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जब दुपहरी जिन्दगी पर रोज सूरज
एक जॉबर-सा
बराबर रौब अपना गांठता-सा है
कि रोजी छूटने का डर हमें
फटकारता-सा काम दिन का बांटता-सा है
अचानक ही हमें बेखौफ करती तब
हमारी भूख की मुस्तैद आंखें ही
थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई
पास पा के भी
बुझा-सा ही रहा इस जिन्दगी के कारखाने में
उभरता भी रहा पर बैठता भी तो रहा
बेरुह इस काले जमाने में
जब दुपहरी जिन्दगी को रोज सूरज
जिन्न-सा पीछे पड़ा
रोज की इस राह पर
यों सुबह-शाम खयाल आते हैं....
आगाह करते से हमें.... ?
या बेराह करते से हमें ?
यह सुबह की धूल सुबह के इरादों-सी
सुनहली होकर हवा में ख्वाब लहराती
सिफत-से जिन्दगी में नई इज्जत, आब लहराती
दिलों के गुम्बजों में
बन्द बासी हवाओं के बादलों को दूर करती-सी
सुबह की राह के केसरिया
गली का मुंह अचानक चूमती-सी है
कि पैरों में हमारे नई मस्ती झूमती-सी है
सुबह की राह पर हम सीखचों को भूल इठलाते
चले जाते मिलों में मदरसों में
फतह पाने के लिए
क्या फतह के ये खयाल खयाल हैं
क्या सिर्फ धोखा है ?....
सवाल है।
(संभावित रचनाकाल 1948-50, अप्रकाशित)
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