बहुत पहले कभी पढ़ी थी एक कहानी...दिल्ली में एक मौत!
कि महानगरों मौत भी किसी जलसे का सबब होती है। जलसा हमारी मर चुकी संवेदनाओं का।
कि सुबह-सुबह किस तरह बड़े आराम से हम चाय की चुस्कियां लेते हुए अपने घर के टीवी सेट पर देखते हैं कि अफगानिस्तान और इराक पर बम बरसाये जा रहे हैं। कोसी नदी के उफान में सब कुछ डूब जाता है और हम टीवी के बाद अखबार के पन्ने सहलाते हुए घरेलू गप्पबाजी में मशगूल हो जाते हैं।
कुछ इसी तरह का वाकया 30 सितंबर की दोपहर आगरा के प्रेस क्लब में नजर आया। मौका था एक पत्रकार के कत्ल के बाद फर्जी गप्पबाजी का। इस गमगीन मौके को फर्जी बनाने वाले वे लोग थे, जिन्हें ताजनगरी के अफसर और नेता, बनिया और उद्योगपति महान पत्रकार समझते हैं।
जब यह मौत का जलसा चल रहा था, उसी बीच एक पत्रकार ने सवाल उठाया कि इस शहर में किसी पत्रकार का पहली बार कत्ल हुआ है। उसके कातिलों के खिलाफ हम क्या करने जा रहे हैं, उसके आश्रितों के लिए हम क्या करने जा रहे हैं और आगे भी ऐसा न हो, उसके लिए हम क्या कुछ सोच रहे हैं?
ये सवाल उठ ही रहे थे कि एक युवा और ईमानदार पत्रकार साथी ने कहा कि कत्ल के बाद आईजी के दफ्तर ये लोग ही हंस-हंस कर केले और मिठाइयां खा रहे थे। इनसे इन सवालों का जवाब क्यों मांगा जाए।
इसके बाद माहौल में सर्गर्मी फैली और कथित महान पत्रकारों के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। तभी एक लोकल चैनल के फ्लैश चमके, चेहरों पर फिर वही आईजी के दफ्तर वाली मुस्कान और महानता की अदाएं, लफ्फाजी। उन्हीं में कुछ कथित महान पत्रकारों ने लगे हाथ चैनल के लिए लंबे-लंबे भाषण पेल डाले। और बात आई-गई-हो गई। वही बात कि...दिल्ली में एक मौत!
और कुछ कहने की बजाय मैं अपनी बात पाश की एक कविता से खत्म करता हूं....
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दीरी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में पकड़े जाना बुरा तो हो
पर सबसे खतरनाक नहीं होता।
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता।
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।
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