बच्चे हर दिन हमारी आंखों के तारे होते हैं तो हमारे लिए हर दिन बाल दिवस जैसा क्यों न हो. और ऐसे तनाव भरे दौर में, जबकि ज्यादातर लोगों की हर सुबह तमाम तरह की टेंसन से शुरू होकर रात की नींद आने तक बनी रहती है. ऐमनेस्टी इंटरनेशनल की एक सूचना के अनुसार पाकिस्तान की जेलों में लगभग साढ़े चार हज़ार बच्चे क़ैद हैं और उनमें से दो-तिहाई ऐसे हैं, जिन पर अभी तक कोई अपराध भी दायर नहीं हुआ है.बच्चों को कई बरस इस लिए जेल में गुज़ार देने पड़ते हैं क्योंकि माता-पिता उनकी ज़मानत कराने की क्षमता नहीं रखते हैं. ये मामले जब अदालत में आते हैं, उनमें से मात्र पंद्रह प्रतिशत पर ही अपाराध दायर हो पाता है. क़ानून व्यस्था बंदी बच्चों के अभिभावक की भूमिका निभाने में विफल रही है और जजों को भी बच्चों के अधिकारों की पूरी जानकारी नहीं है. तेहर साल के एक बच्चे को तो चार साल जेल में इसलिए रहना पड़ा क्योंकि उसका आरोप-पत्र खो गया था. रिपोर्ट के अनुसार ज़मानत आमतौर पर पचास हज़ार रुपये होती है जबकि पाकिस्तान में एक सरकारी कर्मचारी तक सात हज़ार रुपये महीने से ज़्यादा तनख़्वाह नहीं पाता है. बच्चों को भी वयस्कों की कोठरी में रखा जाता है. बार बारह साल तक के बच्चों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते समय एक ही ज़ंजीर से बाँध दिया जाता है. पंजाब की जेलों में साढ़े तीन सौ बच्चे मौत की सज़ा का इंतज़ार करते रहते हैं, जबकि राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़न उस समय उनकी सज़ा माफ़ कर कर चुके होते हैं. एक देश है हेग. वहां के पूर्वी कॉंगो के संदिग्ध युद्ध अपराधी थॉमस लुबांगा पर बच्चों को सेना में भर्ती करने और युद्ध में झोंकने का आरोप था. उन बच्चों को एके 47 बंदूक चलाना तो आता है, लेकिन एक अक्षर लिखना नहीं आता. सन् 2002 से 03 के बीच ऐसे 30,000 से ज़्यादा बच्चों को बाल सिपाही बनाने के आरोप में लुबांगा को वहां के अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय में पेश किया गया. वहां सोने की खदानों को लेकर 1999 से चल रही लड़ाई में अब तक 60,000 लोगों की मौत हो चुकी है. उस ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान ही पता चला कि लुबांगा की सेना ने किस तरह हज़ारों बच्चों को खून और बालात्कार के लिए ट्रेंड किया. ऐसा भी नहीं कि यह सब सिर्फ पाकिस्तान या पूर्वी कॉंगो शहर के बच्चों के साथ होता है. नोएडा का आरुषि कांड, निठारी कांडों भी बच्चों की दुनिया पर कहर बनकर टूटने वाले बड़ों की बदमिजाजी और क्रूरता बयान करती है. एक नया शोध कहता है कि पैरेंट्स जितने सोशल होंगे, उनके बच्चों का ' ऑलओवर परफॉर्मेंस' उतना ही शानदार होगा तथा भविष्य उतना ही सकारात्मक. जो पैरेंट्स ज्यादा लोगों से घुलना-मिलना और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न होना पसंद करते हैं, उनके बच्चे न केवल स्कूली शिक्षा में बल्कि हर गतिविधि में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं, बजाय उन पैरेंट्स के जिनका ज्यादातर समय टीवी के सामने और घर में बंद होकर गुजरता है. दरअसल घरघुस्सु या टीवी चिपकू टाइप के माता-पिता न तो बच्चों के साथ समय गुजार पाते हैं न ही बच्चों को बाहर की दुनिया से ज्यादा जोड़ पाते हैं. नतीजा ऐसे बच्चे पढ़ाई के अलावा अपना अधिकांश समय टीवी और कम्प्यूटर गेम्स के सहारे बिताते हैं तथा सामाजिक रवायतों से अनभिज्ञ रह जाते हैं. आरुषि कांड को लें, किशोर हो रही आरुषि को जब अपनों की जरूरत थी, संबंध बन गए उसके अधेड़ नौकर से. आरुषि निम्न मध्यमवर्ग नहीं, साधन संपन्न परिवार से थी. आधुनिक होते जाने की छलांग में बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, माता-पिता समझना नहीं चाहते. जब किशोर वय को अपनों की जरूरत होती है, उनके हाथ में झूलता रहता है टीवी का रिमोट या एक क्लिक में पूरी दुनिया की गलाजत परोस देने वाले कंप्यूटर-इंटरनेट का माउस. डॉ. तलवार और उनकी सहकर्मी डॉ. दुर्रानी के बीच के संबंध की क्या छवि उसके मानस पटल पर अंकित हुई होगी.
