Wednesday, April 28, 2010

देश ने देखे हाथी दांत, खाने के और दिखाने के



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खाने के और दिखाने के और। कुछ ऐसे ही रंग देखे हैं देश ने दो महीने के भीतर। इस महीने तो और साफ-साफ दिखे। मसला आईपीएल का तो पहले थरूर पर, फिर मोदी पर, फिर प्रफुल्ल पटेल पर, फिर शरद पवार पर। थरूर पर सियासी नैतिकताओं के कुछ और रंग तथा ललित मोदी, नरेंद्र मोदी, प्रफुल्ल पटेल और शरद पवार पर कुछ और रंग। कभी संप्रग निशाने पर, कभी भाजपा, कभी एनपीसी। बाकी दल नैतिकता से लकदक। मोदी गए। शशांक आए। कहते हैं, शशांक पवार के आदमी हैं। वकील पिता के जमाने से शशांक परिवार से शरद के रिश्ते-नाते हैं। फोन टेपिंग पर कल और ही नजारा था। इसी तरह संसद में नैतिकता-अनैतिकता के पाले खिंचे। बात आपात काल तक की हो चली। इससे पहले महिला आरक्षण बिल पर सियासी नैतिकताओं-अनैतिकताओं के अलग-अलग रंग दिखे। दुश्मन दोस्त हो लिए और मित्र दल आपस में मुट्ठियां भींचने लगे। जब 14 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर में राहुल गांधी रथ रैली कर रहे थे, जब लखनऊ में मायावती महारैली में महामाला पहन रही थीं, जब राज्यसभा से सपा-राजग-लोजपा सांसद सदन से मार्शलों द्वारा टांग कर बाहर निकाले जा रहे थे, राजग, जदयू, सपा, बसपा, कांग्रेस, भाजपा के नए-नए पाले दिखे। सबकी अपनी-अपनी लक्ष्मण-रेखाएं और अपने-अपने तर्क-कुतर्क। कोई किसी को न सही कहने लायक रहा, न कोई किसी को गलत करार देकर खुद को जायज ठहराने लायक। नीतीश पर लालू-शरद-पासवान एक। मायावती पर मुलायम-कांग्रेस-भाजपा एक। आरक्षण बिल पर कांग्रेस-भाजपा-वामदल एक। महंगाई पर राजग-सपा-वामदल एक। तीसरे मोरचे तक की बातें होने लगीं। अंबेडकर और महारैली पर अलग-अलग लेकिन कटौती प्रस्ताव कांग्रेस, बसपा, राजग, सपा सब एक। वामदल कुछ और, भाजपा कुछ और राग में। किसी ने भीतर रहकर प्रस्ताव का पक्ष ले लिया तो किसी ने बहिष्कार का बहाना कर समर्थन दे दिया। अजब हाल है। गजब। कौन कर है विपक्षी एकता को तार-तार, कौन कर रहा है राष्ट्र को मजबूत। परमाणु विधेयक से रेलवे बजट तक, महिला आरक्षण बिल से आईपीएल तक, थरूर से शरद पवार तक, राहुल के दलित प्रेम से बसपा के कटौती प्रस्ताव समर्थन तक सवाल-ही-सवाल बिछे हैं सियासत की राहों में। कोई कहता है सीबीआई हथियार है घेरने का। कोई कहता है आईपीएल के हमाम में सब नंगे हैं। कोई परमाणु क्षतिपूर्ति विधेयक पर देश को भरोसे में लेना चाहता है, कोई महिला आरक्षण बिल पर पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना चाहता है। कोई फोन टेपिंग पर आपात काल तक पहुंच जा रहा है। हवा भरते ही फुस्स हो जा रही है। कल किसी ने कहा था कि मंगलवार का सूर्योदय होने दीजिए। सूर्यास्त होते-होते सब कुछ हो लिया देश की सियासत में। लगता है, किसी के किए कुछ नहीं होना है। महंगाई विरोधी रैलियां, बंद, महाबंद ऊपर से जैसे लगें, सब कुछ हाथीदांत लगने लगा है। मरना है, सो मरते जाना है पब्लिक को अपनी-अपनी मौत। जैसे अपने ही लोग उसे घेर कर मार डालने पर आमादा हों। सियासी प्रहसन इतनी बेशर्मी से जनविश्वासों का सरेआम चीरहरण करते रहेंगे, ये सोच-सोचकर राम-लखन बड़ी हैरत में हैं कि किस दांत से खाएं, कौन-सा दिखाएं!

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