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(sansadji.com)
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का दलित-प्रेम भविष्योन्मुख भारतीयसमाज में उत्साह जगाता है और अपने मूल-निष्कर्षों में उन तमामसवालों की तह तक ले जाता है, जो पिछले साठ सालों से अनुत्तरित हैं। देशके राजनेताओं की नई पीढ़ी में राहुल के प्रथम पंक्ति में होने की कई ऐसीजायज वास्तविकताएं हैं, जो कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वंद्वियों तक को उनकीतरफदारी के लिए मजबूर कर देती हैं। राहुल के दलितों के घर जाने, उनकीमुश्किलों को नजदीक से जानने-समझने, उनके मसले संसद में उठानेजैसे प्रयासों को लोग अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं। कोई उनकीप्रसंशाओं के लहजे में शुभकामनाएं देते हुए उनकी कार्यशैली से सबक लेने की सीख दे डालता है तो कोई उनकेदलित-प्रेम पर कई गंभीर सवाल उठाने लगता है। राहुल गांधी कहते हैं कि उनके दलितों के घर जाने का कुछ भीराजनीतिक मतलब निकाला जाए, उनका मकसद है कि विकास योजनाओं की मदद से गांवों का विकास हो औरशहरों की ओर लोगों का पलायन रोका जाए। वह अमेठी से दलित-प्रेम की अलख जगाते हुए झांसी के गुऔली गांवमें दलितों की चौखट तक पहुंच जाते हैं, उनके घर खाना खाते हैं और उनके दुख-दर्द में शरीक होते हैं। नदीजतनइसका लाभ भी कांग्रेस को पिछले लोकसभा चुनावों में मिला। पार्टी 22 सीटों पर प्रतिद्वंद्वियों को हराने में कामयाबरही, लेकिन विधानसभा उपचुनावों आदि में पांसा फिर पलटता नजर आया। दलित-प्रश्न पुनः पुराने संदेह जगानेलगे। ऐसे प्रश्न, जिनके जवाब यदि केंद्रीय सरकार और कांग्रेस चाहे तो देंसकती है, लेकिन उसके लिए उसे खुद केखड़े किए ढांचे, नीति और दलीय नेतृत्व से जूझना होगा। राजीव गांधी की यात्राओं से उनकी अभी भी यह मंशानजर तो आती है, लेकिन सवाल इन ढांचों, नीतियों और नेतृत्व में बदलाव का भी है।
निश्चय ही राहुल गांधी और उनके सलाहकारों की बड़ी टीम इस बात से अच्छी तरह वाकिफ होगी कि हर साल लाखोंदलित-समूह दिल्ली तक दस्तक दे रहे हैं और उनके सामाजिक-आर्थिक बदलाव की बुनियादी मांगें पूरी नहीं होरही हैं। पिछले डेढ़ दशक में ऐसे सवालों की फेहरिस्त बार-बार कांग्रेस सरकार के विभिन्न मंत्रालयों तक पहुंची है, लेकिन दलितों की सामाजिक गैरबराबरी, गरीबी, महंगाई, अशिक्षा, भुखमरी और सम्मान से जुड़े सवाल संसद केबाहर और भीतर सिर्फ गूंज कर दम तोड़ रहे हैं। ऐसे में पूछा जा सकता है कि क्या राहुल गांधी की नीतियां अलग हैंऔर कांग्रेस की अलग? दलित एजेंडे पर अगर दोनों की नीतियों में भिन्नता नहीं तो कांग्रेस सरकार पिछले साठसालों से अपनी जवाबदेहियों से कतरा क्यों रही है?
आज वैश्वीकरण और निजीकरण के दबाव से सार्वजनिक उद्योग के क्षेत्र में लगातार दलित-रोजगार की संभावनाएंसिमट रही हैं। आरक्षण कोटे से 50 प्रतिशत की सीमा हटाने अथवा शासकीय योजनाओं में दलित स्वैच्छिकसंगठनों के लिए आरक्षण कोटा सुनिश्चित करने की बात तो दूर, उल्टे उसकी तितर-बांट की चुपचाप साजिशें चलरही हैं। एक तरफ सरकारी उपक्रमों का निजीकरण हो रहा है, दूसरी तरफ निजी उद्योगों में आज तक ऐसी कोईव्यवस्था नहीं की जा सकी है, जिससे ऐसे वंचित समूहों के रोजी-रोजगार की कोई स्थायी व्यवस्था नजर आ सके।निजीक्षेत्र के संसाधनों में दलितों की आनुपातिक हिस्सेदारी और आरक्षण का मसला हाशिये पर पड़ा है।व्यावसायिक उच्चशिक्षा की तो बात ही क्या, स्कूली पठन-पाठन में भेदभाव की नीति दलितों को सतह से हीदरकिनार किए दे रही है। लाखो दलित होनहार आज भी मिड-डे मील की आखिरी कतार में हैं। मिड-डे मील जैसीवृहद सरकारी योजना में खाना पकाने और बांटने में दलितों की हिस्सेदारी को लेकर पुरातनपंथी सवर्ण जातियों केआगे दंडवत सरकारी रवैये से कौन परिचित नहीं? देश के संसाधनों में दलितों की हिस्सेदारी देश के निर्धनतम वसंपत्ति-विहीन दलित तबकों की देस के संसाधनों में हिस्सेदारी बढ़ाने के प्रति सरकार की राजनैतिक प्रतिबद्धताऔर मंशा देश के आम बजट, वार्षिक एवं पंच वर्षीय योजनाओं से साफ हो जाती है। देश की योजनाओं के जरियेमिलने वाले दो फीसदी से कम के संसाधनों से देश की आबादी के 20 फीसदी दलितों का विकास कैसे होगा?
