Saturday, March 21, 2009

सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-6

हिसाब लगा लीजिए कि निकारागुआ, क्यूबा, वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान, बेरुत आदि में अमेरिका ने कितने लाख बच्चों और महिलाओं का कत्ल किया है. अकेले इराक में उसने पांच लाख बच्चों से समेत दस लाख लोगों को मारा था. हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसे विश्व न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के लिए धिक्कारा था और जिसने सुरक्षा परिषद द्वारा देशों से अंतरराष्ट्रीय कानूनों को मानने को प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया था. इस तथ्य पर पर्दा डालने के लिए लगातार कोशिश चल रही है. अमेरिका ने अपने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को जारी रखा है. ओक्लाहोमा शहर पर बमबारी के बाद जब वहां के लोग भड़क गए थे, शहर बेरुत की तरह भुतहा नजर आने लगा था. इसी तरह रीगन प्रशासन ने 1985 में बेरुत पर बमबारी करवाई थी. एक मस्जिद के बाहर ट्रक से बमबारी की गई, ताकि ज्यादा लोग हताहत हों. उस घटना में 80 लोग मारे गए और ढाई सौ से ज्यादा लहूलुहान हुए थे. उनमें ज्यादातर औरतें और बच्चे थे. हमले का टारगेट एक उलेमा था, जिसे अमेरिका पसंद नहीं करता था. इस्रायल को चढ़ाकर उसने फिलस्तीनियों के अंधाधुंध कत्ल करवाएं हैं. तुर्की को समर्थन देकर उसने वहां के कुर्द बाशिंदों को कुचलवाया है. इसके लिए क्लिंटन सरकार ने हथियारों की एक बड़ी खेप तुर्की को मुहैया कराई थी. उसके बाद कुर्दों पर जुल्म और तेजी से ढाए गए. यह नब्बे के दशक के जातीय उन्मूलन और विध्वंस का सबसे घिनौना कारनामा था. लेकिन इसको कम ही लोग जान पाए क्योंकि यह अमेरिका का कारनामा था. जब इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की गई तो इसे मामूली भूल कह कर खारिज कर दिया गया.
सूडान की दवा बनाने की फैक्ट्री, अलशिफा को बर्बाद करने की बर्बरता भी कम गंभीर नहीं. वह राज्य आतंकवाद की एक छोटी घटना मानी गई और जल्द ही उसे भी भुला दिया गया. नोम चोस्की कहते हैं कि फर्ज कीजिए, अगर लादेन ने अमेरिका की दवा आपूर्ति व्यवस्था के आधे हिस्से को बर्बाद कर दिया होता और इससे हुए नुकसान को पूरा करने के सारे रास्ते बंद कर दिए होते तो क्या प्रतिक्रिया हुई होती? सूडान के लिए वह हमला भीषण तबाही देने वाला रहा. बिन लादेन ने जब इस मसले को उठाया तो उसने लोगों के दुखों को स्वर दे दिया. ऐसे लोगों में वे भी शामिल हैं, जो उसे नापसंद करते हैं और उससे डरते हैं. 11 सितंबर की शर्मनाक और अक्षम्य घटना के बाद नोम चोम्स्की ने पत्रकारों को बताया था कि उस आतंकी हमले में मारे गए लोगों की संख्या की तुलना अलशिफा फैक्ट्री की बमबारी में मारे गए लोगों से की जा सकती है. सच्चाई तो ये है कि कमजोरों पर किए गए अत्याचार उतने ही स्वाभाविक हैं, जितना कि सांस लेना.
टैक्स पेई के रूप में अपराध यह है कि अमेरिकी कोई व्यापक अवरोध नहीं पैदा कर पाते और इस तरह आततायियों को पनाह और सुविधाएं मुहैया कराने में मदद करते हैं और सच्चाइयों को यद्दाश्त के किसी अंधेरे कोने में दफना देने की इजाजत दे देते हैं. सूडान ने जब संयुक्त राष्ट्र से बमबारी की वैधता की जांच करने की मांग की तो अमेरिका ने उसे रुकवा दिया.जब किसी हादसे में मारे गए लोगों की गिनती की जाती है तो सिर्फ उन्हें ही नहीं गिनना चाहिए, जो मौका-ए-वारदात में मारे गए बल्कि उन्हें भी उस गिनती में शामिल करना चाहिए, जो उस वारदात की वजह से बाद जान से हाथ धो बैठे. सूडान पर बमबारी में मारे गए सिर्फ उन लोगों की गिनती नहीं करनी चाहिए जो अमेरिका की क्रूज मिसाइलों का शिकार बने. मुख्य धारा का मीडिया इससे क्यों आंख चुराता है?
सूडान की दवा फैक्ट्री पर हमले के एक साल बाद प्राण रक्षक दवाओं के अभाव में मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. दसियों हजार लोग, जिनमें एक बड़ी संख्या बच्चों की है, मलेरिया, तपेदिक और ऐसी ही दूसरी बीमारियों से मर रहे हैं, जिनका इलाज संभव है. अल शिफा लोगों को सस्ती दरों पर दवाएं उपलब्ध करा देता था और पशुओं की दवाओं की भी पूरी आपूर्ति वही करता था. सूडान के कुल औषधि निर्माण का 90 प्रतिशत हिस्सा अल शिफा पर निर्भर था, दवा फैक्ट्री के विध्वंस से दवाओं की कमी की आपूर्ति के आयात पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिया. 20 अगस्त 1998 के अमेरिकी कदम ने सूडान के लोगों को दवाओं से पूरी तरह वंचित कर दिया. वहां करोड़ों लोगों का यह अप्रत्यक्ष कत्लेआम नहीं, तो और क्या हो सकता है?
सूडान में जर्मनी के राजदूत ने लिखा....यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इस गरीब अफ्रीकी देश में अल शिफा के विध्वंस के कारण कितनी मौतें हुई होंगी. इस फैक्ट्री का विनाश यहां के देहाती लोगों के लिए बहुत बड़ी त्रासदी बना. अल शिफा सूडान के कुल दवा उत्पादन का 50 प्रतिशत दवा बनाता था और उसके विनाश से देश में मलेरिया की सबसे उपयुक्त दवा क्लोरोक्विन का अभाव हो गया और जब महीनों बाद इंग्लैंड की लेबर सरकार से यह मांग की गई कि जब तक सूडानी इस दवा का दोबारा उत्पादन शुरू नहीं कर देते, वह (इंग्लैंड) आपूर्ति करे, तो इस मांग को ठुकरा दिया गया था. यह कारखाना सूडान का तपेदिक की दवा बनाने वाला एक मात्र कारखाना था. इससे हर महीने सूडान के एक लाख से ज्यादा लोग ब्रिटिश पाउंड की लागत पर अपना इलाज कर पा रहे थे. उन लोगों में से अधिकांश के लिए आयातित महंगी दवाओं का सेवन संभव नहीं था. वे अपने शौहरों, बीवियों और बच्चों को , जो बमबारी के बाद बीमार पड़े, उतनी महंगी दवाएं नहीं खिला सके. उस कारखाने की एक और विशेषता यह थी कि वह जानवरों की ऐसी दवाएं बनाता था, जो जानवरों से इंसानों में चले जाने वाले उन परजीवियों को मार देती थी, जिनकी वजह से सूडान के अधिकतर नवजात जनमते ही दम तोड़ देते हैं. इस तरह खामोश मौतों का सिलसिला जारी है.........(यह सारी रिपोर्ट सम्मानित पत्र-पत्रिकाओं से इकट्ठी की गई है)
(क्रमशः जारी)

सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-5

11 सितंबर के अटैक के बाद अमेरिका में जुनून, आक्रोश और हताशा इस हद पर पहुंच गई थी कि मस्जिदों, गुरुद्वारों पर हमले किए गये, उदार छवि वाले शहर बोल्डर स्थित कोलोरैडो यूनिवर्सिटी की दीवारों पर लिखा गया...अरबों घर वापस जाओ, अफगानिस्तान पर बमबारी करो, सैंड निग्गर्स वापस जाओ. लेकिन सबका मकसद एक था, शांति कैसे कायम हो. आतंकवाद के प्रेत से मुक्ति कैसे मिले?
नोम चोम्सकी वजहों की ओर लौटते हैं, अमेरिकी दादागिरी और आतंकवाद की जड़ों से पर्दा उठाते हैं. पूछते हैं कि क्या 1979 में रूसियों को अफगानी फंदे में फांसना उचित था? पहले अतिक्रमण को हवा दी गई, फिर अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्लामी जुनूनियों का आतंकवादी संगठन तैयार किया गया. यह सब किया गया अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा. चोम्स्की कहते हैं कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका खुद एक अग्रगामी आतंकवादी राज्य है. जिन्होंने आतंकवाद को विश्व में संगठित किया, अमेरिका, रूस, चीन, इंडोनेशिया, मिस्र आदि. इस बहाने आतंकवादी गतिविधियों की अंतरराष्ट्रीय राह बनने-बनाने के माध्यम बने. रूस चेचन्या में अपने खूनी हमलों पर अमेरिका की दोस्ती से खुश होता है. ये तो वही अफगानी हैं न, जो रूस के खिलाफ लड़ रहे हैं. रूस के अंदर भी अपनी आतंकवादी गतिविधियां चला रहे हैं. इसी तरह कश्मीर और इंडोनेशिया के नरसंहारों से सबक लेना चाहिए. चीन अपने पश्चिमी प्रांतों में अलगाववादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष कर रहा है, जिनमें वे अफगानी भी शामिल हैं, जिन्हें खुद उसने ईरान के साथ मिलकर 1978 में सोवियत रूस के खिलाफ संगठित किया था. यह पूरी दुनिया में चल रहा है.
एक दिन बुश प्रशासन चेतावनी देता है कि निकारागुआ की वामपंथी सैंदीनीस्ता पार्टी अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी गठबंधन में शामिल नहीं की जाएगी. क्यों? क्योंकि निकारागुआ ने अमेरिका पर इतने तीखे और खुले आक्रमण किए थे कि रोनाल्ड रीगन को मजबूरी में 1 मई 1985 को देश में राष्ट्रीय आपात काल की घोषणा करनी पड़ी थी. तब कहा गया था कि निकारागुआ की नीतियों और गतिविधियों से अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीतियों को खतरा है. फिर उसने निकारागुआ के खिलाफ व्यापार प्रतिरोध का एलान कर दिया था. विश्व न्यायालय ने इसे भी अमेरिका के दूसरे दावों की तरह निराधार मानकर खारिज कर दिया था. रीगन का जवाब था कि अमेरिका विश्व न्यायालय की सुनवाई को नकारता है, क्योंकि निकारागुआ पर आक्रमण को शक्ति के गैरकानूनी इस्तेमाल और संधि का उल्लंघन बताते हुए अमेरिका को लताड़ा गया है. न्यायालय के आदेश के जवाब में निकारागुआ के खिलाफ चलाई जा रही आतंकवादी गतिविधियों को अमेरिका ने और तेज कर दिया था.
अब नार्दर्न एलायंस को लें, जिसे अमेरिका और रूस दोनों समर्थन देते हैं. यह दरअसल जंगपरस्तों का ऐसा गिरोह है, जिसने अपने शासनकाल में अफगानिस्तानियों पर इतने कहर ढाए कि वे तालिबानियों का स्वागत करने को मजबूर हो गए. यह गिरोह ताजिकिस्तान में नशीले पदार्थों की तस्करी में शामिल है. ताजिकिस्तान यूरोप और अमेरिका में नशीले पदार्थों के प्रवाह का मुख्य स्रोत है. अमेरिका रूस के साथ मिलकर अगर सैनिक कार्रवाई में इस गिरोह की मदद करता है तो ऐसे पदार्थों की बाढ़ भी तेज हो जाती है.
(क्रमशः....आगे पढ़े अमेरिका ने किस तरह बमबारी कर सूडान के उस दवा कारखाने को नष्ट कर दिया, जिससे पूरे देश को रियायती दर पर मनुष्यों और पशुओं के लिए दवा सप्लाई की जाती थी )

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका-4

-यह पोस्ट उनके लिए है जो विश्व में अमेरिका की दादागिरी और आतंकवाद की बढ़ती भयावहता से चिंतित हैं.
-यह पोस्ट इसलिए उनके लिए है क्योंकि उन्हें यह जानना बहुत जरूरी है.
-यदि वे लोग जानते भी हैं तो उनके सामने आज इसे दुहराना भी उतना ही जरूरी है.
-वह भयावहता हमारी ओर, हम सबकी ओर बढ़ी आ रही है, आगे भी मुंबई अटैक जैसी घटनाओं से इनकार नहीं किया जा रहा है.
-अटैक हो जाने के बाद छाती पीटने से ज्यादा जरूरी है कि हम उन वजहों को शिद्दत से जान लें, जहां तक हो सके तैयार होते रहें कि अमेरिका और आतंकवाद ने किस तरह हमारी तमाम मुश्किलों पर जन एकता और रोष को मुखर नहीं होने दे रहा है. आतंकवाद की चुनौती के बहाने सरकारें उन आवाजों का गला घोंट रही हैं, जिनके लिए उठ खड़ा होना बहुत जरूरी था.
-उन चुनौतियों के सरकारी और विदेशी ढिढोरे ने हमारी बौद्धिक ईमानदारी को ललकारा है, हमारे समस्त जनपक्षधर प्रयासों को मसखरी में तब्दील कर दिया है.
-यह सच है कि देश का बहुत बड़ा बौद्धिक तबका जहां है, वहां से, जो भी है, जैसा भी है, अपनी आवाज को कुंद नहीं होने दे रहा है, उसे कत्तई आज के हालात रास नहीं आ रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ा चैलेंज है सबकी आवाज का एक स्वर, एक धुन में चल पड़ना.
-किसी भी तरह के खतरे से ज्यादा भयानक होती हैं चुप्पियां
-चुप्पियां सब कुछ छीन लेती हैं और छोड़ जाती हैं हमें नई चुप्पियों के अंधकार में.
-नोम चोम्स्की ने आतंकवाद की वजहों को जितनी बेबाकी, बारीकी और निरपेक्षता से उद्घाटित किया है, इस दौर में उसे जानते चलना बहुत जरूरी है, जबकि तालिबानी अंधेरा हमारी तरफ बढ़ा आ रहा है, जबकि आए दिन राजधानी या देश के अन्य किसी कोने में आतंकियों के छिपे होने की खबरें आम हो चली हैं.

Friday, March 20, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका-3

-यह पोस्ट उन शुतुर्मुर्गों के लिए नहीं, जो अपनी दुनिया में मस्त हैं.
-यह पोस्ट उन निठल्लों के लिए भी नहीं, जो लिखने-पढ़ने के नाम पर कचरा उगलते रहते हैं.
-यह पोस्ट उनके लिए है, जो अमेरिकियों और आतंकियों के हाथों मारे गए लाखों लोगों की दास्तान से गमजदा हो जाते हैं. जिन्हें मनुष्यता और उसकी सच्चाई में विश्वास है, जो सिर्फ अपने लिए नहीं जीते. जो आदमियों की भीड़ में कुलबुलाते कीड़े-मकोड़े नहीं.
-जो मनुष्यता और उसके संघर्षों के साथी हैं. जो मनुष्यता को घेर कर मारने वालों पर थूकते हैं, जो मनुष्यता के लिए मर-मिटने का जज्बा रखते हैं. जो भरे पेट डकारते और टहलते रहते नहीं हैं.

.....तो बात चल रही है कि दुनिया का बड़ा आतंकवादी कौन है अमेरिका या ओसामा बिन लादेन और उसके लोग? निष्कर्ष है कि अमेरिका सबसे बड़ा आतंकवादी देश है. कैसे? आतंकवाद के इस पूरे मामले पर न्यूयार्क टाइम्स की भूमिका कैसी है? आइए आगे जानते हैं सच्चाइयां. तथ्यों सहित पड़ताल की तीसरी कड़ी.

जैसा कि यूरोपीय सोचते हैं, मीडिया कवरेज हर जगह एक जैसी नहीं है. क्योंकि वे सिर्फ न्यूयॉर्क टाइम्स, नेशनल पब्लिक रेडियो और टीवी तक ही सीमित रह जाते हैं. जबकि न्यूयॉर्क टाइम्स मानता है कि न्यूयॉर्क का माहौल वैसा नहीं है, जैसाकि वे अब तक बताते रहे हैं. यह अच्छी रिपोर्ट है, जो इशारा करती है कि मुख्य धारा का मीडिया ऐसी खबरों को नहीं छाप रहा है. 11 सितंबर के आतंकी हमले के बाद टाइम्स लिखता है कि न्यूयॉर्क की सड़कों पर जंग के नक्कारे की आवाज मुश्किल से सुनाई देती है. और हताहतों के लिए बने स्मारक पर भी शांतिपक्षीय स्वर पलटवार की मांगों को दबा रहे हैं. और यह देश के सभी लोगों की भावनाओं से कुछ खास अलग नहीं है. सबकी मांग वही है, आततायियों को पकड़ा जाए और दंडित किया जाए. बहुमत हिंसा के बदले अंधी हिंसा और सैकड़ों मासूमों की हत्या के खिलाफ है, जैसा कि बुश ने इराक और अफगानिस्तान में बम बरसाकर किया है. 11 सितंबर की तरह ही मीडिया की भूमिका सर्बिया के ऊपर बमबारी के समय भी जुनून की हद तक रही. खाड़ी युद्ध भी कहीं से असामान्य नहीं था.
बिन लादेन और उसके समर्थक बेईमान, दमनकारी और गैर-इस्लामी सत्ता और उनको सहयोग देने वालों के खिलाफ एक जेहादी जंग लड़ रहे हैं. इसी तरह की जंग 1980 के दशक में रूस के खिलाफ लड़ी गई थी. और अब चेचन्या, पश्चिमी चीन, 1981 में सादात की हत्या के बाद मिस्र में लड़ी जा रही है.
अब इराक के मामले को लें. हालांकि पश्चिम के लोगों का कहना कुछ और है, लेकिन मध्य-पूर्व के लोग यह मानते हैं कि पिछले दस-बारह बरसों में अमरीकी नीतियों ने इराकियों की जिंदगी तबाह कर दी है. उससे जालिम सद्दाम हुसैन को शहादत का तमगा मिल गया था. वे यह भी जानते हैं कि 1988 में कुर्दों को गैस चैंबर में झोकने समेत उसके दूसरे निकृष्टतम अत्याचारों में अमेरिका ने उसकी जमकर मदद की थी. जब लादेन ने इन असलियतों को अपने सार्वजनिक भाषणों में उठाया तो ये बातें उसे नापसंद करने वालों के साथ इलाके के सभी लोगों को सही लगी थीं. अमेरिका और इस्रायल से जुड़े तथ्य शायद ही कभी प्रकाश में आए हों. अभिजात बुद्धिजीवी आज भी उन तथ्यों से पूरी तरह बेखबर हैं. उस इलाके के लोग अमेरिकियों के इस मुगालते में नहीं हैं कि सन 2000 की गर्मी में कैंप डेविड में दिए गए प्रस्ताव विशाल हृदय और उदार थे. इसके तथ्यों से लाखों-करोड़ों लोग आज भी नावाकिफ हैं. दरअसल, 11 सितंबर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिकी सरकार अपने पुराने गैरइंसानी तौरतरीकों पर अडिग रहते हुए इस अवसर का भी नाजायज पूरा फायदा उठाती जा रही है. उसकी आड़ में वह अपने निजी एजेंडे लागू करती जा रही है. उसके उन एजेंडों में मिसाइल सुरक्षा समेत सैनिकीकरण, अंतरिक्ष सैनिकीकरण के लिए कोड शब्दों को मान्यता देना, सामाजिक-लोकतांत्रिक कार्यक्रमों में कटौती, कॉरपोरेट वैश्वीकरण के बुरे प्रभावों पर पर्दा डालने, पर्यावरण और स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़े़ महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर से लोगों का ध्यान मोड़ना, संसाधनों को कुछ लोगों तक सीमित करना, सामाजिक वाद-विवाद और विरोधों को खत्म करने के लिए समाज को खंडित कर देना शामिल है. उसके जंगजू तत्व मौके का पूरा फायदा उठाते हुए दुश्मनों पर हिंसक पलटवार करने के लिए चौबीसो घंटे तैयार हैं. उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि किसी भी ऐसी कार्रवाई से कितने मासूम तबाह होंगे और हिंसा के चक्र को त्वरित करने से अमेरिकी और दूसरे यूरोपीय देशों के लोगों के जीवन पर किस तरह खतरा बढ़ता चला जाएगा. दरअसल, दोनों ही तरफ बड़ी संख्या में बिन लादेन घात लगाए बैठे हैं.
11 सितंबर की घटना का आर्थिक वैश्वीकरण से कोई वास्ता नहीं है. उस घटना या अपराध को किसी भी हालत में वाजिब नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अमेरिका को मासूम शिकार भी नहीं माना जा सकता है, जबकि उसकी और उसके साथियों की तमाम पुरानी जगजाहिर करतूतों को नजरअंदाज कर दिया जाए. अमेरिका जवाब में जो हिंसा चक्र को गति दे रहा है, जैसा कि बिन लादेन और उसके समर्थक चाहते हैं, तो खतरा बहुत भीषण हो सकता है. यहां जरूरत बिन लादेन की तरह हिंसा का जवाब हिंसा-चक्र नहीं, दुनिया के लोकतांत्रिक समाजों की नागरिक नीतियों को ज्यादा मानवीय और सम्मानजनक दिशा में मोड़ना है.
बिन लादेन नेटवर्क की विशेषता यह है कि वह पूरी तरह विकेंद्रित है. उसमें कोई मंजिल नुमा ढांचा नहीं है. वह पूरी दुनिया में इस तरह फैला हुआ है कि उसमें एक जगह से घुस जाने के बावजूद उसके पूरे तंत्र की तह तक पहुंच जाना लगभग असंभव है. खुफिया एजेंसियों को निश्चित रूप से बेहतर सुविधाओं से लैस करना होगा लेकिन इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के खतरों को कम करने में अगर कोई गंभीर प्रयास करना है तो उनके कारणों को समझाने और सुलझाने की कोशिश करनी होगी. और ऐसा पहले किया जाता रहा है. बिन लादेन के मौजूदा नेटवर्क की जड़ें अमेरिकी प्रयासों तक जाती हैं. लादेन गिरोह उन्हीं लोगों का है, जिन्हें अमेरिका और उसके सहयोगियों ने तैयार किया था, और तब तक उनकी परवरिश करते रहे, जब तक वे अमेरिकी हितों के साथ थे. अपनी करतूतों को नजरअंदाज कर किसी एक व्यक्ति को सबसे बड़ा दुश्मन करार देना या शैतान का प्रतीक बना देना काफी आसान है बनिस्बत इसके कि बीमारी की जड़ को समझा जाए और उसका सही इलाज किया जाए. मूल्य की शर्त पर अपराध को छोटा या बड़ा नहीं कहा जा सकता, जैसे कि अमेरिका ने हिंद चीन को बर्बाद किया अथवा सोवियत रूस ने अफगानिस्तान पर अतिक्रमण किया.

