Sunday, March 29, 2009

सबसे बड़ा आतंकवादी लादेन नहीं, अमेरिका है-7

सूडान में आज भी खामोश मौतों का सिलसिला जारी है, जैसे अफगानिस्तान और इराक में. अमेरिका हो या आतंकवादी, दोनों दुनिया में घूम-घूम कर जनता को मार रहे हैं. आइए, आगे जानते हैं कि सूडान की दवा फैक्ट्री अल शिफा पर अमेरिकी बमबारी के बाद से वहां के लोग किस हालात से गुजर रहे हैं........
अल शिफा के विध्वंस के कारण दवाओं से ठीक हो सकने वाली बीमारियों से मारे गए बच्चों और औरतों समेत लाखों लोगों की तुलना लादेन नेटवर्क द्वारा अमेरिका पर किए गए एक मात्र हमले से नहीं की जा सकती है. सूडान दुनिया के सबसे कम विकसित देशों में एक है. इसकी कठोर जलवायु, प्रकीर्ण आबादी, स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और चरमराते आर्थिक ढांचे ने ज्यादातर सूडानियों को जीवित रहने के संघर्ष तक सीमित कर दिया है. एक ऐसे देश में जहां मलेरिया, तपेदिक और कई दूसरी बीमारियां महामारी का रूप लेती हैं, जहां जब-तब मस्तिष्क ज्वर और कॉलरा का दौरा चलता है. सस्ती दवाएं एक मौलिक आवश्यकता हैं, जिसे पूरा होना अमेरिकी दादागिरी ने मुश्किल कर दिया है. इसके अलावा इस देश में खेती योग्य भूमि की कमी, पीने लायक पानी की भारी कमी, एड्स के भयानक प्रकोप है और जो लगातार चल रहे गृहयुद्धों से पूरी तरह तबाह हो चुका है और ऊपर से कई तरह के प्रतिबंधों से जूझ रहा है. वहां की परिस्थितियों का केवल अंदाजा लगाया जा सकता है. दवाओं की सस्ती आपूर्ति व्यवस्था ध्वस्त हो जाने से एक साल में ही दसियों हजार लोग प्रभावित हुए और मारे गए.
उन दिनो ह्यूमन राइट्स वॉच ने रिपोर्ट की कि बमबारी के तुरंत बाद खारतून में स्थित सभी संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों ने अमेरिकी स्टॉफ को कई दूसरे सहायता संगठनों की तरह हटा लिया, ताकि कई सहायता कार्य अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो जाएं. इनमें अमेरिका आधारित इंटरनेशनल रेस्क्यू कमेटी द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम भी था, जहां पर रोज 50 दक्षिणी लोग मर रहे थे. संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार 24 लाख लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच गए और सहायता में अमेरिकी बाधा इस बदहाल जनसंख्या के लिए खतरनाक संकट पैदा करने लगी. सबसे ज्यादा तो यह कि अमेरिकी बमबारी ने लगता है कि सूडान के संघर्षरत गुटों के बीच शुरू हुई शांति प्रक्रिया को झकझोर दिया और 1981 से चल रहे इस गृहयुद्ध, जिसमें अब तक 15 लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके, को खत्म करने के लिए चल रहे शांति समझौते के प्रयासों को रोक दिया, जिससे युगांडा सहित पूरी नील घाटी में शांति की संभावना पैदा हो रही थी. उस हमले ने शायद सूडान सरकार के दिल में होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों से पैदा होने वाली उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया, जिससे यह संभावना बन रही थी कि बाहरी दुनिया के साथ उसका एक व्यावहारिक संबंध बन पाएगा. इसके अलावा सूडान की अंदरूनी समस्याओं को हल करने और अतिवादी इस्लामी तत्वों के प्रभावों को कम करने के प्रयासों को भी झटका लगा. सूडान में हुए उस अमेरिकी हमले की तुलना लुमुंबा हत्याकांड से की जाती है, जिसके बाद कांगो दशकों के लिए कत्लोगारत के हवाले हो गया. इसकी तुलना 1954 में ग्वाटेमाला की लोकतांत्रिक सरकार के सत्तापलट से भी की जा सकती है, जिसकी वजह से वहां 40 बरस तक रक्तपात और अत्याचार होता रहा.
जेम्स आस्टिल्ल लिखते हैं कि मिसाइल हमलों के पहले उत्पीड़क सैनिक तानाशाही, विनाशक इस्लामवाद और लंबे समय से चल रहे गृहयुद्ध से उबर रहा देश फिर से एक बार रातोरात नपुंसक उग्रवाद के दुःस्वप्न में डूब गया. यह राजनीतिक मूल्य सूडान के लिए उसके क्षणभंगुर चिकित्सा व्यवस्था के चूर-चूर हो जाने से कहीं बड़ा था. अस्टिल्ल ने अल शिफा बोर्ड के अध्यक्ष और सूडान के गिने-चुने औषधि विज्ञानियों में से एक डॉ.इदरीस अल तैयब के शब्दों को उद्धृत किया है....अमेरिकी बमबारी ठीक उसी तरह की एक आतंकवादी घटना थी, जैसी ट्विन टॉवर्स के साथ घटी. फर्क सिर्फ इतना रहा कि अल शिफा के बारे में हम जानते हैं कि उसे किसने अंजाम दिया था. मैं अमेरिकी लोगों की मौत से दुखी हूं लेकिन संख्या और आर्थिक स्थिति के सापेक्षिक मूल्य के ऐतबार से अल शिफा पर हमला ज्यादा भयानक था. उस बमबारी की एक बड़ी कीमत अमेरिका के लोगों को 11 सितंबर को चुकानी पड़ी. अमेरिकी अधिकारियों ने इस बात को सही माना है कि 1998 की बमबारी के ठीक पहले पूर्वी अफ्रीका में अमेरिकी दूतावासों पर हमलों को दो आरोपियों को सूडान ने गिरफ्तार कर वॉशिंगटन को सूचित भी किया था. अमेरिका ने सूडान के सहयोग की इस पेशकदमी को ठुकरा दिया था. मिसाइल हमलों के बाद सूडान ने गुस्से में आकर उन आरोपियों को मुक्त कर दिया, जिनकी पहचान तब तक लादेन के गुर्गों के रूप में हो चुकी थी. बाद में लीक हुए एफबीआई के एक विवरण-पत्र से पता चला कि क्यों सूडान ने आरोपियों को गुस्से में आकर मुक्त किया. विवरण पत्र के अनुसार एफबीआई चाहता था कि आरोपियों को अमेरिका लाया जाए, लेकिन डिपार्टमेंट आफ स्टेट्स ने इसकी अनुमति नहीं दी थी. एक वरिष्ठ सीआईए सूत्र का कहना था कि सूडान के उस प्रस्ताव को ठुकराया जाना 11 सितंबर के संबंध में सबसे बड़ी गलती थी. सूडान ने लादेन के बारे में और भी ढेर सारे सुबूत मुहैया कराने की अमेरिका से पेशकश की थी, अमेरिका अपनी नासमझ नफरत के कारण उन्हें भी बार-बार ठुकराता रहा. सूडान के जिन प्रस्तावों को ठुकराया गया था, उसमें बिन लादेन और उसके कायदा नेटवर्क के 200 लोगों की 11 सितंबर के पहले के कई बरसों की कारगुजारियों का खुफिया ब्योरा शामिल था. वॉशिंगटन को मोटी फाइलें बढ़ाई गई थीं, जिनमें तस्वीरों के अलावा कई प्रमुख कार्यकर्ताओं का विस्तृत ब्योरा था और दुनिया भर में अल कायदा के आर्थिक संबंधों के बारे में आवश्यक जानकारियां थीं, लेकिन अमेरिका ने अपने मिसाइलों के शिकार के प्रति नामसझ नफरत के कारण उन्हें ठुकरा दिया था. अगर वे जानकारियां अमेरिकी खुफिया विभाग के पास होतीं तो 11 सितंबर की घटना को रोकने में बेहतर समझ बन पाती. ....इतना कहकर वरिष्ठ सीआईए सूत्र अपनी बात समाप्त करते हैं (डेविड रोज, ऑब्जर्वर की ेक जांच की रिपोर्टिंग के दौरान, ऑब्जर्वर 30 सितंबर 2001).
कोई अंदाज नहीं लगा सकता कि सूडान पर हुई बमबारी से कितने लोगों की मौत हुई. उन दसियों हजार लोगों के अलावा जो घटना के तुरंत बाद मरे. अगर हम ईमानदारी से वही मापदंड अपनाएं जो अपने औपचारिक दुश्मनों के मामले में अपनाते हैं तो मारे गए तमाम लोगों की कुल संख्या आतंक की उसी एक घटना से जुड़ी है. हमें आईने में झांककर देखना चाहिए.
क्यूबा को लें. 1959 के बाद से क्यूबा के खिलाफ लगातार अमेरिकी आतंक जारी है. इनमें कई गंभीर अत्याचार भी शामिल हैं. फिर तो अमेरिका की सर्वमान्य नीति के मुताबिक क्यूबा को अमेरिका के विरुद्ध हिंसक अभियान शुरू करने का हक हासिल है. यह दुर्भाग्य है कि अमेरिका के अपराधों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है और यह सब सिर्फ अमेरिका के साथ नहीं है, इस तरह के कई और भी आतंकवादी राज्य हैं.
16 दिसंबर को न्यूयॉर्क टॉइम्स में छपा कि अमेरिका ने पाकिस्तान से मांग की है कि वह अफगानिस्तान को खाद्य सहायता देना बंद करे. इसका इशारा पहले भी दिया जा रहा था.वॉशिंगटन की यह भी मांग थी कि खाने की चीजों और दूसरी नागरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले ट्रकों के कारवां पर रोक लगा दी जाए. उस खाद्य आपूर्ति से अफगानिस्तान की दसियों लाख जनता बची हुई थी. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब साफ है कि इस मांग को मानने से अनगिनत अफगानी भूखों मरेंगे. क्या वे तालिबानी रहे. नहीं. बल्कि वे तालिबानियों के भी शिकार रहे. वॉशिंगटन का फरमान कहता है कि चलो अनगिनत लोगों को मारा जाए, दसियों लाख लोग भूखे, तालिबान के जुल्म के शिकार अफगानियों को. और इसकी प्रतिक्रिया क्या हुई? यद्यपि ऐसा नहीं होना चाहिए, फिर भी फर्ज कीजिए कि कोई शक्तिशाली देश कहे कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे अमेरिका के सारे लोग भूख से मर जाएं. फिर क्या नहीं सोचना चाहिए कि वह कितनी बड़ी समस्या हो सकती है? सोवियत अतिक्रमण और गृहयुद्ध से हुई तबाही के बाद अफगानिस्तान को सड़ने के लिए छोड़ दिया गया, यह भूलकर कि उसका इस्तेमाल वॉशिंगटन की लड़ाई लड़ने के लिए किया गया था. उस देश का ज्यादातर भाग खंडहरों में तब्दील हो चुका है और वहां के बचे-खुचे लोग हताश हो चुके हैं, जो कि पहले से ही भयानक संकटों से जूझ रहा था. इसी से जुड़ा सवाल है कि क्या सीआईए का बेरुत में कार विस्फोट कराना सही था? यदि अमेरिका आतंकवादी राज्य नहीं तो क्या सीआईए को निकारागुआ में एक आतंकवादी संगठन खड़ा करना चाहिए था?अमेरिकापरस्त आतंकवादी फौज सीधे अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट के मुताबिक चलती थी. इस फौज को खेती से जुड़ी असुरक्षित को-ऑपरोटिव संस्थाओं और स्वास्थ्य केंद्रों जैसे मुलायम चारों पर हमला करने के लिए संगठित किया गया था. याद कीजिए कि विश्व अदालत द्वारा अमेरिका को दिए गए अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी अभियान को रोकने और निकारागुआ को दिए गए अंतरराष्ट्रीय अभियान को रोकने और निकारागुआ को पर्याप्त मुआवजा देने के आदेशों के तुरंत बाद स्टेट डिपॉर्टमेंट ने उस आतंकी फौज को हमले की अधिकृत स्वीकृति दी थी. फिर खुद ही सोचिए कि लादेन और अमेरिका में क्या फर्क है? क्या अमेरिका को इज्रायल द्वारा चलाई जा रही राजनीतिक हत्याओं और नागरिक ठिकानों पर हमलों के लिए कॉम्बैट हेलिकॉप्टर मुहैया करने के लिए अधिकृत किया जाना चाहिए था?
अमेरिका ने औपचारिक रूप से यह स्वीकार किया है कि वह कम शक्ति का लघुस्तरीय युद्ध चलाता रहता है. यह उसकी आधिकारिक निति व्यवस्था का अंग है. यदि आप इस लघु युद्ध की परिभाषा की तुलना यूएस कोड या आर्मी मैनुअल में लिखी आतंकवाद की परिभाषा से करें तो पाएंगे कि दोनों लगभग एक जैसी हैं. आतंकवाद राजनीतिक, धार्मिक या दूसरे लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जनता जनता पर थोपा गया गलत साधनों का इस्तेमाल है. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के साथ यही तो हुआ था- एक भयावह आतंकवादी अपराध. आधिकारिक परिभाषाओं के अनुसार आतंकवाद सीधे-सीधे किसी भी राज्य की गतिविधियों, उसकी औपचारिक नीतियों का एक अंग है, बेशक सिर्फ अमेरिका की नहीं. यह तथाकथित कमजोरों का हथियार कत्तई नहीं है. इन सारी जानकारियों को उजागर होना चाहिए था लेकिन शर्म की बात है कि ऐसा नहीं हुआ. अगर कोई इस बारे में जानना चाहता है तो उसे अलैक्स जॉर्ज्य के संकलन से अपनी पढ़ाई की शुरुआत करनी चाहिए, जिसमें इस तरह के राज्य के ढेरों अपराध मौजूद हैं. बेशक मजलूम जानते हैं लेकिन जालिमों की निगाह कहीं और होती है.
(क्रमशः जारी)

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