सियासत के सुपर स्टार ठाकुर साहबः दो
इन दिनों सांसद अमर सिंह एक साथ कई मोरचों पर सक्रिय हैं। अपने भाषणों से जहां वह भीड़ की तरफ मुखातिब हैं, अपनी अंदरूनी रणनीति में तीन राष्ट्रीय दलों के गहरे संपर्क में। साथ ही उद्योग और फिल्म जगत के बीच सियासत के युवा तथा आर्थिक विकल्पों की टोह ले रहे हैं। सूत्र तो यहां तक दावा करते हैं कि एक बड़े राजनीतिक दल के लोग भले मुंह न खोल रहे हों, उनके साथ लगातार अमर सिंह की यूपी के भावी चुनावों लेकर गुफ्तगू चल रही है। आड़े आ रहा है तो सिर्फ बुंदेलखंड का मसला, क्योंकि बताते हैं कि इस मुद्दे पर वह राजा बुंदेला से अपने को अलग कर नहीं देख पा रहे हैं। दूसरी बात, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। अब वह आगे कोई ऐसी गलती नहीं दुहराना चाहते, जिससे कि सपा जैसी नौबत आए।
वह कहते हैं कि मैंने बीमारी की हालत में भी सपा के लिए काम किया और सपा नेताओं ने उसका सिला मुझे कूड़ा, कचरा और पागल कह कर दिया है। सबको पता है कि पहले सपा की हैसियत क्या था। वह एक जाति विशेष के मोहल्लों तक सीमित थी। मैंने उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक सुर्खियां दिलाईं। लेकिन अब हमारे लोग चाहते हैं कि सीधे तौर पर संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया जाए। संघर्ष जनता के साथ, साथ जनता के लिए। अभी सपा के भीतर कई ऐसे विधायक और सांसद हैं, जो समय आने पर पार्टी को दिन में तारे दिखा सकते हैं। मेरे इस्तीफे पर बहुत प्रतिक्रियाए हुईं। सवाल उठता है, जिस पार्टी को मैंने खुद ही छोड़ दिया, उसे मुझे निकालने की घोषणा की क्या जरूरत थी। उनकी इस बेतुकी घोषणा तक पार्टी के नेता मुलायम सिंह जी और उनके परिवार के बारे में मैने एक भी शब्द नहीं कहा। अपने ब्लॉग में प्रसंगांतर से अमर सिंह सियासत की सच्चाइयों को सामाजिक सरोकारों से जोड़ते हुए साफ-साफ यह लिखने से गुरेंज नहीं करते कि केरल के ईसाई परिवार में जन्मे एक नवजवान जिसके दो छोटे अबोध बच्चे है, ने बिना मांगे अपना गुर्दा दे कर मेरे पीछे जयजयकार लगाने वाली भारी भीड़ को बहुत ही बौना बना दिया है और धर्म निरपेक्षता में मेरे विशवास को और गहरा किया है। हिन्दू, मुस्लमान, ईसाई में अगर अंतर होता तो हिन्दू अमर सिंह के शरीर में ईसाई का गुर्दा फिट नहीं बैठता। खून की उल्टिया, बेहोशी की हालत, खाने का न पचना, रात को सोते में डायलिसिस करा कर भी सपा के लिए सुबह लोकसभा चुनाव में प्रचार के लिए निकल पड़ना मेरा जाने कौन सा पागलपन था, जिसकी शुरुआत बरेली की रैली से पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी। बरेली में मेरे प्रबंधन में चंद्रबाबू नायडू, जयललिता, ओमप्रकाश चौटाला, बंगारप्पा, फारुख अब्दुल्ला पहुंचे थे और उसी रात मेरी सर्जरी नॉएडा के फोर्टीस अस्पताल में चलती रही। रात भर अस्पताल में आपरेशन के बाद, सुबह हाथ में लगे सलाइन को नोच कर मै बरेली पहुंचा। यह बात नेताजी को पता है। अब मुलायम सिंह के साथ वे लोग हैं, जो अपने चुनाव में तो तीसरे नंबर पर आते हैं लेकिन पूरी पार्टी की ओर से कुछ भी अकबकाते रहते हैं। इतना ही नहीं, दैनिक जागरण के अपने एक लेख में राजबब्बर के व्यक्तित्व को मुलायम सिंह बड़ा बताने से भी नहीं चूकते हैं। उनकी निष्ठाएं पहले ही साबित हो चुकी हैं। लेकिन बातों-बातों में अमर सिंह की लेखनी चेतावी देने से भी रत्ती भर नहीं चूकती कि मैं न मायावती हूं, न मधु कोड़ा। आरोप लगाने वालों पर सवाल दागते हैं कि क्या मैं रातोरात समाजवादी से पूंजीवादी हो गया हूं? दिग्विजय सिंह मेरे मित्र है, मुकेश के ख़ास ठीक वैसे ही है जैसे कि अनिल मेरे मित्र है, लेकिन एक अंतर है, अनिल मुझे चलाते नहीं। मैने सपा के सचिव पद से इस्तीफे के महत्वपूर्ण निर्णय पर अपने किसी भी निकट के व्यक्ति से कुछ नहीं पूछा, चाहे वह अपनी पत्नी हो, या जया बच्चन, या जया प्रदा, या संजय दत्त, या अमित जी (अमिताभ बच्चन), या फिर अनिल अंबानी। यह मेरा जीवन और यह मेरा निर्णय है। वह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि इसमे कोई राजनीति नहीं।