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-2

-यही सच है, यही सच है, यही सच है.
-यदि आप अमेरिका के पिट्ठू नहीं, उसके पैसे और प्रभुत्व पर लार नहीं टपकाते हैं, उसकी शक्ति से भयभीत नहीं हैं, थाली के बैगन नहीं तो मान लीजिए कि आज नहीं तो कल, यह सच पूरी दुनिया के सिर चढ़ कर चिल्लाएगा.
-आज नहीं तो कल, यह सच पूरी दुनिया के धंधापरस्त मीडिया भी सिर चढ़ कर चिल्लाएगा.
-इस सच को जान लीजिए, मान लीजिए कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन नहीं, बल्कि अमेरिका और उसके पैसे पर लार टपकाने वाले, उसकी शक्ति के पैरों पर लेटे उसके पिट्ठू हैं.
-क्रमशः जानते जाइए कि किस तरह अमेरिका ने अपना प्रभुत्व बढ़ाते जाने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों को आंतकवाद की दिशा में झोंका, और बाद में उन्होंने ही किस तरह बंदूक का रुख उस खूंख्वार साम्राज्यवादी के सिर पर तान दिया-

अगर आतंकवाद के सवाल को गंभीरता से लेना है तो हमें इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि दुनिया के अधिकतर हिस्सों में अमेरिका की छवि एक बड़े आतंकवादी राष्ट्र की है और इस छवि के लिए कई कारण मौजूद हैं-

हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि 1986 में विश्व न्यायालय ने शक्ति के नाजायज इस्तेमाल (अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद) के लिए अमेरिका कड़ी निंदा की थी और अमेरिका ने सुरक्षा परिषद के उस प्रस्ताव के खिलाफ वीटो का प्रयोग किया था, जिसमें सभी राष्ट्रों (दरअसल अमेरिका) से अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने को कहा गया था.
हमारे विरुध्द दूसरों का आतंकवाद. हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस समस्या से कैसे निबटा जाए, लेकिन तब मंशा खतरे को कम करने की होनी चाहिए, उसे त्वरित करने की नहीं. याद कीजिए, जब आयरलैंड रिपब्लिकन आर्मी ने लंदन में बम धमाके किए थे तो वेस्ट बेल्फास्ट और बॉस्टन पर बमबारी के लिए कोई चीख-पुकार नहीं हुई थी. हालांकि ये इलाके
आयरलैंड रिपब्लिकन आर्मी के लिए आर्थिक सहयोग के ज्ञात स्रोत हैं. इसके उलट, अपराधियों को पकड़ने और उस बम कांड के पीछे के कारणों को समझने की कोशिश की गई थी. इसी तरह जब ओक्ला होमा की एक फेडेरल बिल्डिंग में विस्फोट हुआ था तो शुरू में मध्य-पूर्व पर बमबारी के लिए नारे बुलंद होने लगे थे, लेकिन जैसे ही ये पता चला कि विस्फोट आंतरिक चरम दक्षिणपंथियों ने किया था, मोंटाना और इडाहो पर किसी हमले की योजना नहीं बनी. सच तो ये हैं कि यदि ऐन वक्त पर सच्चाई सामने न आ गई होती तो मध्य-पूर्व पर बमबारी हो ही गई होती. हुआ यह कि हमलावरों की तलाश हुई, उन्हें पकड़कर अदालत में लाया गया, सुनवाई हुई और यह जानने की कोशिश हुई कि हमलावरों की शिकायतें क्या हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है. हर अपराध के पीछे, चाहे राहजनी हो या कोई जघन्य अपराध, कुछ कारण होते हैं और अक्सर पाया जाता है कि वे कारण गंभीर थे और उन पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए था. अपराध चाहे जितना भी बड़ा हो, उसका कानूनी ढंग से निपटारा होना चाहिए. यह एक बिल्कुल निर्विवाद तरीका है और इसे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्वीकृति भी हासिल है.
अस्सी के दशक में अमेरिका ने निकारागुआ पर लगातार हिंसक हमले किए, जिसमें दसियों हजार लोग मारे गए. उन हमलों में हुई तबाही से वह देश आज तक नहीं उबर पाया है. निकारागुआ जैसा छोटा और कमजोर देश एक विश्व महाशक्ति के अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के साथ-साथ आर्थिक नाकेबंदी और अलग-थलग कर देने की साजिश का कैसे सामना कर सकता था. उस देश पर हुए उन हमलों का असर न्यूयार्क पर हुए हमले से बहुत बड़ा था. निकारागुआ के लोगों ने तो इसके बदले अमेरिका में बम धमाके नहीं किए. वे विश्व न्यायालय में गए, जिसने उनके हक में फैसला दिया और अमेरिका को अपनी उन हरकतों से बाज आने और पर्याप्त जुर्माना देने को कहा. अमेरिका ने उस फैसले को मानने से साफ इनकार कर दिया था. उल्टे अपने हमले और तेज कर दिए थे. तब निकारागुआ ने सुरक्षा परिषद का दरवाजा खटखटाया. सुरक्षा परिषद द्वारा एक प्रस्ताव लाया गया, जिसमें राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का कड़ाई से पालन करने को कहा गया था. इस प्रस्ताव के खिलाफ भी अमेरिका ने वीटो का इस्तेमाल किया था. उसके बाद भी निकारागुआ ने न्यायिक प्रक्रिया का ही सहारा लिया और अपने मामले को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा के सामने रखा. आम सभा ने भी वैसा ही एक प्रस्ताव पारित किया. पहले अमेरिका और साल भर बाद इस्रायल व एल सल्वाडोर ने उस प्रस्ताव का विरोध किया. किसी भी देश को निकारागुआ की तरह ही विश्व न्यायिक व्यवस्था की शरण में जाना चाहिए. अगर निकारागुआ ताकतवर रहा होता तो उसने एक दूसरी अदालत का गठन किया होता, न कि अमेरिका की तरह दुनिया पर दादागिरी गांठने के लिए इराक, अफगानिस्तान, वियतनाम, क्यूबा पर हमला किया होता.
11 सिंतबर की घटना के बाद अमेरिका को भी विश्व न्यायिक व्यवस्था की शरण में जाना चाहिए था और इस प्रक्रिया में शामिल होने से उसे तो कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं था. सच तो यह है कि उसके कई विश्व सहयोगी तक उसे ऐसा ही करने की हिदायत दे रहे थे लेकिन बुश नहीं माना.
मध्य-पूर्व और उत्तर-अफ्रीकी देशों की सरकारें, मिसाल के तौर पर अल्जीरिया की आतंकवादी सरकार, जो सबसे ज्यादा वहशी है, उन आतंकवादी नेटवर्कों के खात्मे के लिए खुशी-खुशी अमेरिका का साथ देना चाहती, जो उसके लिए खतरा बन चुके हैं. दरअसल असली निशाने पर तो वही देश हैं. लेकिन वे देश भी कुछ सुबूतों की मांग करते रहे हैं, ताकि अंतरराष्ट्रीय नियमों की थोड़ी-बहुत लाज रख ली जाए. शुरुआती दौर में आतंकवादी तत्वों को संगठित करने में मिस्र की अहम भूमिका रही थी. फिर वही उन तत्वों का पहला शिकार भी बना, राष्ट्रपति सादात मारा गया. ऐसे देश तो कब नहीं चाहेंगे कि आतंकवादियों को कुचल दिया जाए, लेकिन उनका कहना है कि इसके पहले कुछ सुबूत जुटा लिए जाएं कि कौन लोग शामिल थे, फिर उन सुबूतों की बिना पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मुताबिक सुरक्षा परिषद की निगरानी में कदम उठाए जाएं.
अगर कोई चाहता है कि 11 सितंबर जैसी घटनाओं की संभावना खत्म की जाए तो यही तरीके अपनाए जाने चाहिए थे. एक दूसरा तरीका भी है. इसका जवाब प्रचंड हिंसा से दिया जाए, हिंसा-चक्र को और तेजी से घुमाया जाये ताकि हिंसा की और भी घटनाएं हों और बेगुनाह लोग मारे जाते रहें और प्रतिशोध की गुंजाइशें बनी रहें. और ऐसा ही होता रहा है.
इस विषय पर कई बुनियादी सवाल हैं. पहला यह कि हमारे सामने कौन-सी कार्य-प्रणाली उपलब्ध है और उसके संभावित नतीजे क्या हो सकते हैं? आतंकवाद को कानून की मदद से सुलझाने के प्रयास पर मीडिया तक में कोई चर्चा नहीं है. मिसाल के तौर पर जैसा निकारागुआ ने किया, आई.ए.आर. के मामले में ब्रिटेन ने किया, लेकिन अमेरिका ने कानून पर अमल करने की बजाय वीटो का प्रयोग कर दिया. 11 सितंबर के बाद से लगातार हिंसक प्रतिक्रिया के आह्वान पूरे विश्व में गूंज रहे हैं, इस सच्चाई को नजरअंदाज करते हुए कि अफगानिस्तान में हमलों के शिकार वही मासूम होते हैं, जो लगातार तालिबानी हिंसा के शिकार होते रहे हैं, और यह सोचे बगैर कि ऐसी प्रतिक्रिया बिन लादेन और उसके गुर्गों के लिए वरदान साबित हो रही है.
इस तरह के और भी अपराधों की संभावनाओं को हवा देते रहना मंजूर किया जा रहा है. हां, कुछ अपवाद जरूर हैं. जैसे वॉल स्ट्रीट जर्नल का प्रकरण. उन्होंने समृद्ध मुसलमानों के मत लिए और उन्होंने पाया कि वे अमेरिकापरस्त होने के बावजूद आतंकवाद पर अमेरिकी नीतियों के कट्टर खिलाफ हैं और जिसने भी इस मुद्दे पर ध्यान दिया है, मानेगा कि विरोध के लिए पर्याप्त कारण मौजूद हैं. आम लोगों की भावनाएं भी ऐसी ही हैं, बल्कि उनमें गुस्सा और भी ज्यादा है.
ओसामा बिन लादेन का नेटवर्क एक खास किस्म का है. पिछले बीस वर्षों में इलाके के गरीब और मजलूमों की समस्या इस नेटवर्क की चिंता का विषय कभी नहीं रही, बल्कि उसकी गतिविधियों से उन पर लगातार कहर ही टूटते रहे हैं. लेकिन आम अवाम में अमेरिका के लिए व्याप्त गम, गुस्से और हताशा उन्हें बिन लादेन नेटवर्क को मदद की मजबूरी और ऊर्जा प्रदान करती है. अब लादेन के गुर्गे दुआ करते हैं कि अमेरिका हिंसक हमले करे ताकि वे लोगों से और ज्यादा समर्थन और सहानुभूति हासिल करने में कामयाब होते जाएं. अगर दुनिया का मीडिया चाहता है कि आतंकवादी हिंसा का चक्र खत्म हो तो उसे अमेरिका या उसके पिछलग्गुओं को न्याय की शरण में जाने के लिए मजबूर करना होगा, न कि उसकी करतूतों को प्रशंसनीय सुर्खियों में जगह देते रहना होगा. लेकिन साफ है कि पिछलग्गू और मीडिया दोनों, आज भी पाकिस्तान मसले पर अमेरिका की चाटुकारिता से बाज नहीं आ रहे हैं. ओबामा की प्रशंसा की जाती है, लेकिन उनकी नीतियों के पीछे हकीकत से मुंह चुराया जाता है.बुश हों या ओबामा, सभी उन अमेरिकी नीतियों के दरअसल खूबसूरत मुखौटे हैं, जो आतंकवाद पर न्यायिक रास्ता अख्तियार करने की बजाय हिंसक उपायों को दुनिया भर में प्रोत्साहित कर रही हैं.


दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है- 1


-ये सच्चाइयां उनके गले नहीं उतरेंगी, जो अमेरिका के पैसे, अमेरिकापरस्त समूहों, संस्थाओं के भरोसे पल रहे हैं.

-ये सच्चाइयां उन्हें परेशान कर सकती हैं, जो अमेरिकी प्रशासन बुश को दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी मानने से इनकार करते रहे हैं.
-ये सच्चाइयां उनके चेहरे से भी नकाब खींच देंगी, जो भारतीय मीडिया को शुद्ध धंधेबाज कहने और मानने से परहेज करते हैं.
-ये सच्चाइयां उन्हें भी विचलित कर सकती हैं, जो लादेन और तालिबानी समूहों को इस्लाम का उद्धारक मानने की भूल करते जा रहे हैं.

......और आज इन सच्चाइयों को एक बार फिर सार्वजनिक कर देना इसलिए भी बहुत जरूरी है कि मुंबई अटैक, स्यात, पाकिस्तान, अफगानिस्तान की खूनी और राजकीय हलचलों के लगातार सुर्खियों में बने रहने के कारण 11 सितंबर के आतंकी अटैक को सामने रखकर अमेरिका और उसके समर्थक देशों की वास्तविक करतूतों के पीछे छिपी तथ्यता को क्रमशः उजागर किया जाए. और सिद्ध कर दिया जाए कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-

