Saturday, October 25, 2008

इतने भले न बन जाना साथी/वीरेन डंगवाल




इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी

गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा

किसी से कुछ लिया नहीं

न किसी को कुछ दिया

ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना

सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना

अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए

लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना

सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना

बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना

ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना

बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना

दुनिया देख चुके हो यारो

एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो

पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानवकठमुल्लापन

छोड़ो उस पर भी तो तनिक विचारो
काफ़ी बुरा समय है साथी

गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती

अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन

जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती

संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती

इनकी असल समझना साथी

अपनी समझ बदलना साथी.


महोदय पत्रकार !



'इतने मरे'

यह थी सबसे आम,

सबसे ख़ास ख़बर

छापी भी जाती थी सबसे चाव से

जितना खू़न सोखता था

उतना ही भारी होता था अख़बार।
अब सम्पादक चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी

लिहाज़ा अपरिहार्य था

ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।

एक हाथ दोशाले से छिपाता

झबरीली गरदन के बाल

दूसरा रक्त-भरी चिलमची में

सधी हुई छ्प्प-छ्प।
जीवन किन्तु बाहर था

मृत्यु की महानता की

उस साठ प्वाइंट काली चीख़ के बाहर था जीवन

वेगवान नदी सा हहराता काटता तटबंध

तटबंध जो अगर चट्टान था तब भी रेत ही था

अगर समझ सको तो,

महोदय पत्रकार !


गप्प-सबद


आंधी में उड़ियो न सखी, मत आंधी में उड़ियो।

ओ३म लिखा स्कूटर दौड़ा राम लिखा कर कार

लेकिन पप्पी दी गड्डी पर न्यौछावर संसार

उन्हीं का होना है संसार

बस न तू आंधी में उड़ियो.
धक्-धक्-धक्-धक् काँपे हियरा

थर-थर-थर-थर पैर

अलादीन को बेढब सूझी

बेमौसम यह सैर

बिना चप्पू-लंगर यह सैर

ज़रा आंधी में मत उड़ियो.
खाना खा लेटी ही थी झांसी की रानी

थोड़ा वहीं खाट के पास बंधा था उस का मश्की घोड़ा

बड़ी देर से मक्खी उसको एक कर रही तंग

खिसियाई रानी ने जब देखे उस के ढंग

चीखी, 'नुचवा दूंगी मैं तेरे ये चारों पंख

तुड़ा दूँगी मैं आठों पैर

अरी, फिर आंधी में उड़ियो।'
देस बिराना हुआ मगर इस में ही रहना है

कहीं ना छोड़ के जाना है,

इसे वापस भी पाना है

बस न तू आंधी में उड़ियो।

मती ना आंधी में उड़ियो।

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