विश्वास दिये मैंने
एहसान लिये मैंने
सब ठाट जिये मैंने
क्या-क्या न किये मैंने
कंगाल की तरह.
मेरा भी एक घर था
फिर भी मैं दर-ब-दर था
कोई न हमसफर था
तूफान-सा मंजर था
कुछ दूर पर शहर था
पंडाल की तरह.
बाजार तो मंदा है
पर आदमी अंधा है
हर जेब में चंदा है
ईमान का धंधा है
धंधा बड़ा गंदा है
दल्लाल की तरह.
उल्टी हवा बही थी
जब सुबह हो रही थी
पर रोशनी नहीं थी
सूरज ने कुछ कही थी
जो एकदम सही थी
हमने सुनी नहीं थी
बैताल की तरह.....
7 comments:
मेरा भी एक घर था
फिर भी मैं दर-ब-दर था
कोई न हमसफर था
तूफान-सा मंजर था
कुछ दूर पर शहर था....acche bhav hain....!!
विक्रम बेताल की याद दिला रहे हैं क्या बात है
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चाँद, बादल और शाम
अच्छी रचना. धन्यवाद
nice one..
सुन्दर रचना है।बधाई।
समकालीन यथार्थ का रोचक चित्रण किया है आपने।
उल्टी हवा बही थी
जब सुबह हो रही थी
पर रोशनी नहीं थी
सूरज ने कुछ कही थी
जो एकदम सही थी
हमने सुनी नहीं थी
बैताल की तरह.....
achchha laga.
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