अपने आसपास की दुनिया की दूसरी तस्वीर यह सामने आती है कि भारतीय पुलिस इटावा के थाने पर बच्ची को बेरहमी से पीटती है या सुरत (गुजरात) में 13 से 15 वर्ष की उम्र के बच्चों को बिजली के झटके देती. कुसूर सिर्फ इतना-सा कि उन बच्चों ने पैसे चुराए थे. पुलिस के विभागीय तनाव का खामियाजा बच्चे भोगते हैं. वैसे भी पुलिस अब अदालत के कानून को कुछ नहीं समझती. बच्चों को कई बार भूखा-प्यासा और निर्वस्त्र रखकर पताड़ित किया जाता है. भारत में हर 23 मिनट में अपहरण का एक मामला सामने आता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2006 में अपहरण के 21,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए तथा वर्ष 2007 में यह आँकड़े पिछले आँकड़ों को भी पार कर गए. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तो और भी चौंका देने वाली है जिसके अनुसार भारत में हर साल 45,000 बच्चों का अपहरण होता है. अपहरण के सर्वाधिक मामले दिल्ली व उससे जुड़े इलाकों में अधिक सामने आते हैं. नोएडा का अनंत गुप्ता अपहरण कांड हो या कोलकाता और आगरा के शुभम अपहरण कांड, चंडीगढ़ का अभि वर्मा हो या कोटा का वैभव, सभी मामलों में अपराधियों का निशाना बने मासूम बच्चे.
उत्तर प्रदेश का एक जिला है कौशाम्बी . यहां के तमाम बच्चों को अपराध विरासत में मिलता है. बदमाशी उनका पुश्तैनी पेशा हो जाता है. यहां के ओसा और भदंवा गांव में तो एक ही परिवार में कई-कई कातिल है. डकैतों के बेटे डकैत और चोरों के बेटे चोर हो जाते हैं. ये बदमाश पुलिस और मुकदमों के चक्कर में इस तरह फंसते चले जाते हैं कि उनके पास बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए वक्त ही नहीं बचता. ऐसे में अपराधियों के बच्चों को चिह्नित कर उन्हे तालीम मुहैया कराने की कोशिशें भी चलती रहती हैं. फीस, बस्ता, किताब, कापी और पढ़ाई का अन्य खर्च उठाया जाता है. सवाल उठता है, ऐसा और कितने जिलों में हो पाता है. सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में जहाँ इंटरनेट दुनियाभर की जानकारियाँ परोस रहा है, वही अश्लील साहित्य परोसने में भी इसका कोई सानी नहीं है. इसका भी सर्वाधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं. अनेक परिवारों में सुबह होते ही माँ-बाप दफ्तर निकल जाते हैं. बच्चों को छोड़ जाते हैं टीवी, इंटरनेट के भरोसे. उनकी इसी लापरवाही या अनदेखी से परिपक्व होने से पहले ही बच्चे अश्लीलता की बातें करने लगते हैं. अविकसित मस्तिष्क के कारण बच्चे कच्ची मिट्टी जैसे होते हैं. जैसा गढ़ा जाएगा, वैसा ही बनेंगे. बहुत सी चीजों से वे अनभिज्ञ होते हैं. सामने उन्हें जो नहीं देखने दिया जाता, छिपकर देखना चाहते हैं. यही से शुरुआत होता है भटकाव. फिल्में और चैनल्स भी नई पीढ़ी को बर्बाद करने में पीछे कहां हैं. जिनमें जिस्मफरोशी अधिक होती है इंसानी ज्ञान की ललक जगाने की प्रवृत्ति कम. क्योंकि ऐसा करने से टीआरपी बढ़ती है, करोड़ों की कमाई होती है. टीवी चैनल्स ऐसी खबरों को चटखारे ले-लेकर दिखाते हैं, जिसमें सनसनी हो. ये जानते हुए भी कि दर्शकों में सबसे बड़ा प्रतिशत बच्चों और किशोरवय का है.
