पाया जाता। बलशाली नेता ही नहीं, उनके बाल-बच्चे और निकटस्थ संबंधी भी स्वयं को कानून से ऊपर मानते हैं तथा आपराधिक कार्य करते रहते हैं। उनके मन में यह धारणा भी बनी रहती है कि कितने ही मुकदमे क्यों न चलें, हमारा कुछ बिगडने वाला नहीं है और अन्ततः हम बेदाग छूट जाएँगे। इधर, हाल ही में हुई एक घटना को ध्यान में रखते हुए प्रो. सुन्दरलाल कथूरिया ने एक दोहा इस प्रकार लिखा है - हम नेता के पुत्र हैं, सौ गुनाह हैं माफ । वाइन लें या ड्रग्स लें, हमें न व्यापै पाप ।। - निर्माण का सत्य, पृ. ९६ सत्ताधारियों की रीति-नीति का चित्रण कुछ और दोहों में कवि ने इस प्रकार किया है - जनता ढोती पालकी, बदले कभी सवार । लोकतंत्र के नाम पर, होता है खिलवाड ।। कुर्सी से चिफ रहो, हटने का क्या काम । जोड-तोड छल-छद्म से, साधो अपना काम ।। ऐसी तैसी हो रही, संविधान की आज । चोर-लुटेरे बैठते, है गुण्डों का राज ।। - निर्माण का सत्य, पृ. ९३-९४ राजनीति किसी मायाविनी से कम नहीं है। राजनेताओं की कथनी-करनी में जो अन्तर है, उसी के चलते राजनीति में जो दिखायी देता है, वह होता नहीं और जो कहते हैं, प्रायः उससे भी उल्टा होता है। कविवर श्री चन्द्रसेन विराट् के शब्दों में - जहाँ पर जल लगा, थल है, जहाँ थल लग रहा, जल है आफ ध्यान में लाना, जरूरी मानता हूँ मैं सियासत तो सियासत है उसे गाली न क्यों लिखता ? कि जो दिखता नहीं होता कि जो होता नहीं दिखता - गाओ कि जिये जीवन, जरूरी मानता हूँ मैं, पृ. १० कविश्री चन्द्रसेन विराट् के उक्त गीत-संग्रह के कुछ और गीतों में भी राजनीति के दोगले, भ्रष्ट और भयावह चेहरे को बेनकाब किया गया है। इन गीतों में ?मेरे देश हुआ क्या तुझको ?? एवं ?आजादी आयी थी लेकिन.....? उल्लेख है। देश का चेहरा आज लहूलुहान है, पर राजनेताओं को इसकी चिन्ता नहीं। विपरीत इसके, उन्होंने ही इसे नोंच-नोंच कर खाया है। कविवर विराट् के शब्दों में - किसने तेरी चिन्ता की है ? किसने तेरे हित सोचा ? जिसने जब भी अवसर पाया, उसने तेरा तन नोंचा घाव-घाव है तेरा तन, तू लहूलुहान सिसकता है आ, आँसू के गंगाजल से, तेरे घाव पखारूँ मैं - गाओ कि जिये जीवन, मेरे देश हुआ क्या तुझको ?, पृ. ११२ स्पष्टतः, यदि राजनेता राष्ट्रभक्ति से परिचालित होकर राष्ट्रहित के कार्य करते तो देश की वैसी दुर्दशा न होती, जैसी आज है। राजनेताओं का स्वार्थान्ध, आपराधिक चरित्र ही इसके लिए उत्तरदायी है। ?जिसकी लाठी उसकी भैंस? की कहावत आज भी बदस्तूर चल रही है। प्रख्यात दोहाकार श्री ए.बी. सिंह के शब्दों में - लाठी जिसके हाथ में, भैंस उसी की मान । गाढे में जीवन पडे, कलि में यही विधान ।। - करो राष्ट्र निर्माण, पृ. २८ कवयित्री डॉ. वीणा घाणेकर के कविता-संग्रह ?पता है, नहीं भी? की अनेक कविताओं में राजनीति और राजनेताओं के घिनौने, आपराधिक चरित्र की व्यंजना है। राजनेताओं के अत्याचारों, बर्बताओं, क्रूरताओं की प्रतिध्वनि की अनुगूँज ?ओ मेरे मनसुग्गे !?, ?प्रसंग प्रजातंत्र?, ?राजा और प्रजातंत्र?, ?विडम्बना?, ?माँ?, ?कर्त्तव्य?, ?सलाह?, ?सीख?, ?चित्र-विचित्र? आदि में सुनी जा सकती है। इन या इन जैसी अन्य कविताओं में राजनेताओं या आपराधिक चरित्र के शक्तिशाली व्यक्तियों की चालाकियों की भी अनुगूँज है। अपराध करने के बावजूद इन्हें दण्डित नहीं किया जाता, अपितु इनका प्रशस्ति-गान होता है ः ?यह नेता/जिसने वह डाली तोडी है/जिस पर बैठा था वह !/किन्तु-/यह क्या ?/क्या है यह ?/जो सुन रहा हूँ मैं ?/प्रशस्तियाँ ?/नेता को घेर कर गाया जा स्तवन ?? (पता है, नहीं भी; चित्र-विचित्र-२, पृ. ८५-८६) आपराधिक छवि के व्यक्तियों या दबंग नेताओं का विरोध तो दूर की बात, पुलिस के सामने उनका नाम लेते भी जनता काँपती है, यहाँ तक कि पुलिस भी उनसे डरती है, उन्हीं का साथ देते देखी जाती है। ऐसी स्थिति में एक नपुंसक मौन समकालीन संस्कृति का अंग बनता जा रहा है, जो निश्चय ही राष्ट्रीय हित में नहीं है और सामाजिक चिन्ता का विषय है। आज भरी भीड में भी व्यक्ति अकेला है, असहाय है। जिस देश का आदर्श वीरता, पराक्रम और निर्भीकता रहा हो, उस देश में कायरता की यह पराकाष्ठा लज्जास्पद और चिन्त्य है तथा हिन्दी के अनेक समकालीन कवियों ने इस ओर अंगुल्य-निर्देश किया है।
राजनीतिक अपराधों की अमर वाणी
समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह अचानक सुर्खियों में आ गए हैं। अब यह संयोग ही है या योजनाबध्द ढंग से रची गई सियासत कि कांग्रेस को जब अमर सिंह की जरूरत महसूस होती है, तो वह अमेरिका में होते हैं। अमेरिका से वह ऐसा ज्ञान लेकर आते हैं कि विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी पहली ही मुलाकात में समाजवादी पार्टी की वामपंथी दलों से पुरानी दोस्ती तोड़ देते हैं। पिछले तीन सालों से वामपंथी दलों की कांग्रेस से तकरार चल रही थी। इन तीन सालों में वामपंथी दलों ने समाजवादी पार्टी को तीसरे मोर्चे के लिए तैयार किया और उन्हें भरोसा दिया कि वक्त आते ही चारों वामपंथी दल यूएनपीए के साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बना लेंगे। तीसरे मोर्चे की रूपरेखा बननी उस समय शुरू हो गई थी, जब एटमी करार के खिलाफ लेफ्ट और यूएनपीए ने मिलकर दिल्ली में रैली की। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह ही नहीं, अलबत्ता अमर सिंह भी उस रैली में एटमी करार और सरकार के खिलाफ बोले थे। उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार का जब कांग्रेस से छत्तीस का आंकड़ा चल रहा था, उस समय दिया गया अमर सिंह का एक बयान काबिल-ए-गौर है। उन्होंने कहा था- ‘जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने इराक और अफगानिस्तान सरकारों को गिरा दिया, उसी तरह इतालवी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी उत्तर प्रदेश सरकार को गिराना चाहती हैं।’ उनके इस बयान से उनका अमेरिका विरोध भी झलकता है, और सोनिया विरोध भी। सब जानते हैं कि 1999 में सोनिया गांधी सिर्फ मुलायम सिंह के कारण प्रधानमंत्री बनती-बनती रह गई थीं। मुलायम सिंह की शर्त सिर्फ यह थी कि वह विदेशी मूल की सोनिया को समर्थन नहीं दे सकते। मुलायम सिंह के सलाहकार अमर सिंह जब सोनिया गांधी के लिए इतालवी शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उनके जेहन में वही विदेशी मूल होता है। लेकिन अमेरिकी दौरे के बाद अमर सिंह अचानक अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के समर्थक भी हो जाते हैं और इतालवी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के पक्ष में भी। पुराने समाजवादियों का अब मुलायम सिंह पर कोई जोर नहीं चलता। मुलायम सिह पूरी तरह असमाजवादी अमर सिंह के इशारे पर चलते हैं। भले ही कोई खुलकर सामने न आए, लेकिन मुलायम सिंह के अमेरिकापरस्ती वाले एटमी करार के पक्ष में आ जाने से भीतर ही भीतर सभी कसमसा रहे हैं। सोनिया गांधी की मुलायम सिंह और अमर सिंह के प्रति नफरत की वजह 1999 की वह घटना ही थी, जिस कारण 2004 में घर पर समर्थन देने गए अमर सिंह को अपमानित होकर लौटना पड़ा था। अमेरिका से एटमी करार बचाने के लिए सोनिया गांधी समाजवादी पार्टी के दरवाजे पर जाती, तो बात समझ में भी आती। लेकिन अमर सिंह अचानक अमेरिका जाते हैं और लौटकर सीधा प्रणव मुखर्जी के घर पहुंचते हैं, इससे सोनिया-मुलायम रिश्तों में शहद घोलने में अमेरिका की भूमिका भी समझी जा रही है। पहली नजर में भले ही यह बात अतार्किक, आश्चर्यजनक या कुछ लोगों को हास्यास्पद लगे, लेकिन एटमी करार में अमेरिका की दिलचस्पी को जानने वालों के लिए यह बात कतई आश्चर्यजनक नहीं है। भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों ने जब एटमी करार की मुखालफत शुरू कर दी थी, तो अमेरिकी राजदूत मेलफोर्ड उन सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से मिले थे, जो एटमी करार का विरोध कर रहे थे। अमेरिका की इस दिलचस्पी के बाद सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि एटमी करार को सिरे चढ़ाने के लिए अमेरिकी प्रशासन ने भारतीय राजनेताओं को किस हद तक जाकर प्रभावित किया। अमर सिंह अमेरिका से लौटे हैं, इसलिए वह मनमोहन सरकार बचने को लेकर कांग्रेसियों से भी ज्यादा आश्वस्त दिखाई दे रहे हैं। हालांकि उनकी अपनी पार्टी में विद्रोह के स्वर उभर रहे हैं और ज्यादा नहीं तो तीन सांसदों जयप्रकाश, मुनव्वर हसन और अतीक अहमद का वोट यूपीए सरकार के पक्ष में पड़ता दिखाई नहीं देता। इस वजह से अमर सिंह लगातार अपना संयम खोते हुए दिखाई दे रहे हैं। अमर सिंह जिन वामपंथियों का साथ कभी नहीं छोड़ने का ढिंढोरा पीटा करते थे और ताल ठोककर कहते थे कि जब तक वामपंथियों का समर्थन हासिल है, कांग्रेस उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार नहीं गिरा सकती। यह सच भी है, सोनिया गांधी चाहकर भी मुलायम सरकार को नहीं गिरा सकी, क्योंकि वामपंथी दलों ने केंद्र से समर्थन वापस लेने की धमकी दे दी थी। अब वही वामपंथी नेता अमर सिंह के लिए नफरत करने योग्य हो गए हैं। अमर सिंह जिस तरह की शेर-ओ-शायरी करते रहे थे, जिस तरह दूसरे दलों के नेताओं पर कीचड़ उछाला करते थे, उसके बाद कोई भी यह मानने को तैयार नहीं हो सकता कि उन्होंने हाल ही में सोनिया गांधी और प्रकाश करात के बारे में वह टिप्पणीं नहीं की होगी, जो मीडिया में चर्चा का विषय बनी। अमर सिंह ने कांग्रेस से हाथ मिलाने पर हो रही आलोचना के जवाब में कहा- ‘जब प्रकाश करात सोनिया गांधी से मिलने जाते हैं, तो उसे हनीमून कहा जाता है, लेकिन जब अमर सिंह मिलने जाता है, तो उसे बलात्कार कहा जाता है।’ अमर सिंह की यह भाषा हर कोई जानता है, जिस समय दस जनपथ पर उन्हें अपमानित किया गया था, उस समय उन्होंने चुड़ैल शब्द का इस्तेमाल किया था। अब जब एक चैनल ने अमर सिंह का वही पुराना वीडिया टेप चला दिया, तो वह इतने तमतमा गए कि एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने उस चैनल के रिपोर्टर को बाहर निकलने का हुक्म सुना दिया। जब तक उस चैनल का माइक वहां से नहीं हटा, जब तक उस चैनल का रिपोर्टर बाहर नहीं निकला, अमर सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस शुरू नहीं की। अमर सिंह ने स्वच्छ राजनीति को भी बाजारू बनाकर पेश कर दिया। राजनीतिक दल किस स्तर पर आकर राजनीति करने लगे हैं, इसका एक उदाहरण अमर सिंह के उस खुलासे के बाद राजनीतिक बयानबाजी से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय जसवंत सिंह ने राजग समर्थित उम्मीदवार भैरोंसिंह शेखावत को यूएनपीए के समर्थन के बदले मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनने की पेशकश की थी। अमर सिंह ने यह खुलासा कुछ इस तरह किया कि जैसे जसवंत सिंह ने यह पेशकश करके कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। कांग्रेस ने इस पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की कि जैसे उसने खुद एनडीए से जयललिता को तोड़कर वाजपेयी सरकार गिराने की साजिश नहीं रची थी। कांग्रेस ने कहा कि भाजपा ने चुनी हुई सरकार गिराने की साजिश रची थी, जो संविधान विरोधी कदम था। राजनीति के अनाड़ी भाजपा प्रवक्ता पता नहीं क्यों घबरा गए, राजनीतिक दलों के गठजोड़ से बनी सरकार को दूसरा गठबंधन संख्या बल पर कभी भी गिरा सकता है। अगर कोई सरकार गिराना असंवैधानिक होता, तो संविधान में अविश्वास प्रस्ताव का प्रावधान ही न होता। जसवंत सिंह ने इस बवाल पर सफाई पेश करते समय साफ कर दिया कि एनडीए ने राष्ट्रपति पद पर समर्थन के बदले यूएनपीए को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने की पेशकश की थी। गठबंधन की राजनीति में यह अपराध कैसे हुआ। अगर सरकार गिराने और बनाने के लिए गठबंधन करना अपराध है, तो यह दोनों अपराध कांग्रेस पहले भी कर चुकी है और इस समय भी कर रही है। जयललिता के साथ मिलकर वाजपेयी सरकार गिराना पहला अपराध था, करुणानिधि के साथ गठबंधन करना दूसरा राजनीतिक अपराध था और आमने-सामने चुनाव लड़ने वाले वामपंथियों के साथ मिलकर सरकार बनाना तीसरा अपराध। जसवंत सिंह की पेशकश तो बड़ा अपराध तो कांग्रेस ने किया, जिसने गठबंधन धर्म की मर्यादा तोड़कर अमेरिका से एटमी करार के लिए उस राजनीतिक दल को धोखा दे दिया, जिसकी वजह से उसकी सरकार बनी थी। सिर्फ वामपंथी दलों को ही नहीं, देश को भी धोखा दिया, क्योंकि पिछले कई महीनों से कांग्रेस बार-बार कह रही थी कि यूपीए-लेफ्ट तालमेल कमेटी की रपट आने तक सरकार एटमी करार पर आगे नहीं बढ़ेगी। लेकिन कांग्रेस बीच रास्ते में गठबंधन बदलकर करार के लिए आगे बढ़ गई, तो एनडीए का बीच रास्ते में यूएनपीए से नया गठबंधन बनाना अपराध कैसे हुआ।
आतंकवाद अपराध नहीं, राजनीति है (भाष्कर में वेद प्रताप वैदिक का दृष्टिकोण)
भारत में आतंकवाद अब अपराध नहीं, राजनीति बनता जा रहा है। जैसा कि राजनीति में होता है, किसी भी मुद्दे पर किस राजनीतिक दल और नेता की प्रतिक्रिया क्या होगी यह पहले से पता रहता है, बिलकुल अब वैसे ही आतंकवाद का हाल हो गया है। विरोधी दल आतंक की किसी भी घटना के लिए सरकार और सत्तारूढ़ दल को कोसने लगते हैं और सत्तारूढ़ दल अपने रटे-रटाए जुमले दोहरा देता है और वह यह भी देखता है कि कहीं उसका वोट बैंक न गिर जाए। किसी को यह चिंता नहीं सताती कि आतंकवाद को समाप्त कैसे किया जाए? कोई भी उसके कारण और निराकरण की मीमांसा नहीं करना चाहता है। इसका ताजा उदाहरण जामिया नगर की घटनाएं पेश कर रही हैं। जामिया मिल्लिया के कुलपति ने अपने दो छात्रों के पक्ष में जो शौर्य दिखाया है, एकाएक उसके लिए दिल में तारीफ का जज्बा पैदा होता है। अगर अपने कुल पर कोई भी संकट अचानक आ जाए तो कुलपति का फर्ज क्या होना चाहिए? इस अर्थ में प्रोफेसर मुशीरुल हसन को आतंकवाद का संरक्षक या देशद्रोही कहना उचित नहीं लगता, लेकिन इसी मुद्दे पर भावुकता से थोड़ा ऊपर उठें और दिल की बजाय दिमाग से काम लें, तो हम बिलकुल ही अलग नतीजों पर पहुंचेंगे। मसलन हम यह सवाल खुद से पूछें कि आखिर कुलपति के इस कदम से किसका फायदा होगा? क्या इससे मुसलमानों का फायदा होगा? क्या देश का फायदा होगा? क्या आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन होगा? इन तीनों प्रश्नों के उत्तर उल्टे ही आ रहे हैं। कुलपति के इस कदम ने आतंकवाद और मुसलमानों को एक ही सिक्के के दो पहलू बना दिया है- यह पहली बार हुआ है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि आतंकवाद का आरोप जिन लोगों पर लगा हो या जो पकड़े गए हों, उनके समर्थन में पांच हजार लोगों की सभा हुई हो या जुलूस निकला हो। आम मुसलमान आतंकवाद से उतना ही खफा है जितना अन्य कोई नागरिक, लेकिन जामिया मिल्लिया की सभा का पैगाम क्या है? क्या यह नहीं कि आतंकवाद में लिप्त लोगों के प्रति मुसलमानों के दिल में जो मौन सहानुभूति है उसे जामिया मिल्लिया ने बुलंद किया है? हालांकि उस सभा में वक्ताओं ने आतंकवाद की भत्र्सना की और दोषियों को कड़ी सजा देने की बात भी कही, लेकिन बात जितना बोलती है काम उससे कहीं ज्यादा बोलता है। जामिया ने आतंकवाद का राजनीतिकरण कर दिया है। जामिया मिल्लिया ने आतंकवाद के दो आरोपियों को कानूनी मदद देने की घोषणा की है क्योंकि वे जामिया के छात्र हैं। उप कुलपति ने उन्हें सस्पेंड कर रखा है। यदि आप उन्हें निर्दोष समझते हैं, तो फिर आपने उन्हें सस्पेंड क्यों किया है? सांच को आंच क्या? यदि उप कुलपति को पूरा भरोसा है कि वे निर्दोष हैं तो उन्हें तुरंत बहाल किया जाना चाहिए और उनके खिलाफ आरोप लगाने वाली पुलिस के खिलाफ देशव्यापी अभियान चलाया जाना चाहिए, लेकिन ऐसी हिम्मत कौन करेगा? इतना नैतिक बल किसमें है? यदि उप कुलपति ऐसा अभियान चलाएं तो सरकार उनका बाल भी बांका नहीं कर सकती, लेकिन जामिया ने जो रास्ता चुना है वह काफी टेढ़ा-मेढ़ा है। वह उन छात्रों को सस्पेंड भी करती है और उन्हें कानूनी मदद भी देना चाहती है। आरोपी छात्रों को कानूनी मदद देने का आधार क्या है? क्या उनकी कानूनी मदद करने वाला कोई नहीं है? क्या हर विश्वविद्यालय का यह फर्ज है कि अपराध के आरोप में पकड़े गए छात्रों को वह कानूनी मदद दे? यदि हां तो हमारे सारे विश्वविद्यालय गुंडों और अपराधियों के शरणस्थल बन जाएंगे। जो दायित्व आतंकवादी संगठनों का है वह दायित्व हमारे विश्वविद्यालय अपने सिर क्यों लें? आतंकवाद से अधिक घृणित अपराध आज कौन-सा है? यह ठीक है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाए, किसी आरोपी को अपराधी नहीं कहा जा सकता, लेकिन आतंकवाद के आरोपियों की हिमायत का अर्थ क्या है? इस दुस्साहसी कदम का प्रेरणास्रोत क्या है? क्या करुणा है, क्या न्याय है? यदि करुणा और न्याय ही मुख्य कारण होते, तो बम विस्फोट में जो बेकसूर मरे हैं, उनके प्रति जामिया का कोई फर्ज बनता है या नहीं? आरोपियों को बचाने के लिए वह लाखों बहाएगी, लेकिन मरने वालों के लिए क्या उसने एक कौड़ी भी दी है? मरने वालों में हिंदू दुकानदार हैं तो निहायत गरीब मुसलमान रिक्शा चालक भी हैं। मरने वाले अनाथ हैं। उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है। मारने वालों को बचाने वाले कई हैं। उप कुलपति हैं, मंत्री जी हैं, सत्तारूढ़ दल हैं मजहब उनके काम नहीं आता जो मर गए हैं,मजहब उनके काम आ रहा है जो मार रहे हैं। यह कितनी बेढब बात है कि दो छात्रों पर सरकार बम-विस्फोट का आरोप लगा रही है और उसका एक मंत्री उन छात्रों की हिमायत को ठीक बता रहा है। यह सरकार है या चूं-चूं का मुरब्बा? यदि आज इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होतीं तो माननीय मंत्री जी का बिस्तर उनके मुंह खोलते ही गोल हो जाता। जामिया-कांड ने इस सरकार को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना नुकसान कम ही घटनाओं ने पहुंचाया है। अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने वाली सरकार का स्वर पोंगापंथी, मुल्ला-मौलवियों जैसा हो गया है। ‘सेटेनिक वर्सेस’ पर सरकारी प्रतिबंध की खिल्ली उड़ाने वाले मुशीरुल हसन को भी क्या हो गया है, समझ में नहीं आता। अपराधी, अपराधी है। आतंकवादी, आतंकवादी है, उसकी जात क्या पूछना? उसका मजहब क्या पूछना? जात और मजहब का गणित तो वही बिठाते हैं जो वोट कबाड़ते हैं। जिन्हें देश चलाना है, वे दूध का दूध और पानी का पानी करते हैं। यह संभव है कि जिन पर आरोप लगे हैं वे छात्र प्रमाणों के अभाव में बरी हो जाएं। उन्हें कानूनी सहायता अवश्य मिलनी चाहिए लेकिन उनका विश्वविद्यालय इस पचड़े में क्यों कूदा, यह रहस्य है। उन छात्रों के रिश्तेदार और मित्र तो हैं ही, उनके अलावा सरकार भी ऐसे लोगों को पूरी कानूनी सहायता देती है। ऐसे में यदि गुरुजन कूदे हैं तो क्या उनका फर्ज यह भी नहीं है कि वे सत्य और धर्म की रक्षा करें? वे इन छात्रों से अदालत के बिना ही यह मालूम क्यों नहीं करते कि क्या वे सचमुच आतंकवादी हैं? यदि वे अपना जुर्म कुबूल कर लें और उनका हृदय परिवर्तन होता हो, तो उनके क्षमादान के लिए गुरुजन की गुहार को व्यापक समर्थन मिल सकता है। इसके विपरीत अगर अदालत में अपराध सिद्ध हो गया तो गुरुजन ही सोचें कि उनका हश्र क्या होगा?
