Sunday, May 9, 2010

देश और संसद को जाति की जरूरत!


गरीब की दुश्मन जाति अमीर
sansadji.com
जाति की जरूरत ने अचानक संसद को इतना बेचैन क्यों कर दिया है? लोकतंत्र के पहरुओं ने जाति का जहर बुझाने की बजाय उसकी लौ जलाए रखने पर अपना जोर एक बार फिर केंद्रित कर लिया है। एक बार फिर वे काले अध्याय लिखने में मशगूल दिखते हैं। विपक्ष मांग कर रहा है कि जनगणना जाति के आधार पर होनी चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लोकसभा को भरोसा दे चुके हैं कि मंत्रिमंडल इस बारे में जल्द कोई फैसला लेगा। उनके बयान से हालांकि साफ नहीं हुआ है कि सरकार यह मांग मानेगी या नहीं। कांग्रेस सांसद पवन बंसल कहते हैं, ठीक बात है। प्रणव मुखर्जी कहते हैं, विपक्ष की मांग जायज है। संसद की एक स्टैंडिंग कमिटी भी ओबीसी गणना की सिफारिश कर चुकी है। राजग, सपा, जद यू की राजनीति ही जाति पर टिकी है। और आग में घी डाल रही है उन संगठनों की जरूरत, जो हर बात पर जाति-जाति चिल्लाने लगते हैं। वे चाहते हैं कि जाति भी बनी रहे और सरकारी मलाई भी सबसे ज्यादा वे सरपोटते रहें। वर्ण्यव्यवस्था भी न हो और आरक्षण का लाभ भी भरपूर मिलते रहना चाहिए। आखिर ये किस किस्म का मानवाधिकार हो सकता है! खैर, हम बात कर रहे हैं जात-पांत वाली जनगणना की तो संसद के बाहर-भीतर चिल्लपों मचने के बाद अब तय सा हो चला है कि जनगणना जाति के आधार पर होगी। सब जानते हैं कि देश में हर दशक में भारतीयों की गणना होती है। वर्ष 1931 के बाद से जाति के आधार पर जनगणना नहीं हुई है। तब से मुल्क चलाने वाले जाति के आधार पर जनगणना जरूरी नहीं मान रहे थे। स्वतंत्र भारत में जातिगत जनगणना ये सोचकर नहीं कराई जा रही थी कि जाति ने ही इस देश का सबसे ज्यादा सत्यानाश किया है। अब अचानक पक्ष-विपक्ष दोनों आजादी की लड़ाई लड़ने वाले राजनेताओं से ज्यादा होशियार हो चले हैं।

