Sunday, August 23, 2009
बेचारे नामवर सिंह
भैया मुझे कपिल सिब्बल के घर छोड़ देना। उनसे मिलना है. हाथ में लिफाफा। लिफाफे से पोस्ट कार्ड निकालते हुए महानआलोचक(ख) नामवर सिंह अपूर्व जोशी से फरमा रहे हैं. अपूर्वजोशी! अरे वही पाखी पत्रिका के संपादक. आज शाम दिल्लीआईटीओ के हिंदी भवन में पाखी का विशेष प्रोग्राम था।कथाकार संजीव, कवि शैलेय समेत पांच लोगों का सम्मान।राजेंद्र यादव मंच से नीचे. नामवर सिंह, संजीव, अपूर्व जोशी, कहानीकार सूर्यबाला, विश्वनाथ त्रिपाठी आदि मंच पर।कार्यक्रम दो सत्रों में हुआ. पहला सत्र तो पाखी के गुणगान में गुजर गया। .....ये किया, वो किया, ये कहा था, वो कहाथा.......अब ये करेंगे, वो करेंगे आदि-आदि. अहा-अहा....वाह-वाह.....तालियां-तालियां।
जैसा कि नामवर सिंह अक्सर झूठ बोलने में माहिर माने जाते हैं, यहां भी पत्रिका पाखी को बार-बार साखी बोलतेहुए बोलने लगे कि संजीव जैसा महान कथाकार उनकी आलोचना के दायरे से बचा कैसे रह गया. अब संजीव परलिख कर ही इस अपराधबोध का प्रायश्चित करूंगा. झूठ ये कि नामवर सिंह बिना किसी की कहानी, कविता, उपन्यास पढ़े उस पर टिप्पणी करने के लिए मशहूर (कुख्यात) हैं. खैर।
मंच के नीचे बैठे राजेंद्र यादव घुटे-घुटाए-से टुकर-टुकर सब कुछ सुनते जा रहे थे. जैसे ही कार्यक्रम समाप्त हुआ, झट पिछले दरवाजे से पहुंच गए पाइप वाला सुट्टा लगाने। सीढ़ी के सहारे सुट्टा-पर-सुट्टा। नामवर की बकवादको धुंआ में उड़ाते हुए। उधर नामवर बउआए-से बढ़ लिए गेट की ओर। दिल्ली हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करने वाला एकवकील उनके कान से मुंह सटाए जा रहा है.....जनाब, मुझ नाचीज को शायर फलाने कहते हैं. दो चार लाइने चेंप दीं. दांत चिआरे नामवर चुपचाप झेलते रहे, बीच-बीच में अगल-बगल वालों से पूछते जा रहे कि अरे वो पान वालाआया कि नहीं? उधर, अपूर्व जोशी बार-बार अपने शागिर्द से पूछ रहे, अरे वो आया कि नहीं! कोई नहीं समझ पारहा कि माजरा क्या है. लेकिन दो-चार मिनट में ही माजरा समझ में आ गया। आ गई एक लंबी-काली-सी कार. टन्न एसी वाली. नामवर ने जेब से लिफाफा निकाला। अपूर्व जोशी के कान फुसफुसाए। अपूर्व जोशी झट ड्राइवर केकान में फुसफुसाए....हां-हां, वहीं, कपिल सिब्बल के घर!
....तो नामवर जी को कपिल सिब्बल के घर जाना था. वर्धा यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति जो हैं. कोई टांका भिड़ानाहोगा। सिब्बल मानव संसाधन मंत्री हैं न। बेचारे अर्जुन सिंह का काम सिब्बल के मत्थे। सुना है कि अर्जुन सिंहसारा काम पहले ही निपटा गए हैं. स्कूलों में एक एडमिशन तक नहीं करा पा रहे। मुंह खोलें तो खबर बन जाएगी, सो चुपचाप सारी जलालत पिए जा रहे हैं. तो आज शाम की जलालत का घूंट नामवर सिंह के नाम।...बेचारे नामवरसिंह!! हिंदी आलोचना गई चूल्हे भाड़ में. भाई काशीनाथ को महान कथाकार बना ही चुके। अब काहे की आलोचना. वर्धा से दुहने में जुटे हुए हैं। पहले सहारा को दुह रहे थे। दिग्गज मार्क्सवादी आलोचक। धन्य हैं. धिक्कार है. इससेतो बढ़िया रामचंदर शुक्ला जी ही थे।
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5 comments:
हिंदी और हिंदी साहित्य को आम जन से दूर करने में इनकी वही भूमिका है जो संस्कृत के लिए हमारे पंडों ने निभाई थी. हिंदी की अर्थी तो इन्होने ही निकाली है. जो खुद कभी कभी कुछ लिख नहीं सके वो आलोचक बन गए और आलोचने में इतने व्यस्त कि बिना पढ़े ही आलोचना पेलते रहते हैं. मठाधीशी कायम रहे, लोग दायें - बाएं तेल लगाते रहें. बाकि हिंदी जब - तक खिलाती रहेगी, खाते रहेंगे.
thik hai.
नामवर जी अब उस स्थिति मे है कि विख्यात हो या कुख्यात उन्हे कोई फर्क नही पडता । मैने अपनी लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " दो बार उन्हे भेजी (पहल की ओर से ग्यान जी उन्हे पहले ही भेज चुके थे ) लेकिन उन्होने कोई तवज्जो नही दी । बहुत दिनो बाद मित्रों ने यह रहस्य खोला "अरे बावड़े, अशोक बाजपेयी जी जिस पर लिख चुके हों नामवर जी उसे छूते भी नही "। बहरहाल हम लोगों के लिये तो दिल्ली दूर ही है । मुहफट से यह चटपटी खबरें सुनने को मिल जाती हैं यह क्या कम है ।
इसे कहते है खरी-खरी।
नामवर सिंह पर इतना कुछ लिखने में जो वक्त आपने बरबाद किया है,
वह क्यों राष्ट्रीय क्षति मानी जाये ?
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