सत्ता, राजनीति और विश्वसनीयता
सत्ता और राजनीति अपनी विश्वसनीयता कैसे खोती हैं, इसकी छोटी सी बानगी गए दिनों मेरे शहर में देखने को मिली । एक सौ वर्ष से अधिक पुराने एक चर्च में रातों-रात आग लग गई । शीशम की लकड़ी की खूबसूरत मेहराबों , ऐतिहासिक महत्व वाला चर्च और यहाँ रखा रेकार्ड भस्म हो गया । जिस सवेरे यह अग्निकाण्ड हुआ, उसी दिन इस चर्च का स्थापना दिवस समारोह भी आयोजित था । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायक प्रदेश के गृह मन्त्री हैं । सो, हल्ला तो मचना ही था । इसाई समाज के लोग और उनके समर्थन में कुछ कांग्रेसी सड़कों पर उतर आए । पुलिस कुछ अतिरिक्त तेजी से हरकत में आई । उसने चर्च के चैकीदार को एकमात्र अपराधी के रूप में प्रस्तुत किया । खुद पुलिस उपमहानिरीक्षक ने पत्रकार वार्ता में, चैकीदार की उपस्थिति में उसकी अपराध स्वीकारोक्ति की सूचना सहित विस्तृत विवरण दिया । पुलिस के अनुसार, चैकीदार को मात्र एक हजार रुपये वेतन मिलता था उसमें से भी 500 रुपयों की कटौती की जा रही थी जो नवम्बर में पूरी होने वाली थी और उसके बाद उसे नौकरी से निकाला जाना था । चौकीदार खुद रोमन कैथोलिक इसाई है जबकि चर्च प्रोटेस्टेण्ट इसाइयों का है । पुलिस के अनुसार, चर्च-प्रबन्धन को सबक सिखाने के लिए चौकीदार ने अग्निकाण्ड रचा । उसकी योजना तो बहुत छोटे, (सांकेतिक) अग्नि-काण्ड की थी, मात्र सबक सिखाने के लिए । लेकिन आग उसकी इच्छा और कल्पना से कही अधिक विकराल हो गई । पुलिस ने यह भी बताया कि चौकीदार ने स्थानीय इसाई समुदाय के लोगों के सामने भी अपना अपराध स्वीकार कर सचाई बताई । लेकिन पत्रकारों को चौकीदार से पूछताछ का अवसर और अनुमति नहीं दी गई । इसाई समुदाय पुलिस की इस कहानी से सहमत और सन्तुष्ट नहीं हुआ । उसने विशाल प्रदर्शन कर, प्रशासन को ज्ञापन सौंप कर मामले की निष्पक्ष जाँच की माँग की । इसाई समाज का कहना है कि यह अग्निकाण्ड सोची-समझी साजिश का परिणाम है और चौकीदार की आड़ में वास्तविक अपराधियों को छुपाया और बचाया जा रहा है । चौकीदार के परिजन भी पुलिस की कहानी को झूठी बता रहे हैं । पत्रकारों ने प्रदेश के गृहमन्त्री से जब ऐसी जाँच के बारे में पूछा तो उन्होंने इसे तत्क्षण ही नकार दिया । उनका कहना था कि पुलिस के निष्कर्ष ही सच और अन्तिम हैं और चौकीदार खुद, इसाई समाज के सामने अपराध स्वीकार कर चुका है इसलिए अब किसी जाँच की आवश्यकता नहीं रह गई है । गृह मन्त्री का कहना था कि पुलिस की बात को आँख मूँद कर स्वीकार कर ली जानी चाहिए । गृह मन्त्री की यह बात दूसरों के गले तो नहीं उतर रही लेकिन खुद संघ परिवार के गले भी नहीं उतर रही है । संघ परिवार के कई वरिष्ठ सदस्यों का कहना है कि इस अग्निकाण्ड से संघ परिवार का सचमुच में कोई सम्बन्ध नहीं है और पुलिस के निष्कर्ष ही अन्तिम सत्य हैं । ऐसे में, गृह मन्त्रीजी को किसी भी जाँच की माँग तत्काल स्वीकार कर लेनी चाहिए । इन वरिष्ठों का कहना था कि मामले में जितनी पारदर्शिता बरती जाएगी उतनी ही, सरकार की और पार्टी की प्रतिष्ठा तथा विश्वसनीयता स्थापित भी होगी तथा बढ़ेगी भी । इन लोगों को आश्चर्य (और आपत्ति भी) है कि गृह मन्त्री ने निष्पक्ष जाँच की माँग क्यों अस्वीकार कर दी । शायद खुद गृह मन्त्री को अपने विभाग की कार्रवाई पर विश्वास नहीं हो रहा है । पारदर्शिता से घबरा कर, तन्त्र और सत्ता अपनी विश्वसनीयता कैसे खोते हैं, यह इसकी छोटी सी बानगी है ।
गलत है नागरिकों का मौन रहना (राज एक्सप्रेस, भोपाल)
पता नहीं, कितनों को याद होगा कि दो-चार साल पहले ही देश में आपरेशन दुर्योधन हुआ था। मामला कुछ सांसदों द्वारा पैसे लेकर सदन में सवाल पूछने का था। वे रंगे हाथों पकडे गए थे। तब सांसदों के खिलाफ कार्रवाई हुई थी। उन सब सासदों की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी। संबंधित दलों ने अपने अपराधी सांसदों के खिलाफ क्या कार्रवाई की, पता नहीं, लेकिन इतना जरूर पता चला है कि संसद से निष्कासित उन सदस्यों में से एक को हाल ही में छत्तीसगढ में उनकी पार्टी ने आगामी चुनावों के लिए प्रभारी नियुक्त किया है। इस आशय की घोषणा स्वयं मुख्यमंत्री ने की है। इस कार्रवाई का क्या अर्थ निकाला जाए?संबंधित राजनीतिक दल कुछ भी समझें या कहें, इसका सीधा-सा अर्थ, जो आम आदमी को समझ आता है, वह यह है कि पार्टी संबंधित पूर्व सांसद को अपराधी नहीं मानती। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब यह कांड उजागर हुआ था तो सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं ने इसकी निंदा की थी और राजनीति में नैतिकता की वकालत भी। अब स्पष्ट लग रहा है कि वह निंदा और वकालत जनता को भरमाने के लिए ही की गई थी और शायद हमारे नेता यह भी मानकर चलते हैं कि जनता ऐसी बातों को भूल जाती है। शायद उनका ऐसा समझाना गलत भी नहीं है। जहां तक राजनीति का मामला है, जनता की याददाश्त बहुत कमजोर ही होती है, इसलिए हमारे यहां अक्सर अपराधी बार- बार चुनाव जीतते हैं। कम याददाश्त वाली यह स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि हमने राजनीति और अपराध के रिश्तों को स्वीकार कर लिया है। मान लिया है कि पैसे लेकर सवाल पूछना या पैसे लेकर सदन में वोट देना या जेल में बैठकर चुनाव लडना -जीतना जैसी बातें बहुत गंभीर नहीं हैं। संसद के पिछले अधिवेशन में सरकार द्वारा पेश किए गए विश्वास मत पर हुई बहस के दौरान कुछ सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां दिखाकर यह आरोप लगाया था कि सत्तारूढ मोर्चे और उसके सहयोगियों ने पैसे देकर समर्थन खरीदने की कोशिश की है। यह कांड हमारी राजनीति के अधोपतन का एक उदाहरण है। इसकी आलोचना भी सबने की थी। समर्थन जुटाने और समर्थन खरीदने के अंतर को रेखांकित किया गया था, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या समर्थन सिर्फ नोटों से ही खरीदा जाता है? वोट के बदले पद का लालच देना क्या खरीदारी नहीं है? क्या यह खरीदारी नोट देकर की गई खरीदारी से कम अपराध है? तो फिर इस सौदेबाजी के खिलाफ कार्रवाई क्यों न हो? झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन यूपीए सरकार का समर्थन करके झारखंड का मुख्यमंत्री पद पा गए। इस सौदेबाजी को कौन-सी संज्ञा देंगे? यह सौदा पर्दे के पीछे भी नहीं हुआ था। विश्वस मत पर मतदान से पहले मीडिया में इस बारे में खुली चर्चा हो रही थी कि सोरेन वोट की कीमत मांग रहें हैं, तय केवल यह होना है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में पद मिले या झारखंड का मुख्यमंत्री पद। सोरेन मुख्यमंत्री ही बनना चाहते थे और अब बन भी गए। यह तो दुख की बात है ही कि राजनीतिक समर्थन के लिए इस तरह की सौदेबाजी होती है, लेकिन इससे कहीं अधिक गंभीर बात यह है कि न तो ऐसी सौदेबाजी करने वालों को कोई अपराध-बोध सताता है और न ही देश का आम नागरिक-मतदाता इसके बारे में सोचना चाहता है। उसने मान लिया है कि राजनीति तो ऐसी ही होती है। उसने मान लिया है कि राजनीतिक अपराध, अपराध नहीं होते हैं। यह स्थिति जितनी गंभीर है, उतनी ही खतरनाक भी है। जनतंत्र की सफलता का तकाजा है कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के बारे में सोचने की आवश्यकता मतदाता महसूस करें। पहले भी सोरेन मुख्यमंत्री बने थे। तब शायद नौ दिन ही चल पाई थी, उनकी सरकार। इस बार भी स्थिति अच्छी नहीं थी। सदन में बहुमत जुटाने के लिए उन्हें उन निर्दलीयों का समर्थन हासिल करना पडा, जिनके बल पर पिछली सरकार टिकी हुई थी। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा भी हैं। जिन्होंने पद छोडते समय घोषणा की थी कि वे सोरेन को समर्थन नहीं देंगे। फिर पता नहीं क्या हुआ कि दो ही दिन बाद वे शिबू सोरेन के समर्थकों में शामिल हो गए। क्या यह अनुमान लगाना गलत होगा कि सोरेन ने भी बहुमत जुटाने के लिए वही तरीका अपनाया है, जिस तरीके से वे स्वंय केंद्र में सरकारों को समर्थन देते रहे हैं। देश को यह याद होना चाहिए कि नरसिंह राव की सरकार को समर्थन देने के बदले शिबू सोरेन और उनके साथियों को नकद पैसे मिले थे। मामला उलझा भी था, पर तकनीकी कारणों से रिश्वतखोरी का आरोप सही नहीं माना गया। होना तो यह चाहिए था कि तभी इन कथित तकनीकी कारणों पर देश में बहस होती और संविधान में उचित संशोधन करके ऐसे कृत्य को अपराध घोषित किया जाता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। निर्वाचित प्रतिनिधियों को गलत काम करके भी सही माने जाने की छूट बरकरार रही। इस छूट पर कोई प्रतिबंध तो लगना ही चाहिए। इस तरह का अकेला उदाहरण नहीं है यहां। पद पैसे या अन्य सुविधाओं-अधिकारों के बल पर होने वाली यह राजनीति हमारे जनतंत्र की जडों पर प्रहार कर रही है। इसलिए जरूरी है कि इसके बारे में कुछ सोचा जाए, कुछ किया जाए। राजनीति को सौदेबाजी पर आधारित करने की जिम्मेदारी किसी एक नेता या एक राजनीतिक दल की नहीं है। दुर्भाग्य यह है कि सब इसमें बराबरी के हिस्सेदार हैं। जब जिसे जरूरत होती है और जब जिसे मौका मिलता है, वह नैतिकता को ताक पर रखकर स्वार्थों की सीढियां चढने लगता है। यह शर्मनाक है। यह भी शर्मनाक है कि हम मूक दर्शक बने रहते हैं।
उत्तर प्रदेश डायरी (हर्ष वर्धन त्रिपाठी)
