Tuesday, September 2, 2008

रघुवीर सहाय

अरे अब ऐसी कविता लिखो

कि जिसमें छंद घूमकर आय

घुमड़ता जाय देह में दर्द

कहीं पर एक बार ठहराय


कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं

वही दो बार शब्द बन जाय

बताऊं बार-बार वह अर्थ

भाषा अपने को दोहराय


अरे अब ऐसी कविता लिखो

कि कोई मूड़ नहीं मटकाय

कोई पुलक-पुलक रह जाय

कोई बेमतलब अकुलाय


छंद से जोड़ो अपना आप

कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय

थामकर हंसना-रोना आज

उदासी होनी की कह जाय

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