Monday, February 16, 2009

किस बात पर यह बहस हो रही है?


1

मैं- एक निराकार मैं थी
यह मैं का संकल्प था,
जो पानी का रुह बना और तू का संकल्प था,
जो आग की तरह नुमायां हुआ
और आग का जलवा पानी पर चलने लगा
पर वह पुरा-ऐतिहासिक समय की बात है
.....यह मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उस ने तू का दरिया पी लिया

यह मैं की मिट्टी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
यह मैं की माटी की गन्ध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला-सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया ।
यह तेरे और मेरे मांस की सुगन्ध थी
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी
संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है.


2
एक दर्द था
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं
जो सिगरेट से मैं ने राख की तरह झाड़ी.

3
मेरे सामने
ईज़ल पर एक कैनवस पड़ा है
कुछ इस तरह लगता है
कि कैनवस पर लगा रंग का टुकड़ा
एक लाल कपड़ा बन कर हिलता है
और हर इंसान के अन्दर का पशु
एक सींग उठाता है
सींग तनता है
और हर कूचा-गली-बाज़ार एक ' रिंग ' बनता है
मेरी पंजाबी रगों में एक स्पेनी परम्परा खौलती
गोया कि मिथ- बुल फाइटिंग- टिल डैथ

4
आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रुर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रुह की झलक पड़े
समझना वह मेरा घर है.

5
मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……
फिर समुन्द्र को खुदा जाने क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया
हैरान थी….पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..
लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये पर खड़ी रह गयी
कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?
मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली
सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे
और नीची छतों और संकरी गलियों के शहर में बस सकते थे….
पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने आप ही घूंट पिया
मैं अकेला किनारा किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान समुन्द्र को लौटा दिया….
अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

6
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….
आसमान की भवों पर जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….
साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे, दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….
तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान मेरे चौके से भूखा उठ गया….

8
बरसों की आरी हंस रही थी
घटनाओं के दांत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया
आंखों में ककड़ छितरा गये
और नजर जख्मी हो गयी
कुछ दिखायी नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है

9
मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

10
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से फिर साईकिलों
और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खतम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….


1 comment:

seema gupta said...

एक दर्द था
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं
जो सिगरेट से मैं ने राख की तरह झाड़ी.

" बहुत सुंदर प्रस्तुती........पढना सार्थक हो गया.."

Regards