Saturday, April 4, 2009

चुनाव, लोकतंत्र और भूख/ धूमिल

चुनाव
यह आखिरी भ्रम है
दस्ते पर हाथ फेरते हुए मैंने कहा
तब तक इसी तरह
बातों में चलते रहो
इसके बाद...
वादों की दुनिया में
धोखा खाने के लिए
कुछ भी नहीं होगा
और कल जब भाषा...
भूख का हाथ छुड़ाकर
चमत्कारों की ओर वापस चली जाएगी
मैं तुम्हें बातों से उठाकर
आँतों में फेंक दूँगा
वहाँ तुम...
किसी सही शब्द की बगल में
कविता का समकालीन बनकर
खड़े रहना
दस्ते पर हाथ फेरते हुए
मैंने चाकू से कहा.


लोकतंत्र
वे घर की दीवारों पर नारे
लिख रहे थे
मैंने अपनी दीवारें जेब में रख लीं
उन्होंने मेरी पीठ पर नारा लिख दिया
मैंने अपनी पीठ कुर्सी को दे दी
और अब पेट की बारी थी
मै खूश था कि मुझे मंदाग्नि की बीमारी थी
और यह पेट है
मैने उसे सहलाया
मेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं- और साहस है तो लिखें,
मै तैयार हूं
न मैं पेट हूं
न दीवार हूं
न पीठ हूं
अब मै विचार हूं।

भूख
गेहूँ की पौध में टपकती हुई लार
लटे हुए हाथ की
आज की बालियों के सेहत पूछती है।

कोई नारा नहीं, न कोई सीख
सांत्वना के बाहर एक दौड़ती ज़रूरत
चाकू की तलाश में मुट्ठियाँ खोलती है फैली हुई
हथेली पर रख देती है...
एक छापामार संकेत
सफ़र रात में तै करना है।

आततायी की नींद
एतवार का माहौल बना रही है
लोहे की जीभ : उचारती है
कविता के मुहावरे
ओ आग! ओ प्रतिकार की यातना!!
एक फूल की कीमत
हज़ारों सिसकियों ने चुकाई है।

भूख की दर्शक-दीर्घा से कूदकर
मरी हुई आँतों का शोर
अकाल की पर्चियाँ फेंकता है।

आ मेरे साथ, आ मेरे साथ आ!
हड़ताल का रास्ता हथियार के रास्ते से
जुड़ गया है।
पिता की पसलियों से माँ की आँखों से गुज़र
भाई के जबड़े से होती हुई मेरे बेटे की तनी हुई
मुट्ठी में आ! उतर! आ!
ओ आटे की शीशा!
चावल की सिटकी!
गाड़ी की अदृश्य तक बिछी हुई रेल
कोशिश की हर मुहिम पर
मैं तुम्हें खोलूँगा फिश-प्लेट की तरह
बम की तरह दे मारूँगा तेरे ही राज पर
बीन कर फेंक दूँगा
मेहनतकश की पसलियों पर
तेरा उभार बदलाव को साबित करता है
जैसे झोंपड़ी के बाहर
नारंगी के सूखे छिलके बताते हैं :
अंदर एक मरीज़ अब
स्वस्थ हो रहा है
ओ क्रांति की मुँहबोली बहन!
जिसकी आंतों में जन्मी है
उसके लिए रास्ता बन.

Tuesday, March 31, 2009

कौन बनेगा भारत भाग्य विधाता

ऐसा शायद पहली बार लगता है कि चुनाव पूर्व सबसे बड़ा सवाल हो चुका है कौन बनेगा प्रधानमंत्री. अपने-अपने तर्क हैं और अपनी-अपनी अटकलें. तीसरे मोरचे के गठन के बाद भारत के भविष्य के भाग्य विधाता के नामों की कतार में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का नाम सर्वाधिक चर्चाओं में तैरने लगा है. यूपीए और एनडीए की अंदरूनी बेचैनी पहले से ज्यादा बढ़ी है. इतनी अनिश्चितता है कि चुनाव नतीजे आने से पहले कुछ भी कहना मुश्किल होगा कि किसकी सरकार बनेगी और कौन होगा प्रधानमंत्री.
इन वेटिंग का यह मुहावरा तो सिर्फ लालकृष्ण आडवाणी के लिए चलन में है लेकिन फेहरिस्त फैलाएं तो लाइन में लगे नजर आते हैं राहुल गांधी शरद पवार लालू यादव रामविलास पासवान मायावती मुलायम सिंह यादव एचडी देवेगौड़ा नरेंद्र मोदी भैरोसिंह शेखावत आदि आदि . के भीतर सवाल उठाए जा रहे हैं। एक सवाल बुजुर्ग नेता भैरोंसिंह शेखावत ने उठाया है। उन्होंने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने पर एक तरह से ऐतराज जताया है। उधर देश के दो बडे़ उद्योगपतियों ने गुजरात में राज्य के विवादग्रस्त मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का योग्यतम उम्मीदवार घोषित कर दिया था। देश के कुछ उद्योगपतियों को मोदी भा रहे हैं तो इसे उनकी व्यक्तिगत पसंद कहा जा सकता है। लेकिन खुद बीजेपी को यह बात पसंद नहीं। तीन दिन की चुप्पी के बाद मोदी कहते हैं कि आडवाणी ही बीजेपी के अधिकृत भावी प्रधानमंत्री हैं। बीजेपी समेत पूरे संघ परिवार में मोदी की इस तीन दिनी चुप्पी को समझने की कवायद चलती रही। इस बीच एक और शिगूफा सामने आया। एक सर्वेक्षण में 226 वरिष्ठ कॉर्पोरट अधिकारियों से जब देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में राय ली गई तो उद्योग जगत से जुड़ी इन हस्तियों में से 25 प्रतिशत ने कांग्रेस के मनमोहन सिंह को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा जताई। जबकि 23 प्रतिशत आडवाणी के पक्ष में दिखे। मोदी को उद्योग जगत के 12 प्रतिशत शीर्ष अधिकारी ही प्रधानमंत्री पद के लायक समझते हैं। राहुल गांधी को इस सर्वेक्षण में 14 प्रतिशत वोट मिले थे नरेंद्र मोदी चौथे नंबर पर पाए गए। आखिर कौन बनेगा प्रधानमंत्री जिस लोकतांत्रिक प्रणाली में हम विश्वास करते हैं उसके अनुसार इसका उत्तर आज नहीं दिया जाना चाहिए। हमारी संसदीय प्रणाली में व्यवस्था यह है कि चुने हुए सांसद प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं। हमारी दलीय व्यवस्था में बहुमत वाला दल या दलों का कोई समूह अपने भीतर किसी नेता को चुनता है तो प्रधानमंत्री बनता है। चूंकि हमारे देश में एक लंबे तक कांग्रेस का शासन रहा है और कांग्रेस पार्टी में पहले जवाहरलाल नेहरू का और फिर नेहरू परिवार का वर्चस्व रहा इसलिए यह तय माना जाता रहा कि यदि कांगेस जीती तो नेहरू या इंदिरा ही प्रधानमंत्री बनेंगे। तब विरोधी दल इस प्रथा को अ-जनतांत्रिक बताया करते थे। वैसे यह कोई नियम नहीं है कि प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा पहले नहीं हो सकती। यह मात्र एक परंपरा है कि मतदाता के अधिकार को सम्मान दिया जाए। वह तय करे कि प्रधानमंत्री कौन होगा। अब प्रधानमंत्री पद के दावेदार का नाम सामने रखकर मतदाता से साफ-साफ पूछा जा रहा है। राहुल गांधी का नाम पहले भी आया था। तब खुद सोनिया गांधी ने कहा था कि राहुल को और अनुभवी होने की जरूरत है। बावजूद इसके अर्जुन सिंह जैसे अनुभवी नेता ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल का नाम उछाला। तब इसे चापलूसी कहा गया था। फिर प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी ने इस आशय की बात कही। इसे किसी ने चापलूसी नहीं कहा। तो क्या कांग्रेस जीती तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे इस प्रश्न के उत्तर में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का उदाहरण सामने रखकर युवा व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही जाती है। तीसरे विकल्प के दावेदार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को अपेक्षाकृत युवा होने के साथ-साथ दलित बताकर प्रधानमंत्री पद का दावेदार सिद्ध करने में लगे हैं। आज तो हम सिर्फ इस सवाल का जवाब खोज सकते हैं कि प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए

सुप्रीमो उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती कहती हैं कि यदि सर्व समाज उन्हें वोट दे तो कोई भी ताकत उन्हें प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोक सकती। एक आंदोलन शुरू हो चुका है जो उन्हें शीर्ष पद पर ले जाएगा और उनकी आकांक्षा पूरी हो जाएगी। यदि मैं उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बन सकती हूँ तो मेरा मानना है कि एक दिन हमारे लोगों के सपने निश्चित तौर पर सच होंगे। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि मायावती प्रधानमंत्री बनने की सोच रखती हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
शरद पवार
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार खुद के मराठी होने के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाते हुए कहते है कि एक महाराष्ट्रीयन को भी प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलना चाहिए आंध्र प्रदेश गुजरात और कर्नाटक जैसे कई प्रदेशों के नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला है अब महाराष्ट्र को भी अवसर मिलना चाहिए यूपीए के घटक चुनाव के बाद पीएम का चुनाव करेंगे अमर सिंह कहते हैं कि समाजवादी पार्टी को प्रधानमंत्री के रुप में शरद पवार को स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है
लालू प्रसाद यादव
रेल मंत्री लालूप्रसाद यादव कहते हैं कि हर इंसान के उद्देश्य और महत्वाकांक्षाएं होती हैं इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मुझे प्रधानमंत्री बनना है और मैं बनूंगा लेकिन राजनीति में सब कुछ तय होता है। कैसे एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल संयुक्त मोर्चे के शासन के दौरान प्रधानमंत्री बने। अरे भई मैं भी तो प्रधानमंत्री बनना चाहता हूं सभी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं लेकिन ऐसे ही थोड़े कोई प्रधानमंत्री बन जाता है। लोकसभा चुनावों के बाद साफ हो जाएगा कि कौन बनेगा पीएम।
मुलायम सिंह यादव
समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से इनकार करते हैं यादव कहते हैं कि एसपी कांग्रेस के साथ खड़ी है और आगे भी कांग्रेस का साथ देती रहेगी। हम कांग्रेस के साथ संबंधों को लेकर काफी ईमानदार हैं। हमारे बीच दूरिया और मतभेद नहीं हो सकते।लालकृष्ण अडवानी अथवा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए वे किसी का भी साथ देने को तैयार हैं। मायावती की प्रधानमंत्री की दावेदारी पर वह कहते हैं कि दावेदार तो महारानी बन गई हैं अब काहे की दावेदारी।
रामविलास पासवान
केन्द्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान कहते हैं कि अगर किसी दलित को ही प्रधानमंत्री बनाया जाना है तो इस ओहदे के लिए वे सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। उन्होंने अपने लम्बे राजनीतिक सफर में कई मंत्रालयों का कामकाज सम्भाला और उसे बेहतरीन ढंग से अंजाम दिया है। कोई इच्छा पालने से क्या फर्क पड़ता है। प्रधानमंत्री का पद रिक्त नहीं है फिर भी लोग अपनी अर्जियाँ देते ही जा रहे हैं। मेरी अर्जी तो वहाँ काफी समय से पड़ी है। अभी चुनाव तो हो जाने दीजिए।




Sunday, March 29, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-8

दो सवाल...
1. 11 सितंबर की घटना के क्या कारण रहे होंगे?
2. उस योजना के पीछे उसके मुख्य मकसद क्या थे?

22 सितंबर 2001 को माइकेल एलबर्ट के साथ एक इंटरव्यू में नोम चोम्स्की ने बताया था..... सऊदी अरब में अमेरिकी सेना की मौजूदगी, फिलीस्तीन पर ढाए जा रहे कहर को सहयोग और अमेरिकी नेतृत्व में इराक की तबाही जैसे विषय सिर्फ उसके नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश के लोगों के आक्रोश का कारण रहे हैं. वह गुस्सा वहां के अमीर-गरीब, विभिन्न राजनीतिक और दूसरे तरह के सभी समूहों में मौजूद है. कहीं छिपा बैठा बिन लादेन इस तरह के परिष्कृत हमले को अंजाम दे सकता है लेकिन वाकई उसका नेटवर्क कमाल का है. वह नेटवर्क विकेंद्रित है, स्तर-मुक्त है और उनका आपसी संचार भी संभवतः काफी सीमित है. लादेन जानता है कि उसे क्या चाहिए और इस बात की जानकारी सिर्फ पश्चिमी लोगों को ही नहीं, अरब जनता को भी है, जिनके बीच वह टेप के माध्यम से पहुंचता है. अगर टेप विचार-विमर्श के मकसद से उसके ढांचे पर चर्चा कर रहे हैं तो उसका मुख्य निशाना सऊदी अरब और उसी तरह के दूसरे भ्रष्ट और गैरइस्लामी देश हैं. उसका नेटवर्क अपने को दुनिया भर के नास्तिकों और काफिरों से मुसलमानों की रक्षा करने वाला बताता है, चाहे वह चेचन्या हो या फिर बोस्निया, कश्मीर, पश्चिमी चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया, उत्तर अफ्रीका या कोई और जगह. उन्होंने रूस को मुस्लिम अफगानिस्तान से खदेड़ने के लिए जेहाद किया और उनकी मंशा अमेरिकीयों को सऊदी अरब से बाहर निकालने की रही, क्योंकि मुसलमानों के सबसे पवित्र स्थान वहीं हैं. गुंडों और आततायियों की भ्रष्ट और जालिम सरकारों को उखाड़ फेकने का उसका आह्वान व्यापक स्तर पर प्रतिध्वनित होता है. वैसे ही, जैसे उन अत्याचारों के प्रति उसका गुस्सा, जिनके पीछे वह और दूसरे भी अमेरिका की मौजूदगी महसूस करते हैं. यह बिल्कुल सही है कि लादेन के अपराध हमेशा सबसे पिछड़े और दबे-कुचले लोगों के लिए नुकसानदेह साबित होते हैं. 11 सितंबर फिलिस्तीनियों के लिए सबसे नुकसानदेह रहा. लेकिन बाहर से जो परस्पर विरोधी दिखता है, अंदरूनी तौर पर बिल्कुल अलग ढंग से महसूस किया जाता है. लादेन के अपराध चाहे गरीब जनता के लिए जितने भी हानिकारक हों, उत्पीड़कों के खिलाफ हिम्मत से लड़ने वाले की उसकी छवि ने उसे नायक बना दिया है, क्योंकि वे उत्पीड़क भी काफी वास्तविक हैं और अगर अमेरिका उसे मारने में सफल हो जाता है तो वह शहीदे आजम बन जाएगा और उसके भाषण के कैसेटों के जरिए उसकी आवाज लगातार गूंजती रहेगी. उसके अपराध सीआईए को शायद ही आश्चर्यचकित कर पाएंगे. अमेरिका, फ्रांस, पाकिस्तान और कइयों ने इस्लामी कट्टरपंथियों के पलटवार को संगठित, सशस्त्र और प्रशिक्षित किया. वह पलटवार 1981 में हुई मिस्र के राष्ट्रपति सादात की हत्या के साथ शुरू हुआ. हालांकि सादात रूसियों के खिलाफ उस गिरोहबंदी को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित था. पिछले पचास सालों की तरह वह पलटवार बिल्कुल सीधा है, जिसमें नशीले पदार्थों की तस्करी और हिंसा भी शामिल है. मिसाल के तौर पर जॉन कुली बताते हैं कि सीआईए अधिकारियों ने मिस्र के कट्टरपंथी इस्लामी उलेमा शेख उमर अब्दुल रहमान को अमेरिका में घुसने में जानबूझकर सहयोग किया. उस पर हिंसा का आरोप था और मिस्र की सरकार उसे ढूंढ रही थी. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की बमबारी में उसका हाथ पाया गया. इस बार उसके साथ सीआईए के उसी ग्रंथ के मुताबिक कार्वाइयां हुईं, जिसे रूस से लड़ने वाले अफगानियों को सौंपा गया था. योजना संयुक्त राष्ट्र भवन, लिंकन और हॉलैंड नहरों और दूसरे निशानों को उड़ाने की थी. शेख उमर को षड्यंत्र दोषी करार दिया गया और लंबी कैद की सजा हुई.
अगर हमें सच्चे न्याय से जरा भी लेना-देना था तो 11 सितंबर की घटना के बाद भी वैसी पुनरावृत्ति रोकने और नागरिकों की हिफाजत के लिए सच्चे दिल से सोचने-करने का एक ही रास्ता है, कानून का, अदालत का, न कि सीधे किसी मुल्क के बच्चों और औरतों पर बम बरसाने का. थोड़े फेरबदल के साथ हमे विश्व अदालत के मूल्यों का ही पालन करना चाहिए. अब तो साफ है कि जो लोग अमेरिका की मनचाही हिंसक गतिविधियों में साथ नहीं देंगे, उसके निशाने पर होंगे. उनके खिलाफ आगे भी खुली जंग होनी है. न्यूयॉर्क टॉइम्स ने 14 सितंबर 2001 को लिखा था कि दुनिया के देशों को कड़ा फैसला लेना होगा कि वे क्रूसेड (धर्मयुद्ध) में शामिल हों या मृत्यु और तबाही की निश्चित संभावनाओं का सामना करें. सिमोन जेंकिंस टाइम्स ने लिखा था कि बुश का 20 सिंतबर 2001 का भाषण ज्यादातर दुनिया के खिलाफ जंग का ऐलान था. आतंकवाद विरोधी सरकारी हमले से लादेन के मकसदों को फायदा पहुंचेगा, उनके नेताओं को मजबूती मिलेगी, सहनशीलता घटेगी और धर्मोन्माद को बढ़ावा मिलेगा. इतिहास अरब और पश्चिम के बीच खूंख्वार संघर्षों के लिए कोई एक उत्प्रेरक चाहता है तो वह उसकी जगह ले सकता है. यदि किसी हमले लादेन मारा भी जाता है तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, वह मारा जाएगा, फिर भी मासूमों के कत्लेआम से इलाके में पहले से व्याप्त गुस्सा, नफरत और क्षोभ और भी बढ़ेगा और उसके वहशी मंसूबों को मदद मिलेगी. अगर आगे भी संधि-कर्तव्यों, कानून और समझदारी की अनदेखी की गई तो हालात बहुत ही भयानक होंगे. यूरोप सदियों की खूंरेजियों से तबाह होता रहा और तब दुनिया के देशों ने औपचारिक ही सही, एक उसूल बनाया कि शक्ति का इस्तेमाल केवल हमले के समय अपनी सुरक्षा के लिए ही होगा, और वह भी तब तक, जब तक सुरक्षा परिषद हरकत में न आ जाए. खासकर पलटवार पर पाबंदी लगाई गई. चूंकि संयुक्त राष्ट्र के चॉर्टर के अनुच्छेद 51 के अनुसार अमेरिका पर कोई सशस्त्र हमला नहीं हुआ, इसलिए इस तरह के विचार निर्थक हैं, लेकिन यह तभी होगा, जब हम अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मूलभूत सिद्धांतों को अपने ऊपर भी उसी तरह लागू समझें, जिस तरह अपने दुश्मनों के मामले में समझते हैं. गई सदियों में यूरोप को क्या मिला...इंसानियत का खून, कत्लोगारत, तबाही, बर्बादी. इसीलिए छह दशक पहले यूरोपियों ने तय किया कि सदियों से चले आ रहे पारस्परिक नरसंहारों के सिलसिले को खत्म किया जाना चाहिए.
1965 में अमेरिका समर्थित एक सेना ने इंडोनेशिया पर कब्जा कर लिया, लाखों लोगों का कत्लेआम किया, जिनमें ज्यादातर खेतिहर मजदूर थे. सीआईए ने इसकी तुलना हिटलर, स्तालिन और माओ के अपराधों से की थी. उस नरसंहार ने पश्चिम के अनियंत्रित हर्षोन्माद को उजागर कर दिया था. जब निकारागुआ ने अमेरिकी हमलों के सामने घुटने टेक दिए तो मुख्य धारा के अखबारों ने इस्तेमाल किए गए हथकंडों की कामयाबी का स्तुतिगान किया था. अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का जुनून 1980 के दशक में चरम पर था, जब अमेरिका और उसके सहयोगी उसी कैंसर को पूरी दुनिया में फैला रहे थे, जिसे समूल नष्ट करने की कभी रीगन प्रशासन मांग करता रहा था. अगर हम चाहें तो आरामदेह खुशफहमी की दुनिया में रह सकते हैं, या फिर हम इतिहास से सबक लेना अब भी सीख जाएं. जरूरत इसी की है. हां यह अंदेशा स्वाभाविक हो कि हो सकता है, लादेन मार दिया गया हो, समझ ठीक दिशा में काम कर रही हो और शक्तिकेंद्र किसी बेहतर रणनीति के तहत उस गुप्त घटना को छिपा रहे हों.

सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-7

सूडान में आज भी खामोश मौतों का सिलसिला जारी है, जैसे अफगानिस्तान और इराक में. अमेरिका हो या आतंकवादी, दोनों दुनिया में घूम-घूम कर जनता को मार रहे हैं. आइए, आगे जानते हैं कि सूडान की दवा फैक्ट्री अल शिफा पर अमेरिकी बमबारी के बाद से वहां के लोग किस हालात से गुजर रहे हैं........
अल शिफा के विध्वंस के कारण दवाओं से ठीक हो सकने वाली बीमारियों से मारे गए बच्चों और औरतों समेत लाखों लोगों की तुलना लादेन नेटवर्क द्वारा अमेरिका पर किए गए एक मात्र हमले से नहीं की जा सकती है. सूडान दुनिया के सबसे कम विकसित देशों में एक है. इसकी कठोर जलवायु, प्रकीर्ण आबादी, स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और चरमराते आर्थिक ढांचे ने ज्यादातर सूडानियों को जीवित रहने के संघर्ष तक सीमित कर दिया है. एक ऐसे देश में जहां मलेरिया, तपेदिक और कई दूसरी बीमारियां महामारी का रूप लेती हैं, जहां जब-तब मस्तिष्क ज्वर और कॉलरा का दौरा चलता है. सस्ती दवाएं एक मौलिक आवश्यकता हैं, जिसे पूरा होना अमेरिकी दादागिरी ने मुश्किल कर दिया है. इसके अलावा इस देश में खेती योग्य भूमि की कमी, पीने लायक पानी की भारी कमी, एड्स के भयानक प्रकोप है और जो लगातार चल रहे गृहयुद्धों से पूरी तरह तबाह हो चुका है और ऊपर से कई तरह के प्रतिबंधों से जूझ रहा है. वहां की परिस्थितियों का केवल अंदाजा लगाया जा सकता है. दवाओं की सस्ती आपूर्ति व्यवस्था ध्वस्त हो जाने से एक साल में ही दसियों हजार लोग प्रभावित हुए और मारे गए.
उन दिनो ह्यूमन राइट्स वॉच ने रिपोर्ट की कि बमबारी के तुरंत बाद खारतून में स्थित सभी संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों ने अमेरिकी स्टॉफ को कई दूसरे सहायता संगठनों की तरह हटा लिया, ताकि कई सहायता कार्य अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो जाएं. इनमें अमेरिका आधारित इंटरनेशनल रेस्क्यू कमेटी द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम भी था, जहां पर रोज 50 दक्षिणी लोग मर रहे थे. संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार 24 लाख लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच गए और सहायता में अमेरिकी बाधा इस बदहाल जनसंख्या के लिए खतरनाक संकट पैदा करने लगी. सबसे ज्यादा तो यह कि अमेरिकी बमबारी ने लगता है कि सूडान के संघर्षरत गुटों के बीच शुरू हुई शांति प्रक्रिया को झकझोर दिया और 1981 से चल रहे इस गृहयुद्ध, जिसमें अब तक 15 लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके, को खत्म करने के लिए चल रहे शांति समझौते के प्रयासों को रोक दिया, जिससे युगांडा सहित पूरी नील घाटी में शांति की संभावना पैदा हो रही थी. उस हमले ने शायद सूडान सरकार के दिल में होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों से पैदा होने वाली उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया, जिससे यह संभावना बन रही थी कि बाहरी दुनिया के साथ उसका एक व्यावहारिक संबंध बन पाएगा. इसके अलावा सूडान की अंदरूनी समस्याओं को हल करने और अतिवादी इस्लामी तत्वों के प्रभावों को कम करने के प्रयासों को भी झटका लगा. सूडान में हुए उस अमेरिकी हमले की तुलना लुमुंबा हत्याकांड से की जाती है, जिसके बाद कांगो दशकों के लिए कत्लोगारत के हवाले हो गया. इसकी तुलना 1954 में ग्वाटेमाला की लोकतांत्रिक सरकार के सत्तापलट से भी की जा सकती है, जिसकी वजह से वहां 40 बरस तक रक्तपात और अत्याचार होता रहा.
जेम्स आस्टिल्ल लिखते हैं कि मिसाइल हमलों के पहले उत्पीड़क सैनिक तानाशाही, विनाशक इस्लामवाद और लंबे समय से चल रहे गृहयुद्ध से उबर रहा देश फिर से एक बार रातोरात नपुंसक उग्रवाद के दुःस्वप्न में डूब गया. यह राजनीतिक मूल्य सूडान के लिए उसके क्षणभंगुर चिकित्सा व्यवस्था के चूर-चूर हो जाने से कहीं बड़ा था. अस्टिल्ल ने अल शिफा बोर्ड के अध्यक्ष और सूडान के गिने-चुने औषधि विज्ञानियों में से एक डॉ.इदरीस अल तैयब के शब्दों को उद्धृत किया है....अमेरिकी बमबारी ठीक उसी तरह की एक आतंकवादी घटना थी, जैसी ट्विन टॉवर्स के साथ घटी. फर्क सिर्फ इतना रहा कि अल शिफा के बारे में हम जानते हैं कि उसे किसने अंजाम दिया था. मैं अमेरिकी लोगों की मौत से दुखी हूं लेकिन संख्या और आर्थिक स्थिति के सापेक्षिक मूल्य के ऐतबार से अल शिफा पर हमला ज्यादा भयानक था. उस बमबारी की एक बड़ी कीमत अमेरिका के लोगों को 11 सितंबर को चुकानी पड़ी. अमेरिकी अधिकारियों ने इस बात को सही माना है कि 1998 की बमबारी के ठीक पहले पूर्वी अफ्रीका में अमेरिकी दूतावासों पर हमलों को दो आरोपियों को सूडान ने गिरफ्तार कर वॉशिंगटन को सूचित भी किया था. अमेरिका ने सूडान के सहयोग की इस पेशकदमी को ठुकरा दिया था. मिसाइल हमलों के बाद सूडान ने गुस्से में आकर उन आरोपियों को मुक्त कर दिया, जिनकी पहचान तब तक लादेन के गुर्गों के रूप में हो चुकी थी. बाद में लीक हुए एफबीआई के एक विवरण-पत्र से पता चला कि क्यों सूडान ने आरोपियों को गुस्से में आकर मुक्त किया. विवरण पत्र के अनुसार एफबीआई चाहता था कि आरोपियों को अमेरिका लाया जाए, लेकिन डिपार्टमेंट आफ स्टेट्स ने इसकी अनुमति नहीं दी थी. एक वरिष्ठ सीआईए सूत्र का कहना था कि सूडान के उस प्रस्ताव को ठुकराया जाना 11 सितंबर के संबंध में सबसे बड़ी गलती थी. सूडान ने लादेन के बारे में और भी ढेर सारे सुबूत मुहैया कराने की अमेरिका से पेशकश की थी, अमेरिका अपनी नासमझ नफरत के कारण उन्हें भी बार-बार ठुकराता रहा. सूडान के जिन प्रस्तावों को ठुकराया गया था, उसमें बिन लादेन और उसके कायदा नेटवर्क के 200 लोगों की 11 सितंबर के पहले के कई बरसों की कारगुजारियों का खुफिया ब्योरा शामिल था. वॉशिंगटन को मोटी फाइलें बढ़ाई गई थीं, जिनमें तस्वीरों के अलावा कई प्रमुख कार्यकर्ताओं का विस्तृत ब्योरा था और दुनिया भर में अल कायदा के आर्थिक संबंधों के बारे में आवश्यक जानकारियां थीं, लेकिन अमेरिका ने अपने मिसाइलों के शिकार के प्रति नामसझ नफरत के कारण उन्हें ठुकरा दिया था. अगर वे जानकारियां अमेरिकी खुफिया विभाग के पास होतीं तो 11 सितंबर की घटना को रोकने में बेहतर समझ बन पाती. ....इतना कहकर वरिष्ठ सीआईए सूत्र अपनी बात समाप्त करते हैं (डेविड रोज, ऑब्जर्वर की ेक जांच की रिपोर्टिंग के दौरान, ऑब्जर्वर 30 सितंबर 2001).
कोई अंदाज नहीं लगा सकता कि सूडान पर हुई बमबारी से कितने लोगों की मौत हुई. उन दसियों हजार लोगों के अलावा जो घटना के तुरंत बाद मरे. अगर हम ईमानदारी से वही मापदंड अपनाएं जो अपने औपचारिक दुश्मनों के मामले में अपनाते हैं तो मारे गए तमाम लोगों की कुल संख्या आतंक की उसी एक घटना से जुड़ी है. हमें आईने में झांककर देखना चाहिए.
क्यूबा को लें. 1959 के बाद से क्यूबा के खिलाफ लगातार अमेरिकी आतंक जारी है. इनमें कई गंभीर अत्याचार भी शामिल हैं. फिर तो अमेरिका की सर्वमान्य नीति के मुताबिक क्यूबा को अमेरिका के विरुद्ध हिंसक अभियान शुरू करने का हक हासिल है. यह दुर्भाग्य है कि अमेरिका के अपराधों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है और यह सब सिर्फ अमेरिका के साथ नहीं है, इस तरह के कई और भी आतंकवादी राज्य हैं.
16 दिसंबर को न्यूयॉर्क टॉइम्स में छपा कि अमेरिका ने पाकिस्तान से मांग की है कि वह अफगानिस्तान को खाद्य सहायता देना बंद करे. इसका इशारा पहले भी दिया जा रहा था.वॉशिंगटन की यह भी मांग थी कि खाने की चीजों और दूसरी नागरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले ट्रकों के कारवां पर रोक लगा दी जाए. उस खाद्य आपूर्ति से अफगानिस्तान की दसियों लाख जनता बची हुई थी. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब साफ है कि इस मांग को मानने से अनगिनत अफगानी भूखों मरेंगे. क्या वे तालिबानी रहे. नहीं. बल्कि वे तालिबानियों के भी शिकार रहे. वॉशिंगटन का फरमान कहता है कि चलो अनगिनत लोगों को मारा जाए, दसियों लाख लोग भूखे, तालिबान के जुल्म के शिकार अफगानियों को. और इसकी प्रतिक्रिया क्या हुई? यद्यपि ऐसा नहीं होना चाहिए, फिर भी फर्ज कीजिए कि कोई शक्तिशाली देश कहे कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे अमेरिका के सारे लोग भूख से मर जाएं. फिर क्या नहीं सोचना चाहिए कि वह कितनी बड़ी समस्या हो सकती है? सोवियत अतिक्रमण और गृहयुद्ध से हुई तबाही के बाद अफगानिस्तान को सड़ने के लिए छोड़ दिया गया, यह भूलकर कि उसका इस्तेमाल वॉशिंगटन की लड़ाई लड़ने के लिए किया गया था. उस देश का ज्यादातर भाग खंडहरों में तब्दील हो चुका है और वहां के बचे-खुचे लोग हताश हो चुके हैं, जो कि पहले से ही भयानक संकटों से जूझ रहा था. इसी से जुड़ा सवाल है कि क्या सीआईए का बेरुत में कार विस्फोट कराना सही था? यदि अमेरिका आतंकवादी राज्य नहीं तो क्या सीआईए को निकारागुआ में एक आतंकवादी संगठन खड़ा करना चाहिए था?अमेरिकापरस्त आतंकवादी फौज सीधे अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट के मुताबिक चलती थी. इस फौज को खेती से जुड़ी असुरक्षित को-ऑपरोटिव संस्थाओं और स्वास्थ्य केंद्रों जैसे मुलायम चारों पर हमला करने के लिए संगठित किया गया था. याद कीजिए कि विश्व अदालत द्वारा अमेरिका को दिए गए अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी अभियान को रोकने और निकारागुआ को दिए गए अंतरराष्ट्रीय अभियान को रोकने और निकारागुआ को पर्याप्त मुआवजा देने के आदेशों के तुरंत बाद स्टेट डिपॉर्टमेंट ने उस आतंकी फौज को हमले की अधिकृत स्वीकृति दी थी. फिर खुद ही सोचिए कि लादेन और अमेरिका में क्या फर्क है? क्या अमेरिका को इज्रायल द्वारा चलाई जा रही राजनीतिक हत्याओं और नागरिक ठिकानों पर हमलों के लिए कॉम्बैट हेलिकॉप्टर मुहैया करने के लिए अधिकृत किया जाना चाहिए था?
अमेरिका ने औपचारिक रूप से यह स्वीकार किया है कि वह कम शक्ति का लघुस्तरीय युद्ध चलाता रहता है. यह उसकी आधिकारिक निति व्यवस्था का अंग है. यदि आप इस लघु युद्ध की परिभाषा की तुलना यूएस कोड या आर्मी मैनुअल में लिखी आतंकवाद की परिभाषा से करें तो पाएंगे कि दोनों लगभग एक जैसी हैं. आतंकवाद राजनीतिक, धार्मिक या दूसरे लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जनता जनता पर थोपा गया गलत साधनों का इस्तेमाल है. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के साथ यही तो हुआ था- एक भयावह आतंकवादी अपराध. आधिकारिक परिभाषाओं के अनुसार आतंकवाद सीधे-सीधे किसी भी राज्य की गतिविधियों, उसकी औपचारिक नीतियों का एक अंग है, बेशक सिर्फ अमेरिका की नहीं. यह तथाकथित कमजोरों का हथियार कत्तई नहीं है. इन सारी जानकारियों को उजागर होना चाहिए था लेकिन शर्म की बात है कि ऐसा नहीं हुआ. अगर कोई इस बारे में जानना चाहता है तो उसे अलैक्स जॉर्ज्य के संकलन से अपनी पढ़ाई की शुरुआत करनी चाहिए, जिसमें इस तरह के राज्य के ढेरों अपराध मौजूद हैं. बेशक मजलूम जानते हैं लेकिन जालिमों की निगाह कहीं और होती है.
(क्रमशः जारी)