अब अचानक सियासत के पेट में बड़ा जोर का जाति का मरोड़ उठा है। हकीकत ये है कि मौजूदा सिस्टम और संसदमार्गी सियासत दोनों की विश्वसनीयता खतरे में पड़ती जा रही है। जाति ही एक ऐसा अस्त्र दिख रहा है, जिससे जनता का ध्यान उसकी बुनियादी समस्याओं से हटाकर जातीय बाग-बगीची में कुछ साल टहलाया जा सकता है। इसी में पक्ष-विपक्ष दोनों को अपना भला दिखता है। अब तक सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की अलग से पहचान होती रही है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से पक्ष-विपक्ष दोनों को जाति होने के फायदे नजर आने लगे हैं। जाति के आधार पर जनगणना की सबसे ज्यादा बेचैनी ओबीसी में है। उन्हें ये मालूम कर लेना बहुत जरूरी लगता है कि वे संख्याबल में कितने हैं। इसके आधार पर वे अपने समुदायों के एजेंडे बनाकर सरकारी और राजनीतिक सुविधाओं में अपनी जगह बनाने की नए सिरे से शुरुआत करेंगे। लालू, मुलायम, शरद यादव कहते हैं कि उनके लोगों आबादी का ठीक-ठीक आंकड़ा अनुपलब्ध है। मंडल कमिशन ने कुल आबादी में पिछड़ों का हिस्सा 52 प्रतिशत माना था और इसके लिए 1931 की जनगणना को आधार बताया था। 2004-05 के नैशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक यह आंकड़ा 41 प्रतिशत है। सन 2002 का बीपीएल हाउसहोल्ड सर्वे इस आंकड़े को 38.5 प्रतिशत बताता है। जातिगत जनगणना के समर्थकों का कहना है कि पिछड़ों की आबादी का सही आंकड़ा मिलने के बाद ही उनके समुदायों के लिए सही योजनाओं को अंजाम दिया जा सकेगा। साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि जातिगत जनगणना से जातिवाद मजबूत होगा। देश में अनगिनत जातियां, उपजातियां और समूह-समुदाय हैं। उनकी पहचान भी साफ नहीं है। एक राज्य में जो पिछड़े हैं, दूसरे में कुछ और हैं। दिल्ली में धोबी, महाराष्ट्र में कोली, यूपी में पटुआ और एमपी में रज्झर अनुसूचित जाति की श्रेणी में आते हैं, लेकिन केंद्र के हिसाब से ये पिछड़े वर्ग के लोग हैं। इसी तरह तमिलनाडु में अनाथ और बेसहारा बच्चे पिछड़ों की श्रेणी में आते हैं। अनुमान के तौर पर ऐसे लोगों के पांच से छह हजार अलग-अलग समूह हैं। अब इनकी गणना कैसे, किस आधार पर की जाए, यही सबसे बड़ी मुश्किल है। दरअसल ये सब उन सांसदों, मंत्रियों, पार्टियों को भी पता है लेकिन वे चाहते हैं कि जात-पांत का भूत मर गया तो उनकी सियासत क्या होगा! इस तरह की राजनीति करने वालों का जनाधार तेजी से खिसक रहा है। लोग जाग रहे हैं, जात-पांत से नफरत करना ज्यादा ठीक मानते जा रहे हैं। हैरत सभी राजनीतिक दल लोकतंत्र की बात करते हैं, जात-पांत को सबसे बुरा भी मानते हैं और उसके कल्याण के लिए खूब बेचैन भी हैं। वह चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो या सपा-राजग-जदयू आदि। प्रणव कहते हैं कि संप्रग सरकार ने इस मामले में विपक्ष की मांग को स्वीकार कर लिया है। जातिगत आधार पर जनगणना का काम वर्ष 1931 में हुआ था और देश की स्वतंत्रता के बाद भी जातिगत आधार पर जनगणना होनी चाहिए थी जबकि ऐसा नहीं हो सका था लेकिन अब संप्रग सरकार ने इसकी पहल की है। जब उनसे कहा जाता है कि इसी जात-पांत के चक्कर में तो महिला आरक्षण बिल भी ताक पर लटका दिया गया है तो वह जवाब देते हैं कि इस विधेयक पर अब लोकसभा के आगामी सत्र में विचार किया जाएगा। उधर, जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर जल्द कोई फैसला लेने के सरकार के हालिया आश्वासन के बीच, दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने जनगणना फॉर्म में धर्म और भाषा का कॉलम भी जोड़ने का सुझाव दिया है। आयोग के अध्यक्ष कमाल फारुकी कहते हैं कि अगर जनगणना जाति के साथ धर्म और भाषा को भी बुनियाद बनाया जाता है तो इससे देश के अलग.अलग तबकों की असल स्थिति का पता चलेगा। नतीजतन उनके हित में योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। जाति आधारित जनगणना की हकीकत को भुलाया नहीं जा सकता कि भारतीय समाज जाति आधारित है। जाति आधारित जनगणना से मिले महत्वपूर्ण आंकड़े अलग.अलग जातियों के विकास का नया खाका तैयार करने का काम आसान कर देंगे। एक तरफ जात-पांत वाली जनगणना, दूसरी तरफ भाजपा सांसद लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं कि राजनीति में कोई भी ‘अछूत’ नहीं है और सभी राजनीतिक दलों को इससे दूर रहना चाहिए। राजनीतिज्ञ का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय हित होना चाहिए। यदि बाहर छुआछूत होता है तो उसे मानवता के खिलाफ या पाप कहा जाता है। यही आदर्श राजनीतिक पार्टियों के लिए भी लागू होता है।
