Friday, October 17, 2008

करवा चौथ यानी हम दासी, तुम स्वामी



आज करवा चौथ का पर्व है। कई हिंदू शादीशुदा महिलाएं दिन भर बिना कुछ खाए-पीए रहेंगी ताकि अगले सात जन्मों में भी इसी पति का साथ मिले। फिर रात को सज-संवरकर , चांद देखकर और पति की आरती उतारकर अपना व्रत खोलेंगी। कुछ लोगों को यह सब इतना अच्छा लगता होगा कि वाह , पतिप्रेम का कितना आनंददायक पर्व है। लेकिन गहराई से देखें तो यह व्रत भी पति-पत्नी के अधिकारों और कर्तव्यों में सदियों से चले आ रहे फर्क को ही आगे भी जारी रखने का जरिया है। एक तरह से इसमें भी त्याग का वही जज़्बा है जो हम सती प्रथा में देखते हैं कि पति मरे तो पत्नी भी चिता पर साथ जल जाए लेकिन पत्नी मरे तो पति जल्द से जल्द दूसरी शादी कर ले।


अव्वल तो यह मानने का कोई तर्क नहीं कि अगर हमें किसी के प्रति अपना प्यार जताना है तो वह भूखे रहकर ही जताया जा सकता है। लेकिन अगर यह मान भी लें कि किसी के लिए (भूखे रहकर) कष्ट सहना प्यार और समर्पण का प्रतीक है तो पत्नी ही यह त्याग क्यों करे , पति यह प्यार और समर्पण क्यों नहीं जताता अपनी पत्नी के प्रति ? क्या कोई भी ऐसा त्यौहार है किसी भी धर्म में जिसमें पति अपनी पत्नी या प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए कुछ भी त्याग करता हो ? मेरी जानकारी में तो नहीं है , किसी को मालूम हो तो बताए। बहुत आसान है यह कहना कि महिलाएं अपनी इच्छा से यह उपवास रखती हैं लेकिन कभी उनके साथ भूखे रहकर तो देखिए – पता चल जाएगा कि भूख क्या चीज़ होती है। नीचे जिन पाठकों के कॉमेंट छपे हैं, उनमें से एक ने भी नहीं कहा कि वह पत्नी के साथ भूखे रहने को तैयार हैं। मेरी उनसे इल्तिजा है कि कम से कम एक बार तो करके देखिए और जानिए कि आपकी पत्नी आपके लिए खुद को कितना कष्ट देती है। पत्नी गृहस्थी का वह चक्का है जो कभी नहीं रुकता। पति तो सात दिन में एक छुट्टी पा जाता है लेकिन पत्नी को तो सातों दिन नौकरी करनी है। छह दिन के बाद छुट्टी न मिले तो पुरुष बिलबिला उठते हैं, पत्नियां 365 दिन काम करती हैं। उनका दिन सुबह 6 बजे से शुरू होता है और रात 11 बजे खत्म होता है। कामकाजी महिलाओं पर तो यह बोझ और ज्यादा है – घर भी है, दफ्तर भी। लेकिन इतना सब करके भी उन्हें यह सुनना पड़ता है कि पति भी तो उनका ख्याल रखते हैं, साड़ी-गहने देते हैं, मानो यह करके वे कोई एहसान कर रहे हों।


करवा चौथ पर दूसरी बात जो मुझे खटकती है, वह है आरती की। इस दिन पत्नी पति की आरती उतारती है यह मानकर कि पति ही उसका परमेश्वर है। लेकिन जवाब में पति तो पत्नी की आरती नहीं उतारता। बल्कि कुछ पति परमेश्वर ऐसे भी हैं जो बाकी दिन शराब पीकर या बिना पीए ही लातों और जूतों से पत्नी की पूजा करते हैं। मगर परंपरा है कि पति राक्षस भी हो मगर करवा चौथ के दिन पत्नी सजधज कर उसके लिए भूखी रहकर उसकी पूजा करके अपना व्रत खोलेंगी। मेरे ख्याल से अगर आज की तारीख में इस पर्व को कायम रखना है तो उसे नया रूप देना होगा। पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के लिए व्रत रखें , दोनों भूखे रहें। संभव हो तो दोनों मिलकर खाना बनाएं और रात में साथ-साथ खाएं। साथ ही एक-दूसरे के प्रति प्यार और विश्वास की शपथ दोहराएं। अगर आरती भी उतारनी हो तो दोनों एक-दूसरे की आरती उतारें या कोई किसी की न उतारे क्योंकि आरती ईश्वर की उतारी जाती है , इंसानों की नहीं और कोई इंसान ईश्वर नहीं हो सकता। अगर इस तरह से यह पर्व मनाया जाए तो यह पति-पत्नी के प्यार और विश्वास का पर्व होगा वरना पारंपरिक रूप में तो यह पत्नी को दासी और पति को स्वामी मानने की भारतीय हिंदू परंपरा को आगे बढ़ाने का त्यौहार है और जो आधुनिक कही जाने वाली महिलाएं इसे पारंपरिक रूप में मना रही हैं , वे जाने-अनजाने उसी दासी और स्वामी के संबंध को बढ़ावा दे रही हैं।


नीरेंद्र नागर का लेख...नवभारत टाइम्स से साभार

1 comment:

विवेक सिंह said...

