-यही सच है, यही सच है, यही सच है.
-यदि आप अमेरिका के पिट्ठू नहीं, उसके पैसे और प्रभुत्व पर लार नहीं टपकाते हैं, उसकी शक्ति से भयभीत नहीं हैं, थाली के बैगन नहीं तो मान लीजिए कि आज नहीं तो कल, यह सच पूरी दुनिया के सिर चढ़ कर चिल्लाएगा.
-आज नहीं तो कल, यह सच पूरी दुनिया के धंधापरस्त मीडिया भी सिर चढ़ कर चिल्लाएगा.
-इस सच को जान लीजिए, मान लीजिए कि दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन नहीं, बल्कि अमेरिका और उसके पैसे पर लार टपकाने वाले, उसकी शक्ति के पैरों पर लेटे उसके पिट्ठू हैं.
-क्रमशः जानते जाइए कि किस तरह अमेरिका ने अपना प्रभुत्व बढ़ाते जाने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों को आंतकवाद की दिशा में झोंका, और बाद में उन्होंने ही किस तरह बंदूक का  रुख उस खूंख्वार साम्राज्यवादी के सिर पर तान दिया-
    अगर आतंकवाद के सवाल को गंभीरता से लेना है तो हमें इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि दुनिया के अधिकतर हिस्सों में अमेरिका की छवि एक बड़े आतंकवादी राष्ट्र की है और इस छवि के लिए कई कारण मौजूद हैं-
     हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि 1986 में विश्व न्यायालय ने शक्ति के नाजायज इस्तेमाल (अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद) के लिए अमेरिका कड़ी निंदा की थी और अमेरिका ने सुरक्षा परिषद के उस प्रस्ताव के खिलाफ वीटो का प्रयोग किया था, जिसमें सभी राष्ट्रों (दरअसल अमेरिका) से अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने को कहा गया था.
      हमारे विरुध्द दूसरों का आतंकवाद. हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस समस्या से कैसे निबटा जाए, लेकिन तब मंशा खतरे को कम करने की होनी चाहिए, उसे त्वरित करने की नहीं. याद कीजिए, जब आयरलैंड रिपब्लिकन आर्मी ने लंदन में बम धमाके किए थे तो वेस्ट बेल्फास्ट और बॉस्टन पर बमबारी के लिए कोई चीख-पुकार नहीं हुई थी. हालांकि ये इलाके आयरलैंड रिपब्लिकन आर्मी के लिए आर्थिक सहयोग के ज्ञात स्रोत हैं. इसके उलट, अपराधियों को पकड़ने और उस बम कांड के पीछे के कारणों को समझने की कोशिश की गई थी. इसी तरह जब ओक्ला होमा की एक फेडेरल बिल्डिंग में विस्फोट हुआ था तो शुरू में मध्य-पूर्व पर बमबारी के लिए नारे बुलंद होने लगे थे, लेकिन जैसे ही ये पता चला कि विस्फोट आंतरिक चरम दक्षिणपंथियों ने किया था, मोंटाना और इडाहो पर किसी हमले की योजना नहीं बनी. सच तो ये हैं कि यदि ऐन वक्त पर सच्चाई सामने न आ गई होती तो मध्य-पूर्व पर बमबारी हो ही गई होती. हुआ यह कि हमलावरों की तलाश हुई, उन्हें पकड़कर अदालत में लाया गया, सुनवाई हुई और यह जानने की कोशिश हुई कि हमलावरों की शिकायतें क्या हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है. हर अपराध के पीछे, चाहे राहजनी हो या कोई जघन्य अपराध, कुछ कारण होते हैं और अक्सर पाया जाता है कि वे कारण गंभीर थे और उन पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए था. अपराध चाहे जितना भी बड़ा हो, उसका कानूनी ढंग से निपटारा होना चाहिए. यह एक बिल्कुल निर्विवाद तरीका है और इसे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्वीकृति भी हासिल है.