अब आइए वामपंथ की ओर नजर डालते हैं। मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद सीताराम येचुरी कहते हैं कि स्वैच्छिक की बजाय आबादी की वैज्ञानिक गणना होनी चाहिए, ताकि देश में अन्य पिछडे वगो’ और बीपीएल परिवारों की वास्तविक संख्या का पता लगाया जा सके। हम जाति आधारित जनगणना के पक्षधर नहीं हैं लेकिन देश के लिए यह जानना जरूरी है कि अन्य पिछडे वर्ग के लोगों की वास्तविक संख्या क्या है। उनकी वास्तविक संख्या पता चलने पर आरक्षण के कई फायदे उन्हें मिल सकेंगे। योजना आयोग के मुताबिक देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले (बीपीएल) परिवारों की संख्या 6.8 करोड है जबकि राज्यों की ओर से बांटे गये बीपीएल कार्डों की संख्या 10.8 करोड़ है। ऐसे में वास्तव में बीपीएल परिवारों को कानूनी रूप से फायदा मिले, उसके लिए उनकी वास्तविक संख्या का पता करना जरूरी है। यह काम जनगणना के जरिए नहीं हो सकता। जनगणना में व्यक्ति स्वैच्छिक जानकारी देता है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसलिए आबादी की वैज्ञानिक गणना होनी चाहिए। साथ ही वह जनगणना के कागज में ‘राष्ट्रीयता’ का कालम लिखे जाने पर सख्त आपत्ति करते हुए कहते हैं कि जनगणना की परिभाषा यही है कि भारतीयों की गणना हो, ऐसे में राष्ट्रीयता का कालम बनाने का क्या औचित्य है। उन्होंने संदेह व्यक्त किया कि एक समय जिस तरह पृथक खालिस्तान की मांग उठी थी, इससे उसी तरह की समस्याएं पेश आएंगी। संसद में हाल के दिनों में सपा, राजद और जद यू के नेताओं मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव ने जाति आधारित जनगणना कराने के बारे में लोकसभा में मांग उठाई थी। उस समय भाजपा और वाम दलों ने जनगणना में गरीबों, पिछडों आदि के आंकडे शामिल किये जाने पर जोर दिया था। मुलायम ने कहा था कि जाति के आधार पर जनगणना हो। सरकार को इसमें क्या आपत्ति है। एक कालम जाति का बना दीजिए। जाति के आधार पर वस्तुत: अभी अनुमान से ही आरक्षण दिया जा रहा है। जद यू नेता शरद यादव ने कहा था कि हिन्दुस्तान में पिछडे और आदिवासी तबके हर तरह से सताये जा रहे हैं। इस देश में पेड, नदियों, बाघों आदि की गणना हो रही है। भारत में जाति हकीकत है इसलिए जाति के आधार पर जनगणना कराना अनिवार्य है। राजद नेता लालू ने कह चुके हैं कि हम आरक्षण की मांग नहीं कर रहे। जाति यथार्थ है। अभी तक अंदाज पर काम चल रहा है। जातीय आधार पर सरकार जनगणना कराये ताकि मालूम हो कि किसकी कितनी संख्या है।
दूसरी तरफ हकीकत ये है कि सरकारी खजाने पर कुंडली मारे सांपों को नहीं दिख रहा है कि गरीबी ने लोगों का क्या हाल बना रखा है। देश में सीधे तौर पर सिर्फ दो जातियां है, अमीर और गरीब। इस हकीकत से आंख चुराकर तरह-तरह के ताने-बाने बुने जा रहे हैं। कहावत वही है कि अंधेर नगरी, चौपट राजा। लेकिन गरीबी की सच्चाई और उसका गुस्सा धीरे-धीरे 'वयस्क' होने लगे हैं। लगता है कि उनके लिए लड़ाई के अलावा और कोई सपना बाकी नहीं बचा है। तरह-तरह की हरामखोरियां हद पार कर चुकी हैं। पानी नाक से ऊपर हो चला है, इसलिए अमीरों की हैवानियत के खिलाफ फिर से एकला चलो रे का नारा दिन पर दिन बुलंद होते जाना ही है। ये तूफान अब शायद ही थमे!! भविष्य में उनकी शामत आनी ही है जो 90 करोड़ गरीबों के सीने पर चढ़ कर मैट्रो और हवाई जहाज की पेंगे ले रहे हैं। उनके लिए जात-पांत ठेंगे पर। जाति सिर्फ दो.....गरीब की दुश्मन जाति अमीर।

1 comment:

अंकुर गुप्ता said...

आपके लेख से पूर्णतया सहमत हूं। मेरा विचार है कि जब भी जनगणना के लिए जाति पूछी जाए तो सीधे उसमें अपनी जाति के स्थान पर "राष्ट्रवादी" या "भारतीय" जैसे शब्द भरवाएं जाएं। यदि बड़ी संख्या में लोग ऐसा करेंगे तो निश्चित तौर पर इन "सांपों" पर "डंडा" पड़ेगा।