धूप की चिरैयाः तारादत्त निर्विरोध
उड़ती है पार-द्वार धूप की चिरैया ।
पानी के दर्पण में, बिम्ब नया उभरा,
बिखर गया दूर-पास, एक-एक कतरा ।
पलकों-सी मार गई धूप की चिरैया ।
पूरब में कुंकुम का, थाल सजा-सँवरा,
किरणों-सी दुलहन का, रूप और निखरा ।
आँगना गई बुहार धूप की चिरैया ।
यहाँ-वहाँ, इधर-उधर, फुदक-फुदक नाचे,
सुख-दुख की आँखों के, शब्दों को बाँचे ।
रोज़ पढ़े समाचार धूप की चिरैया ।
ओ री चिड़ियाः कृष्ण शलभ
जहाँ कहूँ मैं बोल बता दे
क्या जाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
चन्दा मामा के घर जाना
वहाँ पूछ कर इतना आना
आ करके सच-सच बतलाना
कब होगा धरती पर आना
कब जाएगी, बोल लौट कर
कब आएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
पास देख सूरज के जाना
जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना
दुबकी रहती धूप रात-भर
कहाँ? पूछना, मत घबराना
सूरज से किरणों का बटुआ
कब लाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना
पास बादलों के हो आना
हाँ, इतना पानी ले आना
उग जाए खेतों में दाना
उगा न दाना, बोल बता फिर
क्या खाएगी, ओ री चिड़िया
उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
कौन सिखाता है चिड़ियों को ः सोहनलाल द्विवेदी
कौन सिखाता है चिडियों को चीं चीं चीं चीं करना?
कौन सिखाता फुदक-फुदक कर उनको चलना फिरना?
कौन सिखाता फुर से उड़ना दाने चुग-चुग खाना?
कौन सिखाता तिनके ला-ला कर घोंसले बनाना?
कौन सिखाता है बच्चों का लालन-पालन उनको?
माँ का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको?
कुदरत का यह खेल, वही हम सबको, सब कुछ देती।
किन्तु नहीं बदले में हमसे वह कुछ भी है लेती।
हम सब उसके अंश कि जैसे तरू-पशु–पक्षी सारे।
हम सब उसके वंशज जैसे सूरज-चांद-सितारे।
चिड़िया और बच्चेः जगदीश व्योम
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ
बरस रहा बाहर पानी
बादल करता मनमानी
निकलूँगी तो भीगूँगी
नाक बजेगी सूँ सूँ सूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......
माँ बादल कैसा होता ?
क्या काजल जैसा होता
पानी कैसे ले जाता है ?
फिर इसको बरसाता क्यूँ ?
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ .......
मुझको उड़ना सिखला दो
बाहर क्या है दिखला दो
तुम घर में बैठा करना
उड़ूँ रात-दिन फर्रकफूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......
बाहर धरती बहुत बड़ी
घूम रही है चाक चढ़ी
पंख निकलने दे पहले
फिर उड़ लेना जी भर तूँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ .......
उड़ना तुझे सिखाऊँगी
बाहर खूब घुमाऊँगी
रात हो गई लोरी गा दूँ
सो जा, बोल रही म्याऊँ
चीं चीं चीं चीं चूँ चूँ चूँ चूँ
भूख लगी मैं क्या खाऊँ ?
लड्डू ले लोःमाखनलाल चतुर्वेदी
ले लो दो आने के चार
लड्डू राज गिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे खूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी खुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबू जी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।
2 comments:
मुँहफट जी
सागर से मोती निकाल कर हमारे लिए पेश करने के लिए शुक्रिया.
एक से एक उत्कृष्ट रचनाऐं लाये हैं, बहुत आभार आपका.
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