11 सितंबर का हमला
1812 के युद्ध के बाद अभी तक संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय सीमा के अंदर न कभी इस तरह का हमला हुआ था, न ही कभी इस पर कोई आंच आई. 7 दिसंबर 1941 को अमेरिका के उपनिवेशों में स्थित सैनिक अड्डों पर हमले हुए थे, न कि अमेरिका की राष्ट्रीय सीमा के अंदर, जो हमेशा अक्षुण्ण रही है. अमरीका हालांकि हवाई को अपना अंग कहना पसंद करता है, लेकिन दरअसल वह उसका उपनिवेश है. बीती सदियों में अमेरिका ने दसियों लाख मूल निवासियों (रेड इंडियनों) का संहार किया है, आधे मेक्सिको पर अपना कब्जा जमा लिया है, पूरे इलाके में हिंसक हस्तक्षेप किए हैं और हजारों-हजार फीलिपिंस नागरिकों की हत्या करके फीलिपिंस को फतह किया है. पिछली आधी सदी में अपने ऐसे ही कामों को ताकत के बल पर पूरी दुनिया में अंजाम देता रहा है. इन करतूतों के शिकार बेशुमार हैं. लेकिन पहली बार 11 सितंबर को बंदूक का रुख पलट दिया गया था. इसे नाटकीय परिवर्तन भी कहा जा सकता है यानी मियां की जूती मियां के सिर या भस्मासुर ने उसे दौड़ा लिया है.
यूरोप के मामले में भी, थोड़ा अधिक नाटकीय ढंग से सच्चाई यही है. यूरोप ने भयानक तबाहियां झेली हैं, लेकिन आपसी और अंदरूनी जंगों के कारण इस दौरान यूरोप ने अधिकांश विश्व पर बेइंतहा जुल्म के जरिये जीत हासिल की, लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ यूरोप पर किसी विदेशी आक्रमण का इतिहास नहीं है. इंग्लैंड पर भारत ने कभी हमला नहीं किया. न बेल्जियम पर कांगो ने, न इटली पर इथोपिया ने, न ही अल्जीरिया ने फ्रांस पर कभी कोई हमला किया. और इसलिए 11 सितंबर का आतंकवादी अपराध पूरे यूरोप के लिए भी एक जोरदार झटका है.
11 सितंबर के हमले के बाद वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अमेरिका से जुड़ाव रखने वाले बैंकर, व्यावसायिक और व्यापारियों जैसे धनी मुसलमानों के मत लिये थे. उन लोगों में अमेरिका द्वारा निरंकुश और कट्टर राज्यों का सहयोग करने और राज्यों के स्वायत्त विकास और वहां के राजनीतिक लोकतंत्र के विकास की प्रक्रिया में वॉशिंगटन की दखलंदाजी और रोड़े अटकाने वाली नीतियों को लेकर क्षोभ और गुस्सा साफ दिखा था. उनका कहना था कि अमेरिका उत्पीड़क सरकारों को शह दे रहा है. यहां की गरीब और बदहाल बहुसंख्यक आबादी का भी यही मानना है. वे संसाधनों और संपत्ति को पश्चिमी देशों, पश्चिमपरस्त अभिजातों और भ्रष्ट-जालिम शासकों के हाथों में जाते हुए बेबसी से देख रहे हैं लेकिन इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं.
11 सितंबर के हमले के लिए अमेरिका ने पहले तो धर्मयुद्ध शब्द का इस्तेमाल किया, लेकिन इस पर फौरन उंगली उठ जाने से इस्लामी दुनिया में मौजूद उसके समर्थकों के बीच खलबली मच जाती, इसलिए उसने अपनी इस गंभीर गलती को सुधारते हुए हमले को युद्ध का नाम दे दिया. जैसा कि यह भी कहा जाता है, 11 सितंबर के हमले के मामले में मानवतावादी हस्तक्षेप की संज्ञा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. बल्कि ज्यादा सही शब्द है इंसानियत के विरुद्ध अपराध. अपराधियों को सजा देने के लिए हमारे पास कानून है. कायदा है कि आततायियों की पहचान की जाए, उनके अपराधों को साबित किया जाए. लेकिन इसके लिए ठोस पक्के सुबूतों की जरूरत होगी. इस प्रक्रिया में कुछ बेहद खतरनाक सवाल अपनी कब्रों से बाहर निकलकर सामने खड़े हो जाएंगे. इनमें एक सबसे स्पष्ट प्रश्न यह होगा कि आज से डेढ़ दशक पहले विश्व न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के लिए किसे दोषी ठहराया था? पश्चिमी शक्तिकेंद्र आतंकवाद की अपनी परिभाषा से मुकरते हैं. वे जैसे ही अमेरिकी कोड या सेना मैनुअल में दी गई परिभाषा को सही मानेंगे, फौरन यह स्पष्ट हो जाएगा कि अमेरिका और उसके सहयोगी ही सबसे बड़े आतंकवादी राज्य हैं. शक्ति के बड़े इस्तेमाल की धमकी को धौंस की कूटनीति कहा जाता है. न कि आतंकवाद का एक रूप. हालांकि आमतौर पर धमकी या हिंसा के इस्तेमाल को ही आतंकवादी मकसद से प्रेरित कार्य कहा जाता है. यदि यही हथकंडे बड़े और शक्तिशाली देश नहीं अपना रहे होते हैं. उस परिस्थिति की कल्पना करें, जब पश्चिमी बौद्धिक वर्ग आतंकवाद के शाब्दिक अर्थ को हू-ब-हू अपना ले, तब तो आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का पूरा स्वरूप ही बदल जाएगा. इस सच्चाई को आज भी सम्मानित साहित्य में जगह नहीं मिल सकी है.
मध्य एशिया के बारे में अच्छी जानकारी रखने वालों को अच्छी तरह पता है कि मुस्लिम आबादी पर किया गया कोई व्यापक हमला बिन लादेन और उसके साथियों की दुआओं का असर साबित होगा और अमेरिका और उसके मित्र देशों के लिए एक शैतानी फंदा. 11 सितंबर का हमला अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियों को निश्चित रूप से झकझोर देने वाला था. 1980 के दशक में सीआईए ने पाकिस्तान और दूसरी (सऊदी अरब, ब्रिटेन) खुफिया एजेंसियों के साथ मिलकर इस्लामी चरम कट्टरपंथियों को हथियारबंद करने, उनके प्रशिक्षण और भर्ती में एक अहम भूमिका निभाई थी. उस वक्त मकसद था अफगानिस्तान में रूसी अतिक्रमणकारियों के खिलाफ जिहादी जंग की शुरुआत कराना. अब इस तरह के सारे रिकार्डों को समाप्त या गायब कर देने की जोर-शोर से कोशिशें जारी हैं. यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि अमेरिका पूरे मामले में बिल्कुल निर्दोष है. ताज्जुब इस बात का है कि भारत समेत दुनिया भर का मीडिया भी सारे मौलिक मूल्यों को ताक पर रखकर सीआईए को उद्धृत कर रहा है.
याद करें कि अफागानिस्तान में जेहाद खत्म होने के बाद अफगानी योद्धाओं (बिन लादेन जैसे) ने अपना ध्यान चेचिन्या और बोस्निया की तरफ केंद्रित किया तो उन्हें अमेरिका का भरपूर समर्थन मिला. हैरत है कि तब भी सरकारों ने उसका समर्थन भी किया. बोस्निया में ऐसे कई इस्लामी स्वयंसेवकों को उनकी सामरिक सेवाओं के लिए सम्मानित करने के लिए उन्हें नागरिकता प्रदान की गई.
याद करें कि पश्चिमी चीन में चीनी मुस्लिम चीन की सत्ता के खिलाफ लड़ रहे हैं, जिन्हें चीन ने 1978 में अफगान सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ने के लिए भेजा था. यही चीनी बाद में अमेरिका द्वारा संगठित ताकतों के साथ मिलकर रूस द्वारा स्थापित और समर्थित नजीबुल्लाह सरकार के खिलाफ लड़े. अमेरिका नजीबुल्लाह जैसी ही पिट्ठू सरकार दक्षिण वियतनाम में चला रहा था., जहां उसने देश की रक्षा के नाम पर लंबे समय तक भयानक युद्ध चलाया. बाद में इन जेहादियों ने अपने मकसद के लिए दक्षिणी फीलीपिंस, उत्तर अफ्रीका और कई दूसरी जगहों पर अपने अभियान चलाए. धीरे-धीरे उनका रुख बदल कर सऊदी अरब, मिस्र और कई दूसरे अरब देशों की तरफ हो गया और 1980 तक अमेरिका उनका मुख्य निशाना बन गया, जिसने बिन लादेन के अनुसार सऊदी अरब पर कब्जा किया हुआ है, उसी तरह जैसे रूस अफगानिस्तान पर काबिज था.
जैसा कि इन दिनों पाकिस्तान के हालात को सामने रखकर जाना जा सकता है, इस तरह की आतंकवादी गतिविधियां सभी जगह की झक्की और उत्पीड़क सरकारों के लिए वरदान साबित होती हैं. सरकारें इन घटनाओं की आड़ में सैनिकीकरण, शक्ति के नियंत्रण, सामाजिक-लोकतांत्रिक कार्यों की दिशा को उलट देने, संसाधनों को कुछ हाथों तक सीमित कर देने और लोकवाद की सार्थकता को समाप्त कर देने के अपने मकसदों में कामयाब हो जाती हैं. लेकिन दुनिया को या ऐसी सरकारों को (अमेरिका समेत) मान लेना होगा कि ये चालें कभी कामयाब नहीं होंगी. कुछ दिनों तक वे इसका फायदा जरूर उठा सकते हैं.
11 सितंबर की घटना फिलिस्तीनियों के लिए भयानक अंजाम लेकर आएगी, उसका अंदाजा उन्हें पहले से रहा होगा. उस घटना ने इस्रायल के लिए ऐसे अवसर दे दिए, जिनसे वह बेखौफ होकर फिलिस्तीनियों पर टूट पड़ा. 11 सितंबर के कुछ ही दिन बाद इस्राइली टैंक फिलिस्तीन के शहरों में घुस गए और दर्जनों नागरिकों को मार डाले. इस तरह 11 सितंबर के बहाने एक बार फिर वहां आतंक के उस चक्के को गति दी गई, जिससे बाल्कन, उत्तरी लैंड आदि पहले से वाकिफ थे.
जहां तक मुस्लिम देशों की कट्टरता की बात है, कोई भी आदमी अरबों को कट्टर नहीं कह सकता. अमेरिका या दूसरे किसी भी पश्चिमी देश को धार्मिक कट्टरवाद से कभी कोई परेशानी नहीं रही है. सच तो यह है कि अमेरिका की संस्कृति दुनिया की सबसे ज्यादा धार्मिक कट्टरवादी संस्कृतियों में से एक है. अगर तालिबानियों को अलग रखा जाए तो इस्लामी विश्व में सऊदी अरब धर्म के मामले में सबसे ज्यादा कट्टरवादी है और अपनी उत्पत्ति के समय से ही अमेरिका का सहयोगी और साथी देश रहा है. वैसे भी तालिबान दरअसल इस्लाम के सऊदी संस्करण की ही एक शाखा है. इस्लामी उग्रवादी, जिन्हें अक्सर कट्टरवादी भी कहा जाता है, 1980 के दशक में अमेरिका के सबसे प्रिय पात्र थे, क्योंकि तब इनसे बेहतर हत्यारे अमेरिका को नहीं मिलते. उन बरसों में लैटिन अमेरिका के कैथोलिक चर्च अमेरिका के सबसे बड़े दुश्मन थे क्योंकि उन्होंने उत्पीड़ितों का साथ देने का जघन्य अपराध और दुस्साहस किया था और इसके लिए उन्हें काफी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी थी. पश्चिमी देश अपने दुश्मनों के चुनाव में काफी विश्वकुख्यात हैं. उनके चुनाव का आधार शक्ति की सेवा और गुलामी है, धर्म नहीं.
(क्रमशः)

Wednesday, March 18, 2009

कौन सिखाता है चिडियों को चीं चीं चीं चीं करना?



