Thursday, November 26, 2009

अमर उजालाः बूड़ा वंश कबीर का!

बड़े मीडिया घरानों के बीच झगड़े तो चलते ही रहते हैं लेकिन हिंदी मीडिया का अमर उजाला ग्रुप, यानी इसके मालिकान विवाद का नया इतिहास रच रहे हैं। अमर उजाला के संस्थापक मित्र स्वर्गीय डोरीलाल अग्रवाल और स्वर्गीय मुरारी लाल माहेश्वरी ने कभी सोचा भी न होगा कि उनकी औलादें कभी ऐसे अपयश की वारिस बन जाएंगी।
पहला विवाद हुआ मौजूदा अमर उजाला निदेशक अतुल माहेश्वरी-अशोक अग्रवाल बनाम अजय अग्रवाल के बीच। अतुल-अशोक जीत गए। अजय अग्रवाल हार गए तो ले-देकर उन्हें किनारे लगा दिया गया। अजय अग्रवाल ने डीएलए (D...डोरी...L....लाल A....अग्रवाल) नाम से नया मिड-डे निकाल लिया। दूसरे साझीदार यानी स्वर्गीय अनिल अग्रवाल के परिजनों ने दो मैग्जीनें निकाल लीं। अब अमर उजाला ग्रुप दो साझीदार बचे निदेशक नामक मालिक अतुल माहेश्वरी-राजुल माहेश्वरी बंधु और चेयरमैन नामक मालिक अशोक अग्रवाल।
जिस समय अजय अग्रवाल और स्वर्गीय अनिल अग्रवाल के परिजनों को अमर उजाला ग्रुप से बाहर का रास्ता दिखाया गया था, उन्हीं दिनों से ये चर्चाएं भी चल पड़ी थीं कि कभी न कभी माहेश्वरी बंधु अग्रवाल साझीदार को भी झटका देकर पूरे ग्रुप पर अपना एकछत्र राज स्थापित करने की कोशिश करेंगे। वजह यह गिनाई जा रही थी कि अखबार के माल-मत्ते में अग्रवाल पक्ष का शेयर काफी कम लगभग सिर्फ एक तिहाई है। कहा तो यहा तक जाता है कि अजय अग्रवाल को बाहर का रास्ता दिखाने से पहले ही यह रणनीति बुनी जा चुकी थी कि पहले एक भाई को बाहर करो, दूसरे को तो चुटकी बजाकर खदेड़ देंगे।
अतुल-अशोक साझीदारों के मुकदमा जीतने के कुछ महीनों तक तो ग्रुप में बड़ा फूला-फूला माहौल रहा। दो मालिकानों के सरपरस्त कॉलर उचकाए हंसी-ठट्ठा करते रहे। चापलूसियों और जीहुजूरियों के मनोहर झोके बहते रहे। धीरे-धीरे अचानक कानाफूसी शुरू हुई कि चिंगारी फूटने लगी है। अर्थात माहेश्वरी बंधु अग्रवाल साझीदार को किनारे लगाने लगे हैं। अग्रवाल जी के कान खड़े हुए। पहुंच गए अदालत कि अब तो भैया निपटाई दो मेरा मामला भी। अदालत में बैठे महापुरुषों ने वही तरकीब अपनाई, जो कहा जाता है कि अजय अग्रवाल को किनारे लगाने में अपनाई गई थी। लेकिन इस बार मारे गए गुलफाम। बांड़ तो बांड़, नौ हाथ का पगहा भी सीबीआई के हाथ आ गया है। मामला बड़ों का है, ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं कि घूसखोरी कांड में कुछ होना-हवाना है। सीबीआई की करतूतों से भी पूरा देश वाकिफ है। आखिरकार इसे भी पट-पटा लिया जाएगा। अतुल-अशोक का हक-हिस्सा बांट-बूंट कर रफा-दफा कर लिया जाएगा।
अब इस पूरे तांडव में सियापा पीट रहे हैं कर्मचारी। कई लोग तो पेंशन लेकर ही अमर उजाला से विदा होने वाले थे। शशि शेखर के हिंदुस्तान चले जाने के बाद कई मेढकियों ने भी नाल मढ़ा ली थी। जब तक शशि शेखर अमर उजाला में रहे, सबकी घिग्घी बंधी रही। जाते ही महान संपादक होने लगे। कुछ महान संपादक जो इधर-उधर दुबके हुए थे, अमर उजाला लौटने लगे हैं। मसलन.....आदि-आदि। छोड़िए भी ऐसों की क्या चर्चा की जाए। तो अब बाकी बचे अमर उजाला के महान संपादकों से लेकर चपरासी तक एक ही बात दिन-रात सोच रहे हैं कि इधर जाऊं या उधर जाऊं! .........तो अपुन तो एक ही सुझाव है भैये कि जिधर इच्छा हो, उधर जाओ, जागरण में जाओ, हिंदुस्तान में जाओ, पाकिस्तान में जाओ, लेकिन अपने बारे में सपने में भी ऐसा न सोच लेना कि डोरीलाल अग्रवाल वाले अमर उजाला में काम कर रहे हो।
धत्तेरे की..........मारा कि पूरा अखबार तहस-नहस कर डाला। बूड़ा वंश कबीर का, उपजे पूत कमाल....के.....जय हो! जय हो!.......... राम बनाए जोड़ी, एक काना, एक कोढ़ी। तो भैया कोढ़ी चढ़ गया काने के कंधे पर, लगा अलाप लेने लंबी-लंबी। कान में उंगली डाल कर लोरकी गाने लगा, गिरा धड़ाम से सीबीआई के हौज खास में धम्म से!!
सुना है, जागरण वाले आजकल बड़े मगन हैं। खूब चटखारे ले-लेकर चर्चाएं कर रहे हैं। उन्होंने अर्थात दैनिक जागरण के कौरव-हिस्सेदारों ने अपने-अपने बांट-बखरे पहले ही कर लिये हैं।
दैनिक भास्कर का राग तो बहुत पुराना है। एक ने, दूसरे को तान रखा है कि खबरदार जो उत्तर प्रदेश में कदम भी रखा। लेकिन कुछ भाई लोग हैं कि सालों से एक ही रट लगाए हुए हैं कि यूपी में भास्कर अब आ रहा है, तब आ रहा है।
नवभारत टाइम्स का अंदरूनी अलग राग है
हिंदुस्तान का अलग राग है
और पाकिस्तान का..........?????

