Monday, May 18, 2009

मारे गए गुलफाम अरे हां....



जो हो रहा था, ठीक नहीं हो रहा था. अब जो होता दिख रहा है, ठीक हो रहा है. नंबूदरीपाद के जमाने से भारतीय संसदमार्गीय वामपंथी जिस डगर पर चल पड़े, लगातार सत्ता की मलाई खाते-खाते उनकी जीभ कुछ ज्यादा ही मोटी चली. एक बार इधर-उधर मुंह मारने की लत लग जाए तो फिर वह जान संग जाती है. खुदा खैर करे कि इस छद्म वामपंथ की जड़ें भी उखड़ जाएं, ताकि वाकई जिनके सीने में अभी दर्द है महकूमी का, वे देश के उत्पीड़ित लाखों-करोड़ों लोगों की आवाज बन सकें. इस महान सपने की राह में भाकपा-माकपा टाइप वामपंथी ही सबसे बड़े रोड़ा हैं. इनका हर गणित सत्ता का गणित होता है. सत्ता भी मजदूर-किसान हितों के लिए नहीं, पूंजीपतियों के छद्म पालतू ज्योतिर्मय बसुओं और बुद्धदेव भट्टाचार्यों की. ये बातें तो किसानों-मजदूरों की करते हैं, ताकि कलई न खुल जाए और हकीकत में कार्यनीतियां और चरित्र पूंजीपतियों के दलालों से भी ज्यादा घिनौना होता है. पश्चिमी बंगाल और केरल में प्रादेशिक सरकार में रहते-रहते इन छद्म वामपंथियों का दिमाग इतना खराब हो चला कि अन्य संसदमार्गियों की तरह ये भी खुला खेल दिखाने लगे.
भारतीय शोषित-दलित जनता (और बहुसंख्यक बुद्धिजीवियों) की मजबूरी ये है कि इन लाल नकाबपोशों को ही असली वामपंथी मान बैठे हैं. उनके दोगले चरित्र को ही आधार बनाकर कम्युनिज्म पर तरह-तरह की तोहमतें लगती रहती हैं. अब सबसे जरूरी ये लगता है कि सबसे पहले बूढ़े सोमनाथ-करात-येचुरी-बुद्धदेव आदि छद्मवामपंथियों का विनाश हो, फिर धुंध छटे और वे हिरावल दस्ते परिदृश्य में उभरें, जो वाकई देश के शोषितों-दलितों की लड़ाई लड़ रहे हैं. कैसी विडंबना है कि बूढ़े सोमनाथ-करात-येचुरी-बुद्धदेव जैसे दुरंगियों के कारण देश में बदनाम वामपंथ के कारण गुंडो-मवालियों की फौज के भरोसे घिनौती जातीय राजनीति करने वाला मुलायम सिंह भी अपनी पार्टी को समाजवादी कहता-फिरता है.
साफ-साफ जानिए कि करात-येचुरी, मायावती-मुलायम में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. मायावती-मुलायम तो भी अपनी स्पष्टता में इकहरे दिखते हैं. ये दोगले तो नकाबों के ऊपर कई-कई मोटी नकाबें ओढ़े हुए हैं. इन दुरंगियों के इसी दोहरेपन का फायदा उठाते हुए पश्चिमी बंगाल में इस बार जनता तृणमूल कांग्रेस के मिजाज में बैठ गई.
देश की आर्थिक नीतियों पर तो इन इन दुरंगियों की पोल पट्टी सन 1956 से ही खुल चुकी है, अब ले-देकर सांप्रदायिकता, अमेरिका आदि विषय ही इनके राजनीतिक बयानबाजियों के आधार रह गए हैं. इनके मजदूर संगठनों (सीटू-एटक) का हाल ये है कि वे जहां भी हैं, प्रबंधन की दलाली के अलावा मजदूरों की कोई लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं. इसी तरह इनके अन्य फ्रंटल संगठन भी सत्ता की मलाई उड़ाने के लिए बेकरार रहते हैं. चाहे वह किसान सभा हो, या नौजवान सभा. इसकी सच्चाई जानने के लिए इन पार्टियों के नेताओं और इनके फ्रंटल संगठनों के अगुवों की निजी जिंदगी में झांका जाए, तो सारी सच्चाई साफ-साफ नजर आने लगती है. ये घनघोर सुविधाजीवी अपनी जिंदगी सुखद रखने के लिए वामपंथ के नारों का गंदा इस्तेमाल कर भारतीय दलित-शोषित जनता की आंखों में पिछले चार-पांच दशकों से लगातार धूल झोंक रहे हैं और उन हिरावल दस्तों को पूंजीपतियों के सैन्य बलों से तबाह करवाने में जुटे हुए हैं. कुछ हिरावल दस्ते भी उन्हीं की राह चल पड़े हैं, जिनकी इस दौर में पहचान कर लेना उतना ही जरूरी है, जितना बंगाली-केरली बूढ़े दुरंगियों की.
कुछ दिन पहले तक ये दुरंगी पूंजीपतियों की पिछलग्गू छोटी पार्टियों के भरोसे थर्ड फ्रंट बना रहे थे. चुनाव नतीजे सामने आ जाने के बाद मुंह दुबकाकर कोटरों में शर्म से जा छिपे. बल्कि शर्म से नहीं, डर से. यहां तक कि 17-18 मई की बैठक करने से भी डर गए. वे कह रहे हैं कि अपनी पराजय की समीक्षा करेंगे. कैसी समीक्षा? एक लाइन में है पूरी समीक्षा कि अपने वामपंथी दोगलेपन से बाज आ जाओ, सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन वे तो अब कत्तई बाज आने से रहे. जीभ इतनी मोटी जो हो चली है. और खाल इतनी मोटी कि फूल कर तूमड़ा हो चले हैं. इन दुरंगियों के भरोसे ही खा-पीकर मुस्टंड हजारों-लाखों बुद्धि-बहादुर भी मन-ही-मन वामपंथी होने के आह्लाद में डूबे रहते हैं. काश कांग्रेस आगामी पांच सालों में इन दुरंगियों (सोमनाथ-करात-येचुरी-बुद्धदेव-मायावती-मुलायम जैसों) का पूरी तरह से सफाया करने में कामयाब हो जाए तो भारतीय दलित-शोषित जनता का इससे बड़ा लाभ और कुछ नहीं होगा. और होना यही है, मन से, या बे-मन से.
यह वामपंथ का कोढ़ तो खत्म होना ही है, उसे कांग्रेसी खत्म करें या देर-सबेर भारतीय जनता और उसके हिरवाल दस्ते.

1 comment:

RAJ said...

Nice Comment on Indian Cummunists...
They deserve to get a dead end.In last 3 decades they never tried to make a prosperous and happy Bengal.