      अस्सी के दशक में अमेरिका ने निकारागुआ पर लगातार हिंसक हमले किए, जिसमें दसियों हजार लोग मारे गए. उन हमलों में हुई तबाही से वह देश आज तक नहीं उबर पाया है. निकारागुआ जैसा छोटा और कमजोर देश एक विश्व महाशक्ति के अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के साथ-साथ आर्थिक नाकेबंदी और अलग-थलग कर देने की साजिश का कैसे सामना कर सकता था. उस देश पर हुए उन हमलों का असर न्यूयार्क पर हुए हमले से बहुत बड़ा था. निकारागुआ के लोगों ने तो इसके बदले अमेरिका में बम धमाके नहीं किए. वे विश्व न्यायालय में गए, जिसने उनके हक में फैसला दिया और अमेरिका को अपनी उन हरकतों से बाज आने और पर्याप्त जुर्माना देने को कहा. अमेरिका ने उस फैसले को मानने से साफ इनकार कर दिया था. उल्टे अपने हमले और तेज कर दिए थे. तब निकारागुआ ने सुरक्षा परिषद का दरवाजा खटखटाया. सुरक्षा परिषद द्वारा एक प्रस्ताव लाया गया, जिसमें राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का कड़ाई से पालन करने को कहा गया था. इस प्रस्ताव के खिलाफ भी अमेरिका ने वीटो का इस्तेमाल किया था. उसके बाद भी निकारागुआ ने न्यायिक प्रक्रिया का ही सहारा लिया और अपने मामले को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा के सामने रखा. आम सभा ने भी वैसा ही एक प्रस्ताव पारित किया. पहले अमेरिका और साल भर बाद इस्रायल व एल सल्वाडोर ने उस प्रस्ताव का विरोध किया. किसी भी देश को निकारागुआ की तरह ही विश्व न्यायिक व्यवस्था की शरण में जाना चाहिए. अगर निकारागुआ ताकतवर रहा होता तो उसने एक दूसरी अदालत का गठन किया होता, न कि अमेरिका की तरह दुनिया पर दादागिरी गांठने के लिए इराक, अफगानिस्तान, वियतनाम, क्यूबा पर हमला किया होता.
      11 सिंतबर की घटना के बाद अमेरिका को भी विश्व न्यायिक व्यवस्था की शरण में जाना चाहिए था और इस प्रक्रिया में शामिल होने से उसे तो कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं था. सच तो यह है कि उसके कई विश्व सहयोगी तक उसे ऐसा ही करने की हिदायत दे रहे थे लेकिन बुश नहीं माना.
     मध्य-पूर्व और उत्तर-अफ्रीकी देशों की सरकारें, मिसाल के तौर पर अल्जीरिया की आतंकवादी सरकार, जो सबसे ज्यादा वहशी है, उन आतंकवादी नेटवर्कों के खात्मे के लिए खुशी-खुशी अमेरिका का साथ देना चाहती, जो उसके लिए खतरा बन चुके हैं. दरअसल असली निशाने पर तो वही देश हैं. लेकिन वे देश भी कुछ सुबूतों की मांग करते रहे हैं, ताकि अंतरराष्ट्रीय नियमों की थोड़ी-बहुत लाज रख ली जाए. शुरुआती दौर में आतंकवादी तत्वों को संगठित करने में मिस्र की अहम भूमिका रही थी. फिर वही उन तत्वों का पहला शिकार भी बना, राष्ट्रपति सादात मारा गया. ऐसे देश तो कब नहीं चाहेंगे कि आतंकवादियों को कुचल दिया जाए, लेकिन उनका कहना है कि इसके पहले कुछ सुबूत जुटा लिए जाएं कि कौन लोग शामिल थे, फिर उन सुबूतों की बिना पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मुताबिक सुरक्षा परिषद की निगरानी में कदम उठाए जाएं.
         अगर कोई चाहता है कि 11 सितंबर जैसी घटनाओं की संभावना खत्म की जाए तो यही तरीके अपनाए जाने चाहिए थे. एक दूसरा तरीका भी है. इसका जवाब प्रचंड हिंसा से दिया जाए, हिंसा-चक्र को और तेजी से घुमाया जाये ताकि हिंसा की और भी घटनाएं हों और बेगुनाह लोग मारे जाते रहें और प्रतिशोध की गुंजाइशें बनी रहें. और ऐसा ही होता रहा है.
