Wednesday, February 25, 2009

जब सुबह हो रही थी


विश्वास दिये मैंने
एहसान लिये मैंने
सब ठाट जिये मैंने
क्या-क्या न किये मैंने
कंगाल की तरह.
मेरा भी एक घर था
फिर भी मैं दर-ब-दर था
कोई न हमसफर था
तूफान-सा मंजर था
कुछ दूर पर शहर था
पंडाल की तरह.
बाजार तो मंदा है
पर आदमी अंधा है
हर जेब में चंदा है
ईमान का धंधा है
धंधा बड़ा गंदा है
दल्लाल की तरह.

उल्टी हवा बही थी
जब सुबह हो रही थी
पर रोशनी नहीं थी
सूरज ने कुछ कही थी
जो एकदम सही थी
हमने सुनी नहीं थी
बैताल की तरह.....

7 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

मेरा भी एक घर था
फिर भी मैं दर-ब-दर था
कोई न हमसफर था
तूफान-सा मंजर था
कुछ दूर पर शहर था....acche bhav hain....!!

Vinay said...

विक्रम बेताल की याद दिला रहे हैं क्या बात है

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चाँद, बादल और शाम

Himanshu Pandey said...

अच्छी रचना. धन्यवाद

Meynur said...

nice one..

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर रचना है।बधाई।

Science Bloggers Association said...

समकालीन यथार्थ का रोचक चित्रण किया है आपने।

Prem Farukhabadi said...

उल्टी हवा बही थी
जब सुबह हो रही थी
पर रोशनी नहीं थी
सूरज ने कुछ कही थी
जो एकदम सही थी
हमने सुनी नहीं थी
बैताल की तरह.....
achchha laga.