Thursday, September 4, 2008

हम-सब.. जो इतना अघाये हुए

पूरब या बनारस में,
जब
कोई धूमिल
अकेला हो जाता है,
प्रतापगढ़, हरिद्वार या गाजियाबाद में
जब
कोई त्रिलोचन यूं-ही
मर जाता है,
तब हम सोचना शुरू करते हैं कि किसी कोसी की
कोख में
डूब गया कोई बिहार।

तार सप्तक से पहले
जब कोई सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय
आगरा में सैनिक अखबार पर
कलम घिस रहा होता है,
...तब जिंदगी
पूछती है कि क्या इसी तरह जिंदा रहते है
अतुकांत कविता के
ये प्रोफेसर?

..और फिर
कई-सारे सवाल आपस में
घुल-मिल जाते हैं (जैसे...मैली गंगा और यमुना की कछारी मुलाकात)
कि तुलसी कौन था?

जटिल कविताओं का मतलब
होता है
बांग्ल या बर्तानवी अमर्त्य सेन,
ही
कोसी की बाढ़।

और अंत में.............

तुम्हारे अर्थशास्त्र से
परे हैं
बहुसंख्यक वास्तविकताएं,
जो कुचल सकती हैं,
समय आने पर
तुम्हे
कुचल देंगी।

...समय
किसी इंडिया का रेलवे डिपार्टमेंट नहीं है,
नकोई मनमोहन या सोनिया
न ही कोई अटल, क्सा टाटा की टट्टी
नैनो...

....समय
है नेहरू का दोगला वामपंथ,
ही
1976-77 की इमेरजेंसी,
और
1990 का जनसत्ता अखबार,


जब
किसी दोगले की मौत होती है
लाजिम है कि
पूरे शहर के शोहदे
मरघटी सन्नाटे में लिपिबद्ध हो जाते हैं।
मैं उन्हे मारना नहीं चाहता,
वे अपनी मौत
मर रहे हैं,
मैं चाहता हूं कि वे तब तक जिंदा रहे,
यह सब सच्चाइयां
जब तक
अपरिचित नहीं हो जातीं।
!!!!!!


(क्या सचमुच यह मैंने लिखा है....
??????)

1 comment:

Udan Tashtari said...

क्या ये सचमुच आपने लिखा है???????