Friday, February 20, 2009

फागुन-1



आग बटोरे चांदनी, नदी बटोरे धूप.

हवा फागुनी बांध कर रात बटोरे रूप..


नख-शिख उमर गुलाल की देख न थके अनंग.

भरी-भरी पिचकारियां मारे सगरो अंग..


पुड़िया बंधी अबीर की मौसम गया टटोल.

पोर-पोर पढ़ने लगे मन की पाती खोल..


फागुन चढ़ा मुंडेर पर प्राण चढ़े आकाश.

रितु रानी के चित चढ़ा रितु राजा मधुमास..


गांव-गली की गंध में रिश्ते-नाते भूल.

छोरी मारे कनखिया, छोरा मारे फूल..

3 comments:

विष्णु बैरागी said...

इतने 'मादक और मारक' दोहों से तो आपने ब्‍लाग पर ही होली रच दी।

Vinay said...

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seema gupta said...

आग बटोरे चांदनी, नदी बटोरे धूप.

हवा फागुनी बांध कर रात बटोरे रूप..

" fantastic..."
Regards