Monday, September 1, 2008

इलाहाबाद के कवि कैलाश गौतम की कविताएं


सिर पर आग

सिर पर आग

पीठ पर पर्वत

पाँव में जूते काठ के

क्या कहने इस ठाठ के।।


यह तस्वीर

नयी है भाई

आज़ादी के बाद की

जितनी कीमत

खेत की कल थी

उतनी कीमत

खाद की

सब

धोबी के कुत्ते निकले

घर के हुए न घाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


बिना रीढ़ के

लोग हैं शामिल

झूठी जै-जैकार में

गूँगों की

फरियाद खड़ी है

बहरों के दरबार में

खड़े-खड़े

हम रात काटते

खटमल

मालिक खाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


मुखिया

महतो और चौधरी

सब मौसमी दलाल हैं

आज

गाँव के यही महाजन

यही आज खुशहाल हैं

रोज़

भात का रोना रोते

टुकड़े साले टाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


आम की टहनी

देख करके बौर वाली

आम की टहनी

तन गये घुटने कि जैसे

खुल गयी कुहनी।


धूप बतियाती हवा से

रंग बतियाते

फूल-पत्तों के ठहाके

दूर तक जाते

छू गयी चुटकी

हँसी की हो गई बोहनी।


पीठ पर बस्ता लिये

विद्या कसम खाते

जा रहे स्कूल बच्चे

शब्द खनकाते

इस तरह

सब रम गये हैं सुध नहीं अपनी।


राग में डूबीं दिशायें

रंग में डूबीं

हाथ आयी ज़िन्दगी के

संग में डूबीं

कल

उतरने जा रही है खेत में कटनी।


दस की भरी तिजोरी



सौ में दस की भरी तिजोरी नब्बे खाली पेट

झुग्गीवाला देख रहा है साठ लाख का गेट।


बहुत बुरा है आज देश में

प्रजातंत्र का हाल

कुत्ते खींच रहे हैं देखो

कामधेनु की खाल

हत्या-रेप-डकैती-दंगा

हर धंधे का रेट।


बिकती है नौकरी यहां पर

बिकता है सम्मान

आंख मूंद कर उसी घाट पर

भाग रहे यजमान

जाली वीजा पासपोर्ट है

जाली सर्टिफिकेट।


लोग देश में खेल रहे हैं

कैसे कैसे खेल

एक हाथ में खुला लाइटर

एक हाथ में तेल

चाहें तो मिनटों में कर दें

सब कुछ मटियामेट।


अंधी है सरकार - व्यवस्था

अंधा है कानून

कुर्सीवाला देश बेचता

रिक्शेवाला खून

जिसकी उंगली है रिमोट पर

वो है सबसे ग्रेट।

नौरंगिया

देवी देवता नहीं मानती, छक्का पंजा नहीं जानती

ताकतवर से लोहा लेती, अपने बूते करती खेती,

मरद निखट्टू जनखा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला,

उसको भी वह शान से जीती, संग-संग खाती संग-संग पीती

गांव गली की चर्चा में वह सुर्खी सी अखबार की है

नौरंगिया गंगा पार की है।


कसी देह औ भरी जवानी शीशे के सांचे में पानी

सिहरन पहने हुए अमोले काला भंवरा मुंह पर डोले

सौ-सौ पानी रंग धुले हैं कहने को कुछ होठ खुले हैं

अद्भुत है ईश्वर की रचना सबसे बड़ी चुनौती बचना

जैसी नीयत लेखपाल की वैसी ठेकेदार की है।

नौरंगिया गंगा पार की है।


जब देखो तब जांगर पीटे, हार न माने काम घसीटे

जब तक जागे, तब तक भागे, काम के पीछे, काम के आगे

बिच्छू गोंजर सांप मारती सुनती रहती विविध भारती

बिल्कुल है लाठी सी सीधी भोला चेहरा बोली मीठी

आंखों में जीवन के सपने तैय्यारी त्यौहार की है।

नौरंगिया गंगा पार की है।


ढहती भीत पुरानी छाजन पकी फसल तो खड़े महाजन

गिरवी गहना छुड़ा न पाती मन मसोस फिर फिर रह जाती

