Saturday, March 14, 2009
मेरे शहर की स्त्रियां
कृष्ण कुमार यादव, बेजी, आर.अनुराधा, लावण्यम, राजकिशोर, घुघूती बासूती, आकांक्षा, सुजाता, स्वप्नदर्शी, संगीता पुरी, लवली कुमार, पल्लवी त्रिवेदी, निर्मला कपिला, सीमा गुप्ता, विभा रानी, भावना, वंदना, अरुणा राय, मनविंदर भिंभर, समीर लाल, मीनाक्षी, दिनेश राय द्विवेदी, ममता आदि के स्फुट विचारों, तर्कों, चिंताओं, लेखों, तुकांतों का काव्य-भावानुवाद-
मेरे शहर की स्त्रियां......
न फेमिनिस्ट, न कॉरपोरेट
न ये करती हैं बड़े-बड़े दावे-प्रतिदावे,
धर्मशास्त्रों, रूढ़ियों ने इन्हें
नहीं सिखायीं आदिम वर्जनाएं.
गली-कूंचों,
सौंदर्य प्रतियोगिताओं
और किटी पार्टियों से न रहा कभी
इनका कभी कोई सरोकार,
कर्मकाण्डों के शहर में ढहाए हैं इन्होंने
पितृसता-पुरोहिती के पाखंड,
दिए अर्थियों को कंधे,
चिता को मुखाग्नि,
किए माता-पिताओं के अंतिम संस्कार
तर्पण और पितरों के श्राद्ध.
मेरे शहर की स्त्रियां........
तनिक भी शर्मातीं-सकुचातीं नहीं हैं
साफ-साफ कर देती हैं
शराबी दूल्हेसंग शादी से इन्कार
घोड़ी पर होकर सवार
खुद गाजे-बाजे के साथ पहुंच जाती हैं
दूल्हे के दरवाजे,
पिता करते हैं बहुओं की आगवानी,
पूजते हैं इनके पाँव,
कभी नहीं हुआ
यहां की शादियों में
मंत्रोच्चार, न ली इन्होंने सात फेरों की शपथ,
सिर्फ जयमाल,
सिन्दूरदान,
स्वयंवर भी रचा लेती हैं कभी-कभार
पूछती हैं सवाल
और खुद चुन लेती हैं जीवनसाथी
यहां की विधवाएं
खूब करती हैं साज श्रृंगार
हाथों में मेंहदी, कलाइयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ,
माथे पर बिंदिया
और खूबसूरत परिधान.
और-तो-और
इस शहर की काजी हैं शबनम
अपने लकवाग्रस्त पिता की सातवीं संतान
शरीयत का है इन्हें अच्छी तरह ज्ञान.
मेरे शहर की स्त्रियां.....
बात-बात पर करती हैं जिरह,
क्यों बांधे जाते हैं कलावे
लड़कों के दाएं, लड़कियों के बाएं हाथ में?
जनेऊ क्यों नहीं पहन सकतीं हम स्त्रियां?
अंतर और मायने बताइए
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस
और महिला दिवस के?
इन्हें मालूम हैं
गांव-शहर के फर्क भी,
दोनों जगह की औरतों की
आजादियों के मतलब,
दोनों को चाहिए अपनी-अपनी स्वतंत्रताएं
और तुरंत चाहिए,
कल या परसों नहीं.
दोनों के मुद्दे हैं एक-से
आर्थिक सुरक्षा.
इन्हें भी चाहिए
खुद कमाने, खुद खर्चने का
पूरा अधिकार.
इस शहर की स्त्रियां
हर बार
महिला दिवस पर पूछती हैं
एक ही सवाल...
इस दिन हमारे नारी संगठन
क्यों नहीं जाते वेश्या टोलियों में?
उनसे ज्यादा किसका होता है
शोषण और दमन?
ये अक्सर पूछती हैं
कि हमारे देश में और कहां-कहां हैं
पाटन जैसे टीचर्स ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट?
वे छह अध्यापक और वे किशोरियां थीं
किस माता पिता की बेटियां?
और किन-किन विद्यालयों में हो रही है
वैसी पढ़ाई-लिखाई?
और कहां-कहां बच्चियों के आदमखोर
पहुंचे जेल की सलाखों के पीछे?
ये स्त्रियां कहती हैं
कि हत्यारे से ज्यादा भयानक
होता है बलात्कारी.
ये अपनी बच्चियों को रोजाना पढ़ाती हैं
उनसे मुकाबले का पाठ.
मेरे शहर की स्त्रियां.....
सिर्फ घरों के भीतर नहीं होतीं
शासन और समर में रखती हैं
ज्यादा विश्वास,
यहां के लोग कहते हैं इन्हें
वीरांगना,
और ये रही इनकी नामावली
बेगम हजरत महल
रहीमी, हैदरीबाई, ऊदा देवी,
आशा देवी, रनवीरी,
शोभा, महावीरी,
सहेजा, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी,
भगवानी, भगवती, इन्द्रकौर
और कुशल देवी,
जमानी बेगम, लक्ष्मीबाई,
झलकारीबाई, मोतीबाई, काशीबाई
जूही, दुर्गाबाई
रानी चेनम्मा
और लाजो,
रानी राजेश्वरी और बेगम आलिया
रानी तलमुंद कोइर
ठकुराइन सन्नाथ कोइर
सोगरा बीबी और अजीजनबाई
मस्तानीबाई
मैनावती
और अवन्तीबाई
महावीरी, चौहान रानी, वेद कुमारी और आज्ञावती
सत्यवती, अरुणा आसफ अली
देवमनियां और ‘माकी’
रानी गुइंदाल्यू, प्रीतिलता, कल्पनादत्त
शान्ति घोष और सुनीति चौधरी
सुहासिनी अली और रेणुसेन
‘दुर्गा भाभी’, सुशीला दीदी
बेगम हसरत मोहानी
सरोजिनी नायडू
कमला देवी चट्टोपाध्याय
बाई अमन
अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी
मातंगिनी हाजरा और कस्तूरबा गाँधी
डा0 सुशीला नैयर, विजयलक्ष्मी
लक्ष्मी सहगल, मानवती आर्या
एनीबेसेन्ट, मैडम भीकाजी कामा
भगिनी निवेदिता
मीरा बहन आदि-आदि.
मेरे शहर की स्त्रियां.....
चिट्ठों और गोष्ठियों में करती हैं
शब्दबेधी टिप्पणियां
उनके पायतने खड़े पुरुष पूछते हैं उनसे आएदिन
कि हम धर्म के रास्ते चलें,
कोई समस्या तो नहीं?
उफ्!
इस कदर अन्धविशवास!!
तब उन्हें
समझाती हैं ये
सृष्टि विकास का परिणाम है
न किसी खुदा
न ईश्वर का,
पुरुष के नियम ईश्वर के नहीं,
सेवा नहीं कोई स्त्री-धर्म,
अब नहीं होना चाहतीं ये
वाचिक मानसिक, शारीरिक हिंसा का शिकार
इसीलिए ये कभी नहीं मनातीं
रक्षाबन्धन, करवा चौथ, अहोई
चिंदी-चिंदी खोद डालीं हैं इन्होंने
अपने-अपने
अंधविश्वासों की जड़ें
तोड़ डाली हैं अपने पैरों की बेड़ियाँ
चाहे इन्हें कोई
कुलक्षिणी कहे या नयनतारा.
Friday, March 13, 2009
दुनिया भर की लड़कियां
1
लड़कियां
लड़ रही हैं,
लड़कियां
रच रही हैं दुनिया को,
सब कुछ संवार रही हैं
लड़कियां,
कोई नहीं पहुंच पाता
उनकी उड़ानों के आखिरी सिरे तक,
लड़कियां
हर समय की रंग हैं,
लड़कियां
हर सुबह की लौ होती हैं,
लड़कियां वक्त की,
शब्द की,
अर्थ की,
गूंज-अनुगूंज की,
मुस्कराती चुप्पियों
और पूरी प्रकृति की
सबसे खूबसूरत
इबारत हैं,
ऐसा-वैसा कुछ कभी न कहना
किसी लड़की बारे में.
2
लड़किया
गांव की, शहर की,
आंगन की, स्कूल की,
राह की,
रात-दिन की,
न हों तो खाली और गूंगी हो जाती है
हंसी-खुशी
दुख-सुख
बोलचाल की दुनिया,
लड़कियां
कहीं दूर से आती हुई
हंसी की तरह बजती हैं रोज-दिन,
उस शायर ने भी
कहा था एक दिन कि..
वह घर भी कोई घर है
जिसमें लड़कियां न हों.ं
3
लड़कियां
जब आंखें झपकाती हैं,
चांद की खिड़कियां खोलती हैं,
पूरब की किरणों में महकती हैं,
पश्चिम को अगले दिन के लिए आश्वस्त करती हैं,
केसर की तरह पुलकती हैं,
आईने की आत्माओं में प्रतिबिंबित होती हैं,
अंतस को गहरे कहीं छू-छूकर भाग जाती हैं,
सब-कुछ सुनती-सहती
और गीतों की तरह गूंजती रहती हैं,
आंसुओं की तरह बरस कर भी
इंद्रधनुषाकार पूरे क्षितिज पर छा जाती हैं,
आंख मूंदकर
युगों का गरल पी लेने के बाद
झूम-झूम कर, चूम-चूम कर नाचती हैं,
जरा-जरा-से इशारों पर
कटीली वर्जनाओं,
लक्ष्मण रेखाओं के आरपार
जोर-जोर-से हंसती-खिलखिलाती हैं
लड़कियां.
4
आत्मा के रस में,
अपार संज्ञाओं से भरे संसार में,
सन्नाटे की चौखट पर,
शोर की सिराओं में,
संग-संग चलती हैं, होती हैं लड़कियां,
सांसों में,
निगाहों में,
बूंदों और मोतियों में,
सादगी की गंध
और शाश्वत सजावटों में,
ऊंची-ऊंची घास की फुनगियों पर,
ग्लेशियर की दूधिया परतों में
कितने तरह से होती हैं लड़कियां.
दिशाओं से पूछती हैं
और आगे बढ़ जाती हैं,
हवाओं से हंस-हंस कर बतियाती हैं
और चारों तरफ फैल जाती हैं
लड़कियां जाने कितनी तरह से
जाने कितनी-कितनी बार
रोज सुबह-शाम
दिन भर
चांद-सितारों के सिरहाने तक.
5 ये हैं
समय के पहले से
समय के बाद तक के लिए
हमारी अमोल निधियां,
हमारी अथाह स्मृतियां,
हमारी सानेट और चौपाइयां,
हमारी दोहा-छंद-कवित्त,
हमारी समस्त चेतना की शिराएं,
हमारी बहुरूपिया अवास्तविकताओं की
सबसे विश्वसनीय साक्षी
हम-सब की लड़कियां.
सोचता हूं कितना लिखूं, लिखता ही रहूं
इनके
...अपर्णा, आयुषी, रंजना, रोशनी, खुशी, वंदना
आदि-आदि के लिए
इन लड़कियों के लिए.
शायद
कभी न पूरी हो सके
लड़कियों पर
लिखी कोई भी कविता!
Thursday, March 12, 2009
झील के होंठो पर थरथराते ग्लेशियर
कैसा लगता है
जब सुबह होती है पूरब से,
कोपलें फूटती हैं फुनगियों से,
सलोना शिशु
झांकता है पहली बार हो चुकी मां के
आंचल से.
कैसा लगता है
जब धूप से मूर्च्छित
पृथ्वी के सीने पर पहली बार
लरजती है रिमझिम,
बूंदें थिरक-थिरक कर नाचती हैं,
फूलों, नीम की पत्तियों और कनैल की गंध
हवाओं से लिपट-लिपट कर
चूमती है फिंजाओं को
मौसम की नस-नस में समा जाती है
तनिक स्पंदन से
बादलों के होठ रिसते हैं
पहली-पहली बार.
...और कैसा लगता है
मिलन,
आलिंगन,
इम्तिहान,
नशा,
प्यार की
पहली कविता लिखने के बाद.
कैसा लगता होगा
किसी आंगन की तुलसी
किसी चौखट के रोली-चंदन
और किन्हीं दीवारों पर दर्ज सांसों की इबारत
पहली-पहली बार पढ़ लेने के बाद.
जैसे डूबते सूरज की तरह
शर्माती हुई लाल-लाल बर्फ की परतें,
झरनों की हथेलियां
गुदगुदाती हुई फूलों की घाटी पूछ रही हो
हिमकमलों का पता-ठिकाना,
शायद उस हेमकुंड से पहले
उन्हीं राहों पर हैं कहीं
ताम्रपत्रों की कतारें,
उतनी ऊंचाई चढ़ते-चढ़ते
कितने गहरे तक उतर जाती हैं
गर्म-गर्म सांसें
नर्म-नर्म एहसासों की.
ओ मेरे चंदन!
तुम्हारे नाम रोज-रोज लिखूं
ऐसे ही एक-एक पाती,
काश इन्हें थम-थम कर पढ़ लेने का
कोई संदेसा भी गूंजता रहे
बजता रहे आसपास
सरसों के घुंघरुओं की तरह गुनगुनाते हुए
ताल के खुले सन्नाटे में.
जब सुबह होती है पूरब से,
कोपलें फूटती हैं फुनगियों से,
सलोना शिशु
झांकता है पहली बार हो चुकी मां के
आंचल से.
कैसा लगता है
जब धूप से मूर्च्छित
पृथ्वी के सीने पर पहली बार
लरजती है रिमझिम,
बूंदें थिरक-थिरक कर नाचती हैं,
फूलों, नीम की पत्तियों और कनैल की गंध
हवाओं से लिपट-लिपट कर
चूमती है फिंजाओं को
मौसम की नस-नस में समा जाती है
तनिक स्पंदन से
बादलों के होठ रिसते हैं
पहली-पहली बार.
...और कैसा लगता है
मिलन,
आलिंगन,
इम्तिहान,
नशा,
प्यार की
पहली कविता लिखने के बाद.
कैसा लगता होगा
किसी आंगन की तुलसी
किसी चौखट के रोली-चंदन
और किन्हीं दीवारों पर दर्ज सांसों की इबारत
पहली-पहली बार पढ़ लेने के बाद.
जैसे डूबते सूरज की तरह
शर्माती हुई लाल-लाल बर्फ की परतें,
झरनों की हथेलियां
गुदगुदाती हुई फूलों की घाटी पूछ रही हो
हिमकमलों का पता-ठिकाना,
शायद उस हेमकुंड से पहले
उन्हीं राहों पर हैं कहीं
ताम्रपत्रों की कतारें,
उतनी ऊंचाई चढ़ते-चढ़ते
कितने गहरे तक उतर जाती हैं
गर्म-गर्म सांसें
नर्म-नर्म एहसासों की.
ओ मेरे चंदन!
तुम्हारे नाम रोज-रोज लिखूं
ऐसे ही एक-एक पाती,
काश इन्हें थम-थम कर पढ़ लेने का
कोई संदेसा भी गूंजता रहे
बजता रहे आसपास
सरसों के घुंघरुओं की तरह गुनगुनाते हुए
ताल के खुले सन्नाटे में.
Wednesday, March 11, 2009
Tuesday, March 10, 2009
चिट्ठाकारों ने खेली होली, रंग.में..उमंग में.....भंग की तरंग में
Monday, March 9, 2009
Sunday, March 8, 2009
ननों के यौन शोषण,समलैंगित से भूचाल
सिस्टर जेस्मी ने लिखी है चर्च में यौन शोषण, समलैंगिता पर किताब. बताती हैं, ने मुझेआलिंगन में जकड़ लिया. उसने लाल बाग में प्रेमी जोड़ों को दिखाया. मैं 30 साल की थी. पुरुष शरीर देखने की इच्छा थी. पहले मैंने नहीं देखा था. उस समयलाल बाग में पेड़ों के नीचे जोड़े अंतरंग मुद्रा में बैठे थे. उसकेबाद वह पादरी मुझे शारीरिक प्रेम के लिए उपदेश देने लगा. उसने सहसा ही मुझे जोर से भींच लिया. मेरे स्तनों को मसला और मुझे अपने स्तन दिखाने को कहा. उसने मुझेचारपाई पर धकेल दिया और मुझसे पूछा कि क्या मैंने किसी पुरुष का शरीर देखा है. और उसने अपने कपड़ेउतारने शुरू कर दिए. थोड़ी देर बाद उसने मुझे दूध जैसा द्रव्य दिखाया और मुझे बताने लगा कि किस तरह इसमेंलाखों जीवन छिपे हैं.
जेस्मी लिखती हैं कि धीरे-धीरे मुझे एहसास हो गया कि सिस्टर विमी मेरी ओर ध्यान अधिक देने लगी हैं. वह मुझेकई पृष्ठों के प्रेम पत्र लिखती हैं. जब मैंने जवाब नहीं दिया तो सिस्टर विमी मेरे खिलाफ हो गईं. इस तथ्य को देखतेहुए कि वह काफी प्रभावशाली हैं, मेरे सामने कोई विकल्प नहीं रह गया, मैं कुछ समय तक उसके यौनाचार काशिकार बनती रही. रात को जब सब सो जाते तो सिस्टर विमी अक्सर मेरी चारपाई पर आ जाती, और सब अभद्रहरकतें करतीं. मैं उसे वह सब करने से रोक नहीं पाती थी. उसने मुझसे कहा कि वह इस बात को लेकर काफीसावधान रहती है कि ऐसे संबंध महिलाओं से ही बनाए.
जेस्मी की किताब इस चर्च जगत में भूचाल मचाए हुए है. जेस्मी अंग्रेजी साहित्य में पीएचडी हैं. उन्होंने कविताओंकी भी तीन किताबें लिखी हैं. वह त्रिशूर (साइरो-मलाबार) के मशहूर विमला कालेज की प्रिंसिपल रह चुकी हैं. यहभारत का सबसे बड़ा कैथोलिक चर्च है. वह अपनी किताब में बताती हैं कि चर्च में किस तरह वरिष्ठ ननों ने उन्हेंयौन संबंध के लिए मजबूर किया और पादरियों ने उनका यौन शोषण किया. वह बताती हैं कि समलिंगी संबंध अबननों में आम बात हो गई है. मजबूरन इस सबका लिखकर भंडाफोड़ करने के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी. किताबमें वह लिखती हैं कि वह जितने भी पादरियों और ननों को जानती हैं, उनमें यौन संबंध थे और वे भ्रष्टाचार में लिप्तथे. विरोध करने पर उन्हें (जेस्मी) जबर्दस्ती मनोचिकित्सक के पास ले जाया गया. उन्हें लगा कि अब मेरा जीवनखतरे में है. यह किताब प्रकाश में आने के बाद केरल में चर्च के खिलाफ वामपंथियों ने खुली लड़ाई छेड़ दी है.
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