Saturday, December 13, 2008

बड़ी रसीली है

कई तरह की निरर्थकताएं हैं. कुछ लोग यूं ही जिए जा रहे हैं. कुछ लोग यूं लिखे जा रहे हैं. कुछ लोग बस यूं कुछ-न-कुछ पढ़ते रहते हैं. कुछ लोग यूं ही विश्व पुस्तक मेले तक में पहुंच जाएंगे और जो किताब दिख जाए, खरीद लेंगे. इन निरर्थकताओं में तो भी कुछ-न-कुछ सार्थकता झलकती है. होती भी है.
कुछ लोग ऐसे मिले, जिन्हें कोई रोग-व्याधि नहीं, बस यूं बाबा रामदेव को सराहने में जुटे हुए हैं रात दिन. जैसे चाटुकार और चापलूस अपनी पार्टियों के नेताओं को अनायास सराहते रहते हैं. कुछ लोगों को बेवजह ठिस्स-ठिस्स हंसने की आदत होती है और कइयों को इसी तरह मुस्कुराने की. जैसे कालेज के बड़े बाबू प्रिंसिपल साहब को देखकर दबे होंठ चपरासियों को हंसने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.
एक पत्रकार हैं. उन्हें ट्रैफिक पुलिस वालों के साथ चौराहे पर खड़े होकर वहां से गुजरने वालों की आंखों में आंखों घुसेड़ने की लत है. अपने शहर में एक दरोगा जी हैं. हफ्ते में एक बार जरूर मौका निकालकर कप्तान साहब के मझले बेटे को (जो एसपी का सबसे मुंहलगा है) टॉफी-समोसा खिला आते हैं. अब वह बर्गर-पिज्जा की डिमांड करने लगा है. तब से दरोगा जी भी मोटी मछलियां नाधने लगे हैं.
एक कविजी हैं. पोखर के किनारे उनकी बुजुर्ग कोठी है. उसमें एक खिड़की है. बगल में तख्त डालकर पोखर की तरफ मुंह किए जनाब वहीं दिनरात कवियाते रहते हैं. माथे से टकलू हैं. खिड़की जाली से ही पता चल जाता है कि कोई महाकाव्य मकान के उस सिरे पर दमक रहा है. जब चिंतन-मनन करते-करते थक जाते हैं, सामने मोहल्ले की सड़क पर निकल आते हैं. आने-जाने वालों को काव्यात्मक अंदाज में निहारते रहते हैं. नमस्कार करते-कराते रहते हैं. जब वहां से भी थक जाते हैं, आगे नुक्कड़ पर पहुंच जाते हैं. देखते ही जूठन चाय वाला समझ जाता है कि विषखोपड़ी ग्राहकों का भेजा फ्राइ करने आ रही है. वाकया ही कुछ ऐसा है. चाय की यह दुकान किसी जमाने में पूरे शहर में मशहूर थी. कवि जी ने एक दिन अपने पिछलग्गू नवोदित कवि से कहा कि इस चाय वाले रुपई को कविता करना सिखाओ. लिखने लगा तो फिर यहां मुफ्त की चाय की जुगाड़ बन जाएगी. सो, मिशन सफल रहा. वाकई चाय वाला कवि हो गया. दुकान पर ग्राहक झख मार रहे होते और वह हिसाब-किताब वाली कापी में कविताएं लिखता रहता. वहां दिन रात कविगोष्ठियां होती रहतीं. एक दिन ऐसी नौबत आई कि उसे दुकान बेंच कर भाग खड़ा होना पड़ा था. तब से यह नया चायवाला दुकान थामे हुए है. कवि जी को देखते ही उसे पुराने दुकानदार रुपई के दुर्दिन याद आ जाते हैं.

प्रस्तुत हैं उसी की चार लाइनें (अप्रकाशित, हीहीही).....

छैल-छबीली है.
चाय अलबेली है.
पी लो राजा पी लो
बड़ी रसीली है.

...वाह-वाह वाह-वाह. कविता तो जानदार है गुरू. ऐं? (आखिरकार दुकान बेंचकर भाग खड़ा हुआ बेचारा)

जमाने के सताए हुए कुछ ऐसे लोग भी मिलते रहते हैं, जो आजकल ब्लॉगिंग पर दिन काट रहे हैं. कुछ लिक्खाड़ों ने जब देखा कि गुरू यहां तो मामला जोरदार चल निकला है तो वे कलम-डायरी छोड़कर इनदिनो इधर चरस-गांजा बो रहे हैं. जय हो.....जय हो!!

विचार मर जाने के बाद

चिट्ठियां लिखे
आधी उम्र जा चुकी,
अब कोई कविता लिखने का
मन नहीं करता,
दोस्ती के मुहावरे जाने कब के
झूठे पड़ चुके,
बातें बचपन के गांव की करूं
-तो......
किताबों की करूं
-तो........
मां की लोरियों और पिता की स्नेहिल झिड़कियों की करूं
-तो.......
उस समय से इस समय तक
जब कुछ भी
साबुत नहीं रहा
-तो....
करूं क्या
सोचने से पहले अथवा
विचार मर जाने के बाद
उसके साथ भी वही हुआ, जैसाकि अक्सर होता है
बहुतों के साथ.

Friday, December 12, 2008

दोगला सनातन हूं

नेता हूं
नेता हूं

कविता बनाता हूं
और गुनगुनाता हूं

बेमौसम छाता हूं
बड़े-बड़े लोगों को फंसाता हूं जाल में.


रात दिन पीता हूं
सपनों में जीता हूं
अधपका पपीता हूं
देश बेंच खाता, बाज आता हूं न चाल में

बाहर हूं, अंदर हूं
पलिहर का बंदर हूं
कवि भी धुरंधर हूं
रात-दिन बजता, बजाता हूं गाल में.

चिल्लर हूं मलमल का
खटिया का खटमल हूं
जोंक हूं गंगाजल का
पीता हूं खून, ढील-जुंआ हूं बाल में.

Thursday, December 11, 2008

लोकतंत्र का उत्सव

साठ साल से चरका-पट्टी
पढ़ा रहे उल्लू के पट्ठे.
हंस हुए निर्वंश, मलाई
उड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

चलो टिकट का खेल, खेल लें
फिर मतदाताओं को झेल लें
लोकतंत्र का उत्सव कहकर
चढ़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

वे अपना घर भरे जा रहे
हम महंगी से मरे जा रहे
धुंआ-धुंआ हम हुए, चिलम
गुड़गुड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

अबकी जब चुनाव में आवैं
इतना मारो, बच ना पावैं
पांच साल से दिल्ली में
बड़बड़ा रहे उल्लू के पट्ठे.

Tuesday, December 9, 2008