Monday, November 23, 2009

डर जाने का डर


ऊंचे आसमानों,
उड़ान पर निकले पंछियों,
निहत्थे मछुआरों,
अपने अंतहीन आर-पार
और
खामोश तटों को
लहरें आंखें तरेरती हैं,
खारे पानी के बोझ से लदे-फदे
इस समुद्र के
अब बह जाने का डर है!

इसे दुर्गम-अलंघ्य
पहाड़ों से भी भय नहीं लगता
क्योंकि
उसके ग्लेशियर पिघलने लगे हैं,
मुरझाते फूल,
वनस्पतियां और जीव-जंतु,
सब उदास हैं,
राहगीरों को घूरते हैं
घाटियों-तलहटियों के निचाट सन्नाटे,
अब इन गगनजीवी चोटियों के
ढह जाने का डर है!

नदियां घबराई हुई हैं
कि अब उनके आकाशों में तने
पुल नहीं, उन पर से गुजरने वाली
सिर्फ ट्रेनें थरथराती हैं
और उनमें ठुंसे-कसे मुसाफिरों के झुंड भी,
जो कहीं-न-कहीं चले जा रहे हैं-
अपने-अपने बाल-बच्चों समेत
घाटों की भीख
या झोपड़ पट्टियों की टोह में
अब इन तेज रास्तों के
थम जाने का डर है!

समुद्र बहे-न-बहे,
चोटियां ढहें-न-ढहें,
रास्ते थमें-न-थमें,
जो हर बात से डर जाते हैं,
उनकी बचकानी आदतों का कोई क्या करे,
इतनी भी हिम्मत नहीं बची उनमें
कि अपनी आदतों से ही
वे बाज आ जाएं,
बाज आएं-न-आएं/ उनकी मौत तय है
एक-न-एक दिन!