धूप की चिरैयाः तारादत्त निर्विरोध

उड़ती है पार-द्वार धूप की चिरैया ।

पानी के दर्पण में, बिम्ब नया उभरा,

बिखर गया दूर-पास, एक-एक कतरा ।

पलकों-सी मार गई धूप की चिरैया ।


पूरब में कुंकुम का, थाल सजा-सँवरा,

किरणों-सी दुलहन का, रूप और निखरा ।

आँगना गई बुहार धूप की चिरैया ।

यहाँ-वहाँ, इधर-उधर, फुदक-फुदक नाचे,

सुख-दुख की आँखों के, शब्दों को बाँचे ।

रोज़ पढ़े समाचार धूप की चिरैया ।


ओ री चिड़ियाः कृष्ण शलभ

जहाँ कहूँ मैं बोल बता दे

क्या जाएगी, ओ री चिड़िया

उड़ करके क्या चन्दा के घर

हो आएगी, ओ री चिड़िया।



चन्दा मामा के घर जाना

वहाँ पूछ कर इतना आना

आ करके सच-सच बतलाना

कब होगा धरती पर आना

कब जाएगी, बोल लौट कर

कब आएगी, ओ री चिड़िया

उड़ करके क्या चन्दा के घर

हो आएगी, ओ री चिड़िया।



पास देख सूरज के जाना

जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना

दुबकी रहती धूप रात-भर

कहाँ? पूछना, मत घबराना

सूरज से किरणों का बटुआ

कब लाएगी, ओ री चिड़िया

उड़ करके क्या चन्दा के घर

हो आएगी, ओ री चिड़िया।



चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना

पास बादलों के हो आना

हाँ, इतना पानी ले आना

उग जाए खेतों में दाना

उगा न दाना, बोल बता फिर

क्या खाएगी, ओ री चिड़िया

उड़ करके क्या चन्दा के घर

हो आएगी, ओ री चिड़िया।


कौन सिखाता है चिड़ियों को ः सोहनलाल द्विवेदी

कौन सिखाता है चिडियों को चीं चीं चीं चीं करना?
कौन सिखाता फुदक-फुदक कर उनको चलना फिरना?

कौन सिखाता फुर से उड़ना दाने चुग-चुग खाना?
कौन सिखाता तिनके ला-ला कर घोंसले बनाना?

कौन सिखाता है बच्चों का लालन-पालन उनको?
माँ का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको?

कुदरत का यह खेल, वही हम सबको, सब कुछ देती।
किन्तु नहीं बदले में हमसे वह कुछ भी है लेती।

हम सब उसके अंश कि जैसे तरू-पशु–पक्षी सारे।
हम सब उसके वंशज जैसे सूरज-चांद-सितारे।

चिड़िया और बच्चेः जगदीश व्योम

चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ

भूख लगी मैं क्या खाऊँ

बरस रहा बाहर पानी

बादल करता मनमानी

निकलूँगी तो भीगूँगी

नाक बजेगी सूँ सूँ सूँ

चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......

माँ बादल कैसा होता ?

क्या काजल जैसा होता

पानी कैसे ले जाता है ?

फिर इसको बरसाता क्यूँ ?

चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......

मुझको उड़ना सिखला दो

बाहर क्या है दिखला दो

तुम घर में बैठा करना

उड़ूँ रात-दिन फर्रकफूँ

चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......

बाहर धरती बहुत बड़ी

घूम रही है चाक चढ़ी

पंख निकलने दे पहले

फिर उड़ लेना जी भर तूँ

चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......

उड़ना तुझे सिखाऊँगी

बाहर खूब घुमाऊँगी

रात हो गई लोरी गा दूँ

सो जा, बोल रही म्याऊँ

चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ

भूख लगी मैं क्या खाऊँ ?

लड्डू ले लोःमाखनलाल चतुर्वेदी

ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।

Tuesday, March 17, 2009

दिल्ली प्रेस क्लब में नेहरू की आत्मा



दिल्ली प्रेस क्लब की एक शाम. आंगन में ठूंठ खड़ा पीपल का पेड़. अगल बगल बिछे ढेर सारे प्लास्टिक के कुर्सी मेज. राजधानी के पत्रकारों का कोलाहल. जाम-दर-जाम. हर जाम इस शाम की किसी न किसी खबर के नाम.
एक ने कहा, दिन भर मालिक इतना चूस लेता है, पेट में इतना जहर भर जाता है. आया हूं उसे ह्विस्की शोडा से बुझाने.

दूसरे ने कहा, इस क्लब की स्थापना नेहरू जी के जमाने में हुई थी. उस समय पत्रकारों ने नेहरू जी से कहा था कि संसद चलने के दौरान मिनिस्टर और नेता तो अपने ठिकानों पर लंच करने चले जाते हैं, हमें भी दोपहर के लिए कोई ऐसा स्थान दिया जाए, जहां थोड़ा विश्राम कर लिया करें. नेहरू ने तुरंत इस रेलवे भवन के बगल की जगह को पत्रकारों के लिए दे दिया था. नाम पड़ा दिल्ली प्रेस क्लब.

अब इस प्रेस क्लब में दिन रात विश्राम होता है. कई पत्रकारों की महंती यही से चलती है. सस्ती दारू, सस्ता भोजन. यहां चौथा खंभा रोजाना हजारों लीटर दारू गटक रहा है. एक पैग भीतर जाते ही शुरू हो जाती है देश-दुनिया पर तिलंगी बहस. जो चार छह पैग सूत चुके हैं, बुलेटिन पर बुलेटिन रिले करते जाते हैं. कोई सुने-न-सुने.

एक पत्रकार जी देश के हिंदी अखबारों के संपादकों पर पिल पड़ते हैं. गिनाने लगते हैं कि कौन कितना बड़ा जगलर है. कौन किस तरह अपने मालिक को पटाकर देश-विदेश के मजे ले रहा है. कौन संपादक न्यूज रूम में पत्रकारों से गाली की भाषा में बात करता है. कौन संपादक महिला पत्रकारों को ज्यादा लिफ्ट मारता है.

एक अन्य पत्रकार जी को ज्यादा चढ़ चुकी है. बांय-बांय बोल रहे हैं. उनके बगल में बैठी जनाना पत्रकार सिगरेट के धुएं से मीडिया का भविष्य लिख रही हैं. बात-बात पर पलक झपक जा रही है, होंठ माफिया मुस्कान बिखेर रहे हैं.

एक पत्रकार जी ने चार-छह पैग सूत लिया है लेकिन बिल डेढ़ सौ रुपये ज्यादा का आ गया. बगल वाले की पीठ सहलाते हुए उधार मांग रहा है. कल लौटा देगा.

एक पत्रकार जी को पी लेने के बाद कविता सुनाने का शौक है. उन्हें कोई सुन ही नहीं रहा है. वह तेजी से भाग कर बाथरूम जाते हैं, वहीं जोर-जोर से कविता पढ़ रहे हैं. कोई कहता है, इसी चक्कर में नौकरी जा चुकी है.