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती राज्य के विकास के लिए केंद्र सरकार से 80 हजार करोड़ रुपए मांग रही हैं। वो भी अखबारों में विज्ञापन देकर। शायद ये पहली बार हो रहा है कि कोई मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से राज्य के विकास के लिए विज्ञापन के जरिए पैसे मांग रहा है। इस बार सरकार संभालने के साथ ही मायावती ने इस बात की कोशिश शुरू कर दी थी कि राज्य का विकास कैसे किया जाए (कम से कम बोलकर)। जब मायावती राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं, तभी से लोग इस बात का अंदाजा लगाने लगे थे कि आखिर मायावती केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को समर्थन देकर क्या हासिल करना चाहती हैं। लोगों को लग यही रहा था कि केंद्र सरकार को मायावती का ये समर्थन कहीं सिर्फ राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ तक ही न सीमित रह जाए। लेकिन, इस बार मायावती साफ संदेश दे रही हैं कि वो लंबी पारी खेलने के मूड में है। और, वो उत्तर प्रदेश के जरिए पूरे देश में ये संदेश दे रही हैं कि उन्हें इस बात अच्छी तरह अहसास है कि जिस सर्वजन के फॉर्मूले पर चुनाव जीतकर वो यूपी में सत्ता में आई हैं, आगे के पांच साल का शासन सिर्फ उसी के बूते नहीं हो सकता। मायावती के हाथ में एक ऐसे राज्य की बागडोर है जो, मानव संसाधन से तो, पूरी तरह संपन्न है। राज्य की आबादी 18 करोड़ हो चुकी है। लेकिन, इसके अलावा राज्य के पास ऐसा कुछ खास नहीं है जिससे वो विकास के मामले में दक्षिण और पश्चिम के राज्यों के आसपास भी खड़ा हो सके। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां एग्री बेस्ड इंडस्ट्री ही अच्छे से चल सकती है। खेती पर आधारित उद्योग इसलिए भी सफल हो सकते हैं क्योंकि, उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से है जो, जल संपदा के मामले में संपन्न हैं। देश की 9 प्रतिशत जमीन उत्तर प्रदेश के पास ही है। इसीलिए खेती पर आधारित चीनी उद्योग के मामले में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। फल-सब्जियां उगाने के मामले में भी उत्तर प्रदेश आगे है। लेकिन, चीनी को लेकर सरकारों की गलत नीतियों के चलते सभी चीनी घाटा उठा रही हैं। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मायावती ने नफा-नुकसान का हिसाब लगाकर समझ लिया कि इन्हें चलाना अब सरकार के लिए किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं है। इसलिए मायावती ने चीनी मिलों को उद्योगपतियों को बेचने का फैसला किया है। औद्योगिक सुधार की मायावती सरकार की नीति का ये पहला प्रभावी कदम है। राज्य के विकास के लिए केंद्र से मांगे गए 80 हजार करोड़ रुपए में 22 हजार करोड़ रुपए मायावती ने बेहतर खेती की सुविधाओं पर खर्च करने के लिए ही मांगे हैं। राज्य की बड़ी आबादी अभी भी गांवों में रहती है इसलिए गांवों तक सभी सभी विकास योजनाएं समय से पहुंचे ये, राज्य के तेज विकास के लिए बहुत जरूरी है। गांव में पंचायती राज लागू करने और सुविधाएं बेहतर करने के लिए मायावती ने 6 हजार 5 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। खेती की सुविधा और गांव-पंचायती राज पर अगर 28 हजार 5 सौ करोड़ रुपए की ये रकम सलीके से खर्च हो पाई तो, शायद विकास की गाड़ी दौड़नी तो, शुरू हो ही जाएगी। वैसे मुलायम सिंह यादव के राज में भी उत्तर प्रदेश के विकास के लिए उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास निगम बना था। और, अमर सिंह, अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी के प्रभाव में देश के कई बड़े औद्योगिक घराने इसमें शामिल भी हो गए थे। लेकिन, अनिल अंबानी के दादरी प्रोजेक्ट को छोड़कर एक भी ऐसा प्रोजेक्ट सुनाई नहीं दिया जिससे राज्य की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती। मुलायम सत्ता का सुख भोगकर सत्ता से बाहर भी हो गए लेकिन, राज्य का भला नहीं हो सका। राज्य की खराब कानून व्यवस्था की हालत की वजह से किसी भी उद्योगपति की राज्य में उद्योग लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई। कानपुर, भदोही, बनारस, मुरादाबाद जैसे पुराने औद्योगिक नगर भी सिर्फ सरकारी वसूली का केंद्र बनकर रह गए। बची-खुची कसर पूरी कर दी केंद्र सरकार से खराब रिश्तों ने। जिससे केंद्र से आने वाली विकास की धारा भी रुक गई। अब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं। सामाजिक समीकरण भी ऐसे बन गए हैं कि कहीं से भी मायावती के खिलाफत के स्वर अभी सुनाई नहीं दे रहे हैं। केंद्र सरकार से मायावती के रिश्ते राष्ट्रपति चुनाव के बाद और भी बेहतर हो गए हैं। लेफ्ट पार्टियों को संतुलित रखने के लिए मायावती सोनिया के लिए बेहतर साबित हो सकती हैं, इसलिए आगे भी मायावती और सोनिया मैडम के रिश्ते बेहतर होते ही दिख रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, मायावती के सत्ता में आते ही दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच बसों का विवाद सुलझ गया। ये सांकेतिक ही था लेकिन, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा जिस तरह से सटी हुई है, उसमें दिल्ली से अच्छे संबंध राज्य के विकास की गाड़ी दौड़ाने में मददगार हो सकते हैं। मायावती के केंद्र से अच्छे रिश्तों की वजह से ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश में विकास की संभावनाएं खोजने के लिए एक कमेटी भी बना दी है। इस कमेटी की रिपोर्ट में जो सबसे जरूरी बात निकलकर आई है कि कानून व्यवस्था की हालत दुरुस्त हुए बिना राज्य में कोई भी पैसे लगाने को तैयार नहीं होगा। और, मायावती ने सत्ता संभालते ही ये दिखा दिया है कि कानून तोड़ने वाले बख्शे नहीं जाएंगे, चाहे वो कोई भी हों। उत्तर भारत के वीरप्पन कहे जाने वाले ददुआ ने पिछले तीस सालों में हर सरकार को ठेंगा दिखाया, वो मारा गया। इलाहाबाद की फूलपुर सीट से लोकसभा सांसद अतीक अहमद को हत्या के मामले में भगोड़ा घोषित कर दिया गया है। माफिया अतीक अहमद का छोटा भाई अशरफ भी बसपा के इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधायक रहे राजू पाल की हत्या के इसी मामले में आरोपी है। वैसे इन मामलों में लोग समाजवादी पार्टी से जुड़े हुए थे। लेकिन, मायावती के इस साहस का स्वागत किया जाना चाहिए। वैसे मायावती ने अपनी पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को भी नहीं बख्शा है, जमीन कब्जे की कोशिश में वो जेल भेज दिए गए। कुल मिलाकर मायावती विकास की पहली जरूरी शर्त पूरी कर रही हैं। लेकिन, विकास की सबसे जरूरी शर्त है राज्य में सड़क-पानी-बिजली यानी बुनियादी सुविधाओं का ठीक होना। इन सभी मानकों पर उत्तर प्रदेश देश के दूसरे राज्यों से पीछे जाने की रेस लगाता दिखता है। केंद्र सरकार की कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो, विकास के मामले में फिर भी बेहतर है लेकिन, बुंदेलखंड और पूर्वांचल का हाल तो, एकदम ही बुरा है। इसीलिए मायावती ने पूर्वांचल के इलाकों में सड़क-बिजली-पानी की सुविधा ठीक करने के लिए 9 हजार 4 सौ करोड़ रुपए और बुंदेलखंड में इस काम के लिए 4 हजार 7 सौ करोड़ रुपए मांगे हैं। लेकिन, इन सबके साथ ही मायावती को एक काम जो, और विकास के लिए तेजी से करना होगा वो, है पहले से चल रही केंद्र की विकास योजनाओं को तेजी से पूरा करना। उत्तर प्रदेश और बिहार वो राज्य हैं जहां एनडीए के शासनकाल में शुरू हुई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का काम सबसे धीमे चल रहा है। दिल्ली से कोलकाता के 8 लेन वाले इस रास्ते में उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा आता है। कानपुर और बनारस जैसे औद्योगिक विकास की संभावनाओं वाले शहर इससे जुड़ रहे हैं। अपने सर्वजन हिताय के चुनाव जिताऊ फॉर्मूले को ध्यान में रखकर मायावती ने राज्य में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले SC/ST/OBC और अल्पसंख्यकों के साथ ऊंची जातियों का जीवन स्तर बेहतर करने के लिए 23 हजार 8 सौ करोड़ रुपए मांगे है। ये अच्छा है कि लोगों की बेहतरी में जाति आड़े नहीं आ रही है। मायावती ने विज्ञापन के जरिए केंद्र सरकार से ये भी अपील की है कि देश में खाली पड़े सभी आरक्षित पदों को भरा जाए। चमत्कार ये है कि मायावती ने उसी विज्ञापन में गरीबी रेखा के नीचे की ऊंची जातियों को भी आरक्षण का लाभ देने के लिए संविधान में संशोधन की भी मांग की है। कुल मिलाकर मायावती और सोनिया मैडम की राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से जो रिश्ते बन रहे हैं, उसमें ये रकम मायावती को आसानी से मिल जाएगी। क्योंकि, असली परीक्षा तो, यही होगी क्या मायावती उत्तर प्रदेश को BIMARU राज्य की श्रेणी से बाहर ला पाएगीं। उनके पड़ोसी नीतीश कुमार बिहार को इस दाग से बाहर निकालने के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं। वैसे उत्तर प्रदेश का विकास मायावती के साथ केंद्र सरकार की भी मजबूरी है। क्योंकि, देश के सबसे बड़े प्रदेश के पिछड़े रहने पर मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी देश की अर्थव्यवस्था को कैसे भी करके 10 प्रतिशत की विकास की रफ्तार नहीं दे पाएगी। लेकिन, राज्य के विकास की ज्यादा जरूरत मायावती के लिए इसलिए भी है कि पांच साल बाद सिर्फ ब्राह्मण, SC/ST, अल्पसंख्यक के जोड़ से उन्हें फिर सत्ता नहीं मिलने वाली। और, इससे पहले 2009 के लोकसभी चुनाव में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होगा। क्योंकि, गुंडाराज से मुक्त जनता को दो जून की रोटी भी चाहिए। और, अगर उत्तर प्रदेश के निवासियों को घर में ही दो जून की रोटी के साथ अच्छी सड़क, जरूरत का बिजली-पानी और उनके हिस्से की विकास की खुराद मिले तो, फिर भला मुंबई में टैक्सी चलाकर मराठियों की गाली और असम में मजदूरी करके उल्फा की गोली कौन खाना चाहेगा। कुल मिलाकर पिछले ढाई दशक में राजनीति ने उत्तर प्रदेश का बेड़ा गर्क कर दिया। अब शायद समय चक्र घूम चुका है। अब राजनीति की ही मजबूरी से उत्तर प्रदेश देश में अपना खोया स्थान पा सकेगा। लेकिन, इसमें भी अगर राजनीति हावी न हो गई तो......
