-यह पोस्ट उनके लिए है जो विश्व में अमेरिका की दादागिरी और आतंकवाद की बढ़ती भयावहता से चिंतित हैं.
-यह पोस्ट इसलिए उनके लिए है क्योंकि उन्हें यह जानना बहुत जरूरी है.
-यदि वे लोग जानते भी हैं तो उनके सामने आज इसे दुहराना भी उतना ही जरूरी है.
-वह भयावहता हमारी ओर, हम सबकी ओर बढ़ी आ रही है, आगे भी मुंबई अटैक जैसी घटनाओं से इनकार नहीं किया जा रहा है.
-अटैक हो जाने के बाद छाती पीटने से ज्यादा जरूरी है कि हम उन वजहों को शिद्दत से जान लें, जहां तक हो सके तैयार होते रहें कि अमेरिका और आतंकवाद ने किस तरह हमारी तमाम मुश्किलों पर जन एकता और रोष को मुखर नहीं होने दे रहा है. आतंकवाद की चुनौती के बहाने सरकारें उन आवाजों का गला घोंट रही हैं, जिनके लिए उठ खड़ा होना बहुत जरूरी था.
-उन चुनौतियों के सरकारी और विदेशी ढिढोरे ने हमारी बौद्धिक ईमानदारी को ललकारा है, हमारे समस्त जनपक्षधर प्रयासों को मसखरी में तब्दील कर दिया है.
-यह सच है कि देश का बहुत बड़ा बौद्धिक तबका जहां है, वहां से, जो भी है, जैसा भी है, अपनी आवाज को कुंद नहीं होने दे रहा है, उसे कत्तई आज के हालात रास नहीं आ रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ा चैलेंज है सबकी आवाज का एक स्वर, एक धुन में चल पड़ना.
-किसी भी तरह के खतरे से ज्यादा भयानक होती हैं चुप्पियां
-चुप्पियां सब कुछ छीन लेती हैं और छोड़ जाती हैं हमें नई चुप्पियों के अंधकार में.
-नोम चोम्स्की ने आतंकवाद की वजहों को जितनी बेबाकी, बारीकी और निरपेक्षता से उद्घाटित किया है, इस दौर में उसे जानते चलना बहुत जरूरी है, जबकि तालिबानी अंधेरा हमारी तरफ बढ़ा आ रहा है, जबकि आए दिन राजधानी या देश के अन्य किसी कोने में आतंकियों के छिपे होने की खबरें आम हो चली हैं.
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