एक पत्रकार जी लगभग पचास-बावन साल के. बाल सफेद. मूंछ गायब. व्याख्या में व्यस्त हैं कि भारतीय मीडिया का भविष्य क्या है. प्रिंट की तो लुटिया डूबती जा रही है. इलेक्ट्रॉनिक वाले विदेशी कर्ज पर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं.

...और धीरे-धीरे रात के एक बज चुके. सारे लोग जा चुके. ठूंठ पीपल के नीचे पिल्ला पूंछ खुजला रहा है. जमीन पर वहीं जनाना पत्रकार बगल वाले पर बरस रही हैं. खरी-खोटी बरसा रही हैं.....चारो ओर सन्नाटा. बाहर वाहनों की पें-पें भी थमने लगी है. नेहरू की आत्मा हुलस रही होगी.

Sunday, March 15, 2009

मेरे शहर की स्त्रियां

कृष्ण कुमार यादव, बेजी, आर.अनुराधा, लावण्यम, राजकिशोर, घुघूती बासूती, आकांक्षा, सुजाता, स्वप्नदर्शी, संगीता पुरी, लवली कुमारी, पल्लवी त्रिवेदी, निर्मला कपिला, सीमा गुप्ता, विभा रानी, भावना, वंदना, अरुणा राय, मनविंदर भिंभर, समीर लाल, मीनाक्षी, दिनेश राय द्विवेदी, ममता आदि के स्फुट विचारों, तर्कों, चिंताओं, लेखों, तुकांतों का काव्य-भावानुवाद-

मेरे शहर की स्त्रियां......
फेमिनिस्ट, कॉरपोरेट
ये करती हैं बड़े-बड़े दावे-प्रतिदावे,
धर्मशास्त्रों, रूढ़ियों ने इन्हें
नहीं सिखायीं आदिम वर्जनाएं.
गली-कूंचों,
सौंदर्य प्रतियोगिताओं
और किटी पार्टियों से रहा कभी
इनका कभी कोई सरोकार,
कर्मकाण्डों के शहर में ढहाए हैं इन्होंने
पितृसता-पुरोहिती के पाखंड,
दिए अर्थियों को कंधे,
चिता को मुखाग्नि,
किए माता-पिताओं के अंतिम संस्कार
तर्पण और पितरों के श्राद्ध.

मेरे शहर की स्त्रियां........
तनिक भी शर्मातीं-सकुचातीं नहीं हैं
साफ-साफ कर देती हैं
शराबी दूल्हेसंग शादी से इन्कार
घोड़ी पर होकर सवार
खुद गाजे-बाजे के साथ पहुंच जाती हैं
दूल्हे के दरवाजे,
पिता करते हैं बहुओं की आगवानी,
पूजते हैं इनके पाँव,
कभी नहीं हुआ
यहां की शादियों में
मंत्रोच्चार, ली इन्होंने सात फेरों की शपथ,
सिर्फ जयमाल,
सिन्दूरदान,
स्वयंवर भी रचा लेती हैं कभी-कभार
पूछती हैं सवाल
और खुद चुन लेती हैं जीवनसाथी
यहां की विधवाएं
खूब करती हैं साज श्रृंगार
हाथों में मेंहदी, कलाइयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ,
माथे पर बिंदिया
और खूबसूरत परिधान.
और-तो-और
इस शहर की काजी हैं शबनम
अपने लकवाग्रस्त पिता की सातवीं संतान
शरीयत का है इन्हें अच्छी तरह ज्ञान.

मेरे शहर की स्त्रियां.....
बात-बात पर करती हैं जिरह,
क्यों बांधे जाते हैं कलावे
लड़कों के दाएं, लड़कियों के बाएं हाथ में?
जनेऊ क्यों नहीं पहन सकतीं हम स्त्रियां?
अंतर और मायने बताइए
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस
और महिला दिवस के?
इन्हें मालूम हैं
गांव-शहर के फर्क भी,
दोनों जगह की औरतों की
आजादियों के मतलब,
दोनों को चाहिए अपनी-अपनी स्वतंत्रताएं
और तुरंत चाहिए,
कल या परसों नहीं.
दोनों के मुद्दे हैं एक-से
आर्थिक सुरक्षा.
इन्हें भी चाहिए
खुद कमाने, खुद खर्चने का
पूरा अधिकार.
इस शहर की स्त्रियां
हर बार
महिला दिवस पर पूछती हैं
एक ही सवाल...
इस दिन हमारे नारी संगठन
क्यों नहीं जाते वेश्या टोलियों में?
उनसे ज्यादा किसका होता है
शोषण और दमन?
ये अक्सर पूछती हैं
कि हमारे देश में और कहां-कहां हैं
पाटन जैसे टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट?
वे छह अध्यापक और वे किशोरियां थीं
किस माता पिता की बेटियां?
और किन-किन विद्यालयों में हो रही है
वैसी पढ़ाई-लिखाई?
और कहां-कहां बच्चियों के आदमखोर
पहुंचे जेल की सलाखों के पीछे?
ये स्त्रियां कहती हैं
कि हत्यारे से ज्यादा भयानक
होता है बलात्कारी.
ये अपनी बच्चियों को रोजाना पढ़ाती हैं
उनसे मुकाबले का पाठ.

मेरे शहर की स्त्रियां.....
सिर्फ घरों के भीतर नहीं होतीं
शासन और समर में रखती हैं
ज्यादा विश्वास,
यहां के लोग कहते हैं इन्हें
वीरांगना,
और ये रही इनकी नामावली
बेगम हजरत महल
रहीमी, हैदरीबाई, ऊदा देवी,
आशा देवी, रनवीरी,
शोभा, महावीरी,
सहेजा, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी,
भगवानी, भगवती, इन्द्रकौर
और कुशल देवी,
जमानी बेगम, लक्ष्मीबाई,
झलकारीबाई, मोतीबाई, काशीबाई
जूही, दुर्गाबाई
रानी चेनम्मा
और लाजो,
रानी राजेश्वरी और बेगम आलिया
रानी तलमुंद कोइर
ठकुराइन सन्नाथ कोइर
सोगरा बीबी और अजीजनबाई
मस्तानीबाई
मैनावती
और अवन्तीबाई
महावीरी, चौहान रानी, वेद कुमारी और आज्ञावती
सत्यवती, अरुणा आसफ अली
देवमनियां औरमाकी
रानी गुइंदाल्यू, प्रीतिलता, कल्पनादत्त
शान्ति घोष और सुनीति चौधरी
सुहासिनी अली और रेणुसेन
दुर्गा भाभी’, सुशीला दीदी
बेगम हसरत मोहानी
सरोजिनी नायडू
कमला देवी चट्टोपाध्याय
बाई अमन
अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी
मातंगिनी हाजरा और कस्तूरबा गाँधी
डा0 सुशीला नैयर, विजयलक्ष्मी
लक्ष्मी सहगल, मानवती आर्या
एनीबेसेन्ट, मैडम भीकाजी कामा
भगिनी निवेदिता
मीरा बहन आदि-आदि.

मेरे शहर की स्त्रियां.....
चिट्ठों और गोष्ठियों में करती हैं
शब्दबेधी टिप्पणियां
उनके पायतने खड़े पुरुष पूछते हैं उनसे आएदिन
कि हम धर्म के रास्ते चलें,
कोई समस्या तो नहीं?
उफ्!
इस कदर अन्धविशवास!!
तब उन्हें
समझाती हैं ये
सृष्टि विकास का परिणाम है
किसी खुदा
ईश्वर का,
पुरुष के नियम ईश्वर के नहीं,
सेवा नहीं कोई स्त्री-धर्म,
अब नहीं होना चाहतीं ये
वाचिक मानसिक, शारीरिक हिंसा का शिकार
इसीलिए ये कभी नहीं मनातीं
रक्षाबन्धन, करवा चौथ, अहोई
चिंदी-चिंदी खोद डालीं हैं इन्होंने
अपने-अपने
अंधविश्वासों की जड़ें
तोड़ डाली हैं अपने पैरों की बेड़ियाँ
चाहे इन्हें कोई
कुलक्षिणी कहे या नयनतारा.