कब तक आखिर कितना जूझे कौन बताये किससे पूछे

जाने क्या-क्या टूटा-फूटा लेकिन हंसना कभी न छूटा।

पैरों में मंगनी की चप्पल साड़ी नई उधार की है।

नौरंगिया गंगा पार की है।


कैसे-कैसे लोग

यह कैसी अनहोनी मालिक यह कैसा संयोग

कैसी-कैसी कुर्सी पर हैं कैसे-कैसे लोग।।


जिनको आगे होना था

वे पीछे छूट गए

जितने पानीदार थे शीशे

तड़ से टूट गए

प्रेमचंद से मुक्तिबोध से कहो निराला से

कलम बेचने वाले अब हैं करते छप्पन भोग।।


हँस-हँस कालिख बोने वाले

चाँदी काट रहे

हल की मूँठ पकड़ने वाले

जूठन चाट रहे

जाने वाले जाते-जाते सब कुछ झाड़ गए

भुतहे घर में छोड़ गए हैं सौ-सौ छुतहे रोग।।


धोने वाले हाथ धो रहे

बहती गंगा में

अपने मन का सौदा करते

कर्फ्यू दंगा में

मिनटों में मैदान बनाते हैं आबादी को

लाठी आँसू गैस पुलिस का करते जहाँ प्रयोग।।


गुपतेसरा

गुपतेसरा ने खोली है दुकान गांव मे

काट रहा चाँदी वह बेईमान गाँव में।

गाँजा है, भाँग है, अफीम, चरस दारू है

ठेंगे पर देश और संविधान गाँव में।


चाय पान बीड़ी सिगरेट तो बहाना है

असली है चकलाघर बेज़ुबान गाँव में।

बम चाकू बंदूकों पिस्तौलों का धंधा

हथियारों की जैसे एक खान गाँव में।


बिमली का पिट गिरा कमली का फूला है

सोते हैं थाने के दो दीवान गाँव में।

खिसकी है पाँव की ज़मीन अभी थोड़ी सी

बाकी है गिरने को आसमान गाँव में।


सूखा है पाला है बाढ़ है वसूली है

किसको दे कंधे का हल किसान गाँव में।

गुपतेसरा गुंडा है और पहुँच वाला है

कैसे हो लोगों को इत्मीनान गाँव में।


बच्चू बाबू

बच्चू बाबू एम .ए. करके सात साल झख मारे

खेत बेंचकर पढ़े पढ़ाई उल्लू बने बिचारे


कितनी अर्ज़ी दिए न जाने कितना फूँके तापे

कितनी धूल न जाने फाँके कितना रस्ता नापे


लाई चना कहीं खा लेते कहीं बेंच पर सोते

बच्चू बाबू हूए छुहारा झोला ढोते-ढोते


उमर अधिक हो गई नौकरी कहीं नहीं मिल पाई

चौपट हुई गिरस्ती बीबी देने लगी दुहाई


बाप कहे आवारा भाई कहने लगे बिलल्ला

नाक फुला भौजाई कहती मरता नहीं निठल्ला


खून ग़‍रम हो गया एक दिन कब तक करते फाका

लोक लाज सब छोड़-छाड़कर लगे डालने डाका


बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा

सारा गाँव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा।


कैसी चली हवा

बूँद-बूँद सागर जलता है

पर्वत रवा-रवा

पत्ता-पत्ता चिनगी मालिक कैसी चली हवा।।


धुआँ-धुआँ चंदन वन सारा

चिता सरीखी धरती

बस्ती-बस्ती लगती जैसे

जलती हुई सती

बादल वरुण इंद्र को शायद मार गया लकवा।।


चोरी छिपे ज़िंदगी बिकती

वह भी पुड़िया-पुड़िया

किसने ऐसा पाप किया है

रोटी हो गई चिड़िया

देखें कब जूठा होता है मुर्चा लगा तवा।।


किसके लिए ध्वजारोहण अब

और सुबह की फेरी

बाबू भइया सब बोते हैं

नागफनी झरबेरी

ऐरे ग़ैरे नत्थू खैरे रोज़ दे रहे फतवा।।


अग्नि परीक्षा एक तरफ़ है

एक तरफ़ है कोप भवन

कभी अकेले कभी दुकेले

रोज़ हो रहा चीर हरण

फ़रियादी को कच्ची फाँसी कौन करे शिकवा।।

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