बच्चों तो नादान होते ही हैं. इतने समझदार हों तो उन्हें बच्चा कहा ही क्यों जाए? जब इस सवाल की तह में जाते हैं, बड़ों की दुनिया साफ-साफ उन अपराधी बच्चों के भविष्य के लिए जिम्मेदार नजर आती है. जैसी कि आजकल घटनाएं आम होती जा रही हैं, चोरी, मारपीट, छेड़छाड़, किडनैपिंग, साइबर क्राइम, दुराचार जैसे संगीन अपराधों में भी अगर बच्चे लिप्त पाए जाते हैं तो उन्हें ऐसा हो जाने के लिए मुख्य रूप से अभिभावकों बेखयाली सबसे बड़ी वजह लगती है. पुलिस से लेकर साइकोलॉजिस्ट तक सभी ऐसा मानते हैं. यदि बच्चा चुपचाप रहता है, अचानक बहुत तेज गुस्सा करने लगता है, उस पर पैनिक अटैक आते हैं, ज्यादातर समय घर से बाहर बिताता है या फिर ऐसा व्यवहार करता है जैसा कि आमतौर पर बच्चे नहीं करते हैं, तो भी अभिभावक जरूरी नहीं समझते कि उसकी वजह तो जान लें. नहीं जानना चाहते कि घर को खुशियों से भर देने वाला लाड़ला गुमसुम क्यों रहता है? कहाँ खो गई उसकी शरारतें, क्यों खुद में खोया-खोया तन्हा अकेला बैठा हैं? आजकल के बच्चों का ईक्यू यानी इमोशनल कोशेंट बहुत कम होता है. उनमें किसी चीज के लिए इंतजार करने का धैर्य नहीं होता. तब इच्छापूर्ति के लिए वे कुछ भी कर गुजरना चाहते हैं. घंटों इंटरनेट यूज करते हैं. बच्चों को अकेले कंप्यूटर पर काम नहीं करने देना चाहिए. ये अभिभावको की जिम्मेदारी होती है कि अपने बच्चे को बताएं कि नेट पर काम करने के कौन-कौन से खतरे हैं. और तो और, पैरेंट्स खुद जल्दी से अमीर बनने की सनक में अपने बच्चों को मेहनत और ईमानदारी का पाठ पढ़ाना भी फालतू की बात समझते हैं.
बच्चे स्वभाव से बड़े कोमल होते है. बगैर कुछ सोचे-समझे ही वे किसी अजनबी पर भरोसा कर लेते है परंतु कभी-कभी उनकी यह भूल उनके लिए जीवनभर की परेशानियों का न्यौता बन जाती है. आए दिन बच्चों के साथ होने वाली शोषण की घटनाएं इसी कड़वी हकीकत का पर्दाफाश करती है. शोषण शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार का हो सकता है. शोषण रोकने के कानून से ज्यादातर लोग वाकिफ नहीं. एक सर्वे के अनुसार भारत में 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं. ऐसे आधे से अधिक मामलों में अपराधी बच्चों के पारिवारिक सदस्य जैसे उसके मामा, काका, भाई आदि ही आरोपी पाए जाते हैं. ज्यादातर मामले या तो बदनामी के कारण दर्ज नहीं कराए जाते या चुपचाप रफा-दफा कर दिए जाते हैं. माँ तब आँसू क्यों न बहाए, जब कोई उसके जिगर के टुकड़े को कुत्तों की तरह नोंचता है. बाद में ऐसे बच्चों को हर दिन घुट-घुट कर जीना पड़ता है. ऐसे में बहुत जरूरी होता है कि बच्चों को अजनबियों के भरोसे न छोड़े. दोस्त बनकर बच्चों की समस्याओं को सुने. अधिक से अधिक समय बच्चों के साथ बिताएँ. बच्चों की गलतियों पर उसे प्यार से समझाएँ.
' भीड़ में यूं ना छोड़ों मुझे
अपने आसपास की दुनिया की दूसरी तस्वीर यह सामने आती है कि भारतीय पुलिस इटावा के थाने पर बच्ची को बेरहमी से पीटती है या सुरत (गुजरात) में 13 से 15 वर्ष की उम्र के बच्चों को बिजली के झटके देती. कुसूर सिर्फ इतना-सा कि उन बच्चों ने पैसे चुराए थे. पुलिस के विभागीय तनाव का खामियाजा बच्चे भोगते हैं. वैसे भी पुलिस अब अदालत के कानून को कुछ नहीं समझती. बच्चों को कई बार भूखा-प्यासा और निर्वस्त्र रखकर पताड़ित किया जाता है. भारत में हर 23 मिनट में अपहरण का एक मामला सामने आता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2006 में अपहरण के 21,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए तथा वर्ष 2007 में यह आँकड़े पिछले आँकड़ों को भी पार कर गए. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तो और भी चौंका देने वाली है जिसके अनुसार भारत में हर साल 45,000 बच्चों का अपहरण होता है. अपहरण के सर्वाधिक मामले दिल्ली व उससे जुड़े इलाकों में अधिक सामने आते हैं. नोएडा का अनंत गुप्ता अपहरण कांड हो या कोलकाता और आगरा के शुभम अपहरण कांड, चंडीगढ़ का अभि वर्मा हो या कोटा का वैभव, सभी मामलों में अपराधियों का निशाना बने मासूम बच्चे.