एक बार दो दादा और पोता घोड़ी पर जा रहे थे .घोड़ी जरा कमजोर सी थी फिर भी ले जा रही थी . पहले गाँव से होकर गुजरे तो लोगों ने देखा . टिप्पणी हुई : "इनको न शर्म है न दया . हट्टेकट्टे इतनी कमजोर घोड़ी पर लदे जा रहे हैं ." पोते ने सुन लिया तो दादा से बोला , दादा जी मैं पैदल चलूँगा आप घोड़ी पर चलो लोग अच्छा नहीं समझते ." दादा ने तो दुनिया देखी थी . बोला, "बेटा लोगों की जुबान नहीं पकड़ सकते ये तो कुछ न कुछ कहेंगे ही ." मगर पोता न माना नीचे उतर गया और पैदल चलने लगा . अगले गाँव में पहुँचे तो वहाँ भी टिप्पणियाँ हुईं : "इस आदमी को न शर्म है न दया खुद हट्टाकट्टा घोड़ी पर सवार है और बच्चे को पैदल घसीट रहा है ." अबकी बार दादा ने कहा," बेटा मैं पैदल चलूँगा तू घोड़ी पर चल ." तीसरे गाँव में पहुँचे तो भी टिप्पणी से न बच सके . लोगों ने देखा तो कहा ," देखो इस लड़के को न शर्म है न दया खुद हट्टाकट्टा घोड़ी पर चल रहा है और बुड्ढा बेचारा पैदल भाग रहा है ." अब क्या चारा था ? दोनों ने तय किया कि पैदल चलेंगे . अगले गाँव में पहुँचे तो भी टिप्पणी से न बच सके . टिप्पणी मिली : " देखो ये दोनों कितने मूर्ख हैं . घोड़ी होते हुए भी पैदल जा रहे हैं .

ऊपर वाली इतनी लम्बी कथा हमने अकारण ही नहीं कही . आज करवा चौथ है . सब तरफ प्रसन्नता का माहौल है .हम तो छुट्टी लेकर घर बैठे हैं ईवनिंग शिफ्ट में ड्युटी थी इस डर से नहीं गये कि कहीं रात वाला फँसा न दे . जो पति हैं वे इसलिए खुश हैं कि उनके लिए ऐसा मौका साल में एक ही बार आता है जब उनकी पूजा होती है . अन्यथा वे तो साल भर पूजक ही बने रहते हैं . पत्नियाँ खुश हैं क्योंकि इसे बड़ा प्रदर्शन का सुअवसर बार बार थोड़े ही आता है . पडौसिनों को दिखाने का यही तो अवसर है कि मेरे पास यह साड़ी इतने की है और फलाँ जेवर इतने में खरीदा . आखिर प्रदर्शन का कोई बहाना तो चाहिए . ऐस ही तो किसी के सामने जाकर अपना बखान नहीं कर सकते न . ऊपर से पतिदेव को भी भ्रम हो जाता है कि वे देवता हैं . इस अवसर पर देवता से लगे हाथ वह इच्छा भी पूरी कराई जा सकती है जो पूरे साल बज़ट से बाहर थी . बच्चे मम्मी पापा दोंनों को एक साथ खुश देखकर अति आनन्दित हैं . उनको समझ आ गया है कि आज कोई न कोई विशेष अवसर है . जरूर कुछ न कुछ या तो हो गया है या होने वाला है .पर बुरा हो इन घोर असामाजिक छिद्रान्वेषियों का . इनको हर बात में टाँग अड़ाने की आदत जो है . इन्हें कोई बात अच्छी नहीं लगती . किसी को खुश देखकर तो ये कदापि खुश नहीं रह सकते .ये हर जगह मिल जायेंगे .एक ढूंढो तो चार मिलेंगे . यहाँ ब्लॉगिंग पर भी ऐसे लोगो की कमी नहीं है .पत्नियों को भडकाने में लगे हैं . स्त्री शोषण हो रहा है . पुरुष क्यों व्रत नहीं रखता स्त्री के लिए .ये होना चाहिए वो होना चाहिए . मै होता तो कभी व्रत न रखता . ऐसा कहते और लिखते हुए पाए जाते हैं ये लोग .मेरी सभी करवाचौथ प्रेमियों/प्रेमिकाओं से विनम्र गुजारिश है कि ऐसे लोगों की बात कतई न सुनें . खुश रहें और खुशी मनाने का कोई मौका हाथ से न जाने दें . निंदक तो हर बात की निंदा करते ही रहेंगे . इन निंदकों की जितनी निंदा की जाय कम है .