     इस विषय पर कई बुनियादी सवाल हैं. पहला यह कि हमारे सामने कौन-सी कार्य-प्रणाली उपलब्ध है और उसके संभावित नतीजे क्या हो सकते हैं? आतंकवाद को कानून की मदद से सुलझाने के प्रयास पर मीडिया तक में कोई चर्चा नहीं है. मिसाल के तौर पर जैसा निकारागुआ ने किया, आई.ए.आर. के मामले में ब्रिटेन ने किया, लेकिन अमेरिका ने कानून पर अमल करने की बजाय वीटो का प्रयोग कर दिया. 11 सितंबर के बाद से लगातार हिंसक प्रतिक्रिया के आह्वान पूरे विश्व में गूंज रहे हैं, इस सच्चाई को नजरअंदाज करते हुए कि अफगानिस्तान में हमलों के शिकार वही मासूम होते हैं, जो लगातार तालिबानी हिंसा के शिकार होते रहे हैं, और यह सोचे बगैर कि ऐसी प्रतिक्रिया बिन लादेन और उसके गुर्गों के लिए वरदान साबित हो रही है.
        इस तरह के और भी अपराधों की संभावनाओं को हवा देते रहना मंजूर किया जा रहा है. हां, कुछ अपवाद जरूर हैं. जैसे वॉल स्ट्रीट जर्नल का प्रकरण. उन्होंने समृद्ध मुसलमानों के मत लिए और उन्होंने पाया कि वे अमेरिकापरस्त होने के बावजूद आतंकवाद पर अमेरिकी नीतियों के कट्टर खिलाफ हैं और जिसने भी इस मुद्दे पर ध्यान दिया है, मानेगा कि विरोध के लिए पर्याप्त कारण मौजूद हैं. आम लोगों की भावनाएं भी ऐसी ही हैं, बल्कि उनमें गुस्सा और भी ज्यादा है.
     ओसामा बिन लादेन का नेटवर्क एक खास किस्म का है. पिछले बीस वर्षों में इलाके के गरीब और मजलूमों की समस्या इस नेटवर्क की चिंता का विषय कभी नहीं रही, बल्कि उसकी गतिविधियों से उन पर लगातार कहर ही टूटते रहे हैं. लेकिन आम अवाम में अमेरिका के लिए व्याप्त गम, गुस्से और हताशा उन्हें बिन लादेन नेटवर्क को मदद की मजबूरी और ऊर्जा प्रदान करती है. अब लादेन के गुर्गे दुआ करते हैं कि अमेरिका हिंसक हमले करे ताकि वे लोगों से और ज्यादा समर्थन और सहानुभूति हासिल करने में कामयाब होते जाएं. अगर दुनिया का मीडिया चाहता है कि आतंकवादी हिंसा का चक्र खत्म हो तो उसे अमेरिका या उसके पिछलग्गुओं को न्याय की शरण में जाने के लिए मजबूर करना होगा, न कि उसकी करतूतों को प्रशंसनीय सुर्खियों में जगह देते रहना होगा. लेकिन साफ है कि पिछलग्गू और मीडिया दोनों, आज भी पाकिस्तान मसले पर अमेरिका की चाटुकारिता से बाज नहीं आ रहे हैं. ओबामा की प्रशंसा की जाती है, लेकिन उनकी नीतियों के पीछे हकीकत से मुंह चुराया जाता है.बुश हों या ओबामा, सभी उन अमेरिकी नीतियों के दरअसल खूबसूरत मुखौटे हैं, जो आतंकवाद पर न्यायिक रास्ता अख्तियार करने की बजाय हिंसक उपायों को दुनिया भर में प्रोत्साहित कर रही हैं.
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1 comment:
दक्षिण एसिया म आपसी द्वन्द बढाने, भारत चीन को लडाने मे अमेरिका और उसके पिट्ठुओ की विशेष रुचि रहती है। हो सकता है की अतांकवाद बढाना उसकी रणनिती का ही एक हिस्सा हो ।
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