उत्तर प्रदेश का एक जिला है कौशाम्बी . यहां के तमाम बच्चों को अपराध विरासत में मिलता है. बदमाशी उनका पुश्तैनी पेशा हो जाता है. यहां के ओसा और भदंवा गांव में तो एक ही परिवार में कई-कई कातिल है. डकैतों के बेटे डकैत और चोरों के बेटे चोर हो जाते हैं. ये बदमाश पुलिस और मुकदमों के चक्कर में इस तरह फंसते चले जाते हैं कि उनके पास बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए वक्त ही नहीं बचता. ऐसे में अपराधियों के बच्चों को चिह्नित कर उन्हे तालीम मुहैया कराने की कोशिशें भी चलती रहती हैं. फीस, बस्ता, किताब, कापी और पढ़ाई का अन्य खर्च उठाया जाता है. सवाल उठता है, ऐसा और कितने जिलों में हो पाता है. सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में जहाँ इंटरनेट दुनियाभर की जानकारियाँ परोस रहा है, वही अश्लील साहित्य परोसने में भी इसका कोई सानी नहीं है. इसका भी सर्वाधिक शिकार बच्चे हो रहे हैं. अनेक परिवारों में सुबह होते ही माँ-बाप दफ्तर निकल जाते हैं. बच्चों को छोड़ जाते हैं टीवी, इंटरनेट के भरोसे. उनकी इसी लापरवाही या अनदेखी से परिपक्व होने से पहले ही बच्चे अश्लीलता की बातें करने लगते हैं. अविकसित मस्तिष्क के कारण बच्चे कच्ची मिट्टी जैसे होते हैं. जैसा गढ़ा जाएगा, वैसा ही बनेंगे. बहुत सी चीजों से वे अनभिज्ञ होते हैं. सामने उन्हें जो नहीं देखने दिया जाता, छिपकर देखना चाहते हैं. यही से शुरुआत होता है भटकाव. फिल्में और चैनल्स भी नई पीढ़ी को बर्बाद करने में पीछे कहां हैं. जिनमें जिस्मफरोशी अधिक होती है इंसानी ज्ञान की ललक जगाने की प्रवृत्ति कम. क्योंकि ऐसा करने से टीआरपी बढ़ती है, करोड़ों की कमाई होती है. टीवी चैनल्स ऐसी खबरों को चटखारे ले-लेकर दिखाते हैं, जिसमें सनसनी हो. ये जानते हुए भी कि दर्शकों में सबसे बड़ा प्रतिशत बच्चों और किशोरवय का है.
बच्चों तो नादान होते ही हैं. इतने समझदार हों तो उन्हें बच्चा कहा ही क्यों जाए? जब इस सवाल की तह में जाते हैं, बड़ों की दुनिया साफ-साफ उन अपराधी बच्चों के भविष्य के लिए जिम्मेदार नजर आती है. जैसी कि आजकल घटनाएं आम होती जा रही हैं, चोरी, मारपीट, छेड़छाड़, किडनैपिंग, साइबर क्राइम, दुराचार जैसे संगीन अपराधों में भी अगर बच्चे लिप्त पाए जाते हैं तो उन्हें ऐसा हो जाने के लिए मुख्य रूप से अभिभावकों बेखयाली सबसे बड़ी वजह लगती है. पुलिस से लेकर साइकोलॉजिस्ट तक सभी ऐसा मानते हैं. यदि बच्चा चुपचाप रहता है, अचानक बहुत तेज गुस्सा करने लगता है, उस पर पैनिक अटैक आते हैं, ज्यादातर समय घर से बाहर बिताता है या फिर ऐसा व्यवहार करता है जैसा कि आमतौर पर बच्चे नहीं करते हैं, तो भी अभिभावक जरूरी नहीं समझते कि उसकी वजह तो जान लें. नहीं जानना चाहते कि घर को खुशियों से भर देने वाला लाड़ला गुमसुम क्यों रहता है? कहाँ खो गई उसकी शरारतें, क्यों खुद में खोया-खोया तन्हा अकेला बैठा हैं? आजकल के बच्चों का ईक्यू यानी इमोशनल कोशेंट बहुत कम होता है. उनमें किसी चीज के लिए इंतजार करने का धैर्य नहीं होता. तब इच्छापूर्ति के लिए वे कुछ भी कर गुजरना चाहते हैं. घंटों इंटरनेट यूज करते हैं. बच्चों को अकेले कंप्यूटर पर काम नहीं करने देना चाहिए. ये अभिभावको की जिम्मेदारी होती है कि अपने बच्चे को बताएं कि नेट पर काम करने के कौन-कौन से खतरे हैं. और तो और, पैरेंट्स खुद जल्दी से अमीर बनने की सनक में अपने बच्चों को मेहनत और ईमानदारी का पाठ पढ़ाना भी फालतू की बात समझते हैं.
