Tuesday, July 1, 2008

व्यंग्यम् शरणम् गच्छामि....

फुंसी

महंगाई मकोड़ों के लिए है, अपुन आओ मगौड़े तलें। दिल्ली में जोर की बारिश है। नौकरानी को धक्का मारकर किचन में घुसीं मैडम पुरनिया बुड़बुड़ा रही हैं।
मिस्टर जीपी राव पुरनिया जर्मन की मल्टी नेशनल कंपनी में सीई हैं, लेकिन देश-दुनिया के ताजा हालात पर बांकी नजर रखते हैं। बात-बात पर उन्हें मैडम पुरनिया से कोफ्त होती है कि घरेलू कचहरी में उन्हें जिरह करने का आज तक सऊर नहीं आया। हर महीने लाखों की सेलरी बहू-बेटियों में फूंक-ताप कर सुट्ट हो लेती हैं। बस। महंगाई की इतनी तेज लपट उठ रही है, और इन्हें रत्ती भर आंच का इल्म नहीं। छोड़ो भी। कौन किन्नी करे फालतू की फुंसी पर।
मैडम पुरनिया उनके लिए फालतू की फुंसी हैं। दफ्तर तक दिमाग में टभकती रहती हैं। तभी तो मद्रासी-हिंदी में जर्मन स्टेनो अक्सर कहती है- सर आपकी हंसी में मेरे डिल को कुछ-कुछ होती है। महंगाई का फोड़ा इत्ता-कित्ता हुआ जा रहा है। और इसे कुछ-कुछ होती है।
इसीलिए जीपी राव घनघोर व्यथित हैं। जितने महंगाई से, उससे कई गुना ज्यादा अपने-आप और अपने आसपास से, घर-परिवार से। सोचते रहते हैं कि आगे-पीछे कैसे-कैसे हातिमताई। नर-बानर! ऐसे में कई बार तो इस घर-घिस्सू नौकरी से ही तौबा कर लेने को जी चाहता है। इतनी महंगाई न होती तो कब का लात मार चुका होता ससुरी को। नहीं सुहाती ऐसी टुकड़खोरी। जिंदगी भी कहां-से-कहां ठेल ले आयी। बनना चाहता था अर्थशास्त्री, तकदीर ने हिटलर के नर्क में भेड़ दिया। जाने अभी कब तक दहकना है इस दहाने पर। यहां एकाउटेंट के तीया-पांचा से भी उन्हें अनायास चिढ़ होती है। इंडियंस पर सेलरी की शेखी बघारता है और जर्मनों के दड़बे में रिरियाता रहता है दोमुंहा कहीं का! दफ्तर से छूटते ही भागता है कनाट प्लेस। वो क्यों? मिंटो ब्रिज पर रेलवे के मेहतरों से तिग्गा भिड़ाने। हुंडी चलाता है। सूदखोरी का खून मुंह लग गया है। उफ्, राजधानी में भी कैसे-कैसे सन्निपात पल रहे हैं। कचक्का महंगाई में विदेशी पगार का इससे उम्दा स्वदेशीकरण और हो भी क्या सकता है!
मैडम पुरनिया का मानना है कि कहीं महंगाई-सहंगाई नहीं। सब बजट के बंदों की माया है। अपने राव साहब से कंपनी वाले कचूमर निकाल लेते हैं काम कराते-कराते। छियालीस के हो भी लिये। माथा फिर गया है। आज कल और कुछ नहीं तो महंगाई-मंतरा पढ़ रहे हैं। न चैन से रहेंगे, न रहने देंगे। भला बताओ कि जिस शख्स को किटी पार्टी से इतनी खुन्नस है, उसके दिमाग के चंगा होने की क्या गारंटी! अब महंगाई से मरें निकम्मे लोग, अपुन को क्या करना। बाकी बात रही तो, जिम्मा सरकार का। वो जाने, उसका काम। मनमोहन किसलिए कुस्री तोड़ रहे हैं? चिदंबरम् किस दिन के लिए हैं? डीडी-1 पर चिंतन चल ही रहा है बड़े-बड़ों का। आलोक मेहता से प्रभु चावला तक जुटे हुए गुत्थी फेटने में। बाकी चैनल भी और दुनिया भर के अखबार जंतर-मंतर से न्यूयार्क पोस्ट तक कितनी जोर-जोर की पीपी बजा रहे हैं। मथानी मार रहे हैं।
...और बुश बुरा क्या कहते हैं कि इंडियन बेहिसाब भकोसते हैं। ये लो, उस बयान पर भी बहत्तर तरह की बकवास। कित्ता तूल। ये भी कोई बात हुई! तेली का तेल जले, मशालची का कलेजा फटे...क्यों? घरों में इतने बड़े-बड़े किचन, बाहर दुनिया भर के होटल-रेस्टोरेंट आखिर किस वास्ते....ऐं!! ऐसे-ऐसे लजीज आइटम कि अपुन नाचीज की भी लार चू पड़ती है। और एक अपने जनाब कि इन्हें भरम की भूतनी से फुर्सत नहीं। अरे, चार दिन की जिंदगी। काहे की हैहै-खैखै। चुप मारो अलाय-बलाय से। रामदेव का योगा करो, बापू के प्रवचन सुनो। मन-चित्त चंगा रखो। चैन से जीयो और हमे भी जीने दो। फितूरपंथी के लिए तो सारी दुनिया पड़ी है।
बहू-बेटों के बीच हंसी-ठट्ठा में प्रायः मैडम पुरनिया गजब का दार्शनिक बाना ओढ़ लेती हैं। जो सुन ले, तो जान ले कि वो कोरी कुढ़मगज गृहिणी नहीं। नये टॉपिक पर टपकते हुए कहती हैं....बड़े-बड़े अर्थशास्त्री, मंत्री, वित्तमंत्री, प्रधानमंत्री तक बेचारे महंगाई के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। हम सब न तीन में, न तेरह में। खामख्वाह की आह-ऊह। काहे का बेंजा अपना भेजा खराब करें! जिनकी ड्यूटी बनती है, वो मगजमारी करें न। लेना एक, न देना दो....क्या कि महंगाई बढ़ रही है...हुंह्। और कोई काम नहीं बचा क्या जी! इत्ता ही जाप-जादू का शौक चर्राया है तो जाओ न रेहड़ी वालों के मुहल्ले में। रहो वहीं। ठेल-ढकेल लगाओ। बेंचो अमरूद-संतरा। दो ही दिन में पता चल जायेगा आटा-दाल का भाव। काहे जर्मनों की कंपनी में झख मार रहे चौदह-चौदह घंटे। पेट फुला के तो कोई भी चंठ-चिंतन कर लेगा। अपुन का तो साफ-साफ मानना है कि जिसका काम, उसी को भावै, हलुका ले के बाभन धावै....झूठमूठ का....हीही-हीही। और क्या।
बारिश हुई है। कितना मस्त मौसम है आज।
चलो गोभी के मगौड़े तलते हैं।
महंगाई की मौत मरें मकोड़े।
अपुन को क्या!!