Monday, October 27, 2008

कवियों की दीवाली

गोपालदास नीरज



जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।


तुम दीवाली बन कर

  • तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    सूनी है मांग निशा की चंदा उगा नहीं
  • हर द्वार पड़ा खामोश सवेरा रूठ गया,
  • है गगन विकल, आ गया सितारों का पतझर
  • तम ऎसा है कि उजाले का दिल टूट गया,
  • तुम जाओ घर-घर दीपक बनकर मुस्काओ
  • मैं भाल-भाल पर कुंकुम बन लग जाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    कर रहा नृत्य विध्वंस, सृजन के थके चरण,
  • संस्कृति की इति हो रही, क्रुद्व हैं दुर्वासा,
  • बिक रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर,
  • पढ रहा किन्तु साहित्य सितारों की भाषा,
  • तुम गाकर दीपक राग जगा दो मुर्दों को
  • मैं जीवित को जीने का अर्थ बताऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    इस कदर बढ रही है बेबसी बहारों की
  • फूलों को मुस्काना तक मना हो गया है,
  • इस तरह हो रही है पशुता की पशु-क्रीड़ा
  • लगता है दुनिया से इन्सान खो गया है,
  • तुम जाओ भटकों को रास्ता बता आओ
  • मैं इतिहास को नये सफे दे जाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    मैं देख रहा नन्दन सी चन्दन बगिया में,
  • रक्त के बीज फिर बोने की तैयारी है,
  • मैं देख रहा परिमल पराग की छाया में
  • उड़ कर आ बैठी फिर कोई चिन्गारी है,
  • पीने को यह सब आग बनो यदि तुम
  • सावन मैं तलवारों से मेघ-मल्हार गवाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
    जब खेल रही है सारी धरती लहरों से
  • तब कब तक तट पर अपना रहना सम्भव है!
  • संसार जल रहा है जब दुख की ज्वाला में
  • तब कैसे अपने सुख को सहना सम्भव है!
  • मिटते मानव और मानवता की रक्षा में
  • प्रिय! तुम भी मिट जाना, मैं भी मिट जाऊंगा!
    तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,
  • मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

अच्छे गीत पढ़वाने का धन्यवाद।

दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ...
दीवाली आप और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि लाए।

Udan Tashtari said...

दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.