Wednesday, November 25, 2009

मीडिया भी कुसूरवार हैः लिब्राहन

बाबरी मस्जिद

जस्टिस लिबरहान ने रिपोर्ट में कहा है कि प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया अक्षम है. भारतीय जनता पार्टी, संघ नेताओं और सरकारी अधिकारीयों के अलावा जस्टिस लिबरहान ने मीडिया को भी गैरज़िम्मेदारी से ख़बरें लिखने का दोषी पाया है. बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले की जाँच रिपोर्ट में जस्टिस लिबरहान चाहते हैं कि वकीलों और डॉक्टरों की नियामक संस्थाओं की तर्ज़ पर पत्रकारों के लिए भी कोई प्राधिकरण बने. जस्टिस लिबरहान ने अपनी अनुशंसाओं में कहा है, " इस बात की सख्त ज़रुरत है कि भारतीय चिकित्सा परिषद और बार काउन्सिल की तर्ज़ पर पत्रकारों, टीवी-रेडियो चैनलों और मीडिया समूहों के ख़िलाफ़ शिकायतों का निर्णय करने के लिए कोई स्थायी प्राधिकरण हो." सरकार ने अपनी कार्रवाई रिपोर्ट में कहा है कि केन्द्रीय न्याय और सूचना प्रसारण मंत्रालय से आग्रह किया जाएगा कि वो नियामक संस्था की ज़रुरत को परखे. जस्टिस लिबरहान ने इस रिपोर्ट में कहा है, " मैं जोर दे कर कहता हूँ कि मीडिया के काम पर नज़र रखने के लिए देश में एक नियामक संस्था होनी ही चाहिए." उन्होंने आगे जोड़ा है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकार को उनका काम करने का लाइसेंस दिया जाए. इस तरह के लाइसेंस के बाद पत्रकार भी अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए खुले हों और ग़लत काम के दोषी पाए जाने पर उनका काम करने का लाइसेंस स्थगित किया जा सके. जस्टिस लिबरहान ने कहा है कि समय आ गया है कि मीडिया और पत्रकार जनता की आशाओं और विश्वास पर खरे उतरें.


रोजी छूटने का डर हमें फटकारता-सा/ गजानन माधव मुक्तिबोध


गजानन माधव मुक्तिबोध

जब दुपहरी जिन्दगी पर रोज सूरज
एक जॉबर-सा
बराबर रौब अपना गांठता-सा है
कि रोजी छूटने का डर हमें
फटकारता-सा काम दिन का बांटता-सा है
अचानक ही हमें बेखौफ करती तब
हमारी भूख की मुस्तैद आंखें ही
थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई
पास पा के भी
बुझा-सा ही रहा इस जिन्दगी के कारखाने में
उभरता भी रहा पर बैठता भी तो रहा
बेरुह इस काले जमाने में
जब दुपहरी जिन्दगी को रोज सूरज
जिन्न-सा पीछे पड़ा
रोज की इस राह पर
यों सुबह-शाम खयाल आते हैं....
आगाह करते से हमें.... ?
या बेराह करते से हमें ?
यह सुबह की धूल सुबह के इरादों-सी
सुनहली होकर हवा में ख्वाब लहराती
सिफत-से जिन्दगी में नई इज्जत, आब लहराती
दिलों के गुम्बजों में
बन्द बासी हवाओं के बादलों को दूर करती-सी
सुबह की राह के केसरिया
गली का मुंह अचानक चूमती-सी है
कि पैरों में हमारे नई मस्ती झूमती-सी है
सुबह की राह पर हम सीखचों को भूल इठलाते
चले जाते मिलों में मदरसों में
फतह पाने के लिए
क्या फतह के ये खयाल खयाल हैं
क्या सिर्फ धोखा है ?....
सवाल है।

(संभावित रचनाकाल 1948-50, अप्रकाशित)

Monday, November 23, 2009

डर जाने का डर


ऊंचे आसमानों,
उड़ान पर निकले पंछियों,
निहत्थे मछुआरों,
अपने अंतहीन आर-पार
और
खामोश तटों को
लहरें आंखें तरेरती हैं,
खारे पानी के बोझ से लदे-फदे
इस समुद्र के
अब बह जाने का डर है!

इसे दुर्गम-अलंघ्य
पहाड़ों से भी भय नहीं लगता
क्योंकि
उसके ग्लेशियर पिघलने लगे हैं,
मुरझाते फूल,
वनस्पतियां और जीव-जंतु,
सब उदास हैं,
राहगीरों को घूरते हैं
घाटियों-तलहटियों के निचाट सन्नाटे,
अब इन गगनजीवी चोटियों के
ढह जाने का डर है!

नदियां घबराई हुई हैं
कि अब उनके आकाशों में तने
पुल नहीं, उन पर से गुजरने वाली
सिर्फ ट्रेनें थरथराती हैं
और उनमें ठुंसे-कसे मुसाफिरों के झुंड भी,
जो कहीं-न-कहीं चले जा रहे हैं-
अपने-अपने बाल-बच्चों समेत
घाटों की भीख
या झोपड़ पट्टियों की टोह में
अब इन तेज रास्तों के
थम जाने का डर है!

समुद्र बहे-न-बहे,
चोटियां ढहें-न-ढहें,
रास्ते थमें-न-थमें,
जो हर बात से डर जाते हैं,
उनकी बचकानी आदतों का कोई क्या करे,
इतनी भी हिम्मत नहीं बची उनमें
कि अपनी आदतों से ही
वे बाज आ जाएं,
बाज आएं-न-आएं/ उनकी मौत तय है
एक-न-एक दिन!