बच्चे स्वभाव से बड़े कोमल होते है. बगैर कुछ सोचे-समझे ही वे किसी अजनबी पर भरोसा कर लेते है परंतु कभी-कभी उनकी यह भूल उनके लिए जीवनभर की परेशानियों का न्यौता बन जाती है. आए दिन बच्चों के साथ होने वाली शोषण की घटनाएं इसी कड़वी हकीकत का पर्दाफाश करती है. शोषण शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार का हो सकता है. शोषण रोकने के कानून से ज्यादातर लोग वाकिफ नहीं. एक सर्वे के अनुसार भारत में 53 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं. ऐसे आधे से अधिक मामलों में अपराधी बच्चों के पारिवारिक सदस्य जैसे उसके मामा, काका, भाई आदि ही आरोपी पाए जाते हैं. ज्यादातर मामले या तो बदनामी के कारण दर्ज नहीं कराए जाते या चुपचाप रफा-दफा कर दिए जाते हैं. माँ तब आँसू क्यों न बहाए, जब कोई उसके जिगर के टुकड़े को कुत्तों की तरह नोंचता है. बाद में ऐसे बच्चों को हर दिन घुट-घुट कर जीना पड़ता है. ऐसे में बहुत जरूरी होता है कि बच्चों को अजनबियों के भरोसे न छोड़े. दोस्त बनकर बच्चों की समस्याओं को सुने. अधिक से अधिक समय बच्चों के साथ बिताएँ. बच्चों की गलतियों पर उसे प्यार से समझाएँ.
' भीड़ में यूं ना छोड़ों मुझे
घर लौट कर भी आ ना पाऊँ माँ
भेज ना इतना दूर मुझको तू
याद भी तुझको आ न पाऊँ माँ ..''
4 comments:
भीड़ में यूं ना छोड़ों मुझे
घर लौट कर भी आ ना पाऊँ माँ
भेज ना इतना दूर मुझको तू
याद भी तुझको आ न पाऊँ माँ ..''
" आप का ये लेख पढ़ कर यकीन नही हो रहा की मासूम बच्चों पर इतना अत्याचार होता है.....क्या दया नही आती उन लोगो को....मन व्यथित हो गया है.....जेलों मे जंजीरों में बच्चे....बेकसूर....हद है बेहरहमी की...आखिर मे आपके सुझाव बच्चो की सुरक्षा और ध्यान देने के विषय में अच्छे लगे.."
Regards
बच्चो के बारे में बहुत महत्वपूर्ण जानकारी जुटाई है।यह सच है बच्चों के प्रति समाज अभी जागरूक पूरी तरह नही हुआ है।अक्सर ज्यादातर बच्चे वही होते हैं जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर होते हैं।इस ओर ध्यान देनें की बहुत जरूरत है।आपकी पोस्ट अच्छी लगी।
बहुत विस्तार से मन को झकझोर देने वाले तथ्य प्रस्तुत किये हैं. सिल रो उठता है नादानों पर हो रहे इन अत्याचारों से..जिन्होंने अभी ठीक ठीक दुनिया समझी ही नहीं/देखी ही नहीं..शुरुवाती पायदान पर ही यह हश्र..ओफ्फ!!
वाकई, कितनी सार्थक पंक्तियाँ लाये हैं उनकी व्यथा को सही आवाज देने के लिए:
भीड़ में यूं ना छोड़ों मुझे
घर लौट कर भी आ ना पाऊँ माँ
भेज ना इतना दूर मुझको तू
याद भी तुझको आ न पाऊँ माँ ..
-साधुवाद!
इतना बढ़िया विषय और कितनी सुंदर पोस्ट, परन्तु टेम्पलेट और फोन्ट की साइज का चयन अखरा।
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