भारतीय संविधान ने, जिसने इसी 26 जनवरी को अपने 60 साल पूरे किए हैं, दलितों को आश्वस्त किया था किउनका सदियों का संताप शीघ्र ही समाप्त होगा। केंद्र में कांग्रेस की सरकार और उसके शीर्ष नेतृत्व को सत्तर के दशकमें ही पता चल गया था कि विकास की रणनीति, जो अनिवार्य तौर पर भारतीय दलितों, आदिवासियों, गरीबों औरवंचितों के फायदे पर आधारित थी, कारगर नहीं रही। तीन चौथाई भूमिहीन दलितों को भूमि बांटने की घोषणाएंबयानबाजी और रस्म अदायगी से कभी आगे नहीं बढ़ पाई। जहां उन्हें जमीन के पट्टे दिए गए, उन पर कब्जे केलिए दलित अभी भी मारे-मारे फिर रहे हैं। लंबे संघर्ष के बाद पारित वन अधिकार कानून ने आदिवासियों कोउनकी मातहत भूमि पर अधिकार के लिए आश्वस्त तो किया, लेकिन जंगलों पर काबिज कर्मचारियों औरअधिकारियों के जंगल राज की मानसिकता वही है. उस पर से जंगलों के आसपास रहने वाले दलितों को तो यह भीप्रमाणित करना पड़ेगा कि वह आजादी के पहले से वही रह रहे थे। दलितोन्मुखी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का पूरी तरहअभाव है। शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की मांग सिरे से नदारद है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों केविकास कार्यक्रमों, योजनाओं में सिर्फ कागजी खानापूरियां की जा रही हैं। वाकई राहुल गांधी देश के दलितों कीदशा को लेकर गंभीर हैं तो निश्चित ही वह इन सवालों से नावाकिफ नहीं होंगे।
देश के विकास के चाहे जितने दावे किए जाएं, हकीकत में गांव के दलितों की हालत में कुछेक पहलुओं को छोड़करमौलिक बदलाव अभी नदारद है। कथित लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य में उनके लिए खेती, शिक्षा औरस्वास्थ्य की आज भी कोई स्थायी इंतजाम दे पाने में कांग्रेस सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। कृषि में सरकारीपूंजी निवेश, उसके सहकारीकरण, आधारभूत उद्योंगों के राष्ट्रीयकरण, राजनीतिक आजादी के बावजूद पंचायत सेपार्लियामेंट तक दलितों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली आदि की डॉ. अम्बेडकर की मांगों पर आज तक कांग्रेस नेअमल नहीं किया है। ऐसा भी नहीं कि इन असहमतियों और असफलताओं से राहुल गांधी अथवा उनकी सरकारेंअपरिचित हों। कांग्रेस के राज में कानून बनने के बावजूद आदिवासियों को वन उत्पादों पर मालिकाना हक मिलनातो दूर, लगातार डंके की चोट पर उन्हें दर-ब-दर किया जा रहा है। उनके हिस्से की जमीनें कौड़ियों के भावउद्योगपतियों को दी जा रही हैं। कांग्रेस शासित राज्यों में भी मनरेगा भ्रष्टाचारियों और दबंगों के हवाले है। मंत्रालयों, देश की बजट-नीतियों, योजनाओं, विकास संसाधनों में अनुसूचित जाति-जनजातियों के संगठनों को प्रतिनिधित्वन दिए जाने की आखिर क्या वजह हो सकती है? देश आजाद होने के साठ साल बाद भी स्वास्थ्यगत कारणों सेसर्वाधिक मौतें दलित-आदिवासी महिलाओं और बच्चों की ही हो रही हैं। सामाजिक-आर्थिक मोरचों पर जब तकऐसे सवाल बने रहेंगे, राहुल गांधी अथवा उनकी सरकारों को देश की दलित-जवाबदेही से पृथक कर नहीं देखा जासकता, न ही दलितों के प्रति ऊपरी दिखावे भर से उनकी बुनियादी मुश्किलें आसान हो सकेंगी।
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