फिर वह अपने भावी एजेंडे से मुखातिब होते हैं। यानी पूर्वांचल, हरितप्रदेश, बुंदेलखंड, विदर्भ और तेलंगाना। कहते हैं कि मुझे तेलंगाना के साथियों ने दिल्ली में प्रदर्शन लिए याद किया। जंतर-मंतर पहुंचते ही मैने काले कोट वाले वकीलों के जखीरे को देखा. यह सभी विधिवेत्ता मुट्ठी बांधे अपने दांतों को भीचते हुए तेलंगाना की मांग का इजहार बड़े ही गुस्से से कर रहे थे. पिंजरे से आजाद पंछी की तरह समाजवादी निरंकुशता की कैद से आजाद मै भी वहाँ पहुंचा था. कलावती के विदर्भ के भी काफी लोग मिले जहाँ किसान आज भी आत्महत्या करते हुए असहज म्रत्यु का वरण कर रहे है. आज पूरे देश के संसदीय एवं विधानसभा क्षेत्रों की नई सीमारेखाओं का परिसीमन हो रहा है. घुट रही जन आकांक्षाओं एवं क्षेत्रीय स्वाभिमान का मर्दन करते हुए तानाशाह राजनेता मात्र अपनी गद्दी के लिए चिंतित है. कुछ मायावती जी जैसे चालाक चालाक नेता है जो बिल्कुल सही प्रतीकात्मक राजनीति करते है. सुखदेव राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा और दारा सिंह चौहान को पद दे दिया लेकिन इनके कहने से इनके समाज को और कहीं प्रतिनिधित्व मिलेगा, राम जाने? इसी तर्ज पर बहन जी उत्तर प्रदेश के बटवारे का बयान तो दे डाली लेकिन उनकी बहुसंख्यक सरकार विधानसभा से प्रस्ताव पारित कराने की प्रक्रिया से हिचकिचा रही है. मेरी भूतपूर्व पार्टी के अभूतपूर्व नेता का तो जवाब नहीं. उनकी पूरी राजनीति विसंगतियों की है. उत्तराखंड को प्रथक करने का प्रस्ताव करके, विरोध कर डाला. आजतक उत्तराखंड में उनकी स्वीकार्यता न है और न होगी. यूपीए सरकार बचा कर कांग्रेस की इच्छा होने के बावजूद गठबंधन नहीं किया और कांग्रेस की राजनीति को पुनर्जीवन दे कर भी यथावत दुश्मन भी बने रहे. वामपंथियों के साथ जा कर नारायणन को कांग्रेस के समर्थन से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करके कलाम साहब के पक्ष में अटलजी को सुझाव दे डाले. मेरे मामले मेरी उलझनों को सुलझाते-सुलझाते एक-ब-एक मुझे ही मेरे अपमान की ज्वाला में अपने अनुज के प्रायोजित शब्दबाण झुलसा गए। अब पूर्वांचल और उत्तरप्रदेश के बटवारे को रोकने की मुहीम चला रहे है. यहाँ आज़मगढ़ का यादव भी चींख-चींख कर कह रहा है “ए भाई कबले हमहने के ईहाँ इटावा राज करी, कल्बों हमहनों क आपन राज आई की ना”. इस जनवाणी की व्याख्या मुझसा तुच्छ प्राणी क्या करे. ईश्वर करे की मेरे भूतपूर्व दल के अभूतपूर्व नेता उत्तराखंड की भाँती पूर्वांचल, हरितप्रदेश और बुंदेलखंड की जनाभावनों के प्रतिकूल अपने राजनैतिक आचरण को सुधारें वरना उन्हें राजनीति के हाशिये पर जा कर अपने ही गृह जनपद इटावा के प्रसिद्द कवि श्री गोपालदास नीरज का यह गीत न गाना पड़ेगा- कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे.......
अमर सिंह कहते-लिखते हैं कि जहां तक मेरी भावी राजनीति का सवाल है, आने वाले दिनों-महीनों में एक-एक पन्ना खुलता चला जाएगा। अब मैं मुलायम सिंह जी की राजनीति से दूर समाजवादी दल के लाखों – करोड़ो सामान्य कार्यकर्ता की हैसियत से एक निर्वाण प्राप्त कार्यकर्ता “लोकमंच” नाम के एक गैर राजनैतिक संगठन के माध्यम से सक्रिय जनता की अदालत में पहुंच चुका हूं। जहां मुलायम सिंह जी से मेरे अतीत के सम्बन्धो की बात है, अब टुच्चे लोग उसका विश्लेषण करना बंद कर दें तो ही ठीक होगा क्योंकि वक्त का आखिरी फरमान अभी बाकी है.....अंजाम अभी बांकी है। चल पड़ा है कारवां। जनसंघर्षों के नतीजे ही सियासी भविष्य का फैसला सुनाएंगे।
sansadji.com ....सांसदजी डॉट कॉम से साभार
Saturday, February 27, 2010
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