Saturday, October 25, 2008

एक चाय की चुस्की, एक कहकहा/ उमाकांत मालवीय

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
चुभन और दंशन पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।
एक अदद गंध एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।
एक कसम जीने की ढेर उलझनें
दोनों गर नहीं रहे बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।

गुजर गया एक और दिन

गुजर गया एक और दिन,
रोज की तरह ।
चुगली औ’ कोरी तारीफ़, बस यही किया ।
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़ कुछ नहीं किया ।
तौबा कर आज फिर हुई, झूठ से सुलह ।
याद रहा महज नून-तेल, और कुछ नहीं
अफसर के सामने दलेल, नित्य क्रम यही
शब्द बचे, अर्थ खो गये, ज्यों मिलन-विरह ।
रह गया न कोई अहसास क्या बुरा-भला
छाँछ पर न कोई विश्वास दूध का जला
कोल्हू की परिधि फाइलें मेज की सतह ।
‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात, यहाँ यह मजा ।
मुँहदेखी, यदि न करो बात तो मिले सजा ।
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों – के लिए जगह ।
डरा नहीं, आये तूफान, उमस क्या करुँ ?
बंधक हैं अहं स्वाभिमान, घुटूँ औ’ मरूँ
चर्चाएँ नित अभाव की – शाम औ’ सुबह।
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध, और बेबसी ।
अपनी सीमाओं का बोध खोखली हँसी
झिड़क दिया बेवा माँ को उफ्, बिलावजह ।

झंडे रह जाएंगे, आदमी नहीं

झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।
जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।
शायद कल मानव की हों न सूरतें
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
आदम के शकलों की यादगार हम,
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।
पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?

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