मेरी कविता में दृष्टि दोष
दोस्त, देखते हो जो तुम अंतर्विरोध सा
मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि दोष है।
यहाँ एक ही सत्य सहस्र शब्दों में विकसा
रूप रूप में ढला एक ही नाम, तोष है।
एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी।
मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन समूह की है, जब सागर में है कुप्पी
मुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरंतर।
मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाहें ही स्वर शर भास्वर
मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे।
बुरा जमाना, बुरा जमाना
बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऎसे युग में जिसमें ऎसी ही बही हवा
गंध हो गई मानव की मानव को दुस्सह।
शिकवा मुझ को है ज़रूर लेकिन वह तुम से--
तुम से जो मनुष्य होकर भी गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह
कोसेगा तुम को अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा! बड़े भाग से तुम कोमानव जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको
ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर पथ के दावी!
तोड़ अद्रि का वक्ष क्षुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा।