देखिए कि शेखर कपूर ने ‘मासूम’, संतोष सिवन ने ‘हालो’ जैसी अच्छी, गुणवत्तापूर्ण फिल्में बनायीं. और रवि चोपड़ा की ‘भूतनाथ’ चर्चित रही. स्थितियां एकदम निराशाजनक भी नहीं. अब थोड़ा बदलाव दिख रहा है. दो करोड़ के बजाय बच्चों की फिल्म के लिए बीस करोड़ तक के बजट सुरक्षित रखे जा रहे हैं. वाल्ट डिज्नी इंडिया दर्शील सफारी को लेकर ‘जोकोमोन’ तथा कमल हासन के साथ ‘19वीं सितम्बर’ के निर्माण पर कसरत शुरू कर देते हैं. करण जौहर फिल्म कुचि कुचि होता है’ बनाने लगते हैं. गोविन्द निहलानी भी कमलू फिल्म के साथ एनिमेशन की दुनिया में उतर जाते हैं. अजय देवगन ‘टूनपुर का सुपर हीरो’ बनाते हैं. जैमिनी मोशन पिक्चर्स के बैनर तले निर्माता वसंत तलरेजा और कार्तिकेय तलरेजा ने बाल फिल्म 'जोर लगा के हैया' बनाते है. इसलिए भारतीय फिल्म उद्योग बच्चों को लेकर उत्साहित भी है लेकिन जरूरत है सरकारी प्रोत्सान की, जो आज भी कहीं से भी उम्मीद नहीं जगा पा रहा है.
इस साल सात अप्रेल से लखनऊ में सिटी मॉन्टेसरी स्कूल सात दिवसीय अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव का आयोजन कराने जा रहा है. महोत्सव में 20 से अधिक देशों की बाल फिल्मों का प्रदर्शन होगा. महोत्सव में अमरीका, इण्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, नीरदरलैंड, कनाडा, कोरिया, चीन, ईरान समेत 20 से अधिक देशों की फिल्मों की प्रविष्टियां मिल चुकी है. हाल ही में उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी और मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद की ओर से ग्वालिर समेत प्रदेश के अन्य हिस्सों में छह दिवसीय बाल फिल्म समारोह का आयोजन किया गया था. उल्लेखनीय होगा कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि बच्चों को ध्यान में रखकर फिल्में बननी चाहिए. उन्हीं से प्रेरित होकर 11 मई 1955 को चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी की स्थापना की गयी. थी, इसके पहले अध्यक्ष पंडित हृदय नाथ कुंजरू बने. सरकारी संस्था के गठन के बाद इसे जिम्मेदारी दी गई कि वह बाल फिल्म निर्माण, वितरण और प्रदर्शन की व्यवस्था करे. यह सोचा गया कि बच्चों को स्वस्थ और संपूर्ण मनोरंजन देने के साथ उनके ज्ञान और चरित्र के विकास पर भी ध्यान दिया जाए ताकि वे आधुनिक भारत के उपयोगी नागरिक बने. इस उद्देश्य ने ही सारी गडबडी पैदा कर दी. फिल्मकार बच्चों को समझाने और पढाने के उद्देश्य से फिल्में बनाने लगे और फिल्म सोसायटी के अध्यक्ष और अन्य महत्वपूर्ण सदस्य सरकारी आदेशों और उद्देश्यों को हासिल करने में ही व्यस्त हो चले. नतीजा यह हुआ कि बाल फिल्मों की स्थिति बदतर होती चली. शुरू-शुरू में तपन सिन्हा और सत्येन बोस जैसे फिल्मकारों ने कुछ मनोरंजक फिल्मों का निर्माण किया. इन फिल्मों को पुरस्कार भी मिले, बच्चों ने भी उन्हें सराहा. लेकिन अब के सरकारी हालात देखिए कि एक ओर देश भर में बाल फिल्म महोत्सवों की श्रृंखला चल रही है, दूसरी ओर देश की बाल फिल्म सोसाइटी धन की किल्लत से जूझ रही है. उसके पास निर्देशकों को पारिश्रमिक भुगतान तक के लिए पैसे का अभाव आए दिन सुर्खियों में आता रहता है. बाल फिल्म सोसाइटी की अध्यक्ष अभिनेत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता नफीसा अली भी इस बात को स्वीकारती हुए कहती कि संस्था को अब तक 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत धन का आवंटन समय से नहीं किया गया. पिछले प्रोडक्शन बजट की तुलना में इस बार तीन गुना रकम की मांग की गई, लेकिन हालात अब भी अनुकूल नहीं हैं.
दूसरी तरफ विदेशों तक भारतीय फिल्में जब धूम मचाती हैं तो वहां के लोग जानना चाहते हैं कि सरकारी एजेंसियां और देसी निर्माता-निर्देशक बाल फिल्म निर्माण को लेकर बजट का रोना क्यों रोने लगते हैं? भारत में बच्चों की फिल्में क्यों नहीं बनतीं? जिस देश में दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं, हर प्रकार की फिल्में बनती हैं, वहां दिखाने या गर्व करने लायक बच्चों की फिल्में क्यों नहीं? क्या यह शर्म की बात नहीं है? दरअसल इसका जवाब फिल्मी गीतकार प्रसून जोशी के कथन से मिल जाता है कि '' तारे ज़मीन पर' के सभी गाने बच्चों को ही नहीं, उम्रदराज दर्शकों को भी खूब पसंद आए थे. इस फिल्म के टचिंग सांग 'मां' के लिए उन्हें (प्रसून जोशी को) 'लिटिल स्टार अवॉर्ड' से नवाजा गया था. हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बच्चों के लिए बहुत सा काम हुआ है लेकिन फिर भी बहुत सारे पहलू अनछुए हैं. जब तक फिल्मों के निर्माता-निर्देशक फिल्मों से होने वाले मुनाफे के लालच को खत्म करके नए विषय नहीं उठाएंगे, तब तक ऐसा नहीं हो पाएगा. ज्यादातर लोग कॉमर्शियल फिल्में ही बनाते हैं, जो हर तबके के लिए होती हैं. इन फिल्मों में सभी तरह का मसाला होता है, लेकिन जरूरत है फिल्मों से ऐसे विषय उठाने की, जो हमारे समाज को कोई संदेश दे सके. आजकल बच्चों की रुचि भी थ्रिलर या कॉमिडी फिल्मों में होती है. इस बात से निर्माताओं का काम और आसान हो जाता है. वे बच्चों के लिए अच्छी और अलग तरह की फिल्में बना सकते हैं. बच्चों की फिल्मों का बाजार अब अंतर्राष्ट्रीय हो गया है मगर आज बच्चे 'लोटपोट', 'चाचा चौधरी' और 'चंपक' जैसी कॉमिक्स पढ़ने की बजाय हैरी पॉर्टर जैसी किताबें पढ़ना पसंद करते हैं. यही नहीं 'मकड़ी' या 'ब्लू अंब्रेला' जैसी भारतीय फिल्मों की बजाय 'जुरासिक पार्क' और 'हैरी पॉर्टर' जैसी विदेशी फिल्में उन्हें कहीं ज्यादा रोमांचित करती हैं. बदलते वक्त के साथ बच्चे भी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़े हो रहे हैं. विदेशों में फिल्मों का तकनीकी पक्ष बहुत मजबूत होता है. इसलिए बच्चे उन्हें ज्यादा पसंद करते हैं. भारत में बहुत सारी संभावनाएं हैं.''
दूसरी सच्चाई यह भी है कि टेलीविजन ने मध्यवर्गीय परिवारों में किस्सा-कहानी की परंपरा को खत्म कर दिया है. बटन दबाओ, टीवी पर स्पिल्टविला, इंडियन आइडल, बुगी वुगी जैसे घिसे-पिटे सीरियलों में डूब जाओ. फिल्म 'चेन खुली की मेन खुली' के अभिनेता राहुल बोस कहते हैं कि भारत में बाल फिल्मों का बड़ा बाजार है और एनएफडीसी जैसी सरकारी एजेंसियों को निजी निर्माताओं के साथ मिलकर ऐसी फिल्मों का निर्माण करना चाहिए जो आज के युवा पीढ़ी की रुचि के अनुसार हों. बाल फिल्मों के लिए धन का जुगाड़ करना महत्वपूर्ण मुद्दा है. एनएफडीसी अथवा बाल चलचित्र सोसाइटी जैसी सरकारी एजेंसियाँ सहनिर्माण के लिए बेहतरीन माध्यम हो सकती हैं और निजी निर्माताओं के साथ मिलकर संयुक्त रूप से निर्माण कर इस क्षेत्र में उपयोगी योगदान दिया जा सकता है. बॉलीवुड में बच्चों की बेहद कम फिल्में बनती हैं. बॉलीवुड बच्चों से जुड़े विषयों पर फिल्म बनाने में दिलचस्पी लेने लगा है. अतीत में चंद फिल्में ही बाल विषयों पर बनी हैं. बाल दर्शकों के पास आज काफी पैसा है. बच्चे मौज-मस्ती पर अधिक खर्च करने लगे हैं. ऐसे में इस विशाल वर्ग को सिनेमा की ओर आकर्षित करने के लिए उनसे जुड़े विषयों पर बड़ी संख्या में फिल्म बनाई जा सकती है. टेलीविजन फिल्मोद्योग से इस मामले में काफी आगे है. आने वाले वर्षों में देश में एनीमेशन उद्योग में बूम की स्थिति पैदा होगी. लेकिन यह अफसोस की बात भी हो सकती है कि राहुल की फिल्म 'चैन कुली की मेन कुली' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गई थी. लगभग दो दशकों तक चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी के की ओर से ऐसी दर्जनों फिल्में बनीं, जिन्हें न बच्चों ने पसंद किया, न बड़ों ने. ऐसी अधिकांश फिल्में राष्ट्रीय पर्व-त्योहारो अथवा महापुरुषों पर दिखाई जाती हैं. बच्चे उनसे ऊब चुके हैं. ऐसी फिल्मों की लागत और कमाई सीमित रहती है, इसलिए मुनाफाखोर निर्माताओं ने कभी लेखक-निर्देशकों को बाल फिल्मों के लिए प्रश्रय ही नहीं दिया. बच्चों के मनोरंजन के नाम पर कार्टून और चिल्ड्रेन शो के नामों पर करोड़ों की कमाई कर रहे चैनलों के कार्यक्रमों पर ध्यान दें, तो अधिकांश विदेशी हैं. अब भारती ट्रेड विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि बच्चों के मनोरंजन का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. भारतीय बाल संवेदना पर बाजार का ध्यान गया है. छिटपुट कोशिशें आरंभ भी हो चुकी हैं। फीचर फिल्म, एनिमेशन फिल्म और टीवी शो में बच्चों की रुचि का ध्यान रखते हुए विषय तय किए जा रहे हैं.
फ़िल्म समीक्षकों का मानना है कि भारत में आज बाल फिल्मों का स्वरूप बदल गया है. बच्चे और उनकी फिल्में सिनेमा जगत से गायब होती जा रही हैं.चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी जब बनी थी, तब उद्देश्य यह रखा गया था कि बच्चे जो देश के भविष्य होते हैं, उन्हें फिल्मों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये. इसमें उनके शैक्षिक उद्देश्य और नैतिकता को प्रमुखता दी गयी थी. लेकिन जिस उद्देश्य से चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी बनी, उस उद्देश्य से आज वह भटक गयी है. पहले यह सोसायटी नियमित रूप से एक साल में तीन-चार फिल्में बनाती थी, लेकिन आज इसमें काम कम और राजनीतिक गुटबाजी अधिक होने लगी है. ऐसा भी नहीं समझना चाहिए कि बाल फिल्में बननी बंद हो गयी हैं. वे अब सरकारी स्तर पर न बन कर व्यक्तिगत स्तर पर बन रही हैं. हाल ही में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए ब्लू अंब्रेला नामक बाल फिल्म बनायी है. लेकिन सरकारी और व्यक्तिगत फिल्म निर्माण में उद्देश्यों को लेकर अंतर आ जाता है. निश्चित रूप से व्यक्तिगत रूप से फिल्म बनेगी, तो उसका टारगेट बाजार ही होगा. बच्चों में कितना सामाजिक संदेश जाता है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि इस बाल फिल्म ने मार्केट में कितना बिजनेस किया.जहां तक हॉलीवुड और बॉलीवुड की बात करें तो बाल फिल्मों के निर्माण के कॉन्सेप्ट अलग हो जाते हैं. हॉलीवुड की फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी ही जाती है बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रख कर. वहां चिल्ड्रेन साइकोलॉजी पर काफी होमवर्क किया जाता है, तब जाकर बाल फिल्म तैयार होती है. भारत में तो ऐसी फिल्में लगभग नहीं के बराबर हैं, जो बच्चों को अपील कर सकें. बॉलीवुड की फिल्मों में मुश्किल यह है कि यहां बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क बिलकुल नहीं किया जाता है. यहां जिस फिल्म में बच्चों को कास्ट कर लिया जाता है, उसे ही बाल फिल्मों की संज्ञा दे दी जाती है.
दिक्कत ये भी है कि बच्चों को लीड रोल में तो लिया जाता है, लेकिन फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर हिट कराने के लिए उसमें इतना मसाला डाल दिया जाता है कि फिल्म की सेंट्रल थीम ही दबकर रह जाती है. पिछले कुछ साल में बॉलिवुड में बच्चों के लिए कम-से-कम एक दर्जन फिल्में बनाई गईं. आमिर खान की फिल्म 'तारे ज़मीं पर' की कहानी एक मंदबुद्धि बच्चे पर आधारित थी. इस फिल्म ने तो बॉक्स ऑफिस पर खूब मुनाफा कमाया, लेकिन 'तहान' और 'रामचंद पाकिस्तानी' जैसी फिल्मों की स्क्रिप्ट में बच्चे कहीं पीछे छूट गए. विशाल भारद्वाज की फिल्म मकड़ी (2002) को बच्चों पर बनाई यादगार हिंदी फिल्मों में शामिल किया गया. मशहूर लेखक रस्किन बॉन्ड की रचना द ब्लू अंब्रेला पर आधारित द ब्लू अंब्रेला (2007) बॉक्स ऑफिस पर तो नहीं चली पर इसे एक बेहतरीन बाल फिल्म माना गया और इसके लिए काफ़ी तारीफ़ मिली. बच्चों की पढ़ाई पर आधारित 'नन्हा जैसलमेर' की स्क्रिप्ट में कुछ नयापन तो था, लेकिन फिल्म की कहानी बॉबी देओल के इर्द-गिर्द ही घूमती रही. परसेप्ट पिक्चर्स की एनिमेशन फिल्म 'हनुमान', अनुराग कश्यप की 'बाल गणेश', 'माई फ्रेंड गणेश', 'रिटर्न ऑफ हनुमान' जैसी फिल्में भी काफी चर्चा में रहीं. अजय देवगन की 'राजू चाचा' हालांकि बच्चों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी, लेकिन फिल्म ठीकठाक चली. पहले निर्माता बच्चों के लिए अच्छी और बड़े बजट की फिल्म बनाने में खास रुचि नहीं लेते थे. उन्हें फिल्म के फ्लॉप होने का डर रहता था, लेकिन अब ट्रेंड बदल रहा है. फिर भी अपेक्षाकृत हॉलिवुड की फिल्मों में बच्चों की मानसिकता का ज्यादा ध्यान रखा जा रहा है. 'हैरी पॉटर', 'स्पाइडरमैन' और 'बैटमैन' जैसी फिल्में इस बात का उदाहरण है. बॉलिवुड में नामी डायरेक्टर और कॉरपोरेट घराने बच्चों की फिल्मों से जुड़ रहे हैं. बाल फिल्मों से होने वाले जबर्दस्त मुनाफे को इसकी एक बड़ी वजह माना जा सकता है. 'मकड़ी', 'कृष' और 'हनुमान' जैसी फिल्में जब बॉक्स ऑफिस पर शानदार कारोबार करती हैं, तो बड़े निर्माताओं को लगता है कि ऐसी फिल्में मुनाफे का सौदा हैं. पहले बाल कलाकार सारिका, सचिन, मास्टर राजू, जूनियर महमूद, मास्टर अलंकार, बेबी नाज, बेबी गुड्डू ने चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में काफी नाम कमाया. पर आगे उनकी बात बनी नहीं, लेकिन आजकल बच्चों को फिल्मों में निभाए गए चरित्रों से खूब पहचान मिल रही है. 'तारे ज़मीं पर' में स्पेशल बच्चे का रोल निभा चुके दर्शील सफारी अपनी पहली ही फिल्म से दर्शकों के दिलोदिमाग पर छा गए.
एक नया ट्रेंड यह भी सामने आ रहा है कि बच्चे अपनी फिल्म में हंसी-मजाक, एनिमेशन, ट्रिक, संगीत और बड़े सितारे, आदि भी चाहते हैं. उदाहरण के रूप में देखें तो यशराज फिल्मस ने हॉलीवुड की कंपनी डिज्नी से हाथ मिला और करोड़ों रूपये खर्च कर ‘रोडसाइड रोमियो’ का निर्माण किया पर इस फिल्म को शुरूआती दिनों में ही दर्शकों ने नकार दिया. बच्चों ने भी ‘रोडसाइड रोमियो’ को ठुकरा दिया? भारत में बनीं ‘रिटर्न ऑफ हनुमान’, ‘कृष्णा’, ‘वीर घटोत्कच’ आदि एनिमेशन मूवीज पौराणिक चरित्रों पर आधारित होने के बावजूद हॉलीवुड की फिल्मों का मुकाबला नहीं कर पा रही हैं. इन एनिमेशन फिल्मों को हमारे निर्माता लाख एनिमेशन फिल्मे कहें पर समीक्षक इन्हें कार्टून फिल्मों से अलग मान्यता नहीं दे रहे हैं. एक वेबसाइट ने तो धार्मिक चरित्रों वाली इन एनिमेटेड फिल्मों को 3डी कार्टून की संज्ञा दी है. कहा जाता है कि हॉलीवुड में पौराणिक कथानकों का टोटा है. बात गलत है, हॉलीवुड के पास भी बाइबिल और ईसप के कथानक हैं और इसके कथानकों पर यह लोग ‘प्रिंस ऑफ इजिप्ट’ जैसी फिल्में भी बना चुके हैं. हॉलीवुड को ‘कार्स’ और ‘रोबोट’ जैसे निर्जीव मशीनों पर फिल्में बनाने पर व्यंग्य करने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि वाल्ट डिज्नी पिक्चर्स ने उस समय भी ‘लिटिल मर्मेड’, ‘जंगल बुक’, ‘हंचबैक ऑफ नात्रेदम’, आदि एनिमेशन फिल्में बनायी, जब एनिमेशन तकनीक में कंप्यूटर ग्राफिक्स की शुरूआत नहीं हुई थी. ‘कार्स’ बनाने वाली कंपनी पिक्सर फाइंडिंग ‘नीमा, ‘शार्क टेल’, ‘द इनक्रेडिबल्स, आदि गैर पौराणिक चरित्रों वाली एनिमेशन फिल्में बना चुकी है.बच्चों के लिए अच्छी फिल्में न बनने देने के लिए बच्चों के अभिभावक भी जिम्मेदार हैं. हॉलीवुड फिल्में हिन्दुस्तान में कितने बाल दर्शक देख पाते हैं? जहां तक भारतीय फिल्मकारों का सवाल है, साफ बात है कि उनके लिए फिल्में बनाना मुनाफा कमाने का धंधा है. वह वहीं फिल्में बनाते हैं, जिनमें उन्हें फायदा होता है. उनकी फिल्मों को बॉक्स आफिस पर चलाने वाले दर्शकों में बाल दर्शकों की संख्या नाम मात्र की है इसलिए फिल्मकार वैसी ही फिल्में बनाते हैं, जो सभी वर्गों के दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाये. इसीलिए भारतीय फिल्मकार बच्चों की फिल्मों को खास तरजीह नहीं दे रहे हैं. देखिए कि शेखर कपूर ने ‘मासूम’, संतोष सिवन ने ‘हालो’ जैसी अच्छी, गुणवत्तापूर्ण फिल्में बनायीं. इन्हें दर्शक भी मिले. फिल्मकारों की सोच का उलझाव भी इसका जिम्मेदार है. रवि चोपड़ा की फिल्म ‘भूतनाथ’ इसका प्रमाण है कि इनके फिल्मकार यह तय नहीं कर पाये कि वह बच्चों के लिए फिल्में बनायें या बड़ों के लिए. कथानक को चुनने में भी इन फिल्मकारों ने समझदारी से काम नहीं लिया था. दूसरी ओर स्थितियां एकदम निराशाजनक भी नहीं. अब थोड़ा बदलाव दिख रहा है. दो करोड़ के बजाय बच्चों की फिल्म के लिए बीस करोड़ तक के बजट सुरक्षित रखे जा रहे हैं. रजनीकांत की पुत्री अपने पिता पर एनिमेशन फिल्म ‘सुल्तान–द वॉरियर’ का निर्माण करती हैं. वाल्ट डिज्नी इंडिया दर्शील सफारी को लेकर ‘जोकोमोन’ तथा कमल हासन के साथ ‘19वीं सितम्बर’ का निर्माण करते हैं. वार्नर ब्रदर्स ज्योतिन गोयल के निर्देशन में एनिमेशन फिल्म का निर्माण करते हैं. करण जौहर फिल्म कुचि कुचि होता है’ बनाने लगते हैं. यूटीवी मोशन पिक्चर्स तिब्बती परी कथाओं पर एनिमेशन फिल्म ‘द ड्रीम ब्लैंकेट’ का निर्माण करती हैं. गोविन्द निहलानी भी कमलू फिल्म के साथ एनिमेशन की दुनिया में उतर जाते हैं. रामायण के कथानक पर आधारित एनिमेशन फिल्म ‘सीक्रेट्स ऑफ साउंड्स’ का निर्माण किया जाता है. अजय देवगन ‘टूनपुर का सुपर हीरो’ बनाते हैं. जैमिनी मोशन पिक्चर्स के बैनर तले निर्माता वसंत तलरेजा और कार्तिकेय तलरेजा ने बाल फिल्म 'जोर लगा के हैया' बनाई है. वे कहते है कि हम बच्चों की अभिरुचि वाली फिल्म साल में एक बार जरुर बनाया करेंगे. इसलिए भारतीय फिल्म उद्योग बच्चों को लेकर उत्साहित भी है लेकिन जरूरत है सरकारी प्रोत्सान की, जो आज भी कहीं से भी उम्मीद नहीं जगा पा रहा है.
इस साल सात अप्रेल से लखनऊ में सिटी मॉन्टेसरी स्कूल सात दिवसीय अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव का आयोजन कराने जा रहा है. महोत्सव में 20 से अधिक देशों की बाल फिल्मों का प्रदर्शन होगा. महोत्सव में अमरीका, इण्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, नीरदरलैंड, कनाडा, कोरिया, चीन, ईरान समेत 20 से अधिक देशों की फिल्मों की प्रविष्टियां मिल चुकी है. हाल ही में उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी और मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद की ओर से ग्वालिर समेत प्रदेश के अन्य हिस्सों में छह दिवसीय बाल फिल्म समारोह का आयोजन किया गया था. उल्लेखनीय होगा कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि बच्चों को ध्यान में रखकर फिल्में बननी चाहिए. उन्हीं से प्रेरित होकर 11 मई 1955 को चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी की स्थापना की गयी. थी, इसके पहले अध्यक्ष पंडित हृदय नाथ कुंजरू बने. सरकारी संस्था के गठन के बाद इसे जिम्मेदारी दी गई कि वह बाल फिल्म निर्माण, वितरण और प्रदर्शन की व्यवस्था करे. यह सोचा गया कि बच्चों को स्वस्थ और संपूर्ण मनोरंजन देने के साथ उनके ज्ञान और चरित्र के विकास पर भी ध्यान दिया जाए ताकि वे आधुनिक भारत के उपयोगी नागरिक बने. इस उद्देश्य ने ही सारी गडबडी पैदा कर दी. फिल्मकार बच्चों को समझाने और पढाने के उद्देश्य से फिल्में बनाने लगे और फिल्म सोसायटी के अध्यक्ष और अन्य महत्वपूर्ण सदस्य सरकारी आदेशों और उद्देश्यों को हासिल करने में ही व्यस्त हो चले. नतीजा यह हुआ कि बाल फिल्मों की स्थिति बदतर होती चली. शुरू-शुरू में तपन सिन्हा और सत्येन बोस जैसे फिल्मकारों ने कुछ मनोरंजक फिल्मों का निर्माण किया. इन फिल्मों को पुरस्कार भी मिले, बच्चों ने भी उन्हें सराहा. लेकिन अब के सरकारी हालात देखिए कि एक ओर देश भर में बाल फिल्म महोत्सवों की श्रृंखला चल रही है, दूसरी ओर देश की बाल फिल्म सोसाइटी धन की किल्लत से जूझ रही है. उसके पास निर्देशकों को पारिश्रमिक भुगतान तक के लिए पैसे का अभाव आए दिन सुर्खियों में आता रहता है. बाल फिल्म सोसाइटी की अध्यक्ष अभिनेत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता नफीसा अली भी इस बात को स्वीकारती हुए कहती कि संस्था को अब तक 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत धन का आवंटन समय से नहीं किया गया. पिछले प्रोडक्शन बजट की तुलना में इस बार तीन गुना रकम की मांग की गई, लेकिन हालात अब भी अनुकूल नहीं हैं.
दूसरी तरफ विदेशों तक भारतीय फिल्में जब धूम मचाती हैं तो वहां के लोग जानना चाहते हैं कि सरकारी एजेंसियां और देसी निर्माता-निर्देशक बाल फिल्म निर्माण को लेकर बजट का रोना क्यों रोने लगते हैं? भारत में बच्चों की फिल्में क्यों नहीं बनतीं? जिस देश में दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं, हर प्रकार की फिल्में बनती हैं, वहां दिखाने या गर्व करने लायक बच्चों की फिल्में क्यों नहीं? क्या यह शर्म की बात नहीं है? दरअसल इसका जवाब फिल्मी गीतकार प्रसून जोशी के कथन से मिल जाता है कि '' तारे ज़मीन पर' के सभी गाने बच्चों को ही नहीं, उम्रदराज दर्शकों को भी खूब पसंद आए थे. इस फिल्म के टचिंग सांग 'मां' के लिए उन्हें (प्रसून जोशी को) 'लिटिल स्टार अवॉर्ड' से नवाजा गया था. हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बच्चों के लिए बहुत सा काम हुआ है लेकिन फिर भी बहुत सारे पहलू अनछुए हैं. जब तक फिल्मों के निर्माता-निर्देशक फिल्मों से होने वाले मुनाफे के लालच को खत्म करके नए विषय नहीं उठाएंगे, तब तक ऐसा नहीं हो पाएगा. ज्यादातर लोग कॉमर्शियल फिल्में ही बनाते हैं, जो हर तबके के लिए होती हैं. इन फिल्मों में सभी तरह का मसाला होता है, लेकिन जरूरत है फिल्मों से ऐसे विषय उठाने की, जो हमारे समाज को कोई संदेश दे सके. आजकल बच्चों की रुचि भी थ्रिलर या कॉमिडी फिल्मों में होती है. इस बात से निर्माताओं का काम और आसान हो जाता है. वे बच्चों के लिए अच्छी और अलग तरह की फिल्में बना सकते हैं. बच्चों की फिल्मों का बाजार अब अंतर्राष्ट्रीय हो गया है मगर आज बच्चे 'लोटपोट', 'चाचा चौधरी' और 'चंपक' जैसी कॉमिक्स पढ़ने की बजाय हैरी पॉर्टर जैसी किताबें पढ़ना पसंद करते हैं. यही नहीं 'मकड़ी' या 'ब्लू अंब्रेला' जैसी भारतीय फिल्मों की बजाय 'जुरासिक पार्क' और 'हैरी पॉर्टर' जैसी विदेशी फिल्में उन्हें कहीं ज्यादा रोमांचित करती हैं. बदलते वक्त के साथ बच्चे भी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़े हो रहे हैं. विदेशों में फिल्मों का तकनीकी पक्ष बहुत मजबूत होता है. इसलिए बच्चे उन्हें ज्यादा पसंद करते हैं. भारत में बहुत सारी संभावनाएं हैं.''
दूसरी सच्चाई यह भी है कि टेलीविजन ने मध्यवर्गीय परिवारों में किस्सा-कहानी की परंपरा को खत्म कर दिया है. बटन दबाओ, टीवी पर स्पिल्टविला, इंडियन आइडल, बुगी वुगी जैसे घिसे-पिटे सीरियलों में डूब जाओ. फिल्म 'चेन खुली की मेन खुली' के अभिनेता राहुल बोस कहते हैं कि भारत में बाल फिल्मों का बड़ा बाजार है और एनएफडीसी जैसी सरकारी एजेंसियों को निजी निर्माताओं के साथ मिलकर ऐसी फिल्मों का निर्माण करना चाहिए जो आज के युवा पीढ़ी की रुचि के अनुसार हों. बाल फिल्मों के लिए धन का जुगाड़ करना महत्वपूर्ण मुद्दा है. एनएफडीसी अथवा बाल चलचित्र सोसाइटी जैसी सरकारी एजेंसियाँ सहनिर्माण के लिए बेहतरीन माध्यम हो सकती हैं और निजी निर्माताओं के साथ मिलकर संयुक्त रूप से निर्माण कर इस क्षेत्र में उपयोगी योगदान दिया जा सकता है. बॉलीवुड में बच्चों की बेहद कम फिल्में बनती हैं. बॉलीवुड बच्चों से जुड़े विषयों पर फिल्म बनाने में दिलचस्पी लेने लगा है. अतीत में चंद फिल्में ही बाल विषयों पर बनी हैं. बाल दर्शकों के पास आज काफी पैसा है. बच्चे मौज-मस्ती पर अधिक खर्च करने लगे हैं. ऐसे में इस विशाल वर्ग को सिनेमा की ओर आकर्षित करने के लिए उनसे जुड़े विषयों पर बड़ी संख्या में फिल्म बनाई जा सकती है. टेलीविजन फिल्मोद्योग से इस मामले में काफी आगे है. आने वाले वर्षों में देश में एनीमेशन उद्योग में बूम की स्थिति पैदा होगी. लेकिन यह अफसोस की बात भी हो सकती है कि राहुल की फिल्म 'चैन कुली की मेन कुली' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गई थी. लगभग दो दशकों तक चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी के की ओर से ऐसी दर्जनों फिल्में बनीं, जिन्हें न बच्चों ने पसंद किया, न बड़ों ने. ऐसी अधिकांश फिल्में राष्ट्रीय पर्व-त्योहारो अथवा महापुरुषों पर दिखाई जाती हैं. बच्चे उनसे ऊब चुके हैं. ऐसी फिल्मों की लागत और कमाई सीमित रहती है, इसलिए मुनाफाखोर निर्माताओं ने कभी लेखक-निर्देशकों को बाल फिल्मों के लिए प्रश्रय ही नहीं दिया. बच्चों के मनोरंजन के नाम पर कार्टून और चिल्ड्रेन शो के नामों पर करोड़ों की कमाई कर रहे चैनलों के कार्यक्रमों पर ध्यान दें, तो अधिकांश विदेशी हैं. अब भारती ट्रेड विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि बच्चों के मनोरंजन का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. भारतीय बाल संवेदना पर बाजार का ध्यान गया है. छिटपुट कोशिशें आरंभ भी हो चुकी हैं। फीचर फिल्म, एनिमेशन फिल्म और टीवी शो में बच्चों की रुचि का ध्यान रखते हुए विषय तय किए जा रहे हैं.
फ़िल्म समीक्षकों का मानना है कि भारत में आज बाल फिल्मों का स्वरूप बदल गया है. बच्चे और उनकी फिल्में सिनेमा जगत से गायब होती जा रही हैं.चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी जब बनी थी, तब उद्देश्य यह रखा गया था कि बच्चे जो देश के भविष्य होते हैं, उन्हें फिल्मों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये. इसमें उनके शैक्षिक उद्देश्य और नैतिकता को प्रमुखता दी गयी थी. लेकिन जिस उद्देश्य से चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी बनी, उस उद्देश्य से आज वह भटक गयी है. पहले यह सोसायटी नियमित रूप से एक साल में तीन-चार फिल्में बनाती थी, लेकिन आज इसमें काम कम और राजनीतिक गुटबाजी अधिक होने लगी है. ऐसा भी नहीं समझना चाहिए कि बाल फिल्में बननी बंद हो गयी हैं. वे अब सरकारी स्तर पर न बन कर व्यक्तिगत स्तर पर बन रही हैं. हाल ही में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए ब्लू अंब्रेला नामक बाल फिल्म बनायी है. लेकिन सरकारी और व्यक्तिगत फिल्म निर्माण में उद्देश्यों को लेकर अंतर आ जाता है. निश्चित रूप से व्यक्तिगत रूप से फिल्म बनेगी, तो उसका टारगेट बाजार ही होगा. बच्चों में कितना सामाजिक संदेश जाता है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि इस बाल फिल्म ने मार्केट में कितना बिजनेस किया.जहां तक हॉलीवुड और बॉलीवुड की बात करें तो बाल फिल्मों के निर्माण के कॉन्सेप्ट अलग हो जाते हैं. हॉलीवुड की फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी ही जाती है बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रख कर. वहां चिल्ड्रेन साइकोलॉजी पर काफी होमवर्क किया जाता है, तब जाकर बाल फिल्म तैयार होती है. भारत में तो ऐसी फिल्में लगभग नहीं के बराबर हैं, जो बच्चों को अपील कर सकें. बॉलीवुड की फिल्मों में मुश्किल यह है कि यहां बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क बिलकुल नहीं किया जाता है. यहां जिस फिल्म में बच्चों को कास्ट कर लिया जाता है, उसे ही बाल फिल्मों की संज्ञा दे दी जाती है.
दिक्कत ये भी है कि बच्चों को लीड रोल में तो लिया जाता है, लेकिन फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर हिट कराने के लिए उसमें इतना मसाला डाल दिया जाता है कि फिल्म की सेंट्रल थीम ही दबकर रह जाती है. पिछले कुछ साल में बॉलिवुड में बच्चों के लिए कम-से-कम एक दर्जन फिल्में बनाई गईं. आमिर खान की फिल्म 'तारे ज़मीं पर' की कहानी एक मंदबुद्धि बच्चे पर आधारित थी. इस फिल्म ने तो बॉक्स ऑफिस पर खूब मुनाफा कमाया, लेकिन 'तहान' और 'रामचंद पाकिस्तानी' जैसी फिल्मों की स्क्रिप्ट में बच्चे कहीं पीछे छूट गए. विशाल भारद्वाज की फिल्म मकड़ी (2002) को बच्चों पर बनाई यादगार हिंदी फिल्मों में शामिल किया गया. मशहूर लेखक रस्किन बॉन्ड की रचना द ब्लू अंब्रेला पर आधारित द ब्लू अंब्रेला (2007) बॉक्स ऑफिस पर तो नहीं चली पर इसे एक बेहतरीन बाल फिल्म माना गया और इसके लिए काफ़ी तारीफ़ मिली. बच्चों की पढ़ाई पर आधारित 'नन्हा जैसलमेर' की स्क्रिप्ट में कुछ नयापन तो था, लेकिन फिल्म की कहानी बॉबी देओल के इर्द-गिर्द ही घूमती रही. परसेप्ट पिक्चर्स की एनिमेशन फिल्म 'हनुमान', अनुराग कश्यप की 'बाल गणेश', 'माई फ्रेंड गणेश', 'रिटर्न ऑफ हनुमान' जैसी फिल्में भी काफी चर्चा में रहीं. अजय देवगन की 'राजू चाचा' हालांकि बच्चों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी, लेकिन फिल्म ठीकठाक चली. पहले निर्माता बच्चों के लिए अच्छी और बड़े बजट की फिल्म बनाने में खास रुचि नहीं लेते थे. उन्हें फिल्म के फ्लॉप होने का डर रहता था, लेकिन अब ट्रेंड बदल रहा है. फिर भी अपेक्षाकृत हॉलिवुड की फिल्मों में बच्चों की मानसिकता का ज्यादा ध्यान रखा जा रहा है. 'हैरी पॉटर', 'स्पाइडरमैन' और 'बैटमैन' जैसी फिल्में इस बात का उदाहरण है. बॉलिवुड में नामी डायरेक्टर और कॉरपोरेट घराने बच्चों की फिल्मों से जुड़ रहे हैं. बाल फिल्मों से होने वाले जबर्दस्त मुनाफे को इसकी एक बड़ी वजह माना जा सकता है. 'मकड़ी', 'कृष' और 'हनुमान' जैसी फिल्में जब बॉक्स ऑफिस पर शानदार कारोबार करती हैं, तो बड़े निर्माताओं को लगता है कि ऐसी फिल्में मुनाफे का सौदा हैं. पहले बाल कलाकार सारिका, सचिन, मास्टर राजू, जूनियर महमूद, मास्टर अलंकार, बेबी नाज, बेबी गुड्डू ने चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में काफी नाम कमाया. पर आगे उनकी बात बनी नहीं, लेकिन आजकल बच्चों को फिल्मों में निभाए गए चरित्रों से खूब पहचान मिल रही है. 'तारे ज़मीं पर' में स्पेशल बच्चे का रोल निभा चुके दर्शील सफारी अपनी पहली ही फिल्म से दर्शकों के दिलोदिमाग पर छा गए.
एक नया ट्रेंड यह भी सामने आ रहा है कि बच्चे अपनी फिल्म में हंसी-मजाक, एनिमेशन, ट्रिक, संगीत और बड़े सितारे, आदि भी चाहते हैं. उदाहरण के रूप में देखें तो यशराज फिल्मस ने हॉलीवुड की कंपनी डिज्नी से हाथ मिला और करोड़ों रूपये खर्च कर ‘रोडसाइड रोमियो’ का निर्माण किया पर इस फिल्म को शुरूआती दिनों में ही दर्शकों ने नकार दिया. बच्चों ने भी ‘रोडसाइड रोमियो’ को ठुकरा दिया? भारत में बनीं ‘रिटर्न ऑफ हनुमान’, ‘कृष्णा’, ‘वीर घटोत्कच’ आदि एनिमेशन मूवीज पौराणिक चरित्रों पर आधारित होने के बावजूद हॉलीवुड की फिल्मों का मुकाबला नहीं कर पा रही हैं. इन एनिमेशन फिल्मों को हमारे निर्माता लाख एनिमेशन फिल्मे कहें पर समीक्षक इन्हें कार्टून फिल्मों से अलग मान्यता नहीं दे रहे हैं. एक वेबसाइट ने तो धार्मिक चरित्रों वाली इन एनिमेटेड फिल्मों को 3डी कार्टून की संज्ञा दी है. कहा जाता है कि हॉलीवुड में पौराणिक कथानकों का टोटा है. बात गलत है, हॉलीवुड के पास भी बाइबिल और ईसप के कथानक हैं और इसके कथानकों पर यह लोग ‘प्रिंस ऑफ इजिप्ट’ जैसी फिल्में भी बना चुके हैं. हॉलीवुड को ‘कार्स’ और ‘रोबोट’ जैसे निर्जीव मशीनों पर फिल्में बनाने पर व्यंग्य करने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि वाल्ट डिज्नी पिक्चर्स ने उस समय भी ‘लिटिल मर्मेड’, ‘जंगल बुक’, ‘हंचबैक ऑफ नात्रेदम’, आदि एनिमेशन फिल्में बनायी, जब एनिमेशन तकनीक में कंप्यूटर ग्राफिक्स की शुरूआत नहीं हुई थी. ‘कार्स’ बनाने वाली कंपनी पिक्सर फाइंडिंग ‘नीमा, ‘शार्क टेल’, ‘द इनक्रेडिबल्स, आदि गैर पौराणिक चरित्रों वाली एनिमेशन फिल्में बना चुकी है.बच्चों के लिए अच्छी फिल्में न बनने देने के लिए बच्चों के अभिभावक भी जिम्मेदार हैं. हॉलीवुड फिल्में हिन्दुस्तान में कितने बाल दर्शक देख पाते हैं? जहां तक भारतीय फिल्मकारों का सवाल है, साफ बात है कि उनके लिए फिल्में बनाना मुनाफा कमाने का धंधा है. वह वहीं फिल्में बनाते हैं, जिनमें उन्हें फायदा होता है. उनकी फिल्मों को बॉक्स आफिस पर चलाने वाले दर्शकों में बाल दर्शकों की संख्या नाम मात्र की है इसलिए फिल्मकार वैसी ही फिल्में बनाते हैं, जो सभी वर्गों के दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाये. इसीलिए भारतीय फिल्मकार बच्चों की फिल्मों को खास तरजीह नहीं दे रहे हैं. देखिए कि शेखर कपूर ने ‘मासूम’, संतोष सिवन ने ‘हालो’ जैसी अच्छी, गुणवत्तापूर्ण फिल्में बनायीं. इन्हें दर्शक भी मिले. फिल्मकारों की सोच का उलझाव भी इसका जिम्मेदार है. रवि चोपड़ा की फिल्म ‘भूतनाथ’ इसका प्रमाण है कि इनके फिल्मकार यह तय नहीं कर पाये कि वह बच्चों के लिए फिल्में बनायें या बड़ों के लिए. कथानक को चुनने में भी इन फिल्मकारों ने समझदारी से काम नहीं लिया था. दूसरी ओर स्थितियां एकदम निराशाजनक भी नहीं. अब थोड़ा बदलाव दिख रहा है. दो करोड़ के बजाय बच्चों की फिल्म के लिए बीस करोड़ तक के बजट सुरक्षित रखे जा रहे हैं. रजनीकांत की पुत्री अपने पिता पर एनिमेशन फिल्म ‘सुल्तान–द वॉरियर’ का निर्माण करती हैं. वाल्ट डिज्नी इंडिया दर्शील सफारी को लेकर ‘जोकोमोन’ तथा कमल हासन के साथ ‘19वीं सितम्बर’ का निर्माण करते हैं. वार्नर ब्रदर्स ज्योतिन गोयल के निर्देशन में एनिमेशन फिल्म का निर्माण करते हैं. करण जौहर फिल्म कुचि कुचि होता है’ बनाने लगते हैं. यूटीवी मोशन पिक्चर्स तिब्बती परी कथाओं पर एनिमेशन फिल्म ‘द ड्रीम ब्लैंकेट’ का निर्माण करती हैं. गोविन्द निहलानी भी कमलू फिल्म के साथ एनिमेशन की दुनिया में उतर जाते हैं. रामायण के कथानक पर आधारित एनिमेशन फिल्म ‘सीक्रेट्स ऑफ साउंड्स’ का निर्माण किया जाता है. अजय देवगन ‘टूनपुर का सुपर हीरो’ बनाते हैं. जैमिनी मोशन पिक्चर्स के बैनर तले निर्माता वसंत तलरेजा और कार्तिकेय तलरेजा ने बाल फिल्म 'जोर लगा के हैया' बनाई है. वे कहते है कि हम बच्चों की अभिरुचि वाली फिल्म साल में एक बार जरुर बनाया करेंगे. इसलिए भारतीय फिल्म उद्योग बच्चों को लेकर उत्साहित भी है लेकिन जरूरत है सरकारी प्रोत्सान की, जो आज भी कहीं से भी उम्मीद नहीं जगा पा रहा है.
-हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बच्चों के लिए बहुत सा काम हुआ है लेकिन फिर भी बहुत सारे पहलू अनछुए हैं. बच्चों की फिल्मों का बाजार अब अंतर्राष्ट्रीय हो गया है. गीतकार प्रसून जोशी
-यदि हम मुख्य धारा की फिल्म बनाने मे बीस करोड़ खर्च करते हैं तो जरूरी है कि दो करोड़ रूपये बच्चों के लिए फिल्म बनाने में खर्च किये जाएं. भारतीय बाल चित्र समिति अध्यक्ष नफीसा अली
-फिल्मकार बच्चों के लिए फिल्मों पर अधिक पैसे खर्च करना नहीं चाहते. वे जो फिल्में बनाते भी हैं, उनमें क्वलिटी नहीं होती. भारतीय बाल चित्र समिति पूर्व अध्यक्ष सईं परांजपे
-बाल फिल्मों के लिए धन का जुगाड़ महत्वपूर्ण मुद्दा है, एनएफडीसी, बाल चलचित्र सोसाइटी सहनिर्माण के लिए बेहतरीन माध्यम हो सकती हैं. अभिनेता राहुल बोस
-आने वाला समय बच्चों की फिल्मों का है. वह दिन दूर नहीं, जब बच्चे फिल्मों के लीड रोल में होंगे. यहां तक कि स्मॉल स्क्रीन पर भी बच्चों का जलवा छाने लगा है. डायरेक्टर विशाल भारद्वाज
1 comment:
बहुत अच्छा विश्लेषण1 इस मुहफटई के लिए धन्यवाद
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