दाऊद से संबंध : पूर्व मंत्री-विधायक आमने-सामने (दैनिक जागरण)
मेरठ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री के करीबियों पर अंतर्राष्ट्रीय अपराधी दाऊद इब्राहीम और मेनन बंधुओं से संबंध का आरोप लगा है। आरोप यह भी है कि ऐसे लोगों से संबंधों के चलते ही पूर्व मंत्री के करीबी ने अकूत संपत्ति जुटा ली है। मामले में एक बसपा विधायक की सिफारिश पर शासन ने जांच बैठा दी है। सीआईडी ने जांच करीब-करीब पूरी कर ली है। इस मामले में पूर्व मंत्री और बसपा विधायक की आपसी खींचतान सामने आ रही है। मामला मुजफ्फरनगर जिले के कांधला विधान सभा क्षेत्र की राजनीति से जुड़ा है। कांधला से वीरेंद्र सिंह कई बार विधायक रह चुके हैं और पिछली सरकार में मंत्री भी रहे हैं। इस बार वे तो नहीं चुने गए, लेकिन उनकी जगह बसपा के प्रवीन सिंह को विधायक चुना गया। दोनों में ही छत्तीस का आंकड़ा है। बताते हैं कि गत दिनों शासन को शिकायत की गई कि पूर्व मंत्री वीरेंद्र सिंह के करीबी जब्बार और उसके भाइयों के संबंध अंतरराष्ट्रीय डान दाऊद इब्राहीम और मुंबई के बड़े अपराधी मेनन बंधुओं से हैं। इसके चलते ही उन्होंने भारी संपत्ति जुटा ली है। बसपा विधायक ने मामले की जांच कराने के लिए शासन से सिफारिश की और अपना लेटर पैड भी लगाया। यह जांच शासन ने आर्थिक अपराध संगठन को सौंप दी। हालांकि पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा प्राइवेट लोगों की संपत्ति की जांच नहीं करती, लेकिन जांच मिली तो जांच भी शुरू करा दी गयी, लेकिन अब तक की जांच में जब्बार और उसके भाइयों के दाऊद या मेनन बंधुओं से किसी तरह के संबंध सामने नहीं आये हैं। अलबत्ता पूर्व मंत्री और बसपा विधायक की खींचतान जरूर सामने आ गयी है और उसके चलते ही यह शिकायत की गई। सीआईडी के सूत्रों ने बताया कि पूर्व मंत्री वीरेंद्र सिंह का करीबी फुगाना के जब्बार का एक भाई अंबार सऊदी अरब में नौकरी करता है तो दूसरा अफजाल मुंबई में बिल्डर है। दरअसल, 1983 में गांव में उनके पास बीस बीघा जमीन थी, जो अब 360 बीघा हो गई है। बस यह जमीन इतनी क्यों हो गई, इससे ही परेशान हो शिकायत की गई। जांच में साफ हुआ है कि जब्बार के भाई अंबार को सवा लाख रुपये प्रति माह वेतन मिलता है और बिल्डर भाई हर साल साठ लाख रुपये आयकर विभाग को टैक्स के रूप में अदा करता है। मुंबई में उसका काफी अच्छा काम है और किसी भाई के यहां कोई गड़बड़ नहीं मिली है। जांच में सामने आया है कि पूर्व मंत्री और मौजूद विधायक की आपसी खींचतान के चलते ही ऐसी शिकायत शासन से की गई। सीआईडी ने जांच करीब-करीब पूरी कर ली है और अब शासन को रिपोर्ट भेजी जा रही है।
अजित का राजनीतिक सफर 1986 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सदस्य के रूप में पहली बार संसद पहुंचे । 1987 में लोक दल (अजित) नाम से अपना गुट बनाया। 1988 में उन्होंने इसका जनता पार्टी में विलय कर दिया, समझौते के तहत वह इस नई पार्टी के अध्यक्ष बने। जनता पार्टी, लोक दल और जन मोर्चा के विलय से बने जनता दल के महासचिव बने । 1989-1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार में वे केंद्रीय मंत्री बने । 90 के दशक में वे सत्तारूढ़ कांग्रेस में चले गए और नरसिंह राव सरकार में खाद्य मंत्री बने । 1996 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीतने के एक साल बाद उन्होंने पार्टी छोड़कर भारतीय किसान कामगार पार्टी बनाई और बागपत से चुनाव जीते। 1999 में उन्होंने राष्ट्रीय लोक दल नाम से पार्टी बनाई। 2001 जुलाई में भाजपा से गठजोड़ किया और उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार में कृषि मंत्री बने। बाद में वह बसपा, भाजपा गठजोड़ में भी शामिल हुए। 2003 में अजित सिंह सरकार से अलग हो गए। जब मुलायम सिंह सरकार में आए तो वह उनके साथ चले गए और उन्हें 2007 तक समर्थन किया। इसके बाद वह फिर सरकार से अलग हो गए। फिलहाल उनका किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं है।
नई दिल्ली। राष्ट्रीय लोक दल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाले भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के आगे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने विश्वसनीयता का सवाल उठाते हुए लक्ष्मण रेखा खींच दी है। संकेत साफ है कि पार्टी ने यदि इस दिशा में बढ़े कदम वापस नहीं खींचे तो लोक सभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश भाजपा के हाथ से निकल जाएगा। कल्याण की इस चेतावनी से सावधान पार्टी ने अब रालोद से दोस्ती की अपनी रणनीति की समीक्षा करने का फैसला किया है। आगामी लोक सभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा रालोद के साथ गठबंधन करना चाहती थी। पार्टी उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी इस बाबत रालोद प्रमुख अजित सिंह से तीन बार मिल चुके हैं। अजित भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से भी मिल चुके हैं। सूत्रों का कहना है कि प्रदेश भाजपा के हुकुम सिंह और सतपाल मलिक जैसे नेता भी रालोद के गठबंधन के पक्ष में हैं लेकिन कल्याण सिंह के रुख ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को असमंजस में डाल दिया है। कल्याण सिंह यह गठबंधन कतई नहीं चाहते हैं। उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी और प्रदेश प्रभारी अरुण जेटली को दो-टूक कह दिया है कि अजित सिंह भरोसे के लायक नहीं हैं। उनसे दोस्ती पार्टी के लिए घातक होगी। गठबंधन से भाजपा का कुछ फायदा नहीं होगा। अलबत्ता अजित सिंह को लाभ जरूर मिलेगा। सूत्रों का कहना है कि कल्याण सिंह ने जेटली और आडवाणी को गत विधान सभा चुनाव का हवाला देते हुए कहा कि अपना दल के साथ गठजोड़ कर सोनेलाल पटेल को फ् सीटें दी गईं थीं लेकिन वह एक भी सीट नहीं निकाल सके। इन सीटों के भाजपा कार्यकर्ता निराश और नाराज हुए सो अलग। गठबंधन को लेकर कल्याण सिंह ने बताया कि, अनुभव बताता है कि जब भी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने गठजोड़ किया, पार्टी का नुकसान हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्म् लोक सभा सीटों पर भाजपा बिना गठबंधन के कई बार जीती है। बिना समझौते के ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भाजपा के 13 जाट विधायक चुने गए थे। मतलब साफ है कि जाटों में भाजपा की पैठ बन चुकी थी लेकिन जब भाजपा अजित की तरफ गई तो जाट पार्टी से कटने लगे। इसलिए अजित सिंह से गठबंधन भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित होगा। यूपी में अपराधों के खिलाफ विधेयक
उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने बुधवार (30 अक्तूबर 2007) को विधानसभा में एक विधेयक पेश किया जिसमें संगठित अपराध को रोकने की व्यवस्था है. विधेयक का नाम है उत्तर प्रदेश संगठित अपराध नियंत्रण विधेयक 2007. संक्षेप में इसे ‘यूपी . विधेयक पर चर्चा अगले सप्ताह होगी. लेकिन उच्च सदन विधान परिषद् में सरकार अल्पमत में है और वहाँ इसका पारित होना मुश्किल लगता है.अगर यह विधेयक पास हो जाता है तो यह अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति के पास जाएगा. मुख्यमंत्री मायावती ने एक पत्रकारवार्ता में कहा कि प्रदेश में संगठित अपराध की जड़ें बहुत गहरी हैं और इसे जड़ से समाप्त करने के लिए एक प्रभावी क़ानून लागू करना ज़रूरी है. विधेयक में भूमाफिया के साथ साथ पेशेवर हत्यारों, फिरौती के लिए अपहरण करने वालों, बंदूक की नोक पर ठेके लेनेवालों, हवाला के माध्यम से देश के आर्थिक ढांचे को नुक़सान पहुँचानेवालों, नकली दावा बनाने वालों, बड़े स्तर पर अवैध शराब बनानेवालों और नशीले पदार्थों की तस्करी करनेवालों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की व्यवस्था है. इस विधेयक में अपराधियों को सरंक्षण देने और संगठित अपराधियों की संपत्ति रखनेवालों को भी अपराधी मानकर कार्रवाई की जाएगी.संगठित अपराधियों को सरकारी सुरक्षा देना ग़ैरकानूनी ठहरा दिया गया है. सरकार का कहना है कि क़ानून का दुरूपयोग रोकने के लिए रिपोर्ट दर्ज करने से पहले आयुक्त और पुलिस उप महानिरीक्षक की लिखित अनुमति ज़रूरी होगी. जबकि अदालत में चार्जशीट दाखिल करने से पहले पुलिस महानिरीक्षक की अनुमति लेनी होगी. यूपी कोका के मुक़दमों कि सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित होंगी जो दिन प्रतिदिन सुनवाई करेंगी ताकि मुक़दमों का निबटारा जल्दी हो सके. इस विधेयक में पाँच लाख रुपए के जुर्माने और उम्र कैद के अलावा फाँसी की सज़ा का भी प्रावधान है. इस क़ानून के तहत पुलिस को अधिकार होगा कि वह संदिग्ध अपराधी से पूछताछ को ऑडियो विजुअल रिकॉर्ड कर सके. विपक्ष की आशंका लेकिन विपक्षी दल इस विधेयक को लेकर आशंकित दिखते हैं. भाजपा नेता ओमप्रकाश सिंह का कहना था कि क्या भरोसा है कि इस क़ानून का दुरूपयोग नहीं होगा. उनका कहना था कि भाजपा सरकार ने मौजूदा क़ानूनों से ही अपराध नियंत्रण करके दिखाया था.समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र सिंह चौधरी का कहना है कि यह उनकी पार्टी के लोगों को फंसाने कि सोची समझी रणनीति है. इस विरोध को देखते हुए इस विधेयक का विधान परिषद में पास होना मुश्किल है. लेकिन विधेयक गिर गया तो मुख्यमंत्री मायावती इसे विपक्ष के ख़िलाफ़ मुद्दा बना सकती हैं.
राजनीति के पद और पदार्थ (अष्टभुजा शुक्ल)
तिल का ताड़ बना देने को तर-बतर मीडिया की भाषा और प्रस्तुति परवान पर चढ़ी हुई है। चुनाव को 'महासंग्राम', 'महाभारत' और 'निशाना साधने' जैसे कारकों में तब्दील कर दिया गया है गोया यह जनता के अपने लोकतांत्रिकरण का, समर्थन या विरोध के विवेक का संवैधानिक अवसर न होकर साम्राज्य की लड़ाई का हिंसा, रक्तपात और युध्दोन्माद हो। पढ़े-लिखे लोगों की भाषा गढ़ी और पकी हुई होती है। लेकिन परिपक्वता में जो यांत्रिकी समा जाती है वह उसे सहज या सुलभ नहीं रहने देती। इसके विपरीत जनता अपनी भाषा खुद ईजाद करती है। अपने मुहावरे स्वयं विकसित करती है। उसके मुहावरों में उसके अपने अनुभव, अभिरूचि, शैली, तर्क और इंद्रियबोध घुले-मिले होते हैं। इसीलिए वह ठेठ और बेधड़क होने के साथ किताबी नहीं रह जाती। किताब के भी पहले आने वाला प्रत्यय हिसाब है। पहले सयाने और बुजुर्ग लोग बिल्कुल ठेठ अंदाज में सवाल पूछते थे और जवाब चाहते थे। अब यही 36 और 63 वाला आंकड़ा ही लीजिए। निश्चित रूप से यह हिन्दी की अपनी देवनागरी से विकसित मुहावरा है। अंकों का यह खेल रोमन संख्याओं के जरिए संभव ही नहीं हो सकता। सम्मुख या विमुख होने का अर्थ 63 और 36 जिस बिम्ब के साथ प्रस्तुत करते हैं, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। गनीमत है कि मराठी अभी तक इस लिपि को संजोए है। लेकिन यह भी पढ़े-लिखे लोगों का मुहावरा है। जनता इस मुहावरे को बिल्कुल अपने ही ढंग से सोचती है और व्यक्त करती रही है - पूरे कौतुक, जमीनी सच्चाई और अनौपचारिकता के साथ। जैसा कि मैंने पहले ही अर्ज किया, बुजुर्गों का सवाल इस मुद्दे पर कुछ टेढ़ा होता था। वे पूछते - कै नवम् मुंह चुम्मी चुम्मा ? तो जवाब होता - सात नवम् मुंह चुम्मी चुम्मा। और कै नवम् गँड़ धुक्की धुक्का? तो उत्तर आता- चार नवम् ....। आज जब देश की सदन को सबसे ज्यादा जनसेवक उपलब्ध कराने वाले यूपी में विधानसभा के चुनाव शुरू हो चुके हैं तो जनता का सवाल पूछने का वह सलीका मुझे बेहतर याद आ रहा है। चुनाव की पूर्व संख्या तक चार नवम् जारी है जो चुनावोपरान्त गठबंधन के लिए सात नवम् में बदल जाएगा। गठबंधन का धर्म निभाने के लिए कोई भीतर से समर्थन देगा तो कोई बाहर से। यानि कि किसी दल से दिल मिलेगा तो किसी से हाथ। इस कूटभाषा को समझने के लिए जनता फिर किसी नए मुहावरे की तलाश शुरू कर देगी। लेकिन तिल का ताड़ बना देने को तर-बतर मीडिया की भाषा और प्रस्तुति परवान पर चढ़ी हुई है। चुनाव को 'महासंग्राम', 'महाभारत' और 'निशाना साधने' जैसे कारकों में तब्दील कर दिया गया है गोया यह जनता के अपने लोकतांत्रिकरण का, समर्थन या विरोध के विवेक का संवैधानिक अवसर न होकर साम्राज्य की लड़ाई का हिंसा, रक्तपात और युध्दोन्माद हो। यह अतिरंजना सिर्फ गाल बजाने तक सिमट चुकी है क्योंकि कल तक साथ-साथ सत्तासुख भोगने वाले आज एक-दूसरे पर 'निशाना' साध रहे हैं। न सत्ताधीशों के पास कुछ उपलब्धियां हैं, न विरोधियों के पास कोई जनहित के मुद्दे। भाषा सिर्फ भाषा तक सीमित हो चुकी है। भाषाविदों का मानना है कि भाषा पैतृक संपत्ति नहीं होती। उसे अर्जित करना पड़ता है। लेकिन भारतीय राजनीति पैतृक संपत्ति बनती ही जा रही है। राजनीति अब धंधा और रोजगार बन चुकी है। फिर से राजघराने कायम हो रहे हैं। नई खेप के साथ नए-नए युवराज सामने आ रहे हैं। भारत में वंशवादी उत्तराधिकार के लक्षण इतने निर्लज्ज ढंग से प्रकट होने लगे हैं कि जनतंत्र प्रहसन हो चुका है। इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में भी मीडिया जोर शोर से जुटा हुआ है और वह जनमत निर्माण करने की जगह राजमत स्थापित करने का धर्म निभा रहा है। इसीलिए जंगलराज से धर्मराज तक फैली भारतीय राजनीति अब सीधी भर्ती करने वाला विभाग हो चुकी है जहां किसी तरह की परीक्षा नहीं देनी पड़ती। न कोई संघर्ष, न कोई अनुभव, न सामान्य जनता के सुख-दुख से कोई लेना देना। बस, बची है तो गलाकाट प्रतियोगिता और सुंदर सा पद जनसेवा। जनसेवा के ऐसे मंसूबों को देखते हुए कुछ साल पहले यूपी में ही घटित एक घटना याद आ रही है। विकासखंड स्तर पर एक तृतीय संवर्ग का पद हुआ करता था - ग्रामसेवक। उन कर्मचारियों में अपने इस पदनाम को लेकर गहरा असंतोष था। इसमें जुड़ा 'सेवक' शब्द उन्हें अपमानजनक प्रतीत होता था। भला, सेवा करने जैसा निष्कृष्ट काम और कौन सा होगा? सो उन्होंने न्यायालय में याचिका ठोंक दी। न्यायालय भी उनकी पीड़ा से सहमत हुआ और अब 'ग्राम सेवक' का पदनाम 'ग्राम विकास अधिकारी' है। कहां अधिकारी की ठसक और कहां सेवक की निरीहता? एक छोटा सा कर्मचारी भी गांवों के अधिकारी की घौंस के साथ रहना चाहता है तो तथाकथित जनसेवक यदि सम्राटों जैसा रूतबा हासिल करने के लिए जनतंत्र की चिन्दी-चिन्दी करने के लिए बेताब हैं तो आश्चर्य कैसा? बेचारे गांधी जी ने 'हरिजन' सेवा का संकल्प लिया था तो इसी भारतीय जनता ने 'हरिजन' पद को लेकर ही उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया और उनके नाम के साथ 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' जैसा मुहावरा दे मारा। पर मुहावरे भी वक्त के साथ बदलते ही रहते हैं। भला हो, पुरूषोत्तम अग्रवाल जैसे चिंतक का जिन्होंने इसे अब बदलकर 'मजबूती का नाम महात्मा गांधी' कर दिया है और 'सेवा' जैसे प्रत्यय को निंदनीय होने से बचा लिया है। आखिर, तुलसीदास ने कुछ सोच समझकर ही लिखा होगा - सब ते सेवक धरम कठोरा। यह एक कठोर सच है कि सेवा दुष्कर कर्म है। स्वयंसेवकों के जितने भी शाखा सूत्र बढ़ते जाएं लेकिन पर जन सेवा के गुणसूत्र मिटते जा रहे हैं। परपीड़ा के अहसास नदारत हैं क्योंकि हमने संवेदनहीनता का चुनाव कर लिया है। अब राजनीति जनसेवा के लिए नहीं, दबदबा बनाए रखने के लिए की जा रही है। दुखद यह है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी 'जनता की सेवा' जैसे कारक को 'जनता पर शासन' जैसे प्रत्यय में बदल देने का अपराध करता दिखाई दे रहा है। लेकिन दूसरी ओर यह सुखद भी है कि उसी मीडिया ने घूस लेकर सदन में सवाल करने वाले बेचू जनसेवकों को बेनकाब भी कर दिखाया। उम्मीदें हमेशा आदमी को थामे रहती हैं। यह भी छोटा सच नहीं। पता नहीं अन्य राज्यों में कैसी व्यवस्था है, लेकिन यूपी में परिवहन विभाग की बसों में कुछ सीटें जनप्रतिनिधियों (विधायकों, सांसदों और पत्रकारों) के लिए लिखित तौर पर आरक्षित होती हैं। इस नए किस्म के आरक्षण पर जब से मैंने यात्रा करनी शुरू की तभी से निगाह डाल रहा हूं। इसे संयोग कहिए या विडम्बना कि आज तक उन सीटों पर कोई पद का दावेदार नहीं दिखाई दिया - अंखड़ियां झांई पड़ीं पंथ निहारि- निहारि। संयोग इसलिए नहीं कह सकता कि वह कभी कदाचित घटित होता है। तो ऐसी विडंबनाओं के हवाले हो चुके इस लोक(प)तंत्र में रायपुर (छत्तीसगढ़) के पूर्व सांसद श्री केयूर भूषण की बूढ़ी साइकिल की सवारी मन में आदर का भाव उत्पन्न करती है। आखिर, जनसेवकों में महाराजाओं की तरह दिखने और रहने की कामनाएं क्यों जन्म ले चुकी हैं? यह जानते हुए भी कि जिंदगी का यथार्थ आदमी को कम से कम अपनी सच्चाई का आईना तो दिखा ही देता है और आम आदमी की तरह रहने के लिए बाध्य भी करता है और पदार्थ के संदर्भ ऐसे ही होते हैं -
हम सब अपने अपने भंगी
अपने हाथों अपना गोबर धोते धुर सत्संगी
कौन अछूत, सवर्ण कौन है, पट में सबकी नंगी
कोई काला कोई गोरा यह दुनिया बहुरंगी
रज की सुधा, वीर्य के अमृत से निर्मित यह काया
गर्भाशय या परखनली में भू्रण एक-सा पाया
शब्द-शब्द को मन से गाया, ताल ताल पर थिरका
नवरस के कवि। आदिकाल से अपना रस तो सिरका
सब का मुंह कुश से चीरा है, सबकी क्षुधा समुद्र
सबकी सोच गगनचुंबी है कर्म क्षुद्र से क्षुद्र
दूध सभी का उज्जर होगा, रक्त सभी का लाल
अष्टभुजा के मुंह मत लगना, अष्टभुजा चंडाल
30 सांसद, 150 विधायक अपराधी
उत्तर प्रदेश में 30 सांसद और 150 विधायक अपराधिक रिकॉर्ड वाले हैं। यानी ये वे लोग हैं जिनके डर के बाद भी लोगों ने इनके खिलाफ मुकदमे दर्ज करा दिये हैं। पता नहीं खबर बिग बी --- शहंशाह अमिताभ बच्चन ने पढ़ी-सुनी या नहीं। खबर बच्च्न साहब के लिए ज्यादा महत्व की इसलिए भी है क्योंकि,सिर्फ बच्चन साहब ही दम ठोंककर ये कह रहे हैं यूपी में बहुत दम हैं क्योंकि जुर्म यहां कम है। और, बच्चन साहब और उनके दोस्त अमर सिंह का जानकारी के लिए ये आंकड़े किसी मीडिया हाउस के या विपक्षी पार्टी के आरोप नहीं हैं ये आकंड़े हैं उत्तर प्रदेश के गृह विभाग के-- यानी गृह विभाग जानते हुए भी इन अपराधियों की सुरक्षा के लिए पुलिसबल का इंतजाम करताहै, वजह सिर्फ इतनी कि ये आपके वोट की ताकत से चुने हुए जनप्रतिनिधि है। ये वो जनप्रतिनिधि हैं जिनको आपने पिछले विधानसबा और लोकसभा चुनाव में वोट दिया कि वो आपके बुनियादी हक के लिए लड़ाई लड़ेंगे जिससे आपकी जिंदगी कुछ औऱ बेहतर हो सकेगी। कम से कम वोट मांगते वक्त तो इनका यही दावा था। लेकिन, ऐसे जनप्रितिनिधि क्या खास आपके हकों की लड़ाई लड़ पाएंगे। जिनका आधा से ज्यादा समयअदालतों में सिर्फ इसलिए बीत जाता है कि कहीं अदालत इन्हें अपराधी घोषित न कर दे और अगली बार ये आपसे ये वादा करने न आ पाएं कि हम आपकी जिंदगी के हालात सुधारने आ रहे हैं । तो, इस बार वोट डालने जाइए तो, जरा संभलकर क्योंकि, बैलेट बुलेट पर पांच साल में सिर्फ एक ही दिन भारी पड़ता है और तो, सत्ता और अपराधियों का गठजोड़ बैलेट को बुलेट दिखाकर डराता ही रहता है। यूपी के अपराधी सांसदों -विधायकों की गृह विभाग ने आज सूची पेश की है औरआज ही एक और खबरआई है। फैजाबाद के मिल्कीपुर विधायक रामचंद्र यादव को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। अब आप कहेंगे कि जब 150 विधायकों के खिलाफ अपराधिक मामले हैं तो फिर किसी विधायक की गिरफ्तारी की खबर मेंखासक्याहै। लेकिन, ये खास इसलिए है क्योंकि, समाजवादी पार्टी के इन विधायक जी के खिलाफ कोर्ट ने गैरजमानती वारंट जारी कर रखा था। और, अब ये पकड़ में इसलिए आ गए हैंकि इन्हें चुनाव लड़ना है। वरना तो, ये मजे से घूम रहे थे लेकिन, पुलिस को ढूंढ़े नहीं मिल रहे थे।और, इन साहब के चुनाव प्रचार में जो जी-जान से जुटे हैं वो हैं मित्रसेन यादव-- ये भी कोई कम नहीं हैं-- असल बात इन दोनों खबरों जैसी ढेर सारी खबरें हमें रोज सुनने देखने को मिलती हैं लेकिन, हम हमारे ऊपर क्या असर होगा सोचकर इनके बगल से आंख मूंदकर निकल जाते है। आपको लग रहा होगा फिर मैं अभी हल्ला क्यों मचा रहाहूं। हल्ला मचाने की वजहहै यूपी विधानसभा के सात चरणों में होने वाले चुनाव। चुनाव आयोग ने सात चरणों में यहां वोटिंग का ऐलान किया है। दरअसल ऊपर की दोनों खबरें और चुनाव आयोग का सात चरणों में चुनाव का ऐलान , एक दूसरे से जुड़ी हुई खबरें हैं। असल बात ये है कि 150 विधायक- 30 सांसद(इतने लिस्टेड हैं) अपराधियों के अलावा दूसरे ऐसे ही रिकॉर्ड वाले अपराधियों (ये सब चुनाव भी लड़ेंगे।) से निपटने की तैयारी में ही आयोग सात चरणों में चुनाव करा रहा है। यूपी की सीमा से लगे सभी राज्यों के डीजीपी भी अलर्ट हैं कि इस राज्यपर कहीं उनका कब्जा न हो जाए जो, गृह विभागके अपराधियों की सूची में होने के बाद भी गृह विभाग के ही मातहत आने वाले पुलिस की संगीनों के साये में अपराध करते घूमते रहें। लेकिन, ये चुनाव आयोग के बस की बात है ये मुझे नहीं लगता। क्योंकि, ये ताकत सिर्फ आपके हाथ में है।और मेरे कहने का आशय बिल्कुल भी ये नहीं है कि सिर्फ समाजवादी पार्टी में ही अपराधी रिकॉर्ड वाले लोग हैं। सभी पार्टियों में थोड़ कम-थोड़ा ज्यादा वाले अंदाज मे अपराधी सम्मानित हो रहे हैं। प्रदेश की 403 में से कम से कम 250 विधानसभा ऐसी हैं जिसमें डेमोक्रेसी का लिटमस टेस्ट होना है। क्योंकि, इन विधानसभा से पहले से चुने हुए विधायक या फिर विधायकजी बनने की इच्छा रखने वाले कोई सज्जन (साबित न होने तक यही कहा जाता है) नामांकन भर चुके हैं या फिर भरने की पूरी तैयारी कर चुके हैं।देश को राह दिखाने का दम भरने वाला उत्तम प्रदेश (अब सिर्फ विज्ञापनों में) उत्तरोत्तर गर्त में ही जाता दिख रहा है। तो, एक दिन अपनेऔर अपने प्रदेश के लिए मनबना लीजिए। सभी पार्टियों में थोड़े कम ज्यादा अपराधी और बचे खुचे शरीफ मिल ही जाएंगे।इसलिए कोशिश करके इस बार बचे खुचे शरीफों को अपराधी बनने रोकिए। नहीं तो, अगले विधासनभा चुनाव तक गृह विभाग की सूची शायद और लंबी होगी।
दलित से केवल सत्ता फलित समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश में सरकार थी। तब फिल्म अभिनेता ने कहीं कह दिया था, 'यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम।’ सपा ने अमिताभ के इस डायलॉग को खूब भुनाया। भुनाया तो सभी पार्टियों ने। किसी ने सकारात्मक तरीके से तो किसी ने नकारात्मक रूप से। बसपा ने इसे सबसे अधिक तूल दिया। चुनाव के दरम्यान भी और चुनाव परिणाम आने के बाद भी बसपा ने यही स्थापित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश में सपाइयों के शासनकाल में अपराध बहुत थे। राजनीतिक दल यह क्यों नहीं स्वीकारते कि अपराध पर रोकथाम अब किसी भी राजनीतिक पार्टी के बूते की बात नहीं रही, चाहे कोई कभी भी सत्ता पर काबिज हो जाए। चाहे सपा हो या बसपा या भाजपा या कि कांग्रेस। किसी भी राजनीतिक दल की औकात अपराध पर रोकथाम करने की नहीं रही। तब सपा की सरकार थी अब बसपा की सरकार है। क्या जुर्म कम हुए? जब प्रदेश में भाजपा की सरकार थी तो उस समय क्या अपराध काबू में थे? दलित हित के नाम पर अपना राजनीतिक कद बढ़ाने वाली पार्टी बसपा के शासनकाल में किस तरह जरायम धंधे फल-फूल रहे हैं, यह सार्वजनिक है। दलितों के साथ अत्याचार बसपाई शासनकाल में सबसे अधिक परवान पर है। रोज रोज खबरें आ रही हैं फलां जगह दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार तो फलां जगह दलितों की हत्या। किस बात का दलित हित। किस बात का बहुजन हिताय। सब पार्टियां केवल स्वजन हिताय करती हैं और सोशल इंजीनियरिंग के नाम लोगों से धोखा करती हैं। सत्ता मिल जाए तो लूटती हैं। बात दलितों के साथ अनाचार और उत्पीड़न की हो रही थी। स्वनामधन्य बसपा नेता पूर्व सांसद नरेंद्र सिंह कुशवाहा की करतूतें सब जानते हैं। सांसद थे तो घूस लेते पकड़े गए। सांसदी गई तो प्रेम की पेच लड़ाने लगे। वह भी मध्य प्रदेश की एक बसपा नेता से। बसपा नेता ने पूर्व सांसद पर बलात्कार का मुकदमा ठोक दिया तो खुद को बचाते फिरते रहे। फिर पत्नी को गोली मार दी। खुद को भी गोली मार ली। बच भी गए। ऐसे लोग जल्दी मरते भी नहीं और पुलिस पकड़ती भी नहीं। बसपाई शासनकाल में 'यूपी में है दम’ तो तब समझ में आता जब सरकार ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करती और अपनी निष्पक्ष छवि स्थापित करती। लेकिन बसपा नेता पर कार्रवाई कैसे हो सकती है? यह सब देख कर इस सांसद का भतीजा भी बौरा गया। उसने भी पार्टी के आधार पर डाका डाला और एक दलित लड़की के साथ बलात्कार कर डाला। बलात्कार करने के बाद लड़की को मारापीटा भी गया। पुलिस में रपट दर्ज न कराने की धमकियां भी दी गई, यह जानते हुए भी कि पुलिस में कार्रवाई करने का मुद्दा नहीं। बात, अपराधियों पर कार्रवाई में होने वाली कोताही पर भी और बात, दलितों के साथ हो रहे अत्याचार पर भी। दोनों में से किसी एक में सरकार संजीदा दिखती तो बात समझ में आती। लेकिन यहां तो दोनों ही फेल है। राजनीतिक दलों में शामिल अपराधी तत्वों के कारण राजनीतिक दल प्रदूषित होते जा रहे हैं ऐसा नहीं है। राजनीतिक दल प्रदूषित हैं इसलिए राजनीति में अपराधियों की भीड़ बढ़ रही है। ऐसे में उम्मीद किनसे...?
अपहरणः राजनीति-अपराध का ताना-बाना
प्रकाश झा ने इसमें राजनीति और अपराध के जिस तालमेल को सामने रखा है, फिल्म से इतर उन्हें देखने के लिए वहां ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है. उद्योग का रूप ले चुके अपहरण के बाज़ार की बारीकियों को इस फिल्म में खोल कर रख दिया है आधा दर्जन से ज्यादा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और अनगिनत दूसरे राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय सम्मान पा चुके इस फिल्मकार ने. 'दामुल' से लेकर अब 'अपहरण' तक प्रकाश की फिल्मों पर ग़ौर करें तो एक सवाल अक्सर उठता है - क्या ये फिल्में उनका एक्टिविज़्म हैं. बिहार से चुनाव लड़ चुके प्रकाश झा इस सवाल के जवाब में कहते हैं, "एक्टिविज़्म तो नहीं. हां, मैं कहानियां और पात्र वहां के समाज से उठाता हूं जो मुंबई से दूर यूपी बिहार, बंगाल या यूं कहिए देश भर में है. बड़े शहरों से बाहर बैठे लोगों की समस्याएं, वहां हो रहे सामाजिक राजनीतिक मनोवैज्ञानिक बदलाव पर मेरी लगातार नज़र रहती है और मेरी फिल्में इन सब पर मेरी प्रतिक्रिया होती है." वे कहते हैं, "असल में अपहरण संस्कृति देश में हो रहे सामाजिक आर्थिक बदलावों का ही नतीजा है जो खास तौर पर बिहार में तेज़ी से पनपी और आज एक उद्योग बन गयी है."
बड़े-बड़े राज उगल रहा है ब्रजेश स्वतंत्र आवाज़ डाट काम ब्यूरो
नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश का कुख्यात इनामी बदमाश ब्रजेश सिंह इस समय आखिर यूपी के किस सत्तारुढ़ राजनेता के कहने पर आत्मसमर्पण की योजना बना रहा था? ब्रजेश सिंह को भुवनेश्वर से गिरफ्तार करने वाली दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने इसका पता लगा लिया बताते हैं, लेकिन वह किसी बखेड़े से बचने के लिए इस मामले में मीडिया से दूरी बनाए हुए है। करीब बारह साल से फरार चल रहा यह अपराधी अपनी मौत की खबर उड़वाने और बनारस में बाकायदा अपनी तेरहवीं करवाने के बाद निश्चिंत होकर उड़ीसा में रह रहा था। ब्रजेश सिंह उत्तर प्रदेश दिल्ली हरियाणा बिहार नेपाल दुबई में खतरनाक अपराधों का ‘व्यवसाय’ चलाए हुए था। दिल्ली पुलिस के हत्थे चढ़ने से उसकी सारी योजनाओं पर फिलहाल विराम लग गया है। इसके पकड़े जाने से एक बड़े अपराधिक-राजनीतिक नेटवर्क का पर्दाफाश हो सकेगा। सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के किसी बड़े राजनेता के आश्वासन पर उसकी आत्मसमर्पण की योजना थी, जिसे दिल्ली पुलिस ने नाकाम कर दिया। ब्रजेश सिंह अत्यंत प्रखर बुद्धि का और अत्यंत शातिर बताया जाता है और उसका विविध ज्ञान पुलिस की पूछताछ में आड़े भी आ रहा है। इसके बावजूद उसने पुलिस के डंडे के सामने कई मामलों को खोला है जिसमें उसके आत्मसमर्पण की योजना भी है। दिल्ली पुलिस को उसके किसी मुखबिर ने उसकी योजना की बड़ी सटीक जानकारी दी जिससे दिल्ली पुलिस का आपरेशन ब्रजेश सिंह सफलता से पूरा हुआ। क्या ब्रजेश सिंह को उत्तर प्रदेश में राजनीतिक शरण दी जाने वाली थी जिसके एवज में वह पूर्वी उत्तर प्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव के लिए जमीन तैयार करने का काम करना था? ब्रजेश सिंह के भाई चुलबुल सिंह भाजपा के एमएलसी हैं और सगा भतीजा सुशील सिंह इस समय यूपी में सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी का धानापुर (चंदौली) विधानसभा से विधायक है। कहते हैं कि यहीं से ब्रजेश सिंह के यूपी पुलिस के सामने आत्मसमर्पण की योजना बनी है। कोयला, शराब और रेलवे के स्कै्रप के दलाल ब्रजेश सिंह पर हत्या, अपहरण, डकैती और धमकाकर गुंडा टैक्स वसूलने के दर्जनों मामले दर्ज हैं। कई साल से फरारी के कारण उसके जीवित होने या न होने की खबरों ने उसको बचाए रखा। ब्रजेश सिंह के भाजपा सहित लगभग सभी प्रमुख राजनेताओं पर एहसान माने जाते हैं जोकि उसकी फरारी को उसकी मौत होना बताकर सबको गुमराह करते रहे लेकिन पुलिस और खासतौर से दिल्ली पुलिस उसके पीछे लगातार लगी रही। ब्रजेश ने कई बार दिल्ली मुंबई पुलिस को चकमा दिया लेकिन उसके जबरदस्त नेटवर्क के कारण कई साल से अधिकांश तो यही मानकर चल रहे थे कि गैंगवार में ब्रजेश की मौत हो चुकी है। घरवालों और शुभचिंतकों ने योजनाबद्घ ढंग से लोगों में यही विश्वास बनाए रखा। उप्र में बसपा की सरकार आते ही उसको बसपाई बनाकर बाकायदा पूर्वांचल की राजनीतिक कमान सौंपने की रणनीति पर काम चल ही रहा था, तभी दिल्ली पुलिस के हाथ उसका यह शिकार लग गया। ब्रजेश ने कई गंभीर वारदातों को अंजाम दिया है जिसमें मुंबई में जेजे अस्पताल में अरुण गवली गैंग के एक सदस्य की हत्या का मामला है। इस गोली कांड में ड्यूटी पर तैनात मुंबई पुलिस के सिपाही भी मारे गए थे। ब्रजेश सिंह यूं तो भाजपा नेताओं के बहुत करीब रहा है लेकिन वह मुंबई में श्रंखलाबद्घ बम ब्लास्ट के मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहीम का खास गुर्गा भी माना जाता है। उसके कहने पर उसने मुंबई में कई ऐसे अपराधों को अंजाम दिया है, जो इसकी गिरफ्तारी नहीं होने के कारण खुल नहीं सके थे। दिल्ली पुलिस इस अपराधी से उसके नेटवर्क के बारे में जानकर हैरान है कि वह किस प्रकार इतने दिन फरारी में सफल रहा। पूछताछ टीम के करीबी सूत्रों ने बताया है कि वह देश के बाहर दुबई और सिंगापुर में काफी समय रहा है। नेपाल में भी उसके छिपने के कई ठिकाने हैं।सूत्र बताते हैं कि योजनाबद्घ ढंग से उसने अपनी मौत होने का प्रचार कराया हुआ था और वह एक समय बाद ऐसे अवसर की तलाश करने लगा था जिसमें उसका आगे का जीवन राजनीतिज्ञों की तरह से चले। अपराधिक मामलों के गवाहों की उसे कोई चिंता नहीं है और वैसे भी यूपी में उसे राजनीतिक शरण मिलने ही वाली थी। पुलिस ने उससे पूछताछ में मिले सुरागों कों दबाकर रखा हुआ है। अभी ब्रजेश सिंह के नार्को टेस्ट कराने की भी तैयारी चल रही है। पुलिस को उम्मीद है कि उसमें वह अपने संपर्क सूत्रों और अपराधों के बारे में उगलेगा। दिल्ली पुलिस उसके बारे में मिली जानकारी के आधार पर कुछ छापेमारी कर रही है। इसमें वह मुंबई पुलिस की भी मदद ले रही है। इन दोनों राज्यों की पुलिस के साथ-साथ उत्तर प्रदेश पुलिस को भी ब्रजेश सिंह की जरूरत है। पुलिस पहले ही कह चुकी है कि वह ब्रजेश सिंह का नारको टेस्ट कराएगी जिसके बारे में अभी कोई अगली जानकारी सामने नहीं आई है।
मनोज गुप्ता हत्याकांड
उत्तरप्रदेश लोकनिर्माण विभाग के अधिशासी अभियंता मनोज गुप्ता की हत्या को लेकर सूबे की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है। समाजवादी पार्टी के नेता सड़कों पर उतर आए और गिरफ्तारियां दीं तो राहुल ने मौके की नजाकत को भांपते हुए पीड़ित परिवार से फोन पर बात की। उधर मायावती ने सभी विरोधी पार्टियों पर गंदी राजनीति करने का आरोप लगाया। अभियंता हत्याकांड के विरोध में बृहस्पतिवार को प्रदेश में खासा बवाल मचा। समाजवादी पार्टी ने प्रदेशव्यापी बंद का आह्वान किया और उसके नेता व कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए, गिरफ्तारियां दीं और जमकर हंगामा मचाया। उधर, मुख्यमंत्री मायावती ने गुप्ता के परिजनों की मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से कराने की मांग को खारिज कर दिया तो सपा महासचिव अमर सिंह ने कहा कि माया राज में यहां तो खौफ और आतंक का माहौल है। इस सबके बीच उत्तरप्रदेश की एक अदालत ने मनोज गुप्ता की हत्या के मामले में बहुजन समाज पार्टी के विधायक शेखर तिवारी को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। विधायक शेखर तिवारी को बृहस्पतिवार को औरैया जिले के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी) के समक्ष पेश किया गया। सीजेएम ने तिवारी को 7 जनवरी तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेजने का आदेश दिया।इससे पहले, सपा की उत्तरप्रदेश इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव और पार्टी के युवा सांसद अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा कार्यकर्ताओं ने लखनऊ में राजभवन के सामने धरना दिया और सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तारियां दीं। इस दौरान कार्यकर्ताओं की पुलिस के साथ तीखी झड़प भी हुई।शिवपाल सिंह ने पत्रकारों से कहा कि आमतौर पर जन्मदिन पर तोहफे के रूप में फूल मांगे जाते हैं, लेकिन सूबे की मायावती सरकार अपने जन्मदिन पर खून मांग रही हैं। वे माफियाओं और गुंडों से चंदा उगाही कराकर पूरे राज्य की जनता को लूटने में लगी हैं। यादव ने बसपा सरकार को तत्काल बर्खास्त किए जाने की मांग की। उधर, मुख्यमंत्री मायावती ने गुप्ता के परिजनों की गुप्ता की हत्या की सीबीआई जांच की मांग खारिज करते हुए कहा कि अभियंता मनोज गुप्ता की हत्याकांड से जुड़े दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, वह चाहे कोई भी क्यों न हों। मायावती ने साफ किया कि पुलिस घटना की जांच कर रही है।दिवगंत अभियंता के भाई शरद गुप्ता ने पत्रकारों से बातचीत में कहा था कि उनके परिवार को राज्य सरकार की पुलिस पर भरोसा नहीं है, इसलिए हत्या की जांच सीबीआई से कराई जाए। सपा द्वारा गुप्ता की हत्या की वजह चंदा उगाही बताए जाने के आरोप को पूरी तरह खारिज करते हुए मायावती ने कहा कि सपा मेरी सरकार के खिलाफ साजिश रच रही है। उन्होंने इस हत्या के पीछे पीडब्ल्यूडी अधिकारियों का हाथ होने की आशंका जताई। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार अपराधी तत्वों को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी, चाहे वह उनकी अपनी ही पार्टी का ही क्यों न हो। मायावती ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा, "जब से मैं मुख्यमंत्री बनी हूं राज्य में कानून-व्यवस्था में सुधार हुआ है। इस मामले में जैसे ही मुझ्झे खबर मिली मैंने अपनी पार्टी के विधायक को जेल भेज दिया।"उन्होंने कहा कि अगर मेरी पार्टी का कोई भी कार्यकर्ता जनता से पैसे मांगता पकड़ा गया तो उसे कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी। मैंने कभी अपने किसी कार्यकर्ता को जन्मदिन के लिए पैसे एकत्र करने को नहीं कहा। इस घटना को मेरे जन्मदिन से जोड़कर देखना गलत है। यह पूरी तरह विपक्षी पार्टियों की साजिश है।उल्लेखनीय है कि औरैया में बुधवार को मनोज गुप्ता की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। बसपा के स्थानीय विधायक शेखर तिवारी पर गुप्ता की हत्या करवाने का आरोप है। आरोपी शेखर तिवारी को सात जनवरी तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